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मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

"ऊर्जा और विस्फोट" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का अठारहवाँ और अंतिम सर्ग भाग-2

यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के  सत्रह सर्ग आप अनवरत के पिछले अंकों में पढ़ चुके हैं।  प्रत्येक सर्ग एक युग विशेष को अभिव्यक्त करता है। उस युग के चरित्र की तरह ही यादवचंद्र के काव्य का शिल्प भी बदलता है। इस काव्य के अंतिम  तीन सर्ग  वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े हैं। इस कारण उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। अठारहवाँ सर्ग "ऊर्जा और विस्फोट" इस काव्य का अंतिम पड़ाव है। इस का दूसरा भाग यहाँ प्रस्तुत है................ 
ऊर्जा और विस्फोट
* यादवचंद्र *

सत्रहवाँ सर्ग

भाग द्वितीय

लाल सूरज
का मनोहर
देश ---
हँसते 
झूमते हैं  खेत,
श्रम है मुक्त
हल की 
नोक करती  
रूढ़ियों का  
मूल छेदन  
उड़ रहे   
वो -- लाल परचम  
लाल अभिवादन हनोई 
लाल अभिवादन ! 

मौत के टुकड़ो  
शपथ मेकांग की -- 
तुम, अमरिकी  
समराजियों के 
कैदखानों, 
तार वेष्टित 
नगर गाँवों, 
मौत के 
सौदागरों के  
घृणित अड्डों 
पर--करो हमले  
कि नापाम के   
नापाक कीड़े  
झुलस जाएँ  
और हो दानांग 
या खेसान 
या सैगोन  
--की हर इन्च धरती   
जेलरों की 
कब्र बन जाए  
सधे 
मोर्टार के गोले  
उड़ा दें  
टंकियाँ पेट्रोल की,
औ गगनचुम्बी 
आग की लपटें 
जला दें 
जेलरों के  
जंगली कानून,  
लिख दें 
मुक्ति के  
इतिहास में   
ऐसा नया मजमून  
अपने खून से   
रक्ताभ पट पर   
पूर्व के--  
जैसा न अब तक 
लिख सका कोई  
हजारों वर्षों में
हर गाँव   
बन कर व्यूह  
घेरे दुश्मनों को,   
पोर्ट के   
मजदूर मारें  
रात को छापे   
चलाएँ 
गोलियाँ   
फौजी केम्प के,   
सैगोन की   
सड़कें-गली  
हो लाल दमके,   
शहर के जो बीच से 
उट्ठी हुई है आग   
--धधके  
--और चमके   ---और धधके 
--और ..........

डूबते  
समराज की  
ये भागती  
औ दौड़ती  
बैचेन शक्लें !  
बच निकलने   
के लिए 
ये लड़खड़ाती  
क्षीण टांगें !  
आग से 
चम-चम चमकते 
जेल की  
दीवार पर  
बनती-बिगड़ती  
खड़ी-आड़ी  
झुकी-तिरछी  
दर्जनों   

बेडौल सूरत !  पेट के बल  
रेंगती   
अधमरी लाशें !  
डालरों पर 
पल रहे 
अखबार की 
औ राज्य की  
संदिग्ध खबरें !  
रेडियो पर 
चल रही है
उर्ध्व, उखड़ी साँस   
पेन्टागौन की 
समराजियों के 
अहम् की   
छल-छद्म की 
धोखाधड़ी की 
लो,
धड़ाकों पर धड़ाके !
सुनो, छापामार चिल्लाया
कि कारा तोड़ कर सूरज 
निकल आया !  निकल आया ! 
फरहरा
मुक्ति का फहरा 
गगन ने 
फूल बरसाये  
सुबह की 
लाल किरणों के 
हवा बारूद में लिपटी 
निखरने लग गई

औ गंध माटी की 
बिखरने लग गई 
औ मुक्ति के पंछी 
चहकने लग गए  
औ सौख्य के बच्चे  
बिदक कर जग गए 
संसार के 
नर पुंगवों 
जय हो !


मगर यह 
चार अरबों की धरा 
किस भाँति निर्भय हो ?

...... अठारहवें सर्ग 'ऊर्जा और विस्फोट' के अठारहवें सर्ग का द्वितीय भाग समाप्त...

सोमवार, 18 अक्तूबर 2010

"ऊर्जा और विस्फोट" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का अठारहवाँ और अंतिम सर्ग भाग-1



यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के  सत्रह सर्ग आप अनवरत के पिछले अंकों में पढ़ चुके हैं।  प्रत्येक सर्ग एक युग विशेष को अभिव्यक्त करता है। उस युग के चरित्र की तरह ही यादवचंद्र के काव्य का शिल्प भी बदलता है। इस काव्य के अंतिम  तीन सर्ग  वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े हैं। इस कारण उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। अठारहवाँ सर्ग "ऊर्जा और विस्फोट" इस काव्य का अंतिम पड़ाव है। इस का पहला भाग यहाँ प्रस्तुत है................ 
ऊर्जा और विस्फोट 
* यादवचंद्र *

सत्रहवाँ सर्ग


ऊर्जा और विस्फोट
भाग प्रथम
चीन की धरती
उगलने लगी शोले
सामराजी पौंड डॉलर
हाँफते, ज्यों
प्यास से 
बैचेन कुत्ता
रेत में 
या ताड़ की
दुर्बल
अस्थिर छाँव में

राष्ट्रीयता की
आड़ झूठी
फट गई,
संसार के 
सामराजियों के
साथ बैठे च्वांग-
क्या राष्ट्रीयता है ?
विश्व के 
जल्लाद सारे 
साथ मिल कर
कहर 
बरसाएँ श्रमिक पर;
पौंड-डॉलर,
फौज के बल 
राष्ट्र नायक 
(काठ का 
उल्लू) खड़ा कर
जुल्म ढाएँ-
क्या यही राष्ट्रीयता है ?

और हम प्रतिशोध में
मजदूर सारे विश्व  के
मिलने न पाएँ,
मिलें तो हम
जेल जाएँ
मौत की हम 
सजा पाएँ
क्या यही राष्ट्रीयता है ?
कैदियों की 
एकता है जुर्म
औ क्या 
कातिलों की 
एकता कानून है ?
क्या यही राष्ट्रीयता है ?

नीच, पामर
च्यांग के सर
कलम कर दी
एक मुट्ठी
कातिलों के 
घरों में 
बारूद भर दी,
औ पलीतों
मे सलाई 
मार दो-
प्रतिक्रान्ति के प्रति
ज्वार, हाहाकार दो
हो मुक्त श्रम
निर्ब्याज साधन
फसल झूमे
देश गाए,
मुक्त जन की
भावना की 
आरती
घर-घर सजे
औ कला का 
आलोक सौ गुण
निखर जाए,
एशिया की 
मुक्ति के
अगुओ, फहरुओ, साथियो
लो,
लाल परचम को तुम्हारे
विश्व देता है सलामी
मुक्तिकामी
अग्रसोची
एशिया के 
अग्रगामी 
चीन की जय !
व्याल के 
फण पर लहरते
औ घहरते
बीन की जय !
कोरिया वालो,
तुम्हारी जीत 
धरती को मुबारक !
अमरिका के 
शेर झूठे
नीच जेलर
थू तुम्हारे नाम पर-
झूठी अकड़ पर-
शान पर-
तुम जानते हो
हम न भूले
हैं हजारों वर्ष का
इतिहास अपना,
पीठ पर
कोड़े तुम्हारे
जो पड़े हैं
घाव उन के
आज भी आबाद हैं
हाँ, फर्क थोड़ा है
कि उन पर 
अब तुम्हारे लिए 
ढोनी पड़ रही बंदूक--
और नगमा
वियतनामी गाँव में
तेरे ठिकानों पर
बिछाती है सुरंगें
मुक्त, प्रिय मंगोल !
तेरी ईद में 
नगमा न आई
अमरिकी 
पेट्रोल की 
टंकी उड़ाने की 
उसे ड्यूटी मिली थी 
माफ करना 
और उस का 
लाल अभिवादन
सखे, स्वीकार करना
वियतनामी 
साथियो !
सामराजियों की
मौत के हस्ताक्षरों !
अरुणाभ सूरज
दे रहा दस्तक
सुनो--
आज दिन-विन फू नहा कर
खून में लाल हो गया
अमरिका के लिए हो-ची-
मिन्ह दुर्धर काल हो गया
...... अठारहवें सर्ग 'ऊर्जा और विस्फोट' के अठारहवें सर्ग का प्रथम भाग समाप्त...


गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

"मुक्ति पर्व" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का सत्रहवाँ सर्ग भाग-5

यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के  सोलह सर्ग आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं।  प्रत्येक सर्ग एक युग विशेष को अभिव्यक्त करता है। उस युग के चरित्र की तरह ही यादवचंद्र के काव्य का शिल्प भी बदलता है। इस काव्य के अंतिम  तीन सर्ग  वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े हैं। इस कारण उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। सत्रहवें सर्ग "मुक्ति पर्व" का पाँचवाँ और अंतिम भाग यहाँ प्रस्तुत है,  मुक्ति पर्व में आ कर काव्य मुक्त छंद का रूप धारण कर रहा है ................
* यादवचंद्र *

सत्रहवाँ सर्ग


मुक्ति पर्व
भाग पंचम
पिछले अंक में भाग चतुर्थ में आप ने पढ़ा था.....

..................................
तो उन के भी
इतिहास से
हमारा दम घुटने लगता है
हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं
और हमारी मानवता
शर्म से 
जमीं में गड़ जाती है
हमारा शोषण
उन के विधि 
विधान
और शासन का कर्म है
तो फिर 
उन से मुक्त होना
हमारा भी धर्म है।
अब पिछले अंक से आगे भाग पंचम में पढिए ...... 

दादा !
आओ, बैठो,
चार हजार वर्षों बाद
आज हम 
अपने परिवार के 
साथ बैठें
और अपना
मुक्ति-विधान रचें
आओ,
हम रणनीति तय करें
एक कार्यक्रम बनाएँ
हम गीत गाएँ-
अपनी मुक्ति
अपने भाग्य
औ चार अरब की 
तनी-कसी
संकल्पवती मुट्ठियों के 
आओ,
        हम बन्दूक उठाएँ-
        कसमें खाएँ 
                   आगे बढ़ें
मजदूरों की लाल फौज को संबोधित करते लेनिन
दुश्मन पर
हथगोले फेंक कर
विद्रोह की घोषणा करें ----

आओ हम श्रमिक
अपना झंडा 
औ राज-चिन्ह 
हवा में उछालें
हँसिया और हथौड़े संभालें
नये-नये नारे निकालें
मार्क्सवाद जिन्दाबाद !
श्रमिक एकता जिन्दाबाद !
अपनी सत्ता कायम करो
महिलाओं की लाल फौज
साव-धान !कामरेड फिदियेव !
हर टुकड़ी पर 
निगरानी रखना
दुश्मन फौज
गिरजाघरों में
छुपी बैठी है
घोड़े 
हिनहिनाने न पावें,
कदम-ब-कदम
पिटस् बर्ग
औ तिफलिस की आग
पूरे रूस में बिखेर दो
जेल के फाटक 
जल्द तोड़ दो,
उस की जलती दीवारें
नीचे गिरा दो
नहीं तो ये
बेमौके गिर कर
हमारी मौत का 
कारण बनेंगी
सोवियत सेना नायक

दुश्मन के प्रतिरोध में
अपनी फौज-लाल फौज !
दुश्मन के प्रतिरोध में
अपना कमाण्डर-कामरेड लेनिन !
घेरे से निकल कर
शत्र को घेरने के लिए
अपना घेरा-
सर्वहारा अधिनायकवाद
जारशाही के लिए
एक शब्द 
सिर्फ एक शब्द -
               मुर्दाबाद ! 
नीत्से

आओ,
सोवियत के वीर पूतों
बढ़ो,
फासिस्तों के दुर्ग पर
धमाके करो,
फ्यूचिक
औ फ्यूबिक के
कोटि-कोटि
मुक्तिकामी साथियों !
श्रमिकों की
आँखों के तारे
प्यारे स्तालिन से 
हाथ मिलाओ
अपने बन्धन के
नियम शास्त्र
औ शस्त्रों के 
मैगजीन में
आग लगाओ
रक्त-चाप-पीड़ित
नीत्से
और गोयबल्स की नसें
फट गईं,
बर्लिन की गलियाँ
लाशों से पट गईं,
मास्को घेरते 
हिटलर पगले
हिटलर

बर्फ जैसे पड़ गए,
लाल झंडों के तूफान में
पीले पात 
खड़-खड़ा झर गए


आओ, 
यूरप के आजाद पूतों
अपनी मुक्ति के
जशन मनाओ-,
स्टालिन

कामरेड स्तालिन,
जिन्दाबाद !
चलो,
आगे बढ़ो !
-और आगे !
-और आगे ! 
- औ.....र......

सत्रहवाँ सर्ग यहाँ समाप्त हुआ। 

इस प्रबंध काव्य का अठारहवाँ सर्ग शेष है। इसे भी पाँच-छह कडियों में प्रस्तुत किया जा सकेगा।

बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

"मुक्ति पर्व" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का सत्रहवाँ सर्ग भाग-4

यादवचंद्र पाण्डेय
यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के  सोलह सर्ग आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं।  प्रत्येक सर्ग एक युग विशेष को अभिव्यक्त करता है। उस युग के चरित्र की तरह ही यादवचंद्र के काव्य का शिल्प भी बदलता है। इस काव्य के अंतिम  तीन सर्ग  वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े हैं। इस कारण उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। सत्रहवें सर्ग "मुक्ति पर्व" का चतुर्थ भाग यहाँ प्रस्तुत है,  मुक्ति पर्व में आ कर काव्य मुक्त छंद का रूप धारण कर रहा है ................
* यादवचंद्र *

सत्रहवाँ सर्ग


मुक्ति पर्व
भाग चतुर्थ
पिछले अंक में भाग तृतीय में आप ने पढ़ा था.....
................................
उस ने क्या जवाब दिया ?
उस ने 
उस चुड़ैल के मुहँ पर 
थूक दिया
जिस के चलते
मुझे और उसे
बाहर के हाते से
हटा कर 
फिर सेल में 
डाल दिया गया
और जेलर ने
जेल पुस्तिका में 
लिख दिया--गद्दार ! 
बागी !
देश द्रोही !
सभ्यता का शत्रु !
अब पिछले अंक से आगे भाग चतुर्थ में पढिए ......

हाँ,
तुम ठीक कहते हो दादा,
कि ये शब्द 
जेलर ने
अपने लोगों के लिए नहीं,
कभी नहीं लिखे,
ये शब्द 
हमीं कैदियों के लिए 
जब हमें
कत्ल करना होता है,
इस्तेमाल किए जाते रहे
यह जेलर
बड़ा कस्साई है दादा !
करघे पर बैठे
उस कैदी को देख रहे हो ?
कबीर नाम है -- 
पत्थर से बांध कर 
उसे नदी में फैंक दिया था
और वह सघन मूँछों वाला
कैदी नम्बर--एक
गोर्की नाम है --
भूखी नगमा को 
किस्सा सुनाने के जुर्म में
संगीनधारी जल्लाद
सूअर की तरह 
उसे देश विदेश 
खेदते रहे
मायकोवस्की 
लू-सुन, प्रेमचन्द
नजरूल-फैज-
राहुल-फ्रॉस्ट वगैरह
सब पर ऐसे ही इलजाम हैं
हम अपना दुख-दर्द 
खोल नहीं सकते
हम लिख नहीं सकते
हम बोल नहीं सकते
इस जेलर का इंसाफ
बड़ा खौफनाक है,
यह हमेशा
हमें ही 
दोषी ठहराता है
एक  बार भी
हमारे 
और उन के सम्बन्ध में
हमारी जीत नहीं हुई
उन की हार नहीं हुई
राजतन्त्र से -- 
प्रजातंत्र तक.
दादा;
हम सब चार अरब
उन्हें कत्तई मंजूर नहीं
तो फिर, अब सुन लो--
हमारी सुविधा
उन्हें स्वीकार नहीं
तो उन की सुविधा भी 
हमें अङ्गीकार नहीं।
हमारे धर्म
उन के हित
अहितकर हैं
तो उनके धर्म भी
हमारे पैरों में 
पैकर हैं।
हमारी दास्ताँ से 
उन्हें उबकाई आती है,
उन का संसार
उन की मानवता
बदनाम हो जाती है
तो उन के भी
इतिहास से
हमारा दम घुटने लगता है
हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं
और हमारी मानवता
शर्म से 
जमीं में गड़ जाती है
हमारा शोषण
उन के विधि 
विधान
और शासन का कर्म है
तो फिर 
उन से मुक्त होना
हमारा भी धर्म है। 

...............................कविता अगले अंक में जारी रहेगी

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

गंडक

यूँ तो गंडक कुत्ते को कहते हैं।
लेकिन शिवराम इस खबरी कविता में क्या बता रहे हैं?
जानिए ....


गंडक
  • शिवराम

करौली जिले के 
करणपुर गाँव में
लोग शेर को
गंडक कहते हैं

घने जंगल में बसे 
इस गाँव में 
शेर आ जाते हैं
लोग लाठी तान कर 
फटकारते हैं
और गंडक भाग जाता है

वैसे ही जैसे आम गाँवों में 
कुत्ते भाग जाते हैं।

रविवार, 10 अक्तूबर 2010

शेर और भैंस

शिवराम की एक कविता .................


शेर और भैंस

  • शिवराम

जिस जंगल में शेर होता है
वहाँ भैंसे झुण्ड में रहती हैं
जब विश्राम करती हैं तो 
गोल घेरा बना कर बैठती हैं
चौकस और चौकन्नी रहती हैं
मुहँ बाहर की ओर

भैंसे शेर से नहीं डरतीं
शेर भैंसों को सुरक्षा व्यूह से 
डरता है
दुस्साहस करता है
तो अक्सर मारा जाता है

हम भैंस का दूध पीते हैं
और गली के कुत्तों से डरते हैं।

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

"मुक्ति पर्व" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का सत्रहवाँ सर्ग भाग-3

यादवचंद्र पाण्डेय
यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के  सोलह सर्ग आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं।  प्रत्येक सर्ग एक युग विशेष को अभिव्यक्त करता है। उस युग के चरित्र की तरह ही यादवचंद्र के काव्य का शिल्प भी बदलता है। इस काव्य के अंतिम  तीन सर्ग  वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े हैं। इस कारण उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। सत्रहवें सर्ग "मुक्ति पर्व" का तृतीय भाग यहाँ प्रस्तुत है,  मुक्ति पर्व में आ कर काव्य मुक्त छंद का रूप धारण कर रहा है ................
* यादवचंद्र *

सत्रहवाँ सर्ग


मुक्ति पर्व
भाग तृतीय

पिछले अंक से आगे ......

...... 
और यह कविता ---
वेश्या है  !
विद्यापति - केशव - भूषण
बैरन - कीटस् - पोप
कौन नहीं था वहाँ ....
उस के साथ उन के 
क्या रिश्ते थे ? 
बहुत तो पीते भी थे
उमर खैयाम
जिसे जामे शराब में
अल्ला का 
दीदार हो जाता था
लेकिन मेरी जहालत 
उसे नहीं दिखाई देती थी
और,
जब मैं 
अपने जिस्म के 
फोड़ों के दर्द से 
चीख उठत
तो यह कविता
मुझे मूर्ख कहती थी
मुझे चुप रहने का
आदेश कराती थी
आत्मतोष का 
प्रवचन सुनवाती थी
तब मेरे फोड़ों पर
दो - चार हंटर
और पड़ जाते 
और मेरे घाव ...
मुक्ति पुरुष !
आज तुम ने
मुझे छेड़ा है
मेरे फफोलों को 
खुरचा है,
मैं आज तक 
सच नहीं बोला था
(बोला ही नहीं था)
लेकिन 
आज सुन लो
सच कहता हूँ -
जी में आया
कि इन शास्त्रों में
आग लगा दूँ
और जेलर के 
उन भड़ैतों को 
और इस वेश्या को 
उठा कर 
उसी में फेंक दूँ
लेकिन .......
इस वेश्या को 
अपना पाठ पढ़ा कर
(साहित्य पढ़ा कर)
हर बार जेलर 
मेरे पास भेजता था
मेरी पीठ पर 
संगीन टिकी होती थी
यह चुड़ैल
घण्टों बक - झक करती
और मैं
जेल के
खेत गोड़ता
या बिक्री के 
जूते सीता
चुप - चाप सुना करता था
यह राक्षसी
मेरे दर्द
मेरी खैरियत
और मेरी मुक्ति के सिवा
हर बात करती थी
और फिर
जेलर के 
लोगों के साथ
फरनासस--
या, कहाँ जाती थी
क्या करती थी,
हम में से
किसी को नहीं मालूम

एक दिन 
कह रही थी 
कि मेरी 
हर बात याद कर लो
तुम्हें भी
मेरी तरह
सब मौज आराम
नसीब हो जाएगा

और मार्क्स दादा !
जानते हो
सेल नम्बर - 6 की
उस लड़की को ?
नगमा नाम है उस का--
उस ने क्या जवाब दिया ?
उस ने 
उस चुड़ैल के मुहँ पर 
थूक दिया
जिस के चलते
मुझे और उसे
बाहर के हाते से
हटा कर 
फिर सेल में 
डाल दिया गया
और जेलर ने
जेल पुस्तिका में 
लिख दिया--गद्दार ! 
बागी !
देश द्रोही !
सभ्यता का शत्रु !

...............................कविता अगले अंक में जारी रहेगी