आज से राजस्थान में अदालतें सुबह की हो गईं हैं जो 30 जून तक रहेंगी। अब सुबह सात से साढ़े बारह की अदालत है। लेकिन परिवार न्यायालय, श्रम न्यायालय, राजस्व न्यायालय का समय पहले की तरह दस से पाँच बजे तक ही रहेगा। यहाँ यह सुविधा दे दी गई है कि खुले न्यायालय का समय डेढ़ बजे तक रहेगा उस के बाद अदालतें चेम्बर का और कार्यालय का काम निपटाएंगी। हम इस तरह हम अब साढ़े सात बजे घर से निकला करेंगे और तकरीबन दो बजे से तीन बजे के बीच घर वापसी संभव हो सकेगी। शाम को सात से दस, साढ़े दस बजे तक अपना वकालत का दफ्तर करना पड़ेगा। कुछ काम शेष होने पर देर रात तक भी काम करना पड़ सकता है। इस में अपनी चिट्ठाकारी के लिए समय चुराना कितना दुष्कर हो जाएगा आप समझ सकते हैं।
आज सुबह जल्दी पौने पाँच पर ही उठ जाना पड़ा। तैयार होते होते सात बज गए। बीच में समय मिला तो कुछ चिट्ठों पर आलेख पढ़े। लेकिन इन सब पर कमेटिया नहीं पाए, इतना समय नहीं था। सुबह पढे गए चिट्ठे भ्रष्टाचार की पाठशाला, Dr. Chandra Kumar Jain's Home, फुरसतिया, नौ दो ग्यारह, घुघूती बासूती, शब्दों का सफ़र, आलोक पुराणिक की अगड़म बगड़म, ज्ञानदत्त पाण्डेय की मानसिक हलचल, हैं। मैं ने सुबह ही इन के नाम नोट कर लिए थे। फिर साढ़े सात अदालत के लिए निकल लिए। आ कर कुछ घरेलू काम निपटाए। फिर थोड़ा विश्राम, और फिर पांच बजे से लग गए अपने काम पर। अभी काम का एक हिस्सा पूरा कर साढ़े दस बजे निपटा हूँ। इस बीच शाम सात बजे भोजन भी किया है।
दिन में अदालत से आ कर भी कुछ चिट्ठे पढ़े सब कुछ सामान्य सा लगा। अभी रात को इंक़लाब: पर "अब पहले खाने के बारे में सोचिए!" पढ़ा। आज का सब से सार्थक आलेख है। जैसा विषय था और जिस गंभीरता के साथ सत्येन्द्र रंजन ने इसे लिखने का श्रम किया है। उसे इस आलेख को पढ़ कर ही जाना जा सकता है। इस आलेख में दुनियाँ भर में गहरा रहे अनाज संकट का उल्लेख है। जिसे पढ़ कर लगा कि सुबह पुराणिक जी जिस आटे के लिए ईएमआई और बैंक लोन की बात कर रहे थे वह मजाक नहीं अपितु एक सचाई हो सकती है आने वाले समय में। इस भोजन की समस्या पर विचार करते समय। उन्हों ने दुनिय़ाँ के विकास की दिशा पर विचार किया और लगा कि दिशा की त्रुटि ही समस्याओं की मूल है। इस के साथ साथ माँसाहार के बढ़ने, किसानों का खाद्य फसलों के स्थान पर औद्योगिक फसलों की ओर झुकाव और उद्योगों व सरकारों द्वारा इस के लिए प्रोत्साहन आदि बिन्दुओं पर चर्चा करते हुए इस नतीजे पर पहुँचा गया है कि तमाम प्रश्नों को ताक पर रख कर दुनियाँ को खाद्य समस्या हल करनी होगी अन्यथा सभ्यता एक बहुत बड़े संकट का सामना करने वाली है जो मानव के समस्त सपनों के लिए कब्रगाह बन सकती है।
सत्येन्द्र रंजन के इस आलेख को पढ़ने के उपरांत किसी चीज में मन न लगा। आप खुद सोचिए ¡ क्या यह सबसे पहले हल की जाने वाली समस्या है, या नहीं? क्या यह अनियंत्रित वैश्वीकरण दुनियाँ को किसी अनजाने संकट की और तो नहीं धकेल रहा है? और क्या जिस समाज नियंत्रित अर्थव्यवस्था को मार्क्सवादी सोच कह कर तिलाँजलि दे दी गई थी उस पर तुरंत पुनर्विचार की आवश्यकता तो नहीं है, इस मानव समाज को बचाने के लिए?
आप का क्या सोचना है। "अब पहले खाने के बारे में सोचिए!" पढ़ कर बताएं।