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मंगलवार, 21 अक्टूबर 2008

लिव-इन-रिलेशनशिप क्या पसंद का मामला नहीं है?

मैं ने लिव-इन के बारे में कानूनी पहलू रखे। लेकिन इस संबंध के लिए एक गंभीर और महत्वपूर्ण सोच की तलाश में था। मैं पढ़ता रहा और पढ़ता रहा। मुझे जो पहला आलेख इस विषय पर गंभीरता के साथ विमर्श करता हुआ लगा, वह भोपाल के एक पत्रकार ब्लॉगर अजय का था। अजय ने यह आलेख अपने मित्रों और सहकर्मियों के साथ लम्बी बहस और इस विषय पर बहुत कुछ पढ़ने के बाद लिखा है। मैं उन के इस आलेख से बहुत प्रभावित हुआ और उन के तर्कों से सहमत भी।
मैं अजय से परिचित नहीं हूँ, लेकिन उन के अंग्रेजी ब्लॉग कैफे चॉट (cafechat) पर जो कुछ उन्हों ने इस संबंध में लिखा है वह बहुत महत्वपूर्ण है।
वे प्रश्न करते हैं कि क्या हम ने वास्तव में इस लिव-इन संबंध को समझते हैं? इस के बाद करीब पन्द्रह प्रश्नों को सामने रखते हुए अंत में कहते हैं कि क्या इस संबंध अर्थ यह है कि यह आवश्यक रूप से शारीरिक संबंधों के साथ आरंभ होता है? और यही वह बात है जो इस शोरगुल के पीछे खड़ी है या कथित विचारकों के जेहन में है। वे कहते हैं कि इस तरह आप विवाहपूर्व और विवाहेतर संबंधों को कानूनी शक्ल दे देंगे। पर क्या इस तरह के संबंध कानूनी शक्ल   दिए बिना भी कानून के अस्तित्व में नहीं है? और क्या इसे कानून की शक्ल दे देने के बाद भी बने नहीं रहेंगे? यदि हम भारत में किए गए सर्वेक्षणों को देखें तो आप के जबड़े घुटनों पर आ जाएंगे।
उन्होंने तथ्य प्रस्तुत करते हुए अनेक प्रश्न सामने रखे हैं।
जैसे ....
क्या गारंटी है कि पुरुष विवाह होने के बाद अपनी संगिनी को धोखा नहीं देगा?
क्या विवाह दो ऐसे व्यक्तियों को जो एक दूसरे के पसीने की गंध से वाकिफ नहीं उन्हें साथ सोने को कह देता है। क्या इसे पसंद का मामला नहीं होना चाहिए।
इस तरह के अनेक प्रश्नों पर वे विचार करते हैं। यदि आप को इस विषय में रुचि है और अंग्रेजी पढ़ने में आप को कोई परेशानी नहीं है तो आप को यह आलेख अवश्य ही पढ़ना चाहिए।  
आप चाहें तो यहाँ Is It Not A Matter Of Choice? पर जा कर उसे स्वयं पढ़ सकते हैं। हालांकि वे जो लिख रहे हैं यह उस का पहला भाग है। मैं समझता हूँ सभी भाग रोचक, महत्वपूर्ण और ज्ञानवर्धक होंगे।

शुक्रवार, 17 अक्टूबर 2008

बीस साल बाद? लौट रहा है उस का प्रेत

बीस साल पहले जिसे दफ़्न कर दिया गया था। नगर के बीच की दीवार गिरा दी गई थी और उस के मलबे के ढेर के नीचे उस की कब्र को दबा दिया गया था। कभी न खुल सके उस की कब्र। कोई भूले से भी उसे याद न करे। वह अच्छे बुरे सपनों में भी न आए। लेकिन अब उसी कब्र में प्रेत अब लौट रहा है। दुनिया के मशहूर खबरची रॉयटर ने यही खबर दी है।

बर्लिन की दीवार के गिरने के बीस साल बाद जर्मनी के पुस्तक विक्रेताओं के लिए 141 वर्ष पुरानी एक किताब बेस्ट सेलर हो गई है। जी, हाँ¡ यह साम्यवाद के संस्थापक पिता कार्ल मार्क्स की पूँजीवाद की आलोचनात्मक समीक्षा की पुस्तक दास कैपिटल (पूँजी) है। अकादमिक प्रकाशक दीत्ज़ वेर्लाग के लिए यह एक बेस्ट सेलर है। हर प्रकाशक सोचता था कि इस किताब को कभी कोई मांगेगा। लेकिन वे 1990 के मुकाबले दास कैपिटल सौ गुना प्रतियाँ बेच चुके हैं। यहाँ तक कि इन दिनों बैंकर्स और प्रबंधक दास कैपिटल पढ़ रहे हैं।

पूर्वी जर्मनी भारी बेरोजगारी से गुजर रहा है, ऐसे में कार्ल मार्क्स की वापसी को पूँजीवाद को खारिज करने के रूप में देखा जा रहा है। अमरीका में पिछले माह हुई भारी आर्थिक उथल पुथल और सरकारी बेल-आउट की श्रंखला जर्मनी और हर जगह पूँजीवाद विरोधी भावनाओं को पुनर्स्थापित कर रहा है।

एक ताजा सर्वे के अनुसार 52% पूर्वी जर्मनों की राय में स्वतंत्र बाजार की अर्थव्यवस्था उचित नहीं है। 43% की समझ है कि पूँजीवाद के मुकाबले समाजवाद बेहतर है। 46 वर्ष के एक आई टी प्रोफेशनल ने कहा कि हमने स्कूलों में पूँजीवाद की भयावहता के बारे में पढ़ा था, वह सब सही निकला। मेरा जीवन बर्लिन की दीवार गिरने के पहले बेहतर था। धन के बारे में किसी को दुख नहीं है क्यों कि उस का कोई महत्व नहीं है। आप नहीं चाहने पर भी आप के लिए एक नौकरी है, इस साम्यवादी विचार का कोई मुकाबला नहीं है। पूर्वी जर्मनी में बेरोजगारी 14 प्रतिशत है और वेतन कम हैं। जर्मनी के एकीकरण के बाद दसियों लाख नौकरियाँ चली गई हैं। बहुत से कारखाने पश्चिमी प्रतियोगियों ने खरीदे और उन्हें बंद कर के चले गए।

पुराने पूर्वी बर्लिन के एक 76 वर्षीय लुहार ने कहा कि मैं सोचता था कि साम्यवाद बुरा है लेकिन पूँजीवाद उस से भी बुरा है। स्वतंत्र बाजार क्रूर है, पूँजीपति अपने लिए और, और, और मुनाफा चाहते हैं। 46 वर्षीय क्लर्क मोनिका वेबर ने कहा कि मेरी सोच से पूँजीवाद  उचित व मानवीय व्यवस्था नहीं है। समृद्धि का वितरण अनुचित है, मेरे जैसे छोटे लोग देख रहे हैं कि लालची बेंकरों के संकट का भुगतान हम कर रहे हैं।

लेकिन सब ऐसा सोचने वाले नहीं है। कुछ यह भी कह रहे हैं कि पूँजीवाद बुरा है लेकिन समाजवाद में भी कुछ तो खामियाँ थीं।

खुश खबरी, जेट की छंटनी वापस, लोग चटनी न हुए

अभी अभी खबर मिली है कि जेट एयरवेज की छंटनी प्रबंधकों  ने वापस ले ली है। मेरे लिए इस से अच्छी खबर कोई नहीं हो सकती। मैं ने कोटा के जे.के. सिन्थेटिक्स लि. में 1983 जनवरी में हुई 2400 स्थाई कर्मचारियों की छंटनी और 5000 अन्य लोगों का बेरोजगार होना देखा है। उस छंटनी का अभिशाप कोटा नगर आज तक झेल रहा है। उस के बाद 1997 में जे. के. सिन्थेटिक्स के कोटा और झालावाड़ के सभी कारखानों का बंद होना और आज तक उन का हिसाब कायदे से नहीं देना भी देखा। उन कर्मचारियों और उन के परिवारों में से डेढ़ सैंकड़ा से अधिक को आत्महत्या करते भी देखा है। आज तक वे परिवार नहीं उठ पाए हैं।

जिस समस्या के हल के लिए छंटनी की जा रही थी। छंटनी उसे और तीव्र करती है। मंदी का मूल कारण था मुनाफे का लगातार पूंजीकरण और आम लोगों तक प्रगति का लाभ नहीं पहुँचना। जब आम लोगों तक धन पहुँचेगी ही नहीं तो बाजार में खरीददार आएगा कहाँ से? छंटनी से तो आप आम लोगों तक धन की पहुँच आप और कम कर रहे हैं। सीधा सीधा अर्थ है कि आप बाजार के संकुचन में वृद्धि कर रहे हैं। आग में घी ड़ाल रहे हैं।

इसी को कहते हैं, अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना। अपनी कब्र खुद अपने हाथों खोद डालना। पूँजीवाद यही करता है और कर रहा है। सदी पहले मंदी का दौर 15-16 वर्ष में आता था। सदी भर में यह 6-8 वर्ष रह गया। अब हालात है कि विश्व एक मंदी से उबर ही रहा होता है कि अगली मंदी की आगाज हो जाता है। सपने अंत तक देखें जाएँ उस के पहले ही टूट रहे हैं।

हम ने मार्क्सवाद और इतिहास के अंत की घोषणाएँ सुनी और उस पर विश्वास भी किया। समाजवाद को दफ्न कर दिया ताकि मनुष्यों को रौंदता पूँजीवाद अमर हो जाए। पर अमृत की तलाश तो सभी को थी। दास-युग, सामंतवाद को भी। वे अमर नहीं हो सके। कोई अमर नहीं है, सिवाय इस दिशा-काल-पदार्थ-ऊर्जा की इस शाश्वत व्यवस्था के। यह पूँजीवाद भी अमर नहीं। सोचना तो पड़ेगा कि मनुष्य समाज आगे किस व्यवस्था में प्रवेश करने वाला है?

मंगलवार, 14 अक्टूबर 2008

सुंदर कितना लगता है, पूनम का ये चांद,? शहर से बाहर आओ तो .......

स्मृति और विस्मृति पल पल आती है, और चली जाती हैं। कल तक स्मरण था। आज काम में विस्मृत हो गया। पूरा एक दिन बीच में से गायब हो गया। दिन में अदालत में किसी से कहा कल शरद पूनम है तो कहने लगा नहीं आज है। मैं मानने को तैयार नहीं। डायरी देखी तो सब ठीक हो गया। शरद पूनम आज ही है। शाम का भोजन स्मरण हो आया। कितने बरस से मंगलवार को एक समय शाम का भोजन चल रहा है स्मरण नहीं। शाम को घर पहुँचा तो शोभा को याद दिलाया आज शरद पूनम है। कहने लगी -आप ने सुबह बताया ही नहीं, मेरा तो व्रत ही रह जाता। वह तो पडौसन ने बता दिया तो मैं ने अखबार देख लिया।

- तो मैं दूध ले कर आऊँ?
- हाँ ले आओ, वरना शाम को भोग कैसे लगेगा? रात को छत पर क्या रखेंगे?
मुझे स्मरण हो आया अपना बालपन और किशोरपन। शाम होने के पहले ही मंदिर की छत पर पूर्व मुखी सिंहासन को  सफेद कपड़ों से सजाया जाता। संध्या आरती के बाद फिर से ठाकुर जी का श्रंगार होता। श्वेत वस्त्रों से। करीब साढ़े सात बजे, जब चंद्रमा बांस  भर आसमान चढ़ चुका होता। ठाकुर जी को खुले आसमान तले सिंहासन पर सजाया जाता। कोई रोशनी नहीं, चांदनी और चांदनी, केवल चांदनी। माँ मन्दिर की रसोई में खीर पकाती। साथ में सब्जी और देसी घी की पूरियाँ। फिर ठाकुर जी को भोग लगता। आरती होती। जीने से चढ़ कर दर्शनार्थी छत पर आ कर भीड़ लगाते। कई लोग अपने साथ खीर के कटोरे लाते उन्हें भी ठाकुर जी के भोग में शामिल किया जाता।

किशोर हो जाने के बाद से मेरी ड्यूटी लगती खीर का प्रसाद बांटने में। एक विशेष प्रकार की चम्मच थी चांदी की उस से एक चम्मच सभी को प्रसाद दिया जाता। हाथ में प्रसाद ले कर चल देते। लेकिन बच्चे उन्हें सम्हालना मुश्किल होता। वे एक बार ले कर दुबारा फिर अपना हाथ आगे कर देते। सब की सूरत याद रखनी पड़ती। दुबारा दिखते ही डांटना पड़ता। फिर भी अनेक थे जो दो बार नहीं तीन बार भी लेने में सफल हो जाते।

कहते हैं शरद पूनम की रात अमृत बरसता है। किसने परखा? पर यह विश्वास आज भी उतना ही है। जब चांद की धरती पर मनुष्य अपने कदमों की छाप कई बार छोड़ कर आ चुका है। सब जानते हैं चांदनी कुछ नहीं, सूरज का परावर्तित प्रकाश है। सब जानते हैं चांदनी में कोई अमृत नहीं। फिर भी शरद की रात आने के पहले खीर बनाना और रात चांदनी में रख उस के अमृतमय हो जाने का इंतजार करना बरकरार है।

शहरों में अब शोर है, चकाचौंध है रोशनी की। चकाचौंध में हिंसा है। और रात में किसी भी कृत्रिम स्रोत के  प्रकाश के बिना कुछ पल, कुछ घड़ी या एक-दो प्रहर शरद-पूनम की चांदनी में बिताने की इच्छा एक प्यास है। वह चांदनी पल भर को ही मिल जाए, तो मानो अमृत मिल गया। अमर हो गए। अब मृत्यु भी आ जाए कोई परवाह नहीं। भले ही दूसरे दिन यह अहसास चला जाए। पर एक रात को यह रहे, वह भी अमृत से क्या कम है।

साढ़े सात बजे दूध वाले के पास जा कर आया। दूध नहीं था। कहने लगा आज गांव से दूध कम आया और शरद पूनम की मांग के कारण जल्दी समाप्त हो गया। फिर शरद पूनम कैसे होगी?  कैसे बनेगी खीर? और क्या आज की रात अमृत बरसा, तो कैसे रोका जाएगा उसे? उसे तो केवल एक धवल दुग्ध की धवल अक्षतों के साथ बनी खीर ही रोक सकती है। दूध वाले से आश्वासन मिला, दूध रात साढ़े नौ तक आ रहा है। मैं ले कर आ रहा हूँ। मेरे जान में जान आई। घर लौटा तो शोभा ने कहा स्नान कर के भोजन कर लो। जब दूध आएगा, खीर बन जाएगी। रात को छत पर चांदनी में रख अमृत सहेजेंगे। प्रसाद आज नहीं सुबह लेंगे। पूनम को नहीं कार्तिक के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को।

मैं ने वही किया जो गृहमंत्रालय का फरमान था। अब बैठा हूँ, दूग्धदाता की प्रतीक्षा में। दस बज चुके हैं। वह आने ही वाला होगा। टेलीफोन कर पूछूँ? या खुद ही चला जाऊँ लेने? मैं उधर गया और वह इधर आया तो? टेलीफोन ही ठीक रहेगा।

मैं बाहर आ कर देखता हूँ। चांद भला लग रहा है। जैसे आज के दिन ही उस का ब्याह हुआ हो। लेकिन ये दशहरा मेले की रोशनियाँ, शहर की स्ट्रीट लाइटस् और पार्क के खंबों की रोशनियाँ कहीं चांद को मुहँ चिढ़ा रही हैं जैसे कह रही हों अब जहाँ हम हैं तुम्हें कौन पूछता है? मेरा दिल कहता है थोड़ी देर के लिए बिजली चली जाए। मैं चांद को देख लूँ। चांद मुझे देखे अपनी रोशनी में। मैं सोचता हूँ, मेरी कामना पूरी हो,  बिजली चली जाए उस से पहले मैं इस आलेख को पोस्ट कर दूँ। मेरी अवचेतना में किसी ग्रामीण का स्वर सुनाई देता है ......

सुंदर कितना लगता है? पूनम का ये चांद,
जरा शहर से बाहर आओगे तो जानोगे,
खंबों टंगी बिजलियाँ बुझाओ तो जानोगे........


पुनश्चः - दूध वाला नहीं आया।  आए कमल जी मेरे कनिष्ठ अधिवक्ता। मैं ने कहा - दूध लाएँ? वह अपनी बाइक ले कर तैयार दूध वाला गायब दुकान बंद कर गया। उसे कोसा। अगली दुकान भी बंद। कमल जी ने बाइक अगले बाजार में मोड़ी। वहाँ दूध की दुकान खुली थी। मालिक खुद बैठा था। उस के खिलाफ कुछ दिन पहले तक मुकदमा लड़ा था। मैं ने कहा - दूध दो बढ़िया वाला।
उस ने नौकर को बोला - प्योर वाला देना।

दूध ले कर आए। अब खीर पक रही है।
फिर जाएंगे उसे ले कर छत पर। अमृत घोलेंगे उस में। घड़ी, दो घड़ी।
अब बिजली चली ही जाना चाहिए, घड़ी भर के लिए......

कोटा के कोचिंग छात्रों पर पुलिस का शिकंजा

श्री वी के बंसल बसंल क्लासेज कोटा 
के संचालक और उन के संस्थान की 
नयी इमारत
कुछ दिनों से यह सिलसिला चल रहा है। कोटा शहर में अपराधों की बाढ़ अचानक नहीं आयी है। यह कुछ राजनीति के चलते पुलिस का अपाराध नियंत्रण ढीला होते जाने का असर है। कोटा में 60-70 विद्यार्थी पूरे देश से आईआईटी, इंजिनियरिंग और मेडीकल कोर्सों में दाखिले के लिए कोचिंग करने आते हैं। कोटा के बंसल क्लासेज, एलन कैरियर, कैरियर पाइंट और रेजोनेन्स आदि कोचिंग संस्थान देश में ही नहीं विदेशों में भी लोकप्रिय हैं। इन के अलावा सैंकड़ों शिक्षक हैं जो पूरे श्रम और काबिलियत से छात्रों को ट्यूशन प्रदान करते हैं। इन संस्थानों में आने वाले विद्यार्थी अधिकतर विज्ञाननगर, तलवंडी, महावीर नगर, इन्द्रविहारऔर कैशवपुरा में किराये के मकानों और छात्रावासों में अपने अस्थाई घोंसले बनाते हैं। बाहर से आए इन विद्यार्थियों के बीच सभी पढ़ने वाले हों यह आवश्यक नहीं। इन में अनेक धनिक परिवारों के विद्रोही भी हैं जो घर के पैसे पर साल दो साल मौज करने यहाँ आते हैं और उन में से अनेक अपराधों में लिप्त हो जाते हैं। इन इलाकों में अपरिचिच चेहरों के बीच अपराधियों को छुपने का भी अच्छा अवसर प्राप्त हो सकता है।

इन अल्पवय विद्यार्थियों के साथ मोबाइल चुरा लेना, पैसे चुरा लेना लड़कियों को छेड़ना आदि छोटे अपराध होते रहते हैं। लेकिन इन इलाकों में कुछ बहुत गंभीर अपराध डकैती और हत्याओं के हुए हैं। पुलिस अपने ही अनियंत्रण से परेशान है। उस ने पिछले दिनों नयी युक्ति निकाली कि ऐसे छात्रों की सूचियाँ कोचिंग संस्थानों से मांगी जो अनियमित हैं या बहुत लंबे समय तक अनुपस्थित रहे हैं। उन की जाँच किये बिना या जाँच कर के उन्हें कोचिंग संस्थानों से नोटिस दिलवाये गए हैं। अनेक छात्र जो बीमारी या दूसरे वाजिब कारणों से कुछ दिनों से अपने संस्थानों से गैरहाजिर रहे थे उन्हें भी नोटिस मिल गए वे भी परेशान हैं। नतीजा यह कि बात टीवी चैनलों तक पहुँच गई और कल उस पर रिपोर्ट पढ़ने को मिली।

आज खबर है कि पुलिस ने 500 छात्रों की सूचि बना ली है। दो पुलिस थानों को उन्हें जाँचने की जिम्मेदारी दे कर विशेष दल बनाया गया है। पहले पुलिस मामूली शिकायतों पर छात्रों को डरा धमका कर, समझा कर, समझौता करवा कर छोड़ दिया करता था। लेकिन अब गलती पर हिदायत देने के बजाय सीधे एफआईआर दर्ज की जाएगी। पूरी तरह भटका हुआ पाए जाने पर छात्र के अभिभावकों को सूचित करेगा और उसे वापस घर भिजवाने की व्यवस्था कर देगा।
इस से बड़े अपराध तो क्या कम होंगे? लेकिन छात्रों पर अंकुश जरूर लग जाएगा।

रविवार, 12 अक्टूबर 2008

रावण कैसे मरे?

रावण कैसे मरे? 
  • दिनेशराय द्विवेदी
इस साल नगर निगम ने 
रावण के पुतले के लिए 
ढाई लाख मंजूर किए। 

15% का रावण बना,
बाकी रकम गई 
महापौर, सीईओ, आयुक्त  
और बाबुओं की जेब में।

इलाके के मंत्री भी शामिल थे।
रावण मरा केवल 15%  
85% जिन्दा रहा।
 
आप बताएँ 
रावण कैसे मरे?

शनिवार, 11 अक्टूबर 2008

लिव-इन-रिलेशनशिप 65% से अधिक भारतीय समाज की वास्तविकता है

समाज और लोग कितना ही नाक भौंह सिकोडें, कितने ही कुढ़ लें और कितनी ही आलोचना कर लें। लिव-इन-रिलेशन (सहावासी) रिश्ता अब एक ठोस वास्तविकता है, इस नकारा जाना नामुमकिन है। विवाह जहाँ एक सामाजिक बन्धन है वहीं इस रिश्ते में सामाजिक मुक्ति है। न कोई सामाजिक दायित्व है और न ही कोई कर्तव्य। कोई एक दूसरे के लिए कुछ दायित्व समझता भी है, तो बिना किसी दबाव के। एक पुरुष और एक स्त्री साथ रहने लगते हैं। वे किसी सामाजिक और कानूनी बंधन में नहीं बंधते। फिर भी उन के बीच एक बंधन है। क्या चीज  है? जो उन्हें बांधती है। यह अब एक शोध का विषय हो सकता है। इस विषय पर सामाजिक विज्ञानी काम कर सकते हैं। "भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष के बीच सहावासी संबंध" समाज विज्ञान के किसी विद्यार्थी के लिए पीएचडी का विषय हो सकता है। हो सकता है कि किसी विश्वविद्यालय ने इस विषय का पंजीयन कर लिया ह,  न भी किया हो तो शीघ्र ही भारतीय विश्वविद्यालयों के लिए सहावासी संबंध शोध के लिए लोकप्रिय होने वाला है और अनेक लोग इसे पंजीकृत करवाने वाले हैं।

समाज सदैव से एक जैसा नहीं रहा है। आदिम युग से ले कर आज तक उसने अनेक रूप बदले हैं। समाज की इकाई परिवार भी अनेक रूप धारण कर आज के विकसित परिवार तक पहुँचा है। पुरुष और स्त्री के मध्य संबंधों ने भी अनेक रूप बदले हैं और अभी भी रूप बदला जा रहा है। सहावास का रिश्ता जब इक्का दुक्का था, समाज को इस से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था, केवल निन्दा और बहिष्कार से काम चल जाता था।। लेकिन जब उस ने विस्तार पाना प्रारंभ कर दिया तो समाज के माथे पर लकीरें खिंचनी शुरू हो गई। भारत की सर्वोच्च अदालत ने कहा -कि जो पुरुष पहली पत्नी के साथ संबंध विच्छेद किए बिना, किसी भी एक पक्ष के रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह कर दूसरी पत्नी के साथ रहने लगते हैं। ऐसे विवाह को पर्सनल कानून के अनुसार साबित करना असंभव हो जाता है। इस कथन पर अपराधिक न्याय व्यवस्था पर मालीमथ कमेटी की रिपोर्ट ने महिलाओं के विरुद्ध अपराधों के सम्बन्ध में अपनी बात रखते हुए कहा -कि जब एक पुरुष और स्त्री एक लम्बे समय तक पति-पत्नी की तरह साथ रहने की साक्ष्य आ  जाए तो यह मान लेने के लिए पर्याप्त होना चाहिए कि वे अपने रीति रिवाजों के अनुसार विवाह कर चुके हैं। ऐसी स्थिति में किसी पुरुष के पास अपनी इस दूसरी पत्नी के भरण पोषण से बचने का यह मार्ग शेष नहीं रहना चाहिए कि वह महिला पुरुष की विधिवत विवाहित पत्नी नहीं है।

सर्वोच्च न्यायालय के इस प्रेक्षण और मालिमथ कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर ही महाराष्ट्र सरकार ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के पत्नी शब्द के स्पष्टीकरण में इस संशोधन का प्रस्ताव किया है कि उचित समय तक सहावासी रिश्ते के रूप में निवास करने वाली स्त्री को भी पत्नी माना जाएगा। ( इस संबंध में एक आलेख लिव-इन-रिलेशनशिप और पत्नी पर बेमानी बहस तीसरा खंबा पर पढ़ा जा सकता है।)

इस मसले पर समस्त माध्यमों में बहस प्रारंभ हो गई है, और बिना सोचे समझे दूर तक जा रही है। लेकिन न्यायालय ने तो केवल समाज की वर्तमान स्थिति में न्याय करने में हो रही कठिनाइयों का उल्लेख किया था। उस कठिनाई को हल करने के लिए विधायिका एक कदम उठा रही है। वास्तव में यह रिश्ता एक सामाजिक यथार्थ बन चुका है।

भारतीय समाज में अनुसूचित जातियों की जनसंख्या 16.2 % अनुसूचित जन जातियों की जनसंख्या 8.2 % तथा अन्य पिछड़ी जातियों की जनसंख्या 41.1% है। इन तीनों की कुल जनसंख्या देश की 65.5 % है और लगभग इन सभी जातियों में नाता प्रथा है। अर्थात दूसरा विवाह कर लेने का रीति रिवाज कायम है और ये समाज इस सहावासी रिश्ते को मान्यता देते हैं। तब यदि कानून इस रिश्ते को अनदेखा कर दे तो वहाँ पारिवारिक न्याय कर पाना और पारिवारिक अपराधों को रोक पाना कठिन हो जाएगा, और यह हो रहा है।

इस विषय पर जो लम्बी-चौड़ी नैतिक बहसें चल रही हैं, उन्हें कुलीन समाज का विलाप मात्र  ही कहा जा सकता है कि देश का कानून यदि 65% जनता को मान्य रिश्ते को कानूनी रुप प्रदान करता है तो इस से कुलीन समाज और विवाह संस्था की पवित्रता नष्ट हो जाएगी।