@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

मंगलवार, 15 अप्रैल 2008

सब बातें छोड़ कर सोचिए पहले खाने के बारे में

आज से राजस्थान में अदालतें सुबह की हो गईं हैं जो 30 जून तक रहेंगी। अब सुबह सात से साढ़े बारह की अदालत है। लेकिन परिवार न्यायालय, श्रम न्यायालय, राजस्व न्यायालय का समय पहले की तरह दस से पाँच बजे तक ही रहेगा। यहाँ यह सुविधा दे दी गई है कि खुले न्यायालय का समय डेढ़ बजे तक रहेगा उस के बाद अदालतें चेम्बर का और कार्यालय का काम निपटाएंगी। हम इस तरह हम अब साढ़े सात बजे घर से निकला करेंगे और तकरीबन दो बजे से तीन बजे के बीच घर वापसी संभव हो सकेगी। शाम को सात से दस, साढ़े दस बजे तक अपना वकालत का दफ्तर करना पड़ेगा। कुछ काम शेष होने पर देर रात तक भी काम करना पड़ सकता है। इस में अपनी चिट्ठाकारी के लिए समय चुराना कितना दुष्कर हो जाएगा आप समझ सकते हैं।

आज सुबह जल्दी पौने पाँच पर ही उठ जाना पड़ा। तैयार होते होते सात बज गए। बीच में समय मिला तो कुछ चिट्ठों पर आलेख पढ़े। लेकिन इन सब पर कमेटिया नहीं पाए, इतना समय नहीं था। सुबह पढे गए चिट्ठे भ्रष्टाचार की पाठशाला, Dr. Chandra Kumar Jain's Home, फुरसतिया, नौ दो ग्यारह, घुघूती बासूती, शब्‍दों का सफ़र, आलोक पुराणिक की अगड़म बगड़म, ज्ञानदत्त पाण्डेय की मानसिक हलचल, हैं। मैं ने सुबह ही इन के नाम नोट कर लिए थे। फिर साढ़े सात अदालत के लिए निकल लिए। आ कर कुछ घरेलू काम निपटाए। फिर थोड़ा विश्राम, और फिर पांच बजे से लग गए अपने काम पर। अभी काम का एक हिस्सा पूरा कर साढ़े दस बजे निपटा हूँ। इस बीच शाम सात बजे भोजन भी किया है।

दिन में अदालत से आ कर भी कुछ चिट्ठे पढ़े सब कुछ सामान्य सा लगा। अभी रात को इंक़लाब: पर "अब पहले खाने के बारे में सोचिए!" पढ़ा। आज का सब से सार्थक आलेख है। जैसा विषय था और जिस गंभीरता के साथ सत्येन्द्र रंजन ने इसे लिखने का श्रम किया है। उसे इस आलेख को पढ़ कर ही जाना जा सकता है। इस आलेख में दुनियाँ भर में गहरा रहे अनाज संकट का उल्लेख है। जिसे पढ़ कर लगा कि सुबह पुराणिक जी जिस आटे के लिए ईएमआई और बैंक लोन की बात कर रहे थे वह मजाक नहीं अपितु एक सचाई हो सकती है आने वाले समय में। इस भोजन की समस्या पर विचार करते समय। उन्हों ने दुनिय़ाँ के विकास की दिशा पर विचार किया और लगा कि दिशा की त्रुटि ही समस्याओं की मूल है। इस के साथ साथ माँसाहार के बढ़ने, किसानों का खाद्य फसलों के स्थान पर औद्योगिक फसलों की ओर झुकाव और उद्योगों व सरकारों द्वारा इस के लिए प्रोत्साहन आदि बिन्दुओं पर चर्चा करते हुए इस नतीजे पर पहुँचा गया है कि तमाम प्रश्नों को ताक पर रख कर दुनियाँ को खाद्य समस्या हल करनी होगी अन्यथा सभ्यता एक बहुत बड़े संकट का सामना करने वाली है जो मानव के समस्त सपनों के लिए कब्रगाह बन सकती है।

सत्येन्द्र रंजन के इस आलेख को पढ़ने के उपरांत किसी चीज में मन न लगा। आप खुद सोचिए ¡ क्या यह सबसे पहले हल की जाने वाली समस्या है, या नहीं? क्या यह अनियंत्रित वैश्वीकरण दुनियाँ को किसी अनजाने संकट की और तो नहीं धकेल रहा है? और क्या जिस समाज नियंत्रित अर्थव्यवस्था को मार्क्सवादी सोच कह कर तिलाँजलि दे दी गई थी उस पर तुरंत पुनर्विचार की आवश्यकता तो नहीं है, इस मानव समाज को बचाने के लिए?

आप का क्या सोचना है। "अब पहले खाने के बारे में सोचिए!" पढ़ कर बताएं।

शनिवार, 12 अप्रैल 2008

कहाँ फँसा दिया? ज्ञान जी! शुद्ध-अशुद्ध 'हटमल' के चक्कर में

कहाँ फँसा दिया?

हम भी जा पहुँचे ज्ञान जी के बताए रास्ते से शुद्धता जँचवाने शुद्धता जांचक साइट पर, और लौट कर बुद्धू घर आ गए।
हमें ये शुद्धता जाँच बिलकुल फर्जी लगी। उसी तरह

जैसे वाहन बरकशॉ.. वाले का मुफ्त जाँच शिविर। जाँच कराने को मेला लगे है, वहाँ। फिर वह बतावै, के क्या-क्या कमियाँ हो गई हैं, फिर अपनी बरकशॉ.. पर जाने का कारड देवै है। अब मुफ्त जाँच करवाने वालों में से आधे-परधे तो पहुँच ही जावैं।

हम पहले बोलना सीखे, फिर पढ़ना, फिर लिखना सीखे। तीसरी कक्षा में भर्ती हुए, हिन्दी, विज्ञान और सामाजिक में अव्वल रहै,  गणित तो दादाजी की सिखाई थी, सो परचे के सारे सवाल कर नीचे लिखते कोई से पाँच सवाल जाँचना लेना, हमने  परचे में ऊपर लिखी चेतावनी सवाल करने के बाद पढ़ी, अब ये समझ ना आए की कौन सा हल काटें, किसको रक्खें, सब अपने ही किए धरे हैं।  

पाँचवीं तक स्कूल के मेधावी छात्र माने गए। छठी में हिन्दी के गुरूजी ने व्याकरण और उच्चारण का  ज्ञान दिया। तब लगा कि क्या-क्या गलतियाँ करते आए थे। उन नियमों के मुताबिक हिन्दी लिखने का प्रयास करते तो सभी परचे ब्रह्माण्ड (0) दर्शन करवा देते।

ये ही हाल अंग्रेजी का हुआ। बरसों तक हम व्याकरण के मुताबिक अंग्रेजी लिखते रहे। आज तक सफलता के दर्शन नहीं हुए। और गति बनी ही नहीं। फिर व्याकरण छोड़ा, त्यागी हुए, अपने मरजी-मुताबिक लिखने लगे तो अच्छे-अच्छे तारीफ कर गए। हाँलाकि उन में से कोई व्याकरण जानकार नहीं था। वह तो पबलिक थी, और पबलिक व्याकरण के नियम नहीं देखती। देखती है उस की समझ आया या नहीं और काम का है या नहीं। व्याकरण के हिसाब से काम करने वाली पारटियाँ कबर में दफ़न हो गई। जिसने मारकिट देखा उसने गुरूशिखर पर झंड़ा जा गाड़ा।
कानून के मुताबिक जिन्दगी जीने लग जाँय, तो पाजामे में मूतना पड़ जाय। जिन्दगी को जिन्दगी के हिसाब से जियो। रेल को पटरियों पर दौड़ने दो। रेल इस्पात की हो या रबर की। हमारा ध्येय चलना है। रुक गए तो गलतियां गिनने में में ही उमर निकल जानी है, ठीक करना कराना तो दूर का डोल। जिस ने मरज़ दिया वही दवाई देगा, जिस ने चोंच दी वही चुग्गा भी देगा। जे आदमी का बच्चा है जिस को चोंच नहीं मिली। मिले तो, मिले हाथ पाँव, उनको लेकर परेशान है। जिस ने शुद्धता-जाँच-मापक-जंत्र बनाया है, उस को अशुद्ध 'हटमल' को शुद्ध करने का जंतर भी बनाने दो। फिर इस्तेमाल करेंगे। उस को। काहे पचड़े में पड़ो। अपना काम लिखने का है, बस लिखते रहो। आखिर किसी ने 'अक्वा गार्ड' भी तो बनाया है, सब अपने अपने किचन में लगवाए हैं कि नहीं?

बुधवार, 9 अप्रैल 2008

'भँवर म्हाने पूजण दो गणगौर'

वसंत ऋतु में प्रिया और प्रियतम का संग मिले तो कोई भी साथ को पल भर के लिए भी नहीं छोड़ना चाहता है। राजस्थान में वसंत के बीतते ही भयंकर ग्रीष्म का आगमन होने वाला है। आग बरसाता हूआ सूरज, कलेजे को छलनी कर देने और तन का जल सोख लेने वाली तेज लू के तेज थपेड़े बस आने ही वाले हैं।

ऐसे निकट भविष्य के पहले मदमाते वसंत में प्रियतम भी नहीं चाहता कि प्रिया का संग क्षण भर को भी छूटे। लेकिन प्रिया को ऐसे में भी ईशर-गौर (शंकर-पार्वती) का आभार करना स्मरण है। उस ने कुंवारे पन से ही उन से लगातार प्रार्थना की है कि उस की भी जोड़ वैसी ही बनाए जैसी उन की है। उस में भी उतना ही प्यार हो जैसा उन में है।

प्रियतम प्रिया को छोड़ना नहीं चाहता है। लेकिन प्रिया को ईशर-गौर (शंकर-पार्वती) का आभार करना है। वह अपने मधुर स्वरों में गाती है-

'भँवर म्हाने पूजण दो गणगौर'

यह उस लोक गीत का मुखड़ा है जो होली के दूसरे दिन से ही राजस्थान में गाया जा रहा था। कल राजस्थान में गणगौर का त्यौहार मनाया गया। इस गीत में पति को भँवर यानी भ्रमर की उपमा प्रदान की गई है। जो वसंत में किसी प्रकार से फूल को नहीं छोड़ना चाहता है।

जब प्रियतम को यह पता लगा कि उसे पाने का आभार करने के लिए प्रिया उससे कुछ समय अलग होना चाहती है तो वह भी उस के उस अनुष्ठान में सहायक बन जाता है। वह उसे सजने का अवसर और साधन प्रदान करता है।

हमारे यहाँ भी गणगौर मनाई गई परम्परागत रूप में। मेरी जीवन संगिनी शोभा ने तीन-चार दिन पहले ही चने और दाल के नमकीन और गेहूँ-गुड़ के मीठे गुणे बनाए। एक दिन पहले रात को मेहंदी लगाई। सुबह-सुबह जल्दी काम निपटा कर तैयार हो गई और पूजा की तैयारी की। गौरी माँ के लिए बेसन की लोई से गहने बनाए गए।

गणगौर की पूजा आम तौर पर घरों पर ही की जाती है। महिलाएं गण-गौर की मिट्टी की प्रतिमा बाजार से लाती हैं और होली के दूसरे दिन से ही उस की पूजा की जाती है। गीत गाए जाते हैं। कुँवारी लड़कियाँ इस पूजा में रुचि लेकर शामिल होती हैं। अनेक मुहल्लों में किसी एक घर में गणगौर ले आई जाती है और उसी घर में मुहल्ले की महिलाएं एकत्र हो कर पूजा करती हैं। मेरी पत्नी दो वर्षों से मुहल्ले के स्थान पर मंदिर में जा कर शिव-पार्वती की पूजा करती है। वहाँ उस दिन दर्शनार्थियों का अभाव होता है। पूजा मजे में आराम से की जा सकती है। वह कहती है कि वह पूजा करनी चाहिए जिस से मन को शांति मिले। सुबह साढ़े दस बजे हम उन्हें ले कर मंदिर गए। वे पूजा करती रहीं। हम वहाँ पुजारी जी से बतियाते रहे।

बेटी मुम्बई में है। वहाँ से खबर है कि उस ने भी उसी तरह से पूजा की जैसे यहाँ उस की माँ ने की। उस ने भी बेसन के गहने बनाए और पास के मंदिर में पार्वती की प्रतिमा को सजा कर पूजा की। दोनों ने ही मंदिरों में पूजा की और दोनों ही मंदिरों में पूजा करने वाली अकेली थीं।

मेरे जन्म स्थान में गणगौर धूमधाम से मनाई जाती थी। गणगौर वहाँ केवल महिलाओं का त्योहार नहीं था। अपितु उसने पूरी तरह से वंसंतोत्सव का रूप लिया हुआ था। उसके बारे में किसी अगली पोस्ट में...........

सोमवार, 7 अप्रैल 2008

पखवाड़े भर नीम कोंपलों की गोलियाँ सेवन करें और मौसमी रोगों से दूर रहें

नव सम्वतसर के अवसर पर अनवरत और तीसरा खंबा के सभी पाठकों को शुभ कामनाएं।

जी हाँ, एक और नव-वर्ष प्रारंभ हो गया है, हमारे लोक जीवन में इस का बहुत महत्व है। इन दिनों दिन और रात की अवधि बराबर होती है। कभी मौसम में ठंडक होती है तो कभी गरमी सताती है। सर्दी के मौसम के फलों और सब्जियों का स्वाद चला जाता है। ग्रीष्म के फल और सब्जियाँ अपना महत्व बताने लगते हैं। भोजन में हरे धनिये की चटनी का स्थान पुदीना ले लेता है। कच्चे आम के अचार में स्वाद आने लगता है। बाजार में ठंडे पेय की बिक्री बढ़ जाती है। खान-पान पूरी तरह बदल जाता है।

अब हमारे पाचन तंत्र को भी इन नये खाद्यों के लिए नए सिरे से अभ्यास करना पड़ता है। जब भी हम कोई पुराना अभ्यास छोड़ते हैं और नया अपनाते हैं तो संक्रमण काल में कुछ नया करना होता है। इन दिनों यदि हम कम भोजन करें, अन्न के स्थान पर फलाहारी हो जाएं अथवा एक समय अन्न और एक समय फलाहारी रहें और वह भी आवश्यकता से कुछ कम लें तो इस संक्रमण काल को ठीक से निबाह सकते हैं।

शायद यही कारण है कि मौसम के इस संधि-काल में हमारे पूर्वजों ने नवरात्र का प्रावधान किया। जिस में व्रत-उपवास रखना, एक-दो घंटे स्वाध्याय करना शामिल किया। इस से संक्रमण काल को सही तरीके से बिताया जा सकता है, पुराने खाद्य का अभ्यास छूट जाता है और नए को अपनाना सुगम हो जाता है।

मैं चार-पाँच वर्षों से एक समय अन्न और एक समय फलाहार कर रहा हूँ। इस का नतीजा है कि मैं मौसमी रोगों का शिकार होने से बच रहा हूँ। विशेष रुप से उदर रोगों से।

आप को यह भी स्मरण करवा दूँ कि ऐसा ही मौसम परिवर्तन सितम्बर-अक्टूबर में भी होता है। उस समय शारदीय नवरात्र होते हैं।

एक और परम्परा याद आ रही है। दादाजी के सौजन्य से वे चैत्र की प्रतिपदा से नव-वर्ष के पहले दिन से नीम की कोंपलों को काली मिर्च के साथ पीस कर उस की कंचे जितनी बड़ी गोलियाँ बना लेते थे। सुबह मंगला आरती के बाद उन का भगवान को भोग लगाते और मंदिर में आए सभी दर्शनार्थियों को एक एक गोली प्रसाद के रूप में वितरित करते थे। हमें तो दो गोली प्रतिदिन खाना अनिवार्य था। उन का कहना था कि एक पखवाड़े, अर्थात पूर्णिमा तक इन के खाली पेट खा लेने से पूरे वर्ष मौसमी रोग नहीं सताते। शायद शरीर की इम्युनिटी बढ़ाने का उन का यह परंपरागत तरीका था। यह कितना सच है? यह तो कोई चिकित्सक इस की परीक्षा करके अथवा कोई आयुर्वेदिक चिकित्सक ही बता सकता है।

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बहुत दिनों के अन्तराल पर अपने उपस्थित हो सका हूँ। निजि और व्यवसायिक व्यस्तताएं और उन की कारण उत्पन्न थकान इस का कारण रहे। पाठक और प्रेमी जन इस अनुपस्थिति के लिए मेरे अवकाश को मंजूरी दे देंगे, ऐसा मुझे विश्वास है।

शुक्रवार, 14 मार्च 2008

भारतीय हॉकी में अमृत की बूंद बची नहीं है, हलाहल कौन पिएगा?


यह श्री बीजी जोशी का आलेख है। वे तीस वर्षों से भी अधिक समय से लगातार विश्व हॉकी के अध्येता और रिकॉर्ड संग्रह कर्ता हैं। हॉकी का कोई भी खोया हुआ रिकॉर्ड सिर्फ और सिर्फ बीजी जोशी से ही मिल सकता है, ऐसा विश्व हॉकी में माना और जाना जाता है। वे तीस वर्षों से लगातार हॉकी पर लिख रहे हैं। भारतीय हॉकी की अधोगति और ओलम्पिक हॉकी से बाहर होने से उन से अधिक वेदना किसे हुई होगी। अपनी इस वेदना को उन्होंने 11 मार्च को नई दुनियाँ, इन्दौर में प्रकाशित आलेख में व्यक्त किया है। उन्हों ने यह आलेख अनवरत पर प्रकाशन के लिए विशेष रुप से अनुमत किया है। उन का कहना है कि " ईमानदार चयन नहीं करना हमारा चरित्र हो गया है, तो भारत में हॉकी के जीवित रहने की गुंजाइश ही कहाँ शेष है?" -दिनेशराय द्विवेदी

धृतराष्ट्र हैं हॉकी के कर्ताधर्ता

(बीजी जोशी)

हॉकी और भारत एक-दूसरे के पर्याय नहीं रहे। लगातार 18 मर्तबा ओलिम्पिक खेल कर रिकॉर्ड 8 स्वर्णपदक जीती नीली जर्सी के बगैर आगामी बीजिंक ओलिम्पिक मैं हॉकी खेल का अचंभा होगा। 1928 के एम्सटर्डम ओलिम्पिक से निरंतर हॉकी प्रेमियों को अभिभूत करने वाली भारतीय बाजीगरी वहाँ नहीं होगी।
हम भारतीयों की अपने-पराए के चरित्र की पराकाष्ठा ने यह दिन दिखाया है। राष्ट्र की प्रतिष्ठा के आगे निजी समक ने यह काला अध्याय सिख दिया है। स्लेप हिट मार कर ढी में खलबली मचाना, फ्री हिट पर काहिन स्लॉथ शॉट से शर्तिया गोल अवसर बनाना, पेनल्टी कॉर्नर पर ड्रेग फ्लिक से गोल दागना व विपक्षी पेनल्टी कॉर्नर को निष्फल करने की चार विधाओं में दक्ष ऑल राउण्डर संदीपसिंह टीम में नहीं लिए गए।
घाघ टीमों के विरुद्ध अनुभव भरा कौशल ही जीत लाता है, जंग लगी बंदूक से लड़ाई जीती नहीं जाती। सब चलता है वाला नजरिया आत्मघाती बना। खेल जीवन की सर्वोच्च साधना ओलिम्पिक स्वर्ण के परिप्रेक्ष्य में अन्य देशों में भी हॉकी पल्लवित है। जनवरी की ही प्रीमियर हॉकी लीग में मैन ऑफ द टूर्नामेंट बने अर्जुन हलप्पा, श्रेष्ठतम गोली भरत क्षेत्री व टॉप स्कोरर दीपसिंह राष्ट्रीय टीम की धरोहर नहीं बन पाए। सच है हॉकी के कर्ताधर्ता धृतराष्ट्र हैं।
मैच गोल मार कर जीते जाते हैं। सोमवार को ब्रिटेन के विरुद्ध भी दोनों टीमों को समान पाँच पेनल्टी कॉर्नर मिले। प्रशिक्षक कारवाल्हो के चहेते रघुनाथ से गोल बने नहीं। लंदन विश्वकप (1986) में अनुभवहीन टीम ने आखिरी पायदान छुई थी। तब के प्रशिक्षक हरमीक सिंह व अजीतपाल सिंह आज मुख्य चयनकर्ता हैं। वहाँ खेले जो किम कारवाल्हो मुख्य प्रशिक्षक हैं। जो किम ने संदीप को नहीं लेने का जोखिम लेकर भारतीय हॉकी की समाप्ति में खुद को मुलजिम बना लिया है।

लंदन ओलम्पिक (1948) में ब्रिटेन को हराकर आजाद भारत ने पहला स्वर्ण पदक जीता था। भारत को हराने में ब्रिटेन को 37 वर्ष लगे थे। कराची चैम्पियंस ट्रॉफी (1986) में कारवाल्हो व अजीज ने पेनल्टी स्ट्रोक गँवा कर ब्रिटेन से 0-1 से हार कबूल की थी। अभी सैंटियागो में पुनः इन खराब तकदीर वालों ने भारत की स्याह तस्वीर पेश कर हॉकी प्रेमियों को गहरा सदमा दिया है। भारतीय हॉकी में अमृत की बूंद बची नहीं है। हलाहल कौन पिएगा।

  • (नई दुनियाँ, इन्दौर से साभार)

इस सप्ताह की सर्वोत्तम पोस्ट


आज सुबह-सुबह पूरे हफ्ते का आनन्द प्राप्त हो गया। डॉक्टर अमर कुमार की पोस्ट "जात पूछ साधो की" पढ़ कर। अभी हफ्ता पूरा होने में दो दिन बाकी हैं, पर हम घोसित कर दिए, इस पोस्ट को इस साल की, नहीं नहीं, साल तो अभी सुरू हुआ ही है, इस महिने की, नहीं,वह भी नहीं, वह भी अभी आधा भी नहीं गुजरा, इस हफ्ते की सबसे उत्तम पोस्ट। कोई ईनाम की दरकार मुझे है डॉक्टर अमर कुमार को। मगर जो हमने कह दिय़ा वही सच है।





और पाठक अच्छी तरह समझ लें, हम पूरे होस-हवास में, समझ-बूझ कर, अपनी सर्बोत्तम.... क्या कहते हैं उसे? ... चेतना से, बिना किसी से डरे-डराए, बिना किसी के बहकाए, ये घोसित किए हैं। और ये भी समझ लें, ये होली का मजाक नहीं है। होली का हफ्ता तो सुरु ही नहीं हुआ, अभी सुरुर कहाँ से आएगा? हाँ, ये भी हो सकता है कि ये पोस्ट आगे चल कर महिने की, और साल की भी सर्वोत्तम पोस्ट घोसित हो सकत है।

मंगलवार, 11 मार्च 2008

10 मार्च के दिन को वे राष्ट्रीय शर्म दिवस के रुप में क्यों मनाएँ

भारत में 10 मार्च के दिन को राष्ट्रीय शर्म दिवस के रुप में मनाया जाना चाहिए। क्यों कि आज यह जानकारी हमें मिली कि भारत के राष्ट्रीय खेल हॉकी की राष्ट्रीय टीम भविष्य में कभी ओलम्पिक खेलों में भाग ले पाएगी; यह अब केवल भारतीय जनता का सपना भर बन कर रह गया है।

यह वही खेल है पहली बार जिस खेल को खेलने के लिए भारत का एक देश के रुप में प्रतिनिधित्व करने वाली टीम ने 1926 में देश के बाहर आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड खेलने के लिए गई। पहली बार यूरोप जापान में प्रतिनिधित्व करने वाली टीम भी हॉकी की ही थी। 1928 पूरे एशिया की ओर से ओलम्पिक स्वर्ण पदक लाने वाली टीम भी भारत की हॉकी टीम ही थी। मेजर ध्यानचंद इस खेल के सरताज थे जिन्हों ने 1926 से 1948 तक अपने जीवन काल में हजार से अधिक गोल किए।

यह खेल हमें अंग्रेजों से मिला। लेकिन हम ने गुलामी के दौर में भी जब हमारे खिलाड़ियों के पास पहनने को जूते भी नहीं थे जूते वाले खिलाड़ियों की टीमों के विरुद्ध बिना जूते खेल कर अपना वर्चस्व स्थापित किया।

यही कारण है कि हम ने इस खेल को आजादी के बाद अपने राष्ट्रीय खेल का दर्जा दिया।

आज तक भी ओलम्पिक खेलों के सब से अधिक स्वर्ण पदक हासिल करने वाली भारतीय हॉकी टीम अब से शायद ही किसी ओलम्पिक में हिस्सा ले पाएगी। यह एक कड़वी सचाई है जिसे जुबान पर लाते हॉकी संघ और इस खेल के लिए जिम्मेदार लोगों को शर्म आ रही है।

आज यह खबर टीवी पर देखते ही मैं सन्न रह गया। निवाला मुहँ तक पहुँचने के स्थान पर हाथ में ही रह गया।

देश के ही नहीं दुनियाँ भर में प्रसिद्ध हाँकी के रिकार्ड को सहेजने वाले हॉकी स्क्राइब श्री बी.जी. जोशी से दिन में फोन पर बात हुई तो वे बहुत दुखी थे। उन्हों ने एक वाक्य में कहा नाउ इण्डियन हॉकी इज आउट ऑफ औलम्पिक्स फॉर ऐवर

मैं समझा वे गहरे दुःख और सदमे के कारण ऐसा कह रहे हैं। मैने उन से दुबारा पूछा। नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है?

उन्हों ने फिर कहा- बिलकुल सही है, इट इज फॉर ऐवर

मैं ने उन्हें फिर भी सदमे में ही समझा।

शाम को साढ़े छह बजे उन के घर फोन किया तो वे घर नहीं पहुँच सके थे।

आठ बजे रात्रि फिर फोन किया। तब पुनः उन से बात हुई। तब भी उन का यही कहना था इट इज फॉर ऐवर

वहाँ इतनी प्रतिस्पर्धा है कि भारतीय हॉकी टीम का दुबारा ओलम्पिक में प्रवेश अब असंभव है।

तिस पर भारतीय हॉकी के सर्वेसर्वा गिल साहब अब भी तसल्ली से कह रहे हैं- मैं बाद में इन चीजों का जवाब दूँगा। हमारे पास कोई इंस्टेंट कॉफी मशीन नहीं है कि आपको परिणाम तुरंत मिल जाए। आपको अपना स्थान वापस पाने के लिए समय लगता है। हमने सभी चीजें व्यवस्थित कर दी हैं और परिणाम में कुछ समय लगेगा।

गिल साहब और उन के साथियों ने क्या व्यवस्थित किया? यह सारे देश ने देख लिया है। अब परिणाम भी सामने है। और कौन से परिणाम की वे आशा लगाए बैठे हैं?

हाँ, उन की जिम्मेदारी तो जो है सो है ही। क्या राष्ट्रीय खेल होने के नाते क्या खेल मंन्त्री की कोई जिम्मेदारी नहीं है?

कम से कम एक जिम्मेदारी तो वे निभा ही दें कि 10 मार्च के दिन को वे राष्ट्रीय शर्म दिवस अवश्य घोषित करवा दें।

इस विषय पर अब तक पूर्ण-विराम में नलिन विलोचन ने हॉकी का अंत ?; Shuruwat: जिंदगी सिखाती है कुछ में राजीव जैन ने काश सच होता चक दे; पहलू में चंद्रभूषण ने चकते-चकते चक ही दी हॉकी; डेटलाइन इंडिया में आलोक तोमर ने क्योंकि हॉकी क्रिकेट नहीं है; कोतुहल पर nadeem ने भारतीय हॉकी: धन्य हो के पी एस गिल साहब, आज फेडरेशन ने ४ हज़ार रुपये कमाए और दीपक भारतदीप की ई-पत्रिका पर दीपक भारत दीप ने दुआएं ही कर सकते हैं कि हाकी का अस्तित्व बचे आलेख लिखे हैं। सभी आलेख महत्वपूर्ण हैं। इन चिट्ठाकारों को मेरा नमन और पहलू में चंद्रभूषण के चकते-चकते चक ही दी हॉकी पर विमल वर्मा ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की है, उन्हें भी नमन।

अनवरत पर कल की पोस्ट 10 मार्च राष्ट्रीय शर्म दिवस मनाएँ पर प्रतापग्रही जी, mamta जी, ज्ञानदत्तजी, अरुण जी, घोस्ट बस्टर जी, संजीत त्रिपाठी जी और राज भाटिय़ा जी की टिप्पणियाँ मिलीं। यह पोस्ट भारतीय हॉकी को लगे सदमे की सद्य प्रतिक्रिया थी। संजीत जी तो लिफाफा देख कर मजमून भी भांप चुके थे। उन के साथ साथ अन्य सभी साथी टिप्पणीकारों को प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद।