हे, पाठक!
पन्द्रहवीं महापंचायत के लिए महारथी मैदान में डट गए। लोगों ने तलाशना शुरू किया, है कोई नया चेहरा हो मैदान में? सब जगह पुराने ही चेहरे नजर आए, कोई नया नहीं। पार्टियाँ वैसी की वैसी हैं, जैसी वे पहले थीं। बस सब के चेहरे पर कुछ झुर्रियाँ बढ़ गई हैं। जिस चेहरे पर जितनी ज्यादा झुर्रियाँ चढ़ी हैं, उस पर उतना ही पाउडर और फेस क्रीम भी चुपड़ दिया गया है। इस बीच कोई नयी पार्टी नहीं जनमी। कहीं से खबर, इशारा भी नहीं, कि कोई गर्भ में पल रही हो। या तो रानी माँ बाँझ हो गई है, या राजा निरबंसिया हो चुका है। ऐसे में आ गया, चुनाव। लोग जान गए, कि किसी को वोट डाल दो परिणाम वही होगा जो होना है। नया कुछ भी पैदा नहीं होने वाला। मैया जितने बच्चे ले कर जच्चा खाने गई है, उन्हें ही ले कर वापस लौटेगी। कुछ फरक पड़ भी गया तो इतना कि घर में बच्चों के सोने बैठने की जगह बदल जाएगी। जब भी रात को सोने जाएंगे पहले की तरह लड़ेंगे। बेडरूम से फिर से वैसी ही आवाजें आएंगी। सुबह खाने पर वैसे ही लड़ेंगे। चिल्लाएंगे, वो वाला ज्यादा खा गया। मैं भूखा रह गया।
हे, पाठक!
सब को पता है, कि इस बार भी न बैक्टीरिया पार्टी और न ही वायरस पार्टी दोनों ही महापंचायत में कमजोर रहेंगी, कोई भी ऐसा न होगा जो अपने दम पर पंचायत कर ले। खुद बैक्टीरिया और वायरस पार्टियों को यकीन है कि ऐसा ही होगा। फिर भी वे मैदान में आ डटी हैं। वायरस पार्टी ने घोषणा कर दी है, उन का नेता ही महापंचायत का हीरो होगा। पार्टी के परवक्ता जी से सूत जी महाराज टकरा गए तो उन से पूछा कि कास्ट पूरी न मिली तो कैसे होगा? तो बोले वह बाद की बात है, बाद की बात बाद में देखी जाएगी। हम में हिम्मत है, हम सब कर सकते हैं। हम महापंचायत का हीरो घोषित कर सकते हैं, हम ने कर दिया। किसी और में दम हो तो कर के देखे। सूत जी बोले- बहुत डायरेक्टरों ने हीरो घोषित कर दिये और हीरोइन ढूंढते रह गए। फिलम का मुहुर्त शॉट डिब्बे में बन्द हो कर रह गया। सूत जी को जवाब भी तगड़ा मिला- उन डायरेक्टरों को फाइनेन्सर न मिला था। रोकड़ा ही नहीं था तो हिरोइन कहाँ से लाते? फिलम तो डिब्बे में बंद होनी ही थी। हमारे पास फाइनेंसर बहुत हैं देखते नहीं जाल पर कितने दिन से हीरो का चेहरा चमक रहा है। यह सब फाइनेंस का ही कमाल है। फाइनेंस से सब कुछ हो सकता है।
हे, पाठक!
जब फाइनेंस की बात चली तो सूत जी ने स्मरण कराया। इत्ता ही फाइनेंस पर बिस्वास था तो छह महिने पहले जब न्यू क्लियर डील का मसला आया, तभी लाइन क्लीयर क्यूँ नहीं कर दी। परवक्ता जी बोले-तब की बात और थी। हम चाहते तो यही थे। पर तब फाइनेंसर पीछे हट गए। बोले अभी फाइनेंस रिस्की है। छह महीने बाद करेंगे। अभी करेंगे तो छह माह बाद फिर करना पड़ेगा। फिर अभी तुम आ बैठे तो जनता विपदग्राही हो लेगी। लेने के देने पड़ जाएँगे। फिर न्यू क्लीयर डील तो हम भी चाहते हैं। तुम करो चाहे वे करें, हम फाइनेंसरों को क्या फरक पड़ेगा? तुम बैठ गए तो शरम के मारे कर नहीं पाओगे, यह लटकती रहेगी। उधर परदेस में हमारे धंधों की पटरी बैठ जाएगी।
आज का समय यहीं समाप्त, कथा जारी रहेगी......
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .
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मंगलवार, 21 अप्रैल 2009
रविवार, 19 अप्रैल 2009
पब्लिक सीखे डिरेवरी ; जनतन्तर कथा (16)
हे, पाठक!
आप सुधिजन हैं, आप जान चुके हैं कि पुरानी कार मियादी मरम्मत और रंग रोगन के लिए बरक्शॉ में है। टाटा जी की नई कार के लिए लाइन भले ही लगी हो, लेकिन पब्लिक इस कार को फिलहाल बदलने को तैयार नहीं है। ताऊ की रामप्यारी भी कथा पढ़ने लगी, कथा पढ़ के बाली परमजीत पाती लिक्खे, कि पब्लिक को नई कारों में कोई पसंद ही नहीं आ रही, पुरानी से इत्ता मोह भया है कि छोड़ना ही नहीं चाहती। कैसे टूटे मोह ? कोई उपाय सोचें। भंग चितेरे अंजन पुत्र लिक्खे कि उन के जीते जी तो नई कार नहीं आने वाली। उधर झाड़ फूँक की तान-पाँच छोड़ के नकदउआ की निनानवे में उलझे ओझा बाबू संदेसा दिए हैं कि कारुआ पै रंग-रोगन की गुजाइस नहीं निकल रही है। पता चला है रंग-मसीन का कम्प्रेसरवा खुद मरम्मत मांग रहा है। मैं तो दंग रह गया, चहुँ ओर इत्ती निरासा काहे बिखरी पड़ी है। लगता है हमरे सुबरण सुत की ये बाउल नहीं सुनी। तो आज की कथा सुरू होवे के पहले ये बाउल सुनें, साथ साथ गाएँ तो अउर भी आनंद होयगा, अउर निरासा भी क्षीण होगी .........
आप ने सुना भी, और गाया भी। तो क्या समझै? अरे! कैसी भी हो हालत, सब कुछ लुट जाए, पर आस न छोड़ें।
हे, पाठक!
पुरानी कार तो लौटेगी, इतनी आस तो सब में है। कंप्रेसर ठीक हुआ, तो रंग-रोगन हो के लौटेगी। कार की आवाज कम होगी या बढ़ जाएगी अभी पता नहीं है। पब्लिक को हो न हो पर डिरेवर की अरजी लगाए लोगों को यकीन है कि ऐ सी जरूर ठीक रहेगा। डिरेवर सीट की गद्दी भी कायम रहेगी। तभी तो इत्ते लोग अर्जी लगाए हैं जनता के दरबार में। हर कोई या तो खुद बहरूपिये सा सांग बना के घूमता है या बहरूपियों की मंडली ही जमा ली है। तो पब्लिक क्यूँ आस छोड़े? फिर बरक्शॉ में गई तो कुछ तो बदल के लौटेगी। अच्छी या बुरी। पहले भी ये कार चौदह बार बरक्शॉ में जा चुकी है अउर कुछ न कुछ बदला ही है।
हे, पाठक!
पहली तीन महापंचायतों को छोड़ दें तो बाकी सब में कुछ न कुछ बदला है। पहले लोग कार में एक डिरेवर रखते थे। उस को अहंकार हो जाता था, मेरा जैसा कोई नहीं। फिर पब्लिक ने डिरेवर बदलना सुरू कर दिया। तो डिरेवरी के बहुत से दावेदार खड़े हो गए। अब बहुत विकल्प हैं पर जिस को भी रखते हैं उस में कोई न कोई ऐब निकल आता है। बिना ऐब का डिरेवर नहीं मिलता। इस का इलाज भी है कार बदल दी जाए। पर किस से बदली जाए? सारे मॉडल तो ऐसे हैं कि डिरेवर मांगते हैं। कोई फैक्टरी ऐसी कार ही नहीं बना रही जिस में डिरेवर की जरूरत ही न हो, अपने आप चलने लगे। ऐसी कार तो ईजाद करनी पड़ेगी। उस में तो वक्त लगेगा, न जाने कितने दिन, महीने, बरस लगेंगे? पब्लिक ऐसा क्यों नहीं करती कि जब तक नई कार ईजाद हो तब तक खुद डिरेवरी सीख ले।
फिर मिलते हैं आगे की कथा में-
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .
आप सुधिजन हैं, आप जान चुके हैं कि पुरानी कार मियादी मरम्मत और रंग रोगन के लिए बरक्शॉ में है। टाटा जी की नई कार के लिए लाइन भले ही लगी हो, लेकिन पब्लिक इस कार को फिलहाल बदलने को तैयार नहीं है। ताऊ की रामप्यारी भी कथा पढ़ने लगी, कथा पढ़ के बाली परमजीत पाती लिक्खे, कि पब्लिक को नई कारों में कोई पसंद ही नहीं आ रही, पुरानी से इत्ता मोह भया है कि छोड़ना ही नहीं चाहती। कैसे टूटे मोह ? कोई उपाय सोचें। भंग चितेरे अंजन पुत्र लिक्खे कि उन के जीते जी तो नई कार नहीं आने वाली। उधर झाड़ फूँक की तान-पाँच छोड़ के नकदउआ की निनानवे में उलझे ओझा बाबू संदेसा दिए हैं कि कारुआ पै रंग-रोगन की गुजाइस नहीं निकल रही है। पता चला है रंग-मसीन का कम्प्रेसरवा खुद मरम्मत मांग रहा है। मैं तो दंग रह गया, चहुँ ओर इत्ती निरासा काहे बिखरी पड़ी है। लगता है हमरे सुबरण सुत की ये बाउल नहीं सुनी। तो आज की कथा सुरू होवे के पहले ये बाउल सुनें, साथ साथ गाएँ तो अउर भी आनंद होयगा, अउर निरासा भी क्षीण होगी .........
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आप ने सुना भी, और गाया भी। तो क्या समझै? अरे! कैसी भी हो हालत, सब कुछ लुट जाए, पर आस न छोड़ें।
हे, पाठक!
पुरानी कार तो लौटेगी, इतनी आस तो सब में है। कंप्रेसर ठीक हुआ, तो रंग-रोगन हो के लौटेगी। कार की आवाज कम होगी या बढ़ जाएगी अभी पता नहीं है। पब्लिक को हो न हो पर डिरेवर की अरजी लगाए लोगों को यकीन है कि ऐ सी जरूर ठीक रहेगा। डिरेवर सीट की गद्दी भी कायम रहेगी। तभी तो इत्ते लोग अर्जी लगाए हैं जनता के दरबार में। हर कोई या तो खुद बहरूपिये सा सांग बना के घूमता है या बहरूपियों की मंडली ही जमा ली है। तो पब्लिक क्यूँ आस छोड़े? फिर बरक्शॉ में गई तो कुछ तो बदल के लौटेगी। अच्छी या बुरी। पहले भी ये कार चौदह बार बरक्शॉ में जा चुकी है अउर कुछ न कुछ बदला ही है।
हे, पाठक!
पहली तीन महापंचायतों को छोड़ दें तो बाकी सब में कुछ न कुछ बदला है। पहले लोग कार में एक डिरेवर रखते थे। उस को अहंकार हो जाता था, मेरा जैसा कोई नहीं। फिर पब्लिक ने डिरेवर बदलना सुरू कर दिया। तो डिरेवरी के बहुत से दावेदार खड़े हो गए। अब बहुत विकल्प हैं पर जिस को भी रखते हैं उस में कोई न कोई ऐब निकल आता है। बिना ऐब का डिरेवर नहीं मिलता। इस का इलाज भी है कार बदल दी जाए। पर किस से बदली जाए? सारे मॉडल तो ऐसे हैं कि डिरेवर मांगते हैं। कोई फैक्टरी ऐसी कार ही नहीं बना रही जिस में डिरेवर की जरूरत ही न हो, अपने आप चलने लगे। ऐसी कार तो ईजाद करनी पड़ेगी। उस में तो वक्त लगेगा, न जाने कितने दिन, महीने, बरस लगेंगे? पब्लिक ऐसा क्यों नहीं करती कि जब तक नई कार ईजाद हो तब तक खुद डिरेवरी सीख ले।
फिर मिलते हैं आगे की कथा में-
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .
शनिवार, 18 अप्रैल 2009
पुरानी कार पाँच साला सर्विस के लिए बरक्शॉ में : जनतन्तर कथा (15)
हे, पाठक!
जैसे हरि अनंता, हरि कथा अनंता! वैसे ही जनतन्तर अनंता और जनतन्तर कथा अनंता! सकल परथी के भिन्न-भिन्न खंडों पर भाँत-भाँत के रूप,आकार और रंगों के कीट दृष्टिगोचर होते हैं, उन की जीवन शैली भी भाँत-भाँत की है। वैसे ही जनतन्तर भी देस-देस में भाँत-भाँत का होता है। जब भरतखंड के एक खंड को भारतवर्ष कहा गया तो उसे गणतन्तर भी घोषित कर दिया। सब कहते हैं कि गणतन्तर भरतखंड की प्राचीन परंपरा है। पर जानते कितने हैं? एक पाठक ने प्रश्न किया गणतन्तर और जनतन्तर में क्या भेद है?
हे, पाठक!
अब हम गणतन्तर और जनतन्तर भेद लिखते हैं। पहले के जमाने में देस में एक राजा हुआ करता था जो देस पर राज करता था। राज करना एक कला भी थी और सामर्थ्य भी, कला से ज्यादा सामर्थ्य थी। राजा को अपने देस पर और परजा पर नियंत्रण बना कर रखना पड़ता था। यह सब काम वह किसम किसम के लोगों के जरीए करता था। जिनमें मतरी, जागीरदार वगैरा हुआ करते थे। देस बड़ा हुआ तो सूबे भी होते थे और सूबेदार भी। राजा को हटाने का तरीका यही था कि देस में बगावत हो जाए, या दूसरा कोई राजा लड़ाई कर देस पर कब्जा कर ले। आम तौर पर राजा का बेटा ही अगला राजा हुआ करता था। इसी को राजतन्तर कहते थे। पुराने जमाने में भरतखंड के बहुत से देसों में गणतन्तर होते थे। यानी परिवारों के मुखियाओं की पंचायत, पंचायत के मुखियाओं से कबीलों की पंचायत, कबीलों के मुखिया सरदार और सरदारों की पंचायत देस की पंचायत, देस की पंचायत का मुखिया राजा। विद्वानों ने गणतन्तर को इस तरह कहा, कि जो राजतन्तर न हो और जिस में बंस परंपरा से बनने वाले राजा शासन न हो। बल्कि किसी भी और तरीके से जनता या जनता का कोई हिस्सा राज करने वालों की पंचायत को चुनता हो।
हे, पाठक!
भारतवर्ष गणतन्तर बना तो साथ ही यह भी घोषणा हो गई कि यह जनतन्तर होगा और देस के हर एक बालिग को वोट देने का अधिकार होगा। देस का राज महापंचायत करेगी, जिस के लिए हर खेत के बालिग अपना एक गण चुनेंगे। इन गणों के बहुमत का नेता महापंचायत का परधान होगा। हमने भारतवर्ष को गणतन्तर भी बना लिया और जनतंतर भी बना लिया। पर इस में भी भीतर ही भीतर वो सबी तन्तर पलते रह गए जिन को परदेसी के साथ ही सिधार जाना था। परदेसी चले गए, । देस में उन का राज चलाने वाले सब यहीं रह गए। परदेसी के जाने की हवा बनते ही उन ने कहना शुरू कर दिया था कि राज तो वे ही चलाएँगे, जो चलाना जानते हैं। उन को चुना न गया तो सुराज फेल हो जाना है। लोग झाँसे में आ गए, लोगों ने उन को ही चुनना शुरू कर दिया।
हे, पाठक!
इस तरह गणतन्तर में पुराने सब तन्तर जिन्दा रहे । वैसे ही, जैसे कंपनी ने पुरानी कार को चमका-चमकू के शो-रूम में खड़ी कर दी हो, और खरीद के नया रजिस्ट्रेशन नंबर ले कर इतरा रहे हों कि नए कार के मालिक हैं। बरस भर बाद जब अंदर के घिसे पुरजे जवाब देना शुरू करें तो पता लगे कि नयी कार नयी होती है और पुरानी पुरानी। पर करें तो क्या करें? जब तक नयी कार न लेंगे पुरानी से ही काम चलाना होगा। भारतवासी तीन-बीसी से पुरानी कार घसीट रहे हैं। नयी कार कब आएगी? यह भविष्य के गर्भ में है। कार की हर पाँच साल में सर्विस जरूरी है। पुरानी है तो बीच में जब भी झटके खाने लगती है तभी बरक्शॉ में खड़ी हो जाती है। इस बार कुछ ऐहतियात से चलाई गई तो झटके कम लगे, एक जोर का आया तो था पर वो साइकिल वाले की मदद से झेल लिया गया। फिलहाल पुरानी कार पाँच साला सर्विस के लिए बरक्शॉ में है।
आगे की कथा में पढि़ए क्या हो रहा है वहाँ पुरानी कार के संग।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .
जैसे हरि अनंता, हरि कथा अनंता! वैसे ही जनतन्तर अनंता और जनतन्तर कथा अनंता! सकल परथी के भिन्न-भिन्न खंडों पर भाँत-भाँत के रूप,आकार और रंगों के कीट दृष्टिगोचर होते हैं, उन की जीवन शैली भी भाँत-भाँत की है। वैसे ही जनतन्तर भी देस-देस में भाँत-भाँत का होता है। जब भरतखंड के एक खंड को भारतवर्ष कहा गया तो उसे गणतन्तर भी घोषित कर दिया। सब कहते हैं कि गणतन्तर भरतखंड की प्राचीन परंपरा है। पर जानते कितने हैं? एक पाठक ने प्रश्न किया गणतन्तर और जनतन्तर में क्या भेद है?
हे, पाठक!
अब हम गणतन्तर और जनतन्तर भेद लिखते हैं। पहले के जमाने में देस में एक राजा हुआ करता था जो देस पर राज करता था। राज करना एक कला भी थी और सामर्थ्य भी, कला से ज्यादा सामर्थ्य थी। राजा को अपने देस पर और परजा पर नियंत्रण बना कर रखना पड़ता था। यह सब काम वह किसम किसम के लोगों के जरीए करता था। जिनमें मतरी, जागीरदार वगैरा हुआ करते थे। देस बड़ा हुआ तो सूबे भी होते थे और सूबेदार भी। राजा को हटाने का तरीका यही था कि देस में बगावत हो जाए, या दूसरा कोई राजा लड़ाई कर देस पर कब्जा कर ले। आम तौर पर राजा का बेटा ही अगला राजा हुआ करता था। इसी को राजतन्तर कहते थे। पुराने जमाने में भरतखंड के बहुत से देसों में गणतन्तर होते थे। यानी परिवारों के मुखियाओं की पंचायत, पंचायत के मुखियाओं से कबीलों की पंचायत, कबीलों के मुखिया सरदार और सरदारों की पंचायत देस की पंचायत, देस की पंचायत का मुखिया राजा। विद्वानों ने गणतन्तर को इस तरह कहा, कि जो राजतन्तर न हो और जिस में बंस परंपरा से बनने वाले राजा शासन न हो। बल्कि किसी भी और तरीके से जनता या जनता का कोई हिस्सा राज करने वालों की पंचायत को चुनता हो।
हे, पाठक!
भारतवर्ष गणतन्तर बना तो साथ ही यह भी घोषणा हो गई कि यह जनतन्तर होगा और देस के हर एक बालिग को वोट देने का अधिकार होगा। देस का राज महापंचायत करेगी, जिस के लिए हर खेत के बालिग अपना एक गण चुनेंगे। इन गणों के बहुमत का नेता महापंचायत का परधान होगा। हमने भारतवर्ष को गणतन्तर भी बना लिया और जनतंतर भी बना लिया। पर इस में भी भीतर ही भीतर वो सबी तन्तर पलते रह गए जिन को परदेसी के साथ ही सिधार जाना था। परदेसी चले गए, । देस में उन का राज चलाने वाले सब यहीं रह गए। परदेसी के जाने की हवा बनते ही उन ने कहना शुरू कर दिया था कि राज तो वे ही चलाएँगे, जो चलाना जानते हैं। उन को चुना न गया तो सुराज फेल हो जाना है। लोग झाँसे में आ गए, लोगों ने उन को ही चुनना शुरू कर दिया।
हे, पाठक!
इस तरह गणतन्तर में पुराने सब तन्तर जिन्दा रहे । वैसे ही, जैसे कंपनी ने पुरानी कार को चमका-चमकू के शो-रूम में खड़ी कर दी हो, और खरीद के नया रजिस्ट्रेशन नंबर ले कर इतरा रहे हों कि नए कार के मालिक हैं। बरस भर बाद जब अंदर के घिसे पुरजे जवाब देना शुरू करें तो पता लगे कि नयी कार नयी होती है और पुरानी पुरानी। पर करें तो क्या करें? जब तक नयी कार न लेंगे पुरानी से ही काम चलाना होगा। भारतवासी तीन-बीसी से पुरानी कार घसीट रहे हैं। नयी कार कब आएगी? यह भविष्य के गर्भ में है। कार की हर पाँच साल में सर्विस जरूरी है। पुरानी है तो बीच में जब भी झटके खाने लगती है तभी बरक्शॉ में खड़ी हो जाती है। इस बार कुछ ऐहतियात से चलाई गई तो झटके कम लगे, एक जोर का आया तो था पर वो साइकिल वाले की मदद से झेल लिया गया। फिलहाल पुरानी कार पाँच साला सर्विस के लिए बरक्शॉ में है।
आगे की कथा में पढि़ए क्या हो रहा है वहाँ पुरानी कार के संग।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .
शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009
जो चमकाए देस उन को हम चमकाए देत : जनतन्तर कथा (14)
हे, पाठक!
किसी भी पंचायत का पाँच साल चल जाना आज के वक्त में बड़ी बात है। भले ही चाचा पन्द्रह साल और उन की बेटी दस साल पंचायत में बैठी रही हो, पर अब वह अपवाद ही नजर आता है। अब तो इस का उदाहरण भारतवर्ष में केवल बंग ही रह गया है जहाँ इक्सीस सालों से एक ही गठबंधन पंचायत में जमा बैठा है। बाकी तो यह कहा जाता है कि जो भी सरकार पाँच साल चले वह विपथगामिता का शिकार हुए बिना नहीं रहती। जनता को भी अब रोटी पलट कर सेंकने की आदत बन चली है। ऐसा नहीं कि वायरस पार्टी की छत्रछाया में चली इस सरकार की उपलब्धियाँ कम रही हों। लेकिन जनता का वह तबका जो हर बार अपनी राय बदल कर नतीजे बदलता है, शायद सिर्फ यही देखना चाहता है कि उस की खुद की हालत पंचायत ने कितनी और कैसी बदली है? जैसी उस की हालत बदलती है वैसी ही वह सरकार की बदल देती है।
हे, पाठक!
पिछला महापंचायत चुनाव जहाँ दो शख्सियतों का सीधा टकराव था वहीं दो गठजोड़ों का मुकाबला था। तीसरी ताकत बीच में कहीं नहीं थी। गठजोडों के मुकाबले में जहाँ वायरस पार्टी को तेरह दिन, तेरह माह पंचायत चला कर महारत मिल गई थी, वहीं बैक्टीरिया पार्टी को एकला चालो रे से मुक्ति पानी थी। देखा जाए तो वायरस पार्टी एण्ड कंपनी के अच्छे चांसेज थे। चौथे खंबे ने भी उन का बहुत साथ दिया। वे मतदान के पहले ही नमूने के मतदानों में इसे विजयी भवः का आशीर्वाद दे चुके थे। पर महान देस की महान जनता की महानता इसी में है कि वह आखिरी पल तक भी इस बात का अनुमान नहीं देती कि वह क्या करने जा रही है। शायद गुप्त मतदान का पाठ सब से अच्छी तरह उसी ने पढ़ा है। सबक सीख कर सिखाना भी वह सीख चुकी है।
हे, पाठक!
जनता ने देखा कि, इस सरकार ने अपनी उपलब्धियाँ गिनाना शुरू कर दिया। वह कह रही थी, हम ने जनता को फील गुड कराया है अब हम देस को चमकाएँगे। देस की जनता को फील गु़ड पसंद नहीं आया। शायद वह फील गुड केवल नेता महसूसते थे। जनता ने सोचा, हमारा काहे का फील गुड? हम तो वही हैं जहाँ पहले थे, जीने की मुश्किलें और बढ़ गई हैं। वह अपना पाँच साल का बेड फील बताती तो चमचे उसे चुप करा देते। बोलते यह फील गुड में समझती ही नहीं है। जनता ने वायरस पार्टी एण्ड कंपनी को फील गुड करा दिया बोली, तुम काहे का देस चमकाओगे हम तुमको ही चमकाए देत हैं।
हे, पाठक!
जब नतीजे आने लगे तो वायरस पार्टी के फील गुड ने अंतरिक्ष की राह पकड़ी और नतीजे आने के बाद अपनी हार स्वीकार कर ली। बैक्टीरिया पार्टी के लिए फिर से सत्ता के सुहाने सफर का मार्ग प्रशस्त हो चला था। चुनाव के पहले वह किसी से पक्का याराना नहीं बना सकी थी। लेकिन बाद में उस ने जुगत भिड़ा ली और यार कबाड़ लिए, यहाँ तक कि लाल वस्त्र धारिणी बहनों ने भी घर के बाहर से ही सही साथ देने का वायदा कर लिया। अन्दाज था कि लोग परदेसी मेम को ही मुखिया मान लेंगे। वायरसों ने हल्ला भी खूब मचाया। लेकिन परदेसी मेम शातिर निकली। उस ने खुद ही मुखिया बनने से इन्कार कर दिया और एक अर्थ विद्वान को मुखिया बना दिया। लाठी भी न टूटी, और साँप भी मर गया। स्कीम में बिना मरे, शहीद का दर्जा पाया सो अलग। महापंचायत फिर चल निकली। पूरे पाँच साल गुजारे। हालांकि लाल वस्त्र धारिणियों ने बीच में साथ छोड़ा तो वे काम आए जो बेचारे पहले बेइज्जत हुए थे।
हे, पाठक!
इस तरह अब तक खंडित भरतखंड के इस भारत वर्ष में आज तक जितनी महापंचायतें हुई हैं और उन के चुनाव की जो गाथा थी वह सार संक्षेप में आप को बताई। उन्हें विस्तार से बताया जाता तो हनुमान की पूँछ की तरह हो लेती। यह भी भय था कि पाठक मंडल प्रसन्न होने के स्थान पर नाराज हो कर हमें फील गुड कह देता। वैसे भी सूचना की दुनिया इतनी विस्तृत है कि जानने को बहुत कुछ है और समय बहुत कम। आजकल फिर महापंचायत का चुनाव चल रहा है। कल उस के लिए देस की चौथाई हिस्सा मतदान कर चुका है।
आज का वक्त यहीं खत्म, अगली बैठक में... कथा होगी मौजूदा महापंचायत चुनाव की
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .
किसी भी पंचायत का पाँच साल चल जाना आज के वक्त में बड़ी बात है। भले ही चाचा पन्द्रह साल और उन की बेटी दस साल पंचायत में बैठी रही हो, पर अब वह अपवाद ही नजर आता है। अब तो इस का उदाहरण भारतवर्ष में केवल बंग ही रह गया है जहाँ इक्सीस सालों से एक ही गठबंधन पंचायत में जमा बैठा है। बाकी तो यह कहा जाता है कि जो भी सरकार पाँच साल चले वह विपथगामिता का शिकार हुए बिना नहीं रहती। जनता को भी अब रोटी पलट कर सेंकने की आदत बन चली है। ऐसा नहीं कि वायरस पार्टी की छत्रछाया में चली इस सरकार की उपलब्धियाँ कम रही हों। लेकिन जनता का वह तबका जो हर बार अपनी राय बदल कर नतीजे बदलता है, शायद सिर्फ यही देखना चाहता है कि उस की खुद की हालत पंचायत ने कितनी और कैसी बदली है? जैसी उस की हालत बदलती है वैसी ही वह सरकार की बदल देती है।
हे, पाठक!
पिछला महापंचायत चुनाव जहाँ दो शख्सियतों का सीधा टकराव था वहीं दो गठजोड़ों का मुकाबला था। तीसरी ताकत बीच में कहीं नहीं थी। गठजोडों के मुकाबले में जहाँ वायरस पार्टी को तेरह दिन, तेरह माह पंचायत चला कर महारत मिल गई थी, वहीं बैक्टीरिया पार्टी को एकला चालो रे से मुक्ति पानी थी। देखा जाए तो वायरस पार्टी एण्ड कंपनी के अच्छे चांसेज थे। चौथे खंबे ने भी उन का बहुत साथ दिया। वे मतदान के पहले ही नमूने के मतदानों में इसे विजयी भवः का आशीर्वाद दे चुके थे। पर महान देस की महान जनता की महानता इसी में है कि वह आखिरी पल तक भी इस बात का अनुमान नहीं देती कि वह क्या करने जा रही है। शायद गुप्त मतदान का पाठ सब से अच्छी तरह उसी ने पढ़ा है। सबक सीख कर सिखाना भी वह सीख चुकी है।
हे, पाठक!
जनता ने देखा कि, इस सरकार ने अपनी उपलब्धियाँ गिनाना शुरू कर दिया। वह कह रही थी, हम ने जनता को फील गुड कराया है अब हम देस को चमकाएँगे। देस की जनता को फील गु़ड पसंद नहीं आया। शायद वह फील गुड केवल नेता महसूसते थे। जनता ने सोचा, हमारा काहे का फील गुड? हम तो वही हैं जहाँ पहले थे, जीने की मुश्किलें और बढ़ गई हैं। वह अपना पाँच साल का बेड फील बताती तो चमचे उसे चुप करा देते। बोलते यह फील गुड में समझती ही नहीं है। जनता ने वायरस पार्टी एण्ड कंपनी को फील गुड करा दिया बोली, तुम काहे का देस चमकाओगे हम तुमको ही चमकाए देत हैं।
हे, पाठक!
जब नतीजे आने लगे तो वायरस पार्टी के फील गुड ने अंतरिक्ष की राह पकड़ी और नतीजे आने के बाद अपनी हार स्वीकार कर ली। बैक्टीरिया पार्टी के लिए फिर से सत्ता के सुहाने सफर का मार्ग प्रशस्त हो चला था। चुनाव के पहले वह किसी से पक्का याराना नहीं बना सकी थी। लेकिन बाद में उस ने जुगत भिड़ा ली और यार कबाड़ लिए, यहाँ तक कि लाल वस्त्र धारिणी बहनों ने भी घर के बाहर से ही सही साथ देने का वायदा कर लिया। अन्दाज था कि लोग परदेसी मेम को ही मुखिया मान लेंगे। वायरसों ने हल्ला भी खूब मचाया। लेकिन परदेसी मेम शातिर निकली। उस ने खुद ही मुखिया बनने से इन्कार कर दिया और एक अर्थ विद्वान को मुखिया बना दिया। लाठी भी न टूटी, और साँप भी मर गया। स्कीम में बिना मरे, शहीद का दर्जा पाया सो अलग। महापंचायत फिर चल निकली। पूरे पाँच साल गुजारे। हालांकि लाल वस्त्र धारिणियों ने बीच में साथ छोड़ा तो वे काम आए जो बेचारे पहले बेइज्जत हुए थे।
हे, पाठक!
इस तरह अब तक खंडित भरतखंड के इस भारत वर्ष में आज तक जितनी महापंचायतें हुई हैं और उन के चुनाव की जो गाथा थी वह सार संक्षेप में आप को बताई। उन्हें विस्तार से बताया जाता तो हनुमान की पूँछ की तरह हो लेती। यह भी भय था कि पाठक मंडल प्रसन्न होने के स्थान पर नाराज हो कर हमें फील गुड कह देता। वैसे भी सूचना की दुनिया इतनी विस्तृत है कि जानने को बहुत कुछ है और समय बहुत कम। आजकल फिर महापंचायत का चुनाव चल रहा है। कल उस के लिए देस की चौथाई हिस्सा मतदान कर चुका है।
आज का वक्त यहीं खत्म, अगली बैठक में... कथा होगी मौजूदा महापंचायत चुनाव की
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .
गुरुवार, 16 अप्रैल 2009
पाँच बरस चल गया साँझे का चूल्हा : जनतन्तर-कथा (13)
हे, पाठक!
ये जो बैक्टीरिया पार्टी है न? यह ऐसे ही बैक्टीरिया पार्टी नहीं बन गई। इसे ऐसी बनने में बरसों लग गए। तब भरतखण्ड पर परदेसी राज करते थे, और इस बिचार के साथ कि उस परदेसी राज में भी पड़े लिखे भारतियों की अहम भूमिका हो एक कमेटी गठित की गई थी। तब यह बैक्टीरिया पार्टी नहीं थी। तब यह नयी कोंपल की तरह थी, जिसे विकसित होना था। वह विकसित हुई और इस हद तक कि एक दिन पूर्ण स्वराज्य उस की मांग हो गया। लेकिन जैसे जैसे स्वराज्य की संभावना बढ़ती गई और इस बात की भी कि सुराज में इस पार्टी का अहम रोल रहेगा। बैक्टीरियाओं ने इस के पेट में प्रवेश करना शुरू कर दिया था। जब बिदेसी बनिए का बोरिया बिस्तर हमेशा के लिए जहाज में लदा तब तक बहुत से बैक्टीरिया छुपे रास्ते से अंदर प्रवेश कर गए। पर उन दिनों स्वराज का जुनून था और बैक्टीरियाओं को कुछ करने का मौका न था। कुछ करते तो पकड़े जाते और भेद खुल जाता। पर पन्द्रह बीस वर्षों में बेक्टीरियाओं ने अपनी जगह इतनी पक्की कर ली कि उन्हें बाहर खदेड़ कर पार्टी का अस्तित्व बचा पाना कठिन था। फिर एक अवसर ऐसा भी आया कि बैक्टीरिया प्रमुख हो गए। और मूल पार्टी अपना अस्तित्व ही खो बैठी। आज यह पूरी तरह से बैक्टीरिया पार्टी बन चुकी है। पुराने जमाने का उल्लेख केवल खुद को गौरवशाली बनाने के लिए किया जाता है।
हे, पाठक!
आज लोग बैक्टीरिया पार्टी की असलियत जानते हैं लेकिन फिर भी उसे बर्दाश्त करते हैं। वे इस भ्रम में हैं कि अकेले इसी पार्टी के बैक्टीरिया सारे भारतवर्ष में फैले हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। अनेक स्थानों पर उस का अस्तित्व नगण्य हो गया है और वहाँ नए प्रकार की प्रजातियाँ उन की जगह ले रही हैं। सवा सौ साल पुरानी पार्टी अब भी अपना अस्तित्व बनाए हुए है। लेकिन कब तक? आचार्य बृहस्पति सत्य कह गए हैं कि जो पैदा हुआ है वह मरेगा। यह पार्टी पैदा हुई थी तो मरेगी भी अवश्य ही, लेकिन कब? यह तो अभी भविष्य के गर्भ में छुपा है। इस पार्टी का स्थान लेने के लिए अनेक दूसरी प्रजातियाँ लगातार कोशिश करती रहती हैं। अभी तक कोई भी उस का स्थान लेने जितना सक्षम नहीं हो सकी है। इन पार्टियों की चर्चा फिर कभी करेंगे। अभी तेरहवीं महापंचायत पर वापस आते हैं।
हे, पाठक!
तेरहवीं महापंचायत में बैक्टीरिया पार्टी की हार का एक कारण यह भी था कि उस ने अपने जवान प्रधान की हत्या के बाद उस की परदेसी पत्नी को आगे किया था उसे पार्टी की प्रधान बना दिया था। इस से पार्टी के कुछ बैक्टीरिया नाराज हो कर अलग हो गए थे और विरोधियों को मौका मिल गया था। देस को अभी तक परदेसी कुछ खास पसंद न थे यहाँ तक कि खुद बैक्टीरिया पार्टी का भी यही हाल था। लेकिन बाकी सभी अगुआ बैक्टीरिया दूसरे को पसंद न करते थे और आपस में लड़ भिड़ कर पार्टी को ही नष्ट कर सकते थे। ऐसे आपातकाल में अच्छा यही था कि अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए उसे स्वीकार कर लें।
हे, पाठक!
तेरहवीं महापंचायत पूरे पाँच साल चली। यह भारतवर्ष के लिए ऐतिहासिक बात थी कि नाना प्रकार के प्राणियों से बनी, साँझे चूल्हे पर पकाने वाली सरकार अपना समय पूरा कर गई। इस के अच्छे नतीजे भी आए। आर्थिक स्थिति मजबूत होने लगी। परदेसी सिक्कों से भंडार भरा रहने लगा। इस सरकार ने उत्पादन के साथ साथ सेवा को भी महत्व दिया जिस से नए रोजगार उत्पन्न होने लगे। देस के हालात ठीक ठीक लगने लगे। इस सरकार के केन्द्र में वायरस पार्टी थी जिस ने अन्य प्रकार के जीवों से मजबूत याराना बना कर सरकार को चलाया था। लेकिन इस बीच बैक्टीरिया पार्टी ने भी बहुत से सबक लिए थे। जिन में प्रमुख यह था कि वह जमाना गया जब वे अकेले सरकार बना और चला सकते थे। इस लिए उन्हों ने भी अन्य प्रजातियों के साथ याराना बढ़ाना शुरू किया। इस तरह देस में दो ध्रुव उभर कर आए। दोनों की खूबियाँ ये थीं कि ये यारों की मजलिस थे। लाल वस्त्र धारी बहनों की हालत मे कोई बदलाव नहीं था। देस से कोई उल्लेखनीय पोषण नहीं मिलने पर भी उन की स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई थी। बैक्टीरिया और वायरस रोज यह चाहते थे कि इन का अस्तित्व खाँ मो खाँ बना हुआ है, कैसे भी ये न रहें तो शायद उन की हालत में इजाफा हो। लेकिन बहुत ही प्रयास करने पर भी उन दोनों बहनों का कुछ भी न बिगड़ता था, वे अपना अस्तित्व बनाए हुए थीं। यह बाकी पार्टियों के लिए चिंता का विषय था। इसी बीच चौदहवीं पंचायत की तैयारी होने लगी।
ये जो बैक्टीरिया पार्टी है न? यह ऐसे ही बैक्टीरिया पार्टी नहीं बन गई। इसे ऐसी बनने में बरसों लग गए। तब भरतखण्ड पर परदेसी राज करते थे, और इस बिचार के साथ कि उस परदेसी राज में भी पड़े लिखे भारतियों की अहम भूमिका हो एक कमेटी गठित की गई थी। तब यह बैक्टीरिया पार्टी नहीं थी। तब यह नयी कोंपल की तरह थी, जिसे विकसित होना था। वह विकसित हुई और इस हद तक कि एक दिन पूर्ण स्वराज्य उस की मांग हो गया। लेकिन जैसे जैसे स्वराज्य की संभावना बढ़ती गई और इस बात की भी कि सुराज में इस पार्टी का अहम रोल रहेगा। बैक्टीरियाओं ने इस के पेट में प्रवेश करना शुरू कर दिया था। जब बिदेसी बनिए का बोरिया बिस्तर हमेशा के लिए जहाज में लदा तब तक बहुत से बैक्टीरिया छुपे रास्ते से अंदर प्रवेश कर गए। पर उन दिनों स्वराज का जुनून था और बैक्टीरियाओं को कुछ करने का मौका न था। कुछ करते तो पकड़े जाते और भेद खुल जाता। पर पन्द्रह बीस वर्षों में बेक्टीरियाओं ने अपनी जगह इतनी पक्की कर ली कि उन्हें बाहर खदेड़ कर पार्टी का अस्तित्व बचा पाना कठिन था। फिर एक अवसर ऐसा भी आया कि बैक्टीरिया प्रमुख हो गए। और मूल पार्टी अपना अस्तित्व ही खो बैठी। आज यह पूरी तरह से बैक्टीरिया पार्टी बन चुकी है। पुराने जमाने का उल्लेख केवल खुद को गौरवशाली बनाने के लिए किया जाता है।
हे, पाठक!
आज लोग बैक्टीरिया पार्टी की असलियत जानते हैं लेकिन फिर भी उसे बर्दाश्त करते हैं। वे इस भ्रम में हैं कि अकेले इसी पार्टी के बैक्टीरिया सारे भारतवर्ष में फैले हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। अनेक स्थानों पर उस का अस्तित्व नगण्य हो गया है और वहाँ नए प्रकार की प्रजातियाँ उन की जगह ले रही हैं। सवा सौ साल पुरानी पार्टी अब भी अपना अस्तित्व बनाए हुए है। लेकिन कब तक? आचार्य बृहस्पति सत्य कह गए हैं कि जो पैदा हुआ है वह मरेगा। यह पार्टी पैदा हुई थी तो मरेगी भी अवश्य ही, लेकिन कब? यह तो अभी भविष्य के गर्भ में छुपा है। इस पार्टी का स्थान लेने के लिए अनेक दूसरी प्रजातियाँ लगातार कोशिश करती रहती हैं। अभी तक कोई भी उस का स्थान लेने जितना सक्षम नहीं हो सकी है। इन पार्टियों की चर्चा फिर कभी करेंगे। अभी तेरहवीं महापंचायत पर वापस आते हैं।
हे, पाठक!
तेरहवीं महापंचायत में बैक्टीरिया पार्टी की हार का एक कारण यह भी था कि उस ने अपने जवान प्रधान की हत्या के बाद उस की परदेसी पत्नी को आगे किया था उसे पार्टी की प्रधान बना दिया था। इस से पार्टी के कुछ बैक्टीरिया नाराज हो कर अलग हो गए थे और विरोधियों को मौका मिल गया था। देस को अभी तक परदेसी कुछ खास पसंद न थे यहाँ तक कि खुद बैक्टीरिया पार्टी का भी यही हाल था। लेकिन बाकी सभी अगुआ बैक्टीरिया दूसरे को पसंद न करते थे और आपस में लड़ भिड़ कर पार्टी को ही नष्ट कर सकते थे। ऐसे आपातकाल में अच्छा यही था कि अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए उसे स्वीकार कर लें।
हे, पाठक!
तेरहवीं महापंचायत पूरे पाँच साल चली। यह भारतवर्ष के लिए ऐतिहासिक बात थी कि नाना प्रकार के प्राणियों से बनी, साँझे चूल्हे पर पकाने वाली सरकार अपना समय पूरा कर गई। इस के अच्छे नतीजे भी आए। आर्थिक स्थिति मजबूत होने लगी। परदेसी सिक्कों से भंडार भरा रहने लगा। इस सरकार ने उत्पादन के साथ साथ सेवा को भी महत्व दिया जिस से नए रोजगार उत्पन्न होने लगे। देस के हालात ठीक ठीक लगने लगे। इस सरकार के केन्द्र में वायरस पार्टी थी जिस ने अन्य प्रकार के जीवों से मजबूत याराना बना कर सरकार को चलाया था। लेकिन इस बीच बैक्टीरिया पार्टी ने भी बहुत से सबक लिए थे। जिन में प्रमुख यह था कि वह जमाना गया जब वे अकेले सरकार बना और चला सकते थे। इस लिए उन्हों ने भी अन्य प्रजातियों के साथ याराना बढ़ाना शुरू किया। इस तरह देस में दो ध्रुव उभर कर आए। दोनों की खूबियाँ ये थीं कि ये यारों की मजलिस थे। लाल वस्त्र धारी बहनों की हालत मे कोई बदलाव नहीं था। देस से कोई उल्लेखनीय पोषण नहीं मिलने पर भी उन की स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई थी। बैक्टीरिया और वायरस रोज यह चाहते थे कि इन का अस्तित्व खाँ मो खाँ बना हुआ है, कैसे भी ये न रहें तो शायद उन की हालत में इजाफा हो। लेकिन बहुत ही प्रयास करने पर भी उन दोनों बहनों का कुछ भी न बिगड़ता था, वे अपना अस्तित्व बनाए हुए थीं। यह बाकी पार्टियों के लिए चिंता का विषय था। इसी बीच चौदहवीं पंचायत की तैयारी होने लगी।
बुधवार, 15 अप्रैल 2009
चालीस माह में महा-पंचायत के तीन चुनाव : जनतन्तर-कथा (12)
ग्यारहवीं महापंचायत पूरी तरह से ऐतिहासिक थी। वायरस पार्टी की सरकार तेरह दिन चली। विश्वास मत पर घंटों बहस हुई। बहस के बाद मतदान होता, उस से पहले ही सरकार ने हार मान ली। अरे भाई जब जानते थे कि सरकार नहीं बचा पाएँगे तो बनाई क्यों थी? अपनी समझ में कुछ नहीं आया। दो बातें समझ में आती हैं, एक तो यह कि शायद सरकार बनने के बाद रुतबे से ही कुछ मनसबदार टूट जाएँ, ट्राई मारने में क्या बुराई है। फिर ट्राई मारी गई और फेल हो गए। दूसरा यह कि जानते थे, सरकार न बचा पाएँगे। फिर भी 13 दिन का प्रधान होना क्या बुरा है? वह भी तब जब न्यौता मिला हो, इतिहास में तो दर्ज हो ही जाएँगे। एक तीसरा विकल्प और भी, कि इस से संसद में भाषण का अवसर तो मिलेगा। टीवी पर करोड़ों लोग एक साथ देखेंगे। कुछ नहीं तो प्रचार मिलेगा। खैर मकसद कुछ भी रहा हो। तेरह दिन की शहंशाही खत्म हो गई। भारतवर्ष ने तो एक दिन में चमड़े के सिक्के चलते देखे हैं, यह कौन सी नई बात हुई।
सरकार का ऐसा अंत देखा तो इस महापंचायत में बैक्टीरिया पार्टी दूसरी सब से बड़ी थी पर सरकार बनाने तैयार न हुई, तो दक्षिण का एक किसान पंच आ गया। उसे प्रधान बनाया गया। वह जानता था कि बहुत दिनों नहीं सम्भाल सकेगा। पर हरदनहल्ली को इस भाव में इतिहास में नाम लिखाने से क्या परहेज हो सकता था। किसान किसानी संभाल ले वही बहुत। लेकिन बैक्टीरिया ने काम बिगाड़ा। ये बैक्टीरिया भी बड़े अजीब हैं। पेट में रहते हैं, तो पाचन चलता रहता है, शरीर चलता रहता है। किसी कारण हड़ताल कर गए तो फिर शरीर के हाल खराब। बैद-डाक्टर कहते हैं, दही खाओ, पेट में बैक्टीरिया पहुंचाओ, लगे दस्त अपने आप मुकाम पकड़ लेंगे। बैक्टीरिया हरदनहल्ली का साथ छोड़ गए।
फिर नए बैक्टीरिया की तलाश शुरू हुई तो किसी ने बताया कि परदेस मंत्री का कैप्सूल बैक्टीरिया को टिका सकता है। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी परधानी भी करनी पड़ेगी। पर देश हित में वह भी किया। पंचायत चुनाव जितना देर से होता देश के लिए अच्छा था, खरचा बचता था। उन के भी पेट में बैक्टीरिया कुछ ज्यादा दिन नहीं टिक पाए। टालते टालते भी चुनाव का खरचा नहीं बचाया जा सका। अट्ठारह माह में ही ग्यारहवीं पंचायत धराशाही हो गई। बारहवीं पंचायत का बिगुल बज गया।
बारहवीं पंचायत फिर से बैठी, फिर वही किस्सा। तेरह दिन की सरकार के मुखिया ने फिर से परधान का पद संभाला। पीछे के अनुभव काम आए। चौबीस गुटों को एक कर पिछली पंचायत के तेरह दिनों को तेरह माह में तब्दील किया। पर एक अभिनेत्री को न संभाल पाए। वह हाथ छुड़ा कर भाग ली। सरकार पर संशय खड़ा हो गया। पिछली बार विश्वास मत लेना था। इस बार अविश्वास मत का नंबर था। एक मत से सरकार पिट गई। फिर चुनाव हुए। इस बार दो बातों का साथ मिला एक तो बाजार को हवा पानी के लिए खोलने से देस में ब्योपार बढ़ा तो बनिए खुश थे। दूसरे सीमा पर गड़बड़ करने वालों का मुकाबला किया गया था। दोनों ने वायरस पार्टी के गठजोड़ को अच्छा खासा तसल्ली बख्श बहुमत दिला दिया। तसल्ली हुई कि इस बार महापंचायत को पूरे समय चलाई जा सकेगी। हालांकि यह शर्त जरूर थी कि गठजोड़ के साथियों की राय माननी पड़ेगी, उस हद तक कि वे रूठें तो सही, पर भागें नहीं। सरकार चलने लगी। वायरस पार्टी के गठजोड़ का सिक्का चलने लगा था। पर देस की जनता ने चालीस महिनों में तीन महापंचायतों के चुनाव देखे नहीं थे ढोए थे। आखिर चुनाव का खऱचा तो जनता को ही भुगतना था।
सरकार का ऐसा अंत देखा तो इस महापंचायत में बैक्टीरिया पार्टी दूसरी सब से बड़ी थी पर सरकार बनाने तैयार न हुई, तो दक्षिण का एक किसान पंच आ गया। उसे प्रधान बनाया गया। वह जानता था कि बहुत दिनों नहीं सम्भाल सकेगा। पर हरदनहल्ली को इस भाव में इतिहास में नाम लिखाने से क्या परहेज हो सकता था। किसान किसानी संभाल ले वही बहुत। लेकिन बैक्टीरिया ने काम बिगाड़ा। ये बैक्टीरिया भी बड़े अजीब हैं। पेट में रहते हैं, तो पाचन चलता रहता है, शरीर चलता रहता है। किसी कारण हड़ताल कर गए तो फिर शरीर के हाल खराब। बैद-डाक्टर कहते हैं, दही खाओ, पेट में बैक्टीरिया पहुंचाओ, लगे दस्त अपने आप मुकाम पकड़ लेंगे। बैक्टीरिया हरदनहल्ली का साथ छोड़ गए।
फिर नए बैक्टीरिया की तलाश शुरू हुई तो किसी ने बताया कि परदेस मंत्री का कैप्सूल बैक्टीरिया को टिका सकता है। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी परधानी भी करनी पड़ेगी। पर देश हित में वह भी किया। पंचायत चुनाव जितना देर से होता देश के लिए अच्छा था, खरचा बचता था। उन के भी पेट में बैक्टीरिया कुछ ज्यादा दिन नहीं टिक पाए। टालते टालते भी चुनाव का खरचा नहीं बचाया जा सका। अट्ठारह माह में ही ग्यारहवीं पंचायत धराशाही हो गई। बारहवीं पंचायत का बिगुल बज गया।
बारहवीं पंचायत फिर से बैठी, फिर वही किस्सा। तेरह दिन की सरकार के मुखिया ने फिर से परधान का पद संभाला। पीछे के अनुभव काम आए। चौबीस गुटों को एक कर पिछली पंचायत के तेरह दिनों को तेरह माह में तब्दील किया। पर एक अभिनेत्री को न संभाल पाए। वह हाथ छुड़ा कर भाग ली। सरकार पर संशय खड़ा हो गया। पिछली बार विश्वास मत लेना था। इस बार अविश्वास मत का नंबर था। एक मत से सरकार पिट गई। फिर चुनाव हुए। इस बार दो बातों का साथ मिला एक तो बाजार को हवा पानी के लिए खोलने से देस में ब्योपार बढ़ा तो बनिए खुश थे। दूसरे सीमा पर गड़बड़ करने वालों का मुकाबला किया गया था। दोनों ने वायरस पार्टी के गठजोड़ को अच्छा खासा तसल्ली बख्श बहुमत दिला दिया। तसल्ली हुई कि इस बार महापंचायत को पूरे समय चलाई जा सकेगी। हालांकि यह शर्त जरूर थी कि गठजोड़ के साथियों की राय माननी पड़ेगी, उस हद तक कि वे रूठें तो सही, पर भागें नहीं। सरकार चलने लगी। वायरस पार्टी के गठजोड़ का सिक्का चलने लगा था। पर देस की जनता ने चालीस महिनों में तीन महापंचायतों के चुनाव देखे नहीं थे ढोए थे। आखिर चुनाव का खऱचा तो जनता को ही भुगतना था।
मंगलवार, 14 अप्रैल 2009
तेरह दिन की सरकार : जनतन्तर-कथा (11)
हे, पाठक!
नौ वीं महापंचायत पाँच साल के बजाय केवल सोलह महीने चली। कोई एक पार्टी नहीं थी जो महा पंचायत में बहुमत में होती और नेता चुन कर उसे टिकाऊ रख पाती। दसवीं महापंचायत बुलानी पड़ी। पाँचवीं महापंचायत में देस से गरीबी हटाने की बात थी। उस का मजाक बना तो भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन चला। इस के बाद महंगाई का भी उल्लेख हुआ। इन सब मुद्दों से परेशानी सिर्फ बनियों को थी। सब उन की लूट के पीछे पड़े थे। लेकिन उस ने भी परदेसियों से कुछ तो सीखा ही था। उस ने जवान नेता को उकसाया, मंदिर का ताला खुलवा दो। मंदिर वालों के वोट मिलेंगे, मस्जिद वाले तो तुम्हारे साथ हैं ही। जवान नेता ने मंदिर का ताला खुलवाया। बस क्या था? वायरस पार्टी को बैठे बिठाए रोजगार मिल गया। उस ने कमंडल हाथ में ले हवन यज्ञ शुरू कर दिए। उधर बिहारी लल्ला ने हवन में बाधा डाल कर उसे और भड़का दिया। देश में फिर से धरम को लेकर लोगों के बीच वैमनस्य फैलने लगा। लोग एक दूसरे के खून के प्यासे होने लगे।
हे, पाठक!
जब दसवीं महापंचायत के लिये वोट पड़ने की नौबत आई तो एक ओर तो कमंडल थे दूसरी और मण्डल था। लोग दोनों के इर्द गिर्द खड़े हो गए। आम जनता के मुद्दे, रोजगार, विकास, गरीबी गौण हो गए। यही तो बनिए चाहते थे। चुनाव हुआ लेकिन बीच में ही शंहशाह को बीच मैदान में एक छुपे पैदल ने मार गिराया। लेकिन पब्लिक शो समाप्त नहीं होता। वह सिर्फ रुकता है और फिर चल पड़ता है। जवान शहंशाह नहीं रहा था। लोग बेगम को ले कर चल पड़े। बेगम, जिस को अभी देस की बोली सीखनी बाकी थी। तो नतीजे में फिर वही हालत सामने आई। कोई भी पार्टी सरकार बनाने की हालत में नहीं। हाँ नेता की हत्या की सहानुभूति ने बैक्टीरिया पार्टी की संख्या कुछ बढ़ा दी थी। जैसे तैसे भाव-बोली के सहारे बैक्टीरिया पार्टी सरकार बनाने में समर्थ हो गई। एक वि्द्वान बुजुर्ग को नेता चुना गया। उस ने जैसे तैसे देस चलाना शुरू कर दिया। उधर मंदिर खंड में कमंडल पार्टी का सिक्का जम चुका था। देस की सरकार को कमजोर जान उस का जोश बढ़ गया। उस ने भी सरकार पर धावा बोलने के लिए सारा जोर मंदिर-मस्जिद पर लगा दिया। नतीजा यह हुआ कि लोगों ने मस्जिद गिरा दी। मंदिर पर पहरा लग गया जो आज तक जारी है। वायरस पार्टी को मंदिर निर्माण की एक ऐसी मणि मिल गई जो सदा चमकती है, जब चाहो उसे मुहँ से निकालो और पत्थर पर रख कर रोशनी कर लो, जब चाहो उसे मुहँ में रख लो।
हे, पाठक!
बहुत सारी बाधाएँ आईं। फिर भी बाजार पर पड़े पर्दे हटाए गए। कुछ कुछ रोशनी आने लगी। कुछ बाहर जाने लगी। लेकिन बड़े बड़े दिग्गज साथ छोड़ गए, दलाल गली में सरकारी साहूकारों का उपयोग कर के घोटाला कर के लोग हर्षित हुए, हवाला के जरिए धन लाने की बात भी उजागर हुई। नहीं नहीं करते करते भी दसवीं महापंचायत पूरे पाँच बरस चल गई। ग्यारहवीं महापंचायत का वक्त आ गया। साफ साफ तीन खेमे दिखाई देने लगे। बैक्टीरिया और वायरस पार्टी के खेमे तो थे ही एक तीसरा खेमा लाल फ्रॉक वाली बहनों का भी था, कुछ लोग रीझ कर उधर भी इकट्ठे हो रहे थे। इस महापंचायत में कोई इतने खेत न जीत सका कि सरकार बना ले। मणि के प्रभाव से वायरस पार्टी ने पहले से हैसियत तो बढ़ा ली थी पर फिर भी महा पंचायत में एक तिहाई से कम रह गई, बैक्टीरिया पार्टी तो उस से भी पीछे रह गई। लाल फ्रॉक गठजोड़ सब से पीछे था, पर महत्व रखने लगा था। सब से बड़ी होने के कारण वायरस पार्टी के नेता को सरकार बनाने को बुलाया तो उस ने सरकार बना ली। लेकिन तेरह दिन में ही लग गया कि बहुमत न बन पाएगा। खुदै ही इस्तीफा दे पीछे हट गए।
आज फिर वक्त हो चला, ग्यारहवीं महापंचायत में क्या क्या हुआ?अगली बैठक में...
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
नौ वीं महापंचायत पाँच साल के बजाय केवल सोलह महीने चली। कोई एक पार्टी नहीं थी जो महा पंचायत में बहुमत में होती और नेता चुन कर उसे टिकाऊ रख पाती। दसवीं महापंचायत बुलानी पड़ी। पाँचवीं महापंचायत में देस से गरीबी हटाने की बात थी। उस का मजाक बना तो भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन चला। इस के बाद महंगाई का भी उल्लेख हुआ। इन सब मुद्दों से परेशानी सिर्फ बनियों को थी। सब उन की लूट के पीछे पड़े थे। लेकिन उस ने भी परदेसियों से कुछ तो सीखा ही था। उस ने जवान नेता को उकसाया, मंदिर का ताला खुलवा दो। मंदिर वालों के वोट मिलेंगे, मस्जिद वाले तो तुम्हारे साथ हैं ही। जवान नेता ने मंदिर का ताला खुलवाया। बस क्या था? वायरस पार्टी को बैठे बिठाए रोजगार मिल गया। उस ने कमंडल हाथ में ले हवन यज्ञ शुरू कर दिए। उधर बिहारी लल्ला ने हवन में बाधा डाल कर उसे और भड़का दिया। देश में फिर से धरम को लेकर लोगों के बीच वैमनस्य फैलने लगा। लोग एक दूसरे के खून के प्यासे होने लगे।
हे, पाठक!
जब दसवीं महापंचायत के लिये वोट पड़ने की नौबत आई तो एक ओर तो कमंडल थे दूसरी और मण्डल था। लोग दोनों के इर्द गिर्द खड़े हो गए। आम जनता के मुद्दे, रोजगार, विकास, गरीबी गौण हो गए। यही तो बनिए चाहते थे। चुनाव हुआ लेकिन बीच में ही शंहशाह को बीच मैदान में एक छुपे पैदल ने मार गिराया। लेकिन पब्लिक शो समाप्त नहीं होता। वह सिर्फ रुकता है और फिर चल पड़ता है। जवान शहंशाह नहीं रहा था। लोग बेगम को ले कर चल पड़े। बेगम, जिस को अभी देस की बोली सीखनी बाकी थी। तो नतीजे में फिर वही हालत सामने आई। कोई भी पार्टी सरकार बनाने की हालत में नहीं। हाँ नेता की हत्या की सहानुभूति ने बैक्टीरिया पार्टी की संख्या कुछ बढ़ा दी थी। जैसे तैसे भाव-बोली के सहारे बैक्टीरिया पार्टी सरकार बनाने में समर्थ हो गई। एक वि्द्वान बुजुर्ग को नेता चुना गया। उस ने जैसे तैसे देस चलाना शुरू कर दिया। उधर मंदिर खंड में कमंडल पार्टी का सिक्का जम चुका था। देस की सरकार को कमजोर जान उस का जोश बढ़ गया। उस ने भी सरकार पर धावा बोलने के लिए सारा जोर मंदिर-मस्जिद पर लगा दिया। नतीजा यह हुआ कि लोगों ने मस्जिद गिरा दी। मंदिर पर पहरा लग गया जो आज तक जारी है। वायरस पार्टी को मंदिर निर्माण की एक ऐसी मणि मिल गई जो सदा चमकती है, जब चाहो उसे मुहँ से निकालो और पत्थर पर रख कर रोशनी कर लो, जब चाहो उसे मुहँ में रख लो।
हे, पाठक!
बहुत सारी बाधाएँ आईं। फिर भी बाजार पर पड़े पर्दे हटाए गए। कुछ कुछ रोशनी आने लगी। कुछ बाहर जाने लगी। लेकिन बड़े बड़े दिग्गज साथ छोड़ गए, दलाल गली में सरकारी साहूकारों का उपयोग कर के घोटाला कर के लोग हर्षित हुए, हवाला के जरिए धन लाने की बात भी उजागर हुई। नहीं नहीं करते करते भी दसवीं महापंचायत पूरे पाँच बरस चल गई। ग्यारहवीं महापंचायत का वक्त आ गया। साफ साफ तीन खेमे दिखाई देने लगे। बैक्टीरिया और वायरस पार्टी के खेमे तो थे ही एक तीसरा खेमा लाल फ्रॉक वाली बहनों का भी था, कुछ लोग रीझ कर उधर भी इकट्ठे हो रहे थे। इस महापंचायत में कोई इतने खेत न जीत सका कि सरकार बना ले। मणि के प्रभाव से वायरस पार्टी ने पहले से हैसियत तो बढ़ा ली थी पर फिर भी महा पंचायत में एक तिहाई से कम रह गई, बैक्टीरिया पार्टी तो उस से भी पीछे रह गई। लाल फ्रॉक गठजोड़ सब से पीछे था, पर महत्व रखने लगा था। सब से बड़ी होने के कारण वायरस पार्टी के नेता को सरकार बनाने को बुलाया तो उस ने सरकार बना ली। लेकिन तेरह दिन में ही लग गया कि बहुमत न बन पाएगा। खुदै ही इस्तीफा दे पीछे हट गए।
आज फिर वक्त हो चला, ग्यारहवीं महापंचायत में क्या क्या हुआ?अगली बैठक में...
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
रविवार, 12 अप्रैल 2009
नेता, स्टेरॉयड और बाजुओं की बल्लियाँ : जनतन्तर-कथा (10)
हे, पाठक!
दो सौ बरस से भी अधिक काल तक भरत खंड के देसी बासियों की छाती पर मूंग दलने के बाद, बिदेसी यूँ ही अचानक अपने डेरे तम्बू समेट कर नहीं चले गए थे। बहुत लोग कहते हैं खुद वे बहुत परेशानी में थे और भरत खंड पर राज करना मुश्किल हो रहा था। यह बात सच भी है, लेकिन दस फीसदी से ज्यादा नहीं। बनिया तब तक अपनी दुकान बंद नहीं करता जब तक उसे उस में लगी पूंजी के न्यूनतम ब्याज के बराबर भी मुनाफा होता रहे। पर रोज रोज गाँव मुहल्ले के छोकरे आ कर दुकान में पटाखे फोड़ने लगें। ग्राहक दुकान का बहिष्कार कर सौदा लेना बंद कर दें। बनिया कहीं देस में निकले और लोग उसे देख कर थूकने लगें। बेटे-बेटी कहने लगें, अब्बा इस से तो अपना देश ही अच्छा वहाँ कोई हमें देख कर थूकेगा तो नहीं, तो अब्बा को भी परदेस में रहना मुश्किल हो जाएगा। अब्बा घर में कितने ही गीत गाएँ कि वहाँ अपने देस में जो बड़ी कोठी है, वह यहाँ की कमाई के बूते पर ही है। बेटे-बेटी तो न मानें। अब्बा ने मौका देखा, और खानदान समेत खिसक लिया। जाते जाते कह गया, जा तो रहा हूँ, बरसों यहाँ का नमक खाया है, सब के बीच जिया हूँ, दुख-सुख में साथ रहा हूँ, तो रिश्ता बनाए रखना, दुकान देस में जारी रहेगी। कभी किसी चीज की जरूरत पड़े, तो मुझे खबर करना, मैं सेवा को हाजिर रहूँगा।
हे, पाठक!
यह सही है कि जब परिस्थितियाँ प्रतिकूल हुईं तो बनिया खिसक लिया। लेकिन परिस्थितियों के निर्माण में सब से बड़ा योगदान देसबासियों का था। जवानों ने पटाखे फोड़े जिन की गूँज सुन कर वे जागे। उन्हें विश्वास हो गया कि अब बनिया नहीं टिक पाएगा। फिर तो देस भर के गाँव मुहल्ले बनिये के खिलाफ जागने लगे। बनिए के खिलाफ बनिया मैदान में खड़ा नहीं होता, वह आतिशबाजी से भी डरता है। पर देस भर के धंधों पर कब्जा जमाए बनिये के खिसकने की संभावना बन जाए तो उस में देसी बनियों को भी तो चलते धंधों पर कब्जे का लाभ मिलता है। एक तो देखा फायदा, दूसरे डर भी सता रहा था कि कहीं ऐसा न हो कि लोग बनियों के ही खिलाफ हो जाएँ, और उन की नस्ल को ही साफ कर दें। पटाखे फोड़ने वाले कह भी कुछ ऐसा ही रहे थे कि, सारे बनिए एक जैसे होते हैं, चाहे परदेसी हों या देसी। इस से देसी बनियों में भय व्याप्त हो गया था। वे चुपचाप देस के भद्रजनों की मदद करने लगे। ऐसे में परदेसी बनिया देस छोड़ कर भागा। आधा-अधूरा भरतखण्ड, बोले तो भारतवर्ष पल्ले पड़ा।
हे, पाठक!
देसबासी उत्तेजित थे देस की उन्नति चाहते थे, रोजमर्रा के राजकाज में दखल चाहते थे। नेताओं ने ऐसे वादे भी किए थे। सो रोज-रोज के दखल की बात पर तो पटरी बैठी नहीं। पटरी बैठी कि देसीबासी पाँच बरस में एक बार महापंचायत चुनेंगे और वह सब काम देखेगी। चाचा पहले से बैठे ही थे। पहली तीन पंचायतों में तो वही नेता रहे। फिर वे चल बसे। उन के ही बाएँ हाथ को उन की जगह सोंपी गई। पर वे भी महापंचायत के पहले ही चल दिए। फिर चाचा की बेटी आई। उस ने महापंचायत में अपनी जुगत लगा ली। पर देसीबासी चाचा के खानदान से ऊबने लगे थे, देसी बनिए भी परदेसी जैसा बुहार करने लगे थे, ये बातें चाचा की बेटी को भी पता थी। पड़ौसी की लड़ाई में दखल दे उस ने अपना लोहा मनवाया। बनियों को रगड़ कर साहूकारों की दुकानें पंचायत के कब्जे में कीं और दूसरी बार महापंचायत में अपना लोहा मनवाया। देसीबासी फिर भी संतुष्ट न थे, खास कर नौजवान। वे बवाल खड़ा करने लगे। उसने दबाया और जेल दिखाई तो अगली महापंचायत में मुहँ की खाई। देसीबासी समझ गए कि महापंचायत में वे दखल कर सकते हैं, नेता बदल सकते हैं।
हे, पाठक!
देसीबासी जब ये समझे कि नेता बदल सकते हैं तो उन्हें इस का चस्का पड़ गया। अब तक की कथा में आप ने देखा ही है कि उन्हों ने किस कदर नेता बदले हैं, महापंचायतें चुनी हैं? इस से सब से बड़ा खतरा देसी बनियों को हुआ। वे नेता को पटा कर रखते, जिस से उन की दुकानें चलती रहें। महापंचायत में चुने जाने को नेताओं को मदद करते, उन्हें स्टेरॉयड के इंजेक्शन लगाते, नेताओं के बाजूओं की बल्लीयाँ फूल जातीं। नेताओं को भी उन की आदत पड़ने लगी। धीरे धीरे हालात ऐसे बन गए कि ज्यादातर नेता स्टेरॉयड के ऐडिक्ट हो लिए। थोड़े बहुत बचे तो उन के बाजुओं की बल्लियाँ लोगों को दिखाई ही नहीं देतीं। वे चुने ही नहीं जाते, जो थोड़े बहुत चुने जाते वे महापंचायत के नगाड़ों में तूती के माफिक बने रहते। महापंचायत में चाचा पार्टी के मुकाबिल, जो बैक्टीरिया पार्टी कहाने लगी थी, अलग अलग गांवों-मुहल्लों की रंगबिरंगी पार्टियाँ दिखने लगीं। नौ वीं महापंचायत में यह सीन स्पष्ट दृष्टिगोचर होता था।
आज का वक्त समाप्त, आगे दसवीं महापंचायत की कथा टिपियाई जाएगी। तब तक देखें नीचे के वीडियो।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
दो सौ बरस से भी अधिक काल तक भरत खंड के देसी बासियों की छाती पर मूंग दलने के बाद, बिदेसी यूँ ही अचानक अपने डेरे तम्बू समेट कर नहीं चले गए थे। बहुत लोग कहते हैं खुद वे बहुत परेशानी में थे और भरत खंड पर राज करना मुश्किल हो रहा था। यह बात सच भी है, लेकिन दस फीसदी से ज्यादा नहीं। बनिया तब तक अपनी दुकान बंद नहीं करता जब तक उसे उस में लगी पूंजी के न्यूनतम ब्याज के बराबर भी मुनाफा होता रहे। पर रोज रोज गाँव मुहल्ले के छोकरे आ कर दुकान में पटाखे फोड़ने लगें। ग्राहक दुकान का बहिष्कार कर सौदा लेना बंद कर दें। बनिया कहीं देस में निकले और लोग उसे देख कर थूकने लगें। बेटे-बेटी कहने लगें, अब्बा इस से तो अपना देश ही अच्छा वहाँ कोई हमें देख कर थूकेगा तो नहीं, तो अब्बा को भी परदेस में रहना मुश्किल हो जाएगा। अब्बा घर में कितने ही गीत गाएँ कि वहाँ अपने देस में जो बड़ी कोठी है, वह यहाँ की कमाई के बूते पर ही है। बेटे-बेटी तो न मानें। अब्बा ने मौका देखा, और खानदान समेत खिसक लिया। जाते जाते कह गया, जा तो रहा हूँ, बरसों यहाँ का नमक खाया है, सब के बीच जिया हूँ, दुख-सुख में साथ रहा हूँ, तो रिश्ता बनाए रखना, दुकान देस में जारी रहेगी। कभी किसी चीज की जरूरत पड़े, तो मुझे खबर करना, मैं सेवा को हाजिर रहूँगा।
हे, पाठक!
यह सही है कि जब परिस्थितियाँ प्रतिकूल हुईं तो बनिया खिसक लिया। लेकिन परिस्थितियों के निर्माण में सब से बड़ा योगदान देसबासियों का था। जवानों ने पटाखे फोड़े जिन की गूँज सुन कर वे जागे। उन्हें विश्वास हो गया कि अब बनिया नहीं टिक पाएगा। फिर तो देस भर के गाँव मुहल्ले बनिये के खिलाफ जागने लगे। बनिए के खिलाफ बनिया मैदान में खड़ा नहीं होता, वह आतिशबाजी से भी डरता है। पर देस भर के धंधों पर कब्जा जमाए बनिये के खिसकने की संभावना बन जाए तो उस में देसी बनियों को भी तो चलते धंधों पर कब्जे का लाभ मिलता है। एक तो देखा फायदा, दूसरे डर भी सता रहा था कि कहीं ऐसा न हो कि लोग बनियों के ही खिलाफ हो जाएँ, और उन की नस्ल को ही साफ कर दें। पटाखे फोड़ने वाले कह भी कुछ ऐसा ही रहे थे कि, सारे बनिए एक जैसे होते हैं, चाहे परदेसी हों या देसी। इस से देसी बनियों में भय व्याप्त हो गया था। वे चुपचाप देस के भद्रजनों की मदद करने लगे। ऐसे में परदेसी बनिया देस छोड़ कर भागा। आधा-अधूरा भरतखण्ड, बोले तो भारतवर्ष पल्ले पड़ा।
हे, पाठक!
देसबासी उत्तेजित थे देस की उन्नति चाहते थे, रोजमर्रा के राजकाज में दखल चाहते थे। नेताओं ने ऐसे वादे भी किए थे। सो रोज-रोज के दखल की बात पर तो पटरी बैठी नहीं। पटरी बैठी कि देसीबासी पाँच बरस में एक बार महापंचायत चुनेंगे और वह सब काम देखेगी। चाचा पहले से बैठे ही थे। पहली तीन पंचायतों में तो वही नेता रहे। फिर वे चल बसे। उन के ही बाएँ हाथ को उन की जगह सोंपी गई। पर वे भी महापंचायत के पहले ही चल दिए। फिर चाचा की बेटी आई। उस ने महापंचायत में अपनी जुगत लगा ली। पर देसीबासी चाचा के खानदान से ऊबने लगे थे, देसी बनिए भी परदेसी जैसा बुहार करने लगे थे, ये बातें चाचा की बेटी को भी पता थी। पड़ौसी की लड़ाई में दखल दे उस ने अपना लोहा मनवाया। बनियों को रगड़ कर साहूकारों की दुकानें पंचायत के कब्जे में कीं और दूसरी बार महापंचायत में अपना लोहा मनवाया। देसीबासी फिर भी संतुष्ट न थे, खास कर नौजवान। वे बवाल खड़ा करने लगे। उसने दबाया और जेल दिखाई तो अगली महापंचायत में मुहँ की खाई। देसीबासी समझ गए कि महापंचायत में वे दखल कर सकते हैं, नेता बदल सकते हैं।
हे, पाठक!
देसीबासी जब ये समझे कि नेता बदल सकते हैं तो उन्हें इस का चस्का पड़ गया। अब तक की कथा में आप ने देखा ही है कि उन्हों ने किस कदर नेता बदले हैं, महापंचायतें चुनी हैं? इस से सब से बड़ा खतरा देसी बनियों को हुआ। वे नेता को पटा कर रखते, जिस से उन की दुकानें चलती रहें। महापंचायत में चुने जाने को नेताओं को मदद करते, उन्हें स्टेरॉयड के इंजेक्शन लगाते, नेताओं के बाजूओं की बल्लीयाँ फूल जातीं। नेताओं को भी उन की आदत पड़ने लगी। धीरे धीरे हालात ऐसे बन गए कि ज्यादातर नेता स्टेरॉयड के ऐडिक्ट हो लिए। थोड़े बहुत बचे तो उन के बाजुओं की बल्लियाँ लोगों को दिखाई ही नहीं देतीं। वे चुने ही नहीं जाते, जो थोड़े बहुत चुने जाते वे महापंचायत के नगाड़ों में तूती के माफिक बने रहते। महापंचायत में चाचा पार्टी के मुकाबिल, जो बैक्टीरिया पार्टी कहाने लगी थी, अलग अलग गांवों-मुहल्लों की रंगबिरंगी पार्टियाँ दिखने लगीं। नौ वीं महापंचायत में यह सीन स्पष्ट दृष्टिगोचर होता था।
आज का वक्त समाप्त, आगे दसवीं महापंचायत की कथा टिपियाई जाएगी। तब तक देखें नीचे के वीडियो।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
शनिवार, 11 अप्रैल 2009
बोफोर्स और मंडल-कमंडल : जनतन्तर-कथा (9)
हे, पाठक!
देश के वोट डालने वाले लोगों में से लगभग आधों ने जवानी पर भरोसा किया था। पर नेता के इरादे सही होने पर भी शायद वह अनुभव हीन था। मिले जुले बंद बाजार को खुले बाजार की ओर खींचने की कोशिशों के बीच तोपों का सौदा भारी पड़ा। जब खजाँची-सेनापति ही शहंशाह की नीयत पर शक करने लगे तो बाकी मनसबदार क्यों न सरकने लगें? उसे पद से हटाना ही मुनासिब! बाद में उस ने दरबार ही छोड़ दिया। कुछ और लोगों के साथ नई पार्टी बना ली और चुनाव जीत कर फिर से दरबार में जा बैठा। नीति यही कहती है कि जब कोई घर का भेदी बाहर आ जाए, तो घर ढहाने को सब उस के साथ होलें। सो सारे विपक्षी साथ हो लिए। इधर बाहर आधा-अधूरा पंचनद चैन नहीं लेने दे रहा था कि हमने पडौसी देश की आग में हाथ दे डाला। हाथ खींचना चाहा तो वापस खिंचा ही नहीं, वहीं पकड़ लिया गया।
वोटों से मिला जनता का समर्थन क्षण भंगुर होता है। वह वोट देते ही खिसक लेता है। वोट पाने वाला समझता है वह सिकंदर हो लिया, ऐसा होता नहीं है। घर के अंदर विरोध तो घर कमजोर, मुहल्ले के अखाड़ची रोज लंगोट घुमा जाएँ, ऐसे में अपना घर संभालने के बजाए पड़ौसी का झगड़ा सुलझाने को अपने लठैत वहाँ भेज दें और मंदिर-मस्जिद झगड़े का ताला खुलवा दें तो क्या होगा? वही नौजवान शहंशाह का हुआ। सारी जमातें एक हो गईं। यहाँ तक कि उत्तर-दक्खिन ध्रुव एक हो लिए। चुनाव में भारी मोर्चा लगा। फिर चुनाव की शतरंज बिछ गई। हाथी तो तोप प्रकरण ने मार लिए। घोड़े पड़ौसी के यहाँ लठैती में चले गए। अब ऊँटों के जरिए कहाँ तक बाजी संभलती।
नौ वीं लोक सभा के लिए नतीजे उलट गए। इस बार पेटी ने ताकत आधी से भी कम रहने दी। घर-भेदी को पंचों ने गद्दी पकड़ा दी। घर-भेदी पिछडों को आरक्षण की तरफदारी मंडल कर गया था। उस ने सारा जोर आरक्षण बढ़ाने में लगा दिया। इधर पंचों के इरादे ठीक न थे। ताकत के बल पर मंदिर-मस्जिद का झगड़ा निपटाने का प्रचार करना फायदे का सौदा लगा। कुछ पंच कमंडल ले कर जातरा पर निकल पड़े। दूसरे पंच के यहाँ पहुँचे तो उस ने जातरी को जेल पहुँचा दिया। आग में घी पड़ चुका था। पंचों की एकता छिन्न भिन्न हो गई। घर के भेदी का समय इतना ही था। दरारें दिखते ही कभी के युवा तुर्क जवान नेता की बैक्टीरिया पार्टी की तरफ झाँका, -तुम सहारा दो तो मैं भी तमन्ना पूरी कर लूँ? उन्हों ने अपनी हथेली लगा दी। युवा तुर्क गद्दी पर पहुँच गए। बड़ों की हथेली पर छोटों की गद्दी ज्यादा दिन नहीं टिकती। हथेली हिली कि गद्दी गिरी। यह हथेली जल्दी ही हिल गई। पाँच साल के चौथाई वक्त, सवा साल में ही दसवी महापंचायत के लिए रणभेरी बज गई।
आज कथा यहीं तक, लेकिन आगे जारी रहेगी।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009
जनतन्तर-कथा (8) : देश ने जवानी पर भरोसा किया
हे, पाठक!
यह भारतवर्ष का आठवीं पंचायत का चुनाव था। लट्ठा पार्टी बिखर चुकी थी। दो बरस से भी कम समय में लट्ठों ने अपनी अपनी नालायकी साबित कर दी थी। उधर चाचा की बेटी अपनी तमाम करतूतों के बावजूद भी अपनी योग्यता में विश्वास कायम रख पाने में सफल थी। भारतवर्ष की बेचारी जनता उस के सामने विकल्प ही कहाँ थे? वह समझ रही थी कि पिछले दशक की भवानी ने पिछले चुनाव नतीजों से जरूर कुछ सबक लिए होंगे, सुधार गृह से जरूर कुछ सीखा होगा। अब पहले जैसी गलती दोहराई नहीं जाएगी। हमारे यहाँ कोई अपराधी पकड़ा जाता है तो उस के काले कारनामों से अखबार रंगे जाते हैं। वह सजा पाकर लौटता है तो दया का पात्र बन जाता है। दस्यु सरदार पंच होने की योग्यता हासिल कर लेते हैं। चाचा की बेटी को फिर कुरसी बख्श दी, वह भी अच्छे खासे बहुमत से। लट्ठा पार्टी को वरदान मिला पुनर्मूषको भव! उसे पिछले चुनाव में जितना नवाजा गया था, इस बार उस का दस परसेंट ही रहने दिया गया। पब्लिक ने चाचा की बेटी को फिर से कुरसी बख्शी। लेकिन इस बार लगता था कि कुदरत का कहर टूट पड़ा। छह माह भी न बीते थे कि माँ की लुटिया डुबोने में सहयोग करने वाला बेटा दुनिया छोड़ गया। वह जहाज उड़ाने गया था, ऐसा जिसे उड़ाने का उस पर लायसेंस नहीं था। जहाज टपक गया और जहाज के साथ बेटा भी। आम औरत होती तो इस सदमे से उबरने में बरस लग जाते। पर वह तुरंत देश संभालने लग गई, जैसे बेटे की मौत का सदमा, उस सदमे के कहीं नहीं लगता था जो कुरसी जाने पर लगा था। पर इस बार देश पहले जैसा नहीं था और कुरसी भी। दोनों जगह काँटे उग आए थे।
हे, पाठक!
पहले जब बंग देश में युद्ध लड़ा गया था, तो हजारों शरणार्थी इधऱ उत्तर-पूरब खंडों में घुस आए थे। तब वहाँ के लोगों ने उन आफत के मारों की मेहमान की तरह खूब सेवा की। अब मेहमान वापस जाने का नाम नहीं लेते थे। मेहमान खुद आफत बन चुके थे। लोकल लोग उन से दुखी। वे सब अलोकलों से उलझ पड़े। इधर पच्छिम के आधे-अधूरे पंचनद में खालसा देश के नाम पर दहशतगर्दी परवान चढ़ रही थी। पवित्र मंदिरों पर कब्जे हो चुके थे। कुछ करते नहीं बनता था। आखिर फौज काम आई। दहशत कुचल दी गई। लेकिन फौज को बूटों ने मंदिर में जिस तरह चहलकदमी की उस से गौ-ब्राह्मण की रक्षार्थ बने पंथ के बहुत से अनुयायी गुस्से से भर गए। इतना गुस्सा कि एक दिन चाचा की बेटी अपने ही अंगरक्षक के भीतर भरे गुस्से का निशाना बनी, और एक युग समाप्त हो गया।
हे, पाठक!
सारा देश शोक में डूब गया। करतूत एक आदमी के भीतर भरे गुस्से की थी। लेकिन उसे पूरे पंथ का गुस्सा समझा गया। रातों रात सांप्रदायिकता फैल गई। इस बार उसे फैलाने वाले लोगों में वे लोग भी शामिल थे जो सेकुलर होने का तमगा लटकाए घूमते थे। हजारों घर-परिवार इस आग के शिकार हुए। इस आग ने जो जख्म दिए उन्हें आज तक भी नहीं भरा जा सका। जख्म भरें भी कैसे? आज तक उस आग के गुनहगारों को सजा तक नहीं दी जा सकी। खैर ऐसे माहौल में पंचायत बर्खास्त कर दी गई। चुनाव तक चाचा के नाती को नेता मान काँटों भरी कुर्सी पर बिठा दिया गया। एक औरत को उस के ही घर में कत्ल कर देने से सहानुभूति का जो जज्बा पनपा था, उस के चलते अगले चुनाव के नतीजों से जो रिकार्ड बना, वह अभूतपूर्व था और आज तक कायम है। पर वाह रे, भारतवर्ष के जनतंत्र ! उस बरस चाचा के नाती की पार्टी पंचायत के 81 फीसदी से भी ज्यादा स्थानों पर काबिज हो गई। फिर भी उसे मिले वोटों का हिस्सा पचास फीसदी तक भी नहीं पहुँच पाया। जो लोग वोट डालने नहीं गए वे तो अलग थे ही।
हे, पाठक!
कुछ बरस पहले तक जो हवाई जहाज चलाता था। राजकाज से जिसे कोई लेना देना न था। जो एक परदेसी रमणी से विवाह कर अपने आप में लीन था। देश ने पहली बार जवानी पर भरोसा किया। उसे इतनी ताकत दी कि जो चाहे सो कर ले। उस ने देश को अपने तरीके से चलाने की कोशिश की। उसने ऊँची उड़ाने उड़ी थीं, यहाँ क्यों नीची उड़ान उड़ता? उस ने देश को दुनिया से जोड़ने का बीड़ा उठाया। देश में तेजी से कम्प्यूटर आने लगे।
आज फिर वक्त हो चला है, कथा आगे भी जारी रहेगी।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
यह भारतवर्ष का आठवीं पंचायत का चुनाव था। लट्ठा पार्टी बिखर चुकी थी। दो बरस से भी कम समय में लट्ठों ने अपनी अपनी नालायकी साबित कर दी थी। उधर चाचा की बेटी अपनी तमाम करतूतों के बावजूद भी अपनी योग्यता में विश्वास कायम रख पाने में सफल थी। भारतवर्ष की बेचारी जनता उस के सामने विकल्प ही कहाँ थे? वह समझ रही थी कि पिछले दशक की भवानी ने पिछले चुनाव नतीजों से जरूर कुछ सबक लिए होंगे, सुधार गृह से जरूर कुछ सीखा होगा। अब पहले जैसी गलती दोहराई नहीं जाएगी। हमारे यहाँ कोई अपराधी पकड़ा जाता है तो उस के काले कारनामों से अखबार रंगे जाते हैं। वह सजा पाकर लौटता है तो दया का पात्र बन जाता है। दस्यु सरदार पंच होने की योग्यता हासिल कर लेते हैं। चाचा की बेटी को फिर कुरसी बख्श दी, वह भी अच्छे खासे बहुमत से। लट्ठा पार्टी को वरदान मिला पुनर्मूषको भव! उसे पिछले चुनाव में जितना नवाजा गया था, इस बार उस का दस परसेंट ही रहने दिया गया। पब्लिक ने चाचा की बेटी को फिर से कुरसी बख्शी। लेकिन इस बार लगता था कि कुदरत का कहर टूट पड़ा। छह माह भी न बीते थे कि माँ की लुटिया डुबोने में सहयोग करने वाला बेटा दुनिया छोड़ गया। वह जहाज उड़ाने गया था, ऐसा जिसे उड़ाने का उस पर लायसेंस नहीं था। जहाज टपक गया और जहाज के साथ बेटा भी। आम औरत होती तो इस सदमे से उबरने में बरस लग जाते। पर वह तुरंत देश संभालने लग गई, जैसे बेटे की मौत का सदमा, उस सदमे के कहीं नहीं लगता था जो कुरसी जाने पर लगा था। पर इस बार देश पहले जैसा नहीं था और कुरसी भी। दोनों जगह काँटे उग आए थे।
हे, पाठक!
पहले जब बंग देश में युद्ध लड़ा गया था, तो हजारों शरणार्थी इधऱ उत्तर-पूरब खंडों में घुस आए थे। तब वहाँ के लोगों ने उन आफत के मारों की मेहमान की तरह खूब सेवा की। अब मेहमान वापस जाने का नाम नहीं लेते थे। मेहमान खुद आफत बन चुके थे। लोकल लोग उन से दुखी। वे सब अलोकलों से उलझ पड़े। इधर पच्छिम के आधे-अधूरे पंचनद में खालसा देश के नाम पर दहशतगर्दी परवान चढ़ रही थी। पवित्र मंदिरों पर कब्जे हो चुके थे। कुछ करते नहीं बनता था। आखिर फौज काम आई। दहशत कुचल दी गई। लेकिन फौज को बूटों ने मंदिर में जिस तरह चहलकदमी की उस से गौ-ब्राह्मण की रक्षार्थ बने पंथ के बहुत से अनुयायी गुस्से से भर गए। इतना गुस्सा कि एक दिन चाचा की बेटी अपने ही अंगरक्षक के भीतर भरे गुस्से का निशाना बनी, और एक युग समाप्त हो गया।
हे, पाठक!
सारा देश शोक में डूब गया। करतूत एक आदमी के भीतर भरे गुस्से की थी। लेकिन उसे पूरे पंथ का गुस्सा समझा गया। रातों रात सांप्रदायिकता फैल गई। इस बार उसे फैलाने वाले लोगों में वे लोग भी शामिल थे जो सेकुलर होने का तमगा लटकाए घूमते थे। हजारों घर-परिवार इस आग के शिकार हुए। इस आग ने जो जख्म दिए उन्हें आज तक भी नहीं भरा जा सका। जख्म भरें भी कैसे? आज तक उस आग के गुनहगारों को सजा तक नहीं दी जा सकी। खैर ऐसे माहौल में पंचायत बर्खास्त कर दी गई। चुनाव तक चाचा के नाती को नेता मान काँटों भरी कुर्सी पर बिठा दिया गया। एक औरत को उस के ही घर में कत्ल कर देने से सहानुभूति का जो जज्बा पनपा था, उस के चलते अगले चुनाव के नतीजों से जो रिकार्ड बना, वह अभूतपूर्व था और आज तक कायम है। पर वाह रे, भारतवर्ष के जनतंत्र ! उस बरस चाचा के नाती की पार्टी पंचायत के 81 फीसदी से भी ज्यादा स्थानों पर काबिज हो गई। फिर भी उसे मिले वोटों का हिस्सा पचास फीसदी तक भी नहीं पहुँच पाया। जो लोग वोट डालने नहीं गए वे तो अलग थे ही।
हे, पाठक!
कुछ बरस पहले तक जो हवाई जहाज चलाता था। राजकाज से जिसे कोई लेना देना न था। जो एक परदेसी रमणी से विवाह कर अपने आप में लीन था। देश ने पहली बार जवानी पर भरोसा किया। उसे इतनी ताकत दी कि जो चाहे सो कर ले। उस ने देश को अपने तरीके से चलाने की कोशिश की। उसने ऊँची उड़ाने उड़ी थीं, यहाँ क्यों नीची उड़ान उड़ता? उस ने देश को दुनिया से जोड़ने का बीड़ा उठाया। देश में तेजी से कम्प्यूटर आने लगे।
आज फिर वक्त हो चला है, कथा आगे भी जारी रहेगी।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
मंगलवार, 7 अप्रैल 2009
जनतन्तर-कथा (7) : चौधरी चाचा की तमन्ना पूरी हो गई
हे, पाठक!
लट्ठों की नाव, पार लग ही गई। सवारियाँ सतरंगी थीं। झण्डा एक हो गया था। ऊपर के वस्त्र भी बदल गए थे। पर अंतर्वस्त्र पुराने ही रहे, उन की तासीर भी वही रही। सब से बुजुर्ग और अनुभवी गुजराती भाई को नेता चुना गया और सरकार चल निकली। इस सरकार ने बड़े बड़े काम किए। उत्तर के पड़ौसी से रिश्ते और पच्छिम के पड़ौसी से आपसी संबंध बनाए, तो आफत के वक्त हुए अत्याचारों की जाँच और गुनहगारों को सजा के लिए अधिकरण भी बनाए। इस बीच बूढ़ा अगिया बैताल बीमार हो चला। लोगों ने उस की शरम करना बंद कर दिया। लोग कपड़े उतार-उतार अपने रंगबिरंगे अन्तर्वस्त्र दिखाने लगे। चौधरी चाचा और राम बाबू, गुजराती भाई के काम काज पर गुर्राने लगे। सबूतों के अभाव में चाचा की बेटी के खिलाफ मुकदमा चलाने के मंसूबे ख्वाब होने लगे। कानूनदाओं के मुकाबले एक असहाय महिला के रूप में चाचा की बेटी के लिए जनता की सहानुभूति अँकुराने लगी। गरीबी, अशिक्षा और आर्थिक तंगी के खिलाफ गुजराती भाई मजबूती से कुछ नहीं कर पाए। जनता में असंतोष उमड़ने लगा।
हे, पाठक!
इन सब से अलग लाल स्कर्ट वाली दो बहनें अलग ही खेल रही थीं। बड़ी बहन आफत काल में चाचा की बेटी के साथ थी। तो छोटी वाली बूढ़े अगिया बैताल के अगल-बगल चल रही थी, आखिर उस ने भी चाचा की बेटी के कोड़े खाए थे। चुनाव में चार परसेंट की हकदार वह भी हो गई थी। पर वह किसी तरफ न थी। उस ने पूरब और दक्खिन में तीन बड़े खंड हथिया लिए। एक तो ऐसा हथियाया कि सब ने बहुत हाथ पैर मारे पर आज तक छोड्या ही नहीं।
हे, पाठक!
ऐसे मौसम में चौधरी चाचा के हनुमान और मधु बाबू को रोज सुबह मुहँ अँधेरे वायरस पार्टी के नेताओं की निक्कर दिख जाती और वे बैचेन हो भड़क उठते। रोज दिन में झगड़ा करते कि धोती और निक्कर साथ नहीं चलेगी। आखिर ढाई साल गुजरते-गुजरते दोनों वायरस अपने जत्थे समेत अलग हो लिए। उधर चौधरी चाचा ने भी अलग ढपली बजाने का ऐलान कर दिया। गुजराती भाई ने स्तीफा दे चलते बने। बेचारी लट्ठा सरकार असमय ही चल बसी।
हे, पाठक !
एक उल्लेख पहले छोड़ आए थे, अब उस का समय आ गया है। हुआ यूँ कि चाचा की बेटी पर जो संकट आया था उस में अदालत का फैसला भी तात्कालिक कारण था, जिस ने चाचा की बेटी को चुनाव में सरकारी अमले के इस्तेमाल का दोषी करार दिया था। मुकदमा करने वाले थे, चौधरी चाचा के हनुमान। उन्हों ने ही चाचा की बेटी की लंका में आग लगाई थी। पर चाचा की बेटी रावण से भी बड़ी कूटनीतिक निकली। उस ने इस हनुमान के राम को ही कंधा दे कर कुर्सी पर जा बिठाया। चौधरी चाचा की तमन्ना पूरी हुई, जाट खुश हुए। आखिर जाट परधानमन्तरी हुआ। पर चाचा की बेटी ने कुर्सी पर बिठा कर कुर्सी खेंच ली। हाय! नौ माह भी पूरे न हुए, एक बार भी पंचायत न बैठी कि सरकार गिरने की नौबत आ गई। लो फिर चुनाव आ गए।
आज फिर वक्त हो चला है, कथा आगे भी जारी रहेगी।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
लट्ठों की नाव, पार लग ही गई। सवारियाँ सतरंगी थीं। झण्डा एक हो गया था। ऊपर के वस्त्र भी बदल गए थे। पर अंतर्वस्त्र पुराने ही रहे, उन की तासीर भी वही रही। सब से बुजुर्ग और अनुभवी गुजराती भाई को नेता चुना गया और सरकार चल निकली। इस सरकार ने बड़े बड़े काम किए। उत्तर के पड़ौसी से रिश्ते और पच्छिम के पड़ौसी से आपसी संबंध बनाए, तो आफत के वक्त हुए अत्याचारों की जाँच और गुनहगारों को सजा के लिए अधिकरण भी बनाए। इस बीच बूढ़ा अगिया बैताल बीमार हो चला। लोगों ने उस की शरम करना बंद कर दिया। लोग कपड़े उतार-उतार अपने रंगबिरंगे अन्तर्वस्त्र दिखाने लगे। चौधरी चाचा और राम बाबू, गुजराती भाई के काम काज पर गुर्राने लगे। सबूतों के अभाव में चाचा की बेटी के खिलाफ मुकदमा चलाने के मंसूबे ख्वाब होने लगे। कानूनदाओं के मुकाबले एक असहाय महिला के रूप में चाचा की बेटी के लिए जनता की सहानुभूति अँकुराने लगी। गरीबी, अशिक्षा और आर्थिक तंगी के खिलाफ गुजराती भाई मजबूती से कुछ नहीं कर पाए। जनता में असंतोष उमड़ने लगा।
हे, पाठक!
इन सब से अलग लाल स्कर्ट वाली दो बहनें अलग ही खेल रही थीं। बड़ी बहन आफत काल में चाचा की बेटी के साथ थी। तो छोटी वाली बूढ़े अगिया बैताल के अगल-बगल चल रही थी, आखिर उस ने भी चाचा की बेटी के कोड़े खाए थे। चुनाव में चार परसेंट की हकदार वह भी हो गई थी। पर वह किसी तरफ न थी। उस ने पूरब और दक्खिन में तीन बड़े खंड हथिया लिए। एक तो ऐसा हथियाया कि सब ने बहुत हाथ पैर मारे पर आज तक छोड्या ही नहीं।
हे, पाठक!
ऐसे मौसम में चौधरी चाचा के हनुमान और मधु बाबू को रोज सुबह मुहँ अँधेरे वायरस पार्टी के नेताओं की निक्कर दिख जाती और वे बैचेन हो भड़क उठते। रोज दिन में झगड़ा करते कि धोती और निक्कर साथ नहीं चलेगी। आखिर ढाई साल गुजरते-गुजरते दोनों वायरस अपने जत्थे समेत अलग हो लिए। उधर चौधरी चाचा ने भी अलग ढपली बजाने का ऐलान कर दिया। गुजराती भाई ने स्तीफा दे चलते बने। बेचारी लट्ठा सरकार असमय ही चल बसी।
हे, पाठक !
एक उल्लेख पहले छोड़ आए थे, अब उस का समय आ गया है। हुआ यूँ कि चाचा की बेटी पर जो संकट आया था उस में अदालत का फैसला भी तात्कालिक कारण था, जिस ने चाचा की बेटी को चुनाव में सरकारी अमले के इस्तेमाल का दोषी करार दिया था। मुकदमा करने वाले थे, चौधरी चाचा के हनुमान। उन्हों ने ही चाचा की बेटी की लंका में आग लगाई थी। पर चाचा की बेटी रावण से भी बड़ी कूटनीतिक निकली। उस ने इस हनुमान के राम को ही कंधा दे कर कुर्सी पर जा बिठाया। चौधरी चाचा की तमन्ना पूरी हुई, जाट खुश हुए। आखिर जाट परधानमन्तरी हुआ। पर चाचा की बेटी ने कुर्सी पर बिठा कर कुर्सी खेंच ली। हाय! नौ माह भी पूरे न हुए, एक बार भी पंचायत न बैठी कि सरकार गिरने की नौबत आ गई। लो फिर चुनाव आ गए।
आज फिर वक्त हो चला है, कथा आगे भी जारी रहेगी।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
सोमवार, 6 अप्रैल 2009
जनतन्तर-कथा (6) : खानदानी तिलिस्म टूटा, चाचा की बेटी का महल छूटा।
हे, पाठक!
सब जानते हैं, 'जो पैदा होता है, वह मरता है', "जो आता है, उसे जाना भी पड़ता है' पर कोई मानने को तैयार नहीं। ये बातें केवल स्कूल की पुस्तकों, अखबारों, मेग्जीनों,धार्मिक स्थलों और शमशानों में लिखे जाने के लिए होती हैं, अमल के लिए नहीं। कुर्सी, खास तौर पर परधानमंतरी की हो और खुदा न खास्ता, वो नेता भी हो तो, कभी ये मानने को तैयार ही नहीं होता कि ये उसे छोड़नी पड़ेगी। वह छूटती भी है तो सरकारी दफ्तरों में दो दिन की छुट्टी करवा कर छूटती है। इस लिए परधानमंत्री का पर धान मन्तरी होना जरूरी है, जिस से जब वह कुरसी पर बैठे तो कूल्हों पर पसीना छूटता रहे। कोड़ा जब चलता है तो किसी को नहीं बखसता। जो उस की जद में आ जाता है बच नहीं सकता। कही और बताई गई आफत की उस घड़ी में भी यही हुआ। बस एक की आवाज सुनाई देती। बाकी सब के होंठ फेवीकोल लगा कर चिपका दिए गए। जुबानों पर ताला जड़ दिया गया। क्या समाँ था वह? जिधर देखो सिर्फ एक तस्वीर दिखाई देती थी। गीत सब बंद थे, जिधर देखो उधर मात्र स्तुतियाँ सुनाई देती थीं। मैदान में केवल ढोल-मंजीरे थे। एक के सिवा कोई नहीं बचा। देश भी नहीं बचा। उस एक को ही देश घोषित कर दिया गया। आग जो सुलगी थी बुझी नहीं थी, राख की परतों के नीचे अंगार शनैः शनैः सुलगते रहे। वक्त आखिर आ गया। जनतन्तर को कब तक बीमार बता कर अस्पताल में भर्ती रखा जाता? कब तक चुनाव को टाला जाता?
हे, पाठक!
बंदियों को बाहर लाना ही पड़ा। बहुत दिनों में उन्हें रोशनी दिखाई दी। कोड़े ने सब को इकट्ठा कर दिया। जहाज को देख लकड़ी के लट्ठे पर कोई यात्रा नहीं करता। जहाज जब लंगर डाल दे और सवारियों को नीचे न उतरने दिया जाए तो वह अंडमान के कालापानी से बेहतर नहीं होता। लोग उसे छोड़ लकड़ी के लट्ठों पर आ जाते हैं। अब तो कोड़े की मार से लट्ठे जुड़ रहे थे। लट्ठों ने गीता-कुरआन पर हाथ धर कसम खाई, वे कभी अलग न होंगे, एक रहेंगे। एक दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाने वाले एक दूसरे के साथ कंधा मिलाने लगे। कसम को सच्ची साबित करने को जहाँ और जैसी मिली, कमजोर मिली तो वही सही, सड़ी गली मिली तो वही सही, रस्सियाँ लाए और लट्ठों को आपस में बांध दिया। अपनी अपनी निशानियाँ फेंक एक नया निशान बनाया, लट्ठों की नाव पर तान दिया। सारे एक साथ उस पर सवार हो लिए। जिस को नाव पर शक था वह अलग लट्ठे पर चढ़ लिया पर तालमेल बनाय के साथ चलने लगा। जनता ने लट्ठों को जोर से धकियाया और नैया चुनाव पार हो गई, जहाज भंवर में चक्कर लगाता रह गया। लोग फिर साँस लेने लगे, बहुत कोलाहल हुआ। कोयलें फिर चहकने लगीं, बाग में वसन्त आ गया। खानदानी तिलिस्म टूटा, चाचा की बेटी का महल छूटा। एक छोटे घर में आ गई।
हे, पाठक!
ये दो पैरेग्राफ की कथा का बड़ा महत्व है। हर साल उन दिनों जब सर्दियाँ अवसान पर हों, माघ का महीना हो, फागुन की बयार चलने को हो, इस कथा का पाठ पूरे विधि-विधान पूर्वक करते-कराते रहना चाहिए। अवसर हो तो अच्छे पंडितों को बुला कर इस कथा का समारोह पूर्वक खूब माइक-शाइक लगवा कर वाचन कराना चाहिए। अब तो नगर-नगर लोकल केबल चैनल हैं, उन पर प्रसारण कराना चाहिए, मौका मिल जाए तो टी.वी. शीवी पर भी लाइव टेलीकास्ट करा देना चाहिए। इस कथा के पारायण से हिटलर-मुसोलिनी टाइप के जर्म्स मर जाते हैं, और वसंत के आने पर खलल नहीं डालते, अनंत पुण्य प्राप्त होता है। जिस से पर धान मंतरी की कुरसी सपनों में दिखाई देने लगती है।
हे, पाठक!
आज की कथा का यहीं समापन करना उचित है। वरना कथा के इस अध्याय की महिमा खंडित हो जाएगी। कथा जारी रहेगी।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
सब जानते हैं, 'जो पैदा होता है, वह मरता है', "जो आता है, उसे जाना भी पड़ता है' पर कोई मानने को तैयार नहीं। ये बातें केवल स्कूल की पुस्तकों, अखबारों, मेग्जीनों,धार्मिक स्थलों और शमशानों में लिखे जाने के लिए होती हैं, अमल के लिए नहीं। कुर्सी, खास तौर पर परधानमंतरी की हो और खुदा न खास्ता, वो नेता भी हो तो, कभी ये मानने को तैयार ही नहीं होता कि ये उसे छोड़नी पड़ेगी। वह छूटती भी है तो सरकारी दफ्तरों में दो दिन की छुट्टी करवा कर छूटती है। इस लिए परधानमंत्री का पर धान मन्तरी होना जरूरी है, जिस से जब वह कुरसी पर बैठे तो कूल्हों पर पसीना छूटता रहे। कोड़ा जब चलता है तो किसी को नहीं बखसता। जो उस की जद में आ जाता है बच नहीं सकता। कही और बताई गई आफत की उस घड़ी में भी यही हुआ। बस एक की आवाज सुनाई देती। बाकी सब के होंठ फेवीकोल लगा कर चिपका दिए गए। जुबानों पर ताला जड़ दिया गया। क्या समाँ था वह? जिधर देखो सिर्फ एक तस्वीर दिखाई देती थी। गीत सब बंद थे, जिधर देखो उधर मात्र स्तुतियाँ सुनाई देती थीं। मैदान में केवल ढोल-मंजीरे थे। एक के सिवा कोई नहीं बचा। देश भी नहीं बचा। उस एक को ही देश घोषित कर दिया गया। आग जो सुलगी थी बुझी नहीं थी, राख की परतों के नीचे अंगार शनैः शनैः सुलगते रहे। वक्त आखिर आ गया। जनतन्तर को कब तक बीमार बता कर अस्पताल में भर्ती रखा जाता? कब तक चुनाव को टाला जाता?
हे, पाठक!
बंदियों को बाहर लाना ही पड़ा। बहुत दिनों में उन्हें रोशनी दिखाई दी। कोड़े ने सब को इकट्ठा कर दिया। जहाज को देख लकड़ी के लट्ठे पर कोई यात्रा नहीं करता। जहाज जब लंगर डाल दे और सवारियों को नीचे न उतरने दिया जाए तो वह अंडमान के कालापानी से बेहतर नहीं होता। लोग उसे छोड़ लकड़ी के लट्ठों पर आ जाते हैं। अब तो कोड़े की मार से लट्ठे जुड़ रहे थे। लट्ठों ने गीता-कुरआन पर हाथ धर कसम खाई, वे कभी अलग न होंगे, एक रहेंगे। एक दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाने वाले एक दूसरे के साथ कंधा मिलाने लगे। कसम को सच्ची साबित करने को जहाँ और जैसी मिली, कमजोर मिली तो वही सही, सड़ी गली मिली तो वही सही, रस्सियाँ लाए और लट्ठों को आपस में बांध दिया। अपनी अपनी निशानियाँ फेंक एक नया निशान बनाया, लट्ठों की नाव पर तान दिया। सारे एक साथ उस पर सवार हो लिए। जिस को नाव पर शक था वह अलग लट्ठे पर चढ़ लिया पर तालमेल बनाय के साथ चलने लगा। जनता ने लट्ठों को जोर से धकियाया और नैया चुनाव पार हो गई, जहाज भंवर में चक्कर लगाता रह गया। लोग फिर साँस लेने लगे, बहुत कोलाहल हुआ। कोयलें फिर चहकने लगीं, बाग में वसन्त आ गया। खानदानी तिलिस्म टूटा, चाचा की बेटी का महल छूटा। एक छोटे घर में आ गई।
हे, पाठक!
ये दो पैरेग्राफ की कथा का बड़ा महत्व है। हर साल उन दिनों जब सर्दियाँ अवसान पर हों, माघ का महीना हो, फागुन की बयार चलने को हो, इस कथा का पाठ पूरे विधि-विधान पूर्वक करते-कराते रहना चाहिए। अवसर हो तो अच्छे पंडितों को बुला कर इस कथा का समारोह पूर्वक खूब माइक-शाइक लगवा कर वाचन कराना चाहिए। अब तो नगर-नगर लोकल केबल चैनल हैं, उन पर प्रसारण कराना चाहिए, मौका मिल जाए तो टी.वी. शीवी पर भी लाइव टेलीकास्ट करा देना चाहिए। इस कथा के पारायण से हिटलर-मुसोलिनी टाइप के जर्म्स मर जाते हैं, और वसंत के आने पर खलल नहीं डालते, अनंत पुण्य प्राप्त होता है। जिस से पर धान मंतरी की कुरसी सपनों में दिखाई देने लगती है।
हे, पाठक!
आज की कथा का यहीं समापन करना उचित है। वरना कथा के इस अध्याय की महिमा खंडित हो जाएगी। कथा जारी रहेगी।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
शनिवार, 4 अप्रैल 2009
जनतन्तर-कथा (5) : अगिया बैताल और राजपथ पर ठाटें मारता दावानल
हे! पाठक,
परदेसी बनियों के चले जाने भर से भारतवर्ष में जनतंतर नहीं आया था। परदेसी बनिए तो भारतवर्ष जैसा था वैसा छोड़ गए, टुकड़े और कर गए। जनतंतर आया तब जब जनतंतर का नया बिधान लागू हो गया। फिर चुनाव हुए पहली महापंचायत बनी। पहला चुनाव था, सो ज्यादा झंझट नहीं था। परदेसी बनिए से लिए लड़े लोग मैदान में थे। उन्हीं में से किसी को चुना जाना था। महापंचायत के नेता चाचा थे, जनता ने चाचा को ही चुन डाला। जब तक चाचा रहे तब तक यह झंझट नहीं पड़ा। विकास कैसा हो इस पर मतभेद थे। लेकिन इतने नहीं कि चाचा को असर होता। दस साल तक वही चलता रहा। फिर उत्तर के पड़ौसी ने दूध में खट्टा डाल दिया, बैक्टीरिया पनपने लगे। लड़ाई हारे तो चाचा और पार्टी दोनों का ओज कम हो गया। फिर दक्षिण से कामराज दद्दा को बुला कर पार्टी की कमान पकड़ाई गई। उसने बहुत सारे मंतरियों से इस्तीफा दिलवा कर बैक्टीरिया को निकाल बाहर किया, सरकार की छवि को सुधारने की कोशिश की। फिर खुदा को चाचा की जरूरत हुई उन्हें अपने पास बुला लिया। उन के पीछे कामराज दद्दा की रहनुमाई में सास्तरी जी ने देश संभाला। बड़े नेक आदमी थे। रेल मंत्री थे, तो एक ठो रेल दुर्घटना के चलते ही इस्तीफा दे बैठे थे।
हे! पाठक,
आज कल वैसा बीज खतम हो गया, काठिया गेंहूँ की तरह। चाचा सिंचाई का बहुत इंतजाम कर गए थे, सो कोरवान धरती का काठिया कहाँ बचता। उस के स्थान पर उन्नत संकर बीज आ गया। सास्तरी जी के रहते जनता को चुनने का मौका मिल पाता उस के पहले ही खुदा के घर उन की जरूरत हो गई। बिलकुल अर्जेंट बुलावा आया। बेचारे घर तक भी नहीं पहुँच सके। सीधे परदेस से ही रवाना होना पड़ा। फिर चाचा की बेटी आई मैदान में। तब तक चुनावी अखाड़ा पक्का हो चला था। पूरे बीस बरस से पहलवान प्रेक्टिस कर कर मजबूत हो चुके थे। तगड़ा चुनाव हुआ। क्या समाजवादी, स्वतंत्रतावादी, क्या साम्यवादी और क्या जनसंघी सारे मिल कर जोर कर रहे थे। सास्तरी जी के खुदा बुलावे पर संशय, गऊ हत्या का मामला, तेलंगाना आंदोलन का दमन और भी बहुत सारे दाव-पेंच आजमाए गए। पर कामराज दद्दा के रहते बात नहीं बननी थी सो नहीं बनी। पार्टी को बैक्टीरिया विहीन करने की पूरी कोशिश थी, पर बैक्टीरिया तो बैक्टीरिया हैं, कितना ही स्टर्लाईजेशन करो बचे रह जाते हैं, बैक्टीरियाओं के परताप से राज्यों में दूसरी पार्टियों की सरकारें बनने लगीं।
हे! पाठक,
फिर भरतखंड से अलग हो कर बने लड़ाकू पच्छिमी पडौसी देश में भी जनतंतर का बिगुल बजा। वहाँ पहले ही पूरब-पच्छिम दो टुकड़े थे। पूरब वाले जीते तो पच्छिम को नहीं जँचा। पूरब वालों ने आजादी का बिगुल बजा दिया। जुद्ध हुआ और चाचा की बेटी ने आजादी का साथ दिया और पूरब-पच्छिम अलग हो गए। लाख फौजी समर्पण कर भारत लाए गए। जनसंघियों को ताव आ गया। उन्हों ने चाचा की बेटी को, बेटी से भवानी और चंडिका बना दिया, भावना का ज्वार उत्ताल तरंगे ले रहा था।
हे! पाठक,
तरंगों को शेर समझ भवानी ने चुनाव की रणभेरी बजा दी, कि वह गरीबी मिटाएगी। भवानी तीन चौथाई बहुमत ले कर सिंहासन पर जा बैठी। बैक्टीरिया गए नहीं थे भावना की तरंगों के बीच ही भ्रष्टाचार, बेरोजगारी ठाटें मारने लगी। जनता का हाल बेहाल हो गया। क्या पूरब, क्या पच्छिम? क्या उत्तर क्या दक्खिन? जनता रोज-रोज राजपथ पर आने लगी तो सरकारी दमन भी बढ़ने लगा। जनता को खंडित करने वाले पंछी काम बिगाड़ते थे। तब अगिया बैताल की तरह एक बूढ़ा सामने आया। सब को साथ ले कर राजपथ पर बढ़ने लगा।
हे पाठक!
तब ऐसा लगता था कि जनता का राजपथ पर ठाटें मारता दावानल सारे भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों को लील लेगा। तभी अदालत ने दावानल में घी डाला। चाचा की बेटी की सवारी को ही गलत बता दिया। चाचा की बेटी कुपित हुई तो सब को डाला जेल में और अकेली दावानल बुझाने लगी। दो बेटे थे, एक हवाई जहाज उड़ाता था, दूसरा था फालतू। वह दावानल बुझाने साथ हो लिया। चुनाव होने थे। पर आग की लपटों में चुनाव कराएँ तो लपटे ही जीतें। पहले चुनाव एक साल पहले करा लिए थे, अब की एक साल आगे बढ़ा लिए, तीन चौथाई नुमाइंदे साथ जो थे। धीरे-धीरे लपटें ठंडी हो चलीं, वे समझे आग बुझ गई। पर आग तो आग होती है। राख के नीचे सुलगती रहती है, वह सुलगती रही। भारतवर्ष में जनतन्तर था उसे चचा खानदान के राजतन्तर में तो बदला न जा सकता था। आखिर चुनाव कराने थे।
आज की कथा यहीं तक, आगे की कथा अगली बैठक में।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
परदेसी बनियों के चले जाने भर से भारतवर्ष में जनतंतर नहीं आया था। परदेसी बनिए तो भारतवर्ष जैसा था वैसा छोड़ गए, टुकड़े और कर गए। जनतंतर आया तब जब जनतंतर का नया बिधान लागू हो गया। फिर चुनाव हुए पहली महापंचायत बनी। पहला चुनाव था, सो ज्यादा झंझट नहीं था। परदेसी बनिए से लिए लड़े लोग मैदान में थे। उन्हीं में से किसी को चुना जाना था। महापंचायत के नेता चाचा थे, जनता ने चाचा को ही चुन डाला। जब तक चाचा रहे तब तक यह झंझट नहीं पड़ा। विकास कैसा हो इस पर मतभेद थे। लेकिन इतने नहीं कि चाचा को असर होता। दस साल तक वही चलता रहा। फिर उत्तर के पड़ौसी ने दूध में खट्टा डाल दिया, बैक्टीरिया पनपने लगे। लड़ाई हारे तो चाचा और पार्टी दोनों का ओज कम हो गया। फिर दक्षिण से कामराज दद्दा को बुला कर पार्टी की कमान पकड़ाई गई। उसने बहुत सारे मंतरियों से इस्तीफा दिलवा कर बैक्टीरिया को निकाल बाहर किया, सरकार की छवि को सुधारने की कोशिश की। फिर खुदा को चाचा की जरूरत हुई उन्हें अपने पास बुला लिया। उन के पीछे कामराज दद्दा की रहनुमाई में सास्तरी जी ने देश संभाला। बड़े नेक आदमी थे। रेल मंत्री थे, तो एक ठो रेल दुर्घटना के चलते ही इस्तीफा दे बैठे थे।
हे! पाठक,
आज कल वैसा बीज खतम हो गया, काठिया गेंहूँ की तरह। चाचा सिंचाई का बहुत इंतजाम कर गए थे, सो कोरवान धरती का काठिया कहाँ बचता। उस के स्थान पर उन्नत संकर बीज आ गया। सास्तरी जी के रहते जनता को चुनने का मौका मिल पाता उस के पहले ही खुदा के घर उन की जरूरत हो गई। बिलकुल अर्जेंट बुलावा आया। बेचारे घर तक भी नहीं पहुँच सके। सीधे परदेस से ही रवाना होना पड़ा। फिर चाचा की बेटी आई मैदान में। तब तक चुनावी अखाड़ा पक्का हो चला था। पूरे बीस बरस से पहलवान प्रेक्टिस कर कर मजबूत हो चुके थे। तगड़ा चुनाव हुआ। क्या समाजवादी, स्वतंत्रतावादी, क्या साम्यवादी और क्या जनसंघी सारे मिल कर जोर कर रहे थे। सास्तरी जी के खुदा बुलावे पर संशय, गऊ हत्या का मामला, तेलंगाना आंदोलन का दमन और भी बहुत सारे दाव-पेंच आजमाए गए। पर कामराज दद्दा के रहते बात नहीं बननी थी सो नहीं बनी। पार्टी को बैक्टीरिया विहीन करने की पूरी कोशिश थी, पर बैक्टीरिया तो बैक्टीरिया हैं, कितना ही स्टर्लाईजेशन करो बचे रह जाते हैं, बैक्टीरियाओं के परताप से राज्यों में दूसरी पार्टियों की सरकारें बनने लगीं।
हे! पाठक,
फिर भरतखंड से अलग हो कर बने लड़ाकू पच्छिमी पडौसी देश में भी जनतंतर का बिगुल बजा। वहाँ पहले ही पूरब-पच्छिम दो टुकड़े थे। पूरब वाले जीते तो पच्छिम को नहीं जँचा। पूरब वालों ने आजादी का बिगुल बजा दिया। जुद्ध हुआ और चाचा की बेटी ने आजादी का साथ दिया और पूरब-पच्छिम अलग हो गए। लाख फौजी समर्पण कर भारत लाए गए। जनसंघियों को ताव आ गया। उन्हों ने चाचा की बेटी को, बेटी से भवानी और चंडिका बना दिया, भावना का ज्वार उत्ताल तरंगे ले रहा था।
हे! पाठक,
तरंगों को शेर समझ भवानी ने चुनाव की रणभेरी बजा दी, कि वह गरीबी मिटाएगी। भवानी तीन चौथाई बहुमत ले कर सिंहासन पर जा बैठी। बैक्टीरिया गए नहीं थे भावना की तरंगों के बीच ही भ्रष्टाचार, बेरोजगारी ठाटें मारने लगी। जनता का हाल बेहाल हो गया। क्या पूरब, क्या पच्छिम? क्या उत्तर क्या दक्खिन? जनता रोज-रोज राजपथ पर आने लगी तो सरकारी दमन भी बढ़ने लगा। जनता को खंडित करने वाले पंछी काम बिगाड़ते थे। तब अगिया बैताल की तरह एक बूढ़ा सामने आया। सब को साथ ले कर राजपथ पर बढ़ने लगा।
हे पाठक!
तब ऐसा लगता था कि जनता का राजपथ पर ठाटें मारता दावानल सारे भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों को लील लेगा। तभी अदालत ने दावानल में घी डाला। चाचा की बेटी की सवारी को ही गलत बता दिया। चाचा की बेटी कुपित हुई तो सब को डाला जेल में और अकेली दावानल बुझाने लगी। दो बेटे थे, एक हवाई जहाज उड़ाता था, दूसरा था फालतू। वह दावानल बुझाने साथ हो लिया। चुनाव होने थे। पर आग की लपटों में चुनाव कराएँ तो लपटे ही जीतें। पहले चुनाव एक साल पहले करा लिए थे, अब की एक साल आगे बढ़ा लिए, तीन चौथाई नुमाइंदे साथ जो थे। धीरे-धीरे लपटें ठंडी हो चलीं, वे समझे आग बुझ गई। पर आग तो आग होती है। राख के नीचे सुलगती रहती है, वह सुलगती रही। भारतवर्ष में जनतन्तर था उसे चचा खानदान के राजतन्तर में तो बदला न जा सकता था। आखिर चुनाव कराने थे।
आज की कथा यहीं तक, आगे की कथा अगली बैठक में।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
सोमवार, 30 मार्च 2009
चुनाव युद्ध के नियम और उन्हें तोड़ने की तैयारी : जनतन्तर-कथा (4)
हे, पाठक!
जब भरतखंड के टुकड़े कर के परदेसी बनिया चलता बना तो बड़ा टुकड़ा मिला उसे भरतखंड कैसे कहते सो इस का नाम रखा भारतवर्ष। यह भारतवर्ष भी बहुत ही विवधताओं का देश बना। अनेक प्रकार की संस्कृतियाँ, जीवन पद्यतियाँ, बोलियाँ, भाषाएँ, धर्म, सम्प्रदाय और आर्थिक व सामाजिक विषमताएँ। सब को संतुष्ट रखते हुए इसे विकास पथ पर ले चलना मेंढकों को तराजू में तौलने से भी सहस्तर गुना भीषण काम था। सब से पहली चुनौती तो थी पूरे भारतवर्ष के बड़े खंडों को एक रख पाना, एक विधान के साथ राज चलाना। पर उसे कर लिया गया। बस एक रियासत को विशेष दर्जा देना पड़ा। यह विशेष दर्जा देना ही भारतवर्ष के लिए माइग्रेन बन गया। जैसे माइग्रेन का कोई स्थाई इलाज नहीं, इस समस्या का भी कोई इलाज नहीं। बस यह करते रहो कि जब दर्द हो तब गोली खा लो, पानी पी लो और सो जाओ। दर्द सहन नही हो तो किसी ओझा-मोझा, बाबा-शाबा की शरण ले लो। अब मैं जनतंतर और चुनाव की बात पर आता हूँ। विधान के अनुसार बहुत सारे बड़े खंड बनाए थे। कुछ बाद में बन गए। इन खंडों पर खंड सरकारें राज करती हैं। भारत वर्ष इन खंडो का संघ हुआ। संघ की एक सरकार हुई। संघ को चलाने के लिए एक महापंचायत बनाई गई। इस महापंचायत के दो हिस्से हुए। ऊपर का हिस्सा खंड सभा हुआ हर खंड की आबादी के अनुपात में इस में पंच चुन कर भेजे जाते हैं। एक महासभा हुआ जिस में भारतवर्ष में आबादी के अनुपात में अनेक खेतों में बांट दिया गया है। हर खेत से एक सदस्य निचले सदन में जाता है। यह महासभा कैसे सरकार बनाती है यह मैं कल बता ही चुका हूँ।
हे, पाठक!
आज कल भारतवर्ष में इन खेतों से पंचों का चुनाव किए जाने का समय चल रहा है। बहुत ही पवित्र वेला है। वैसी ही जैसी महाभारत के पहले थी। जैसे दुर्योधन और युधिष्ठिर ने अपनी अपनी पार्टी की ओर से लड़ने को संपूर्ण भरत खंड के राजाओं और योद्धाओं को अपनी अपनी ओर मिलाया था। वैसा ही कुछ अब हो रहा है। लेकिन बहुत सारा अंतर भी है। वहाँ युद्ध दो पार्टियों में था और सारे योद्धा दो भागों में स्पष्ट रूप से बंट गए थे। यहाँ दो से अधिक पार्टियाँ हैं। योद्धा भी अनेक हैं। लेकिन अभी स्पष्ट नहीं है कि कितनी पार्टियाँ हैं? यह भी स्पष्ट नहीं है कि कौन किस ओर है? युद्ध के प्रारंभ तक कौन किस ओर रहेगा? यह भी स्पष्ट नहीं है कि युद्ध की समाप्ति पर कौन किस ओर रहेगा? सब से अनोखी बात तो यह है कि कोई भी पार्टी ऐसी दिखाई नहीं पड़ रही है कि वह युद्ध जीत ले और राज संभाले।
हे, पाठक!
यह युद्ध एक बात में महाभारत से अलग है। वहाँ युद्ध की तारीख तय नहीं थी। यहाँ युद्ध की तारीखें तय हैं कि किस-किस खेत में युद्ध कब-कब होगा? युद्ध सुबह से शाम तक कितने घंटे का होगा? सब कुछ तय है। खेतों में युद्ध समाप्त होने पर उस का नतीजा सारे युद्धों की समाप्ति तक गोपनीय रहेगा। फिर एक साथ नतीजे बताए जाएंगे। युद्ध के नतीजे आने के बाद ही यह तय हो पाएगा कि किस किस पार्टी ने कितने कितने खेत जीते। जिस के पास सब से ज्यादा खेत होंगे वही राज संभालेगा? युद्ध के नियम तय कर दिए गए हैं। युद्ध की आचार संहिता बना दी गई है। जो भी आचार संहिता को तोड़ेगा उसे सजा दी जाएगी। लेकिन वाह रे जनतंतर तेरी महिमा! आचार संहिता तोड़ने वाले को युद्ध से वंचित नहीं किया जाएगा। वह जेल जा सकता है, पर वहाँ से भी युद्ध में शामिल रह सकता है। कई योद्धा तो ऐसे हैं कि बाहर रह कर जितना घमासान युद्ध कर सकते हैं उस से कहीं अधिक घमासान जेल में जा कर कर सकते हैं।
हे, पाठक!
जनता को भी पता है कि किसी एक पार्टी के योद्धा आधे से अधिक खेत नहीं जीत पाएंगे। पार्टियों के गुटों के योद्धा भी आधे से अधिक खेत नहीं जीत पाएंगे। फिर भी राज चलाने का निर्णय तो होगा ही। फिर जिन पार्टियों के योद्धा अधिक खेत जीतेंगे वे छोटी पार्टियों के योद्धाओं को अपने साथ लाने के लिए जुगाड़ करेंगी। तब कहीं जा कर तय होगा कि राज कौन संभालेगा? पर वह सब बाद की बातें हैं। तुम बोर हो रहे होंगे कि क्या गणित की कक्षा जैसी बोर कथा सुना डाली। पर यह जरूरी था। गणित में जो चतुर होगा वही इस चुनाव युद्ध में पार पा सकेगा।
अब समय हो चला है, इस लिए व्यथा-कथा को आज यहीं विराम ।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
जब भरतखंड के टुकड़े कर के परदेसी बनिया चलता बना तो बड़ा टुकड़ा मिला उसे भरतखंड कैसे कहते सो इस का नाम रखा भारतवर्ष। यह भारतवर्ष भी बहुत ही विवधताओं का देश बना। अनेक प्रकार की संस्कृतियाँ, जीवन पद्यतियाँ, बोलियाँ, भाषाएँ, धर्म, सम्प्रदाय और आर्थिक व सामाजिक विषमताएँ। सब को संतुष्ट रखते हुए इसे विकास पथ पर ले चलना मेंढकों को तराजू में तौलने से भी सहस्तर गुना भीषण काम था। सब से पहली चुनौती तो थी पूरे भारतवर्ष के बड़े खंडों को एक रख पाना, एक विधान के साथ राज चलाना। पर उसे कर लिया गया। बस एक रियासत को विशेष दर्जा देना पड़ा। यह विशेष दर्जा देना ही भारतवर्ष के लिए माइग्रेन बन गया। जैसे माइग्रेन का कोई स्थाई इलाज नहीं, इस समस्या का भी कोई इलाज नहीं। बस यह करते रहो कि जब दर्द हो तब गोली खा लो, पानी पी लो और सो जाओ। दर्द सहन नही हो तो किसी ओझा-मोझा, बाबा-शाबा की शरण ले लो। अब मैं जनतंतर और चुनाव की बात पर आता हूँ। विधान के अनुसार बहुत सारे बड़े खंड बनाए थे। कुछ बाद में बन गए। इन खंडों पर खंड सरकारें राज करती हैं। भारत वर्ष इन खंडो का संघ हुआ। संघ की एक सरकार हुई। संघ को चलाने के लिए एक महापंचायत बनाई गई। इस महापंचायत के दो हिस्से हुए। ऊपर का हिस्सा खंड सभा हुआ हर खंड की आबादी के अनुपात में इस में पंच चुन कर भेजे जाते हैं। एक महासभा हुआ जिस में भारतवर्ष में आबादी के अनुपात में अनेक खेतों में बांट दिया गया है। हर खेत से एक सदस्य निचले सदन में जाता है। यह महासभा कैसे सरकार बनाती है यह मैं कल बता ही चुका हूँ।
हे, पाठक!
आज कल भारतवर्ष में इन खेतों से पंचों का चुनाव किए जाने का समय चल रहा है। बहुत ही पवित्र वेला है। वैसी ही जैसी महाभारत के पहले थी। जैसे दुर्योधन और युधिष्ठिर ने अपनी अपनी पार्टी की ओर से लड़ने को संपूर्ण भरत खंड के राजाओं और योद्धाओं को अपनी अपनी ओर मिलाया था। वैसा ही कुछ अब हो रहा है। लेकिन बहुत सारा अंतर भी है। वहाँ युद्ध दो पार्टियों में था और सारे योद्धा दो भागों में स्पष्ट रूप से बंट गए थे। यहाँ दो से अधिक पार्टियाँ हैं। योद्धा भी अनेक हैं। लेकिन अभी स्पष्ट नहीं है कि कितनी पार्टियाँ हैं? यह भी स्पष्ट नहीं है कि कौन किस ओर है? युद्ध के प्रारंभ तक कौन किस ओर रहेगा? यह भी स्पष्ट नहीं है कि युद्ध की समाप्ति पर कौन किस ओर रहेगा? सब से अनोखी बात तो यह है कि कोई भी पार्टी ऐसी दिखाई नहीं पड़ रही है कि वह युद्ध जीत ले और राज संभाले।
हे, पाठक!
यह युद्ध एक बात में महाभारत से अलग है। वहाँ युद्ध की तारीख तय नहीं थी। यहाँ युद्ध की तारीखें तय हैं कि किस-किस खेत में युद्ध कब-कब होगा? युद्ध सुबह से शाम तक कितने घंटे का होगा? सब कुछ तय है। खेतों में युद्ध समाप्त होने पर उस का नतीजा सारे युद्धों की समाप्ति तक गोपनीय रहेगा। फिर एक साथ नतीजे बताए जाएंगे। युद्ध के नतीजे आने के बाद ही यह तय हो पाएगा कि किस किस पार्टी ने कितने कितने खेत जीते। जिस के पास सब से ज्यादा खेत होंगे वही राज संभालेगा? युद्ध के नियम तय कर दिए गए हैं। युद्ध की आचार संहिता बना दी गई है। जो भी आचार संहिता को तोड़ेगा उसे सजा दी जाएगी। लेकिन वाह रे जनतंतर तेरी महिमा! आचार संहिता तोड़ने वाले को युद्ध से वंचित नहीं किया जाएगा। वह जेल जा सकता है, पर वहाँ से भी युद्ध में शामिल रह सकता है। कई योद्धा तो ऐसे हैं कि बाहर रह कर जितना घमासान युद्ध कर सकते हैं उस से कहीं अधिक घमासान जेल में जा कर कर सकते हैं।
हे, पाठक!
जनता को भी पता है कि किसी एक पार्टी के योद्धा आधे से अधिक खेत नहीं जीत पाएंगे। पार्टियों के गुटों के योद्धा भी आधे से अधिक खेत नहीं जीत पाएंगे। फिर भी राज चलाने का निर्णय तो होगा ही। फिर जिन पार्टियों के योद्धा अधिक खेत जीतेंगे वे छोटी पार्टियों के योद्धाओं को अपने साथ लाने के लिए जुगाड़ करेंगी। तब कहीं जा कर तय होगा कि राज कौन संभालेगा? पर वह सब बाद की बातें हैं। तुम बोर हो रहे होंगे कि क्या गणित की कक्षा जैसी बोर कथा सुना डाली। पर यह जरूरी था। गणित में जो चतुर होगा वही इस चुनाव युद्ध में पार पा सकेगा।
अब समय हो चला है, इस लिए व्यथा-कथा को आज यहीं विराम ।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
रविवार, 29 मार्च 2009
जनतन्तर-कथा (3) : खंडित भरतखंड में जनतंतर का जनम
हे! पाठक,
एक जमाना था, जब लिखने और पढ़ने का रिवाज नहीं था। उस जमाने में लोग कथाएँ कण्ठस्थ कर लिया करते थे और सभाओं में सुनाया करते थे। एक पुराणिक कथा-ज्ञानी सूत जी महाराज नैमिषारण्य में रहा करते थे और उन से कथाएँ सुनने के लिए शौनक आदि ऋषि-मुनि वहाँ जाया करते थे। लेकिन जब से लिखना-पढ़ना शुरु हुआ तब से नैमिषारण्य जाने की आवश्यकता समाप्त हो गई और कुछ लोगों ने इन कथाओं की अनेक प्रतियाँ बना ली। जिस जिस के भी पल्ले यह कथा पुस्तकें पड़ी वही व्यास नामधारी हो कर गांव-गांव, नगर-नगर जा-जा कर यह कथाएँ पढने लगा। अब जब से इंटरनेट आ गया है तब से तो कथाओं को पढ़ने-सुनने की जरूरत ही नहीं रह गई है। अब तो कथाएँ इंटरनेट पर आ रही हैं और लोग उन्हें पढ़ रहे हैं। हम ने तो अपनी इस चुनाव व्यथा-कथा का शुभारंभ इंटरनेट से ही किया है। दो ही दिनों में इस की ख्याति गौड़ प्रदेश तक जा पहुँची। इस प्रदेश के शिव कुमार मिश्र नामक एक पाठक ने टिप्पणी लिखी है उसे आप के अवलोकनार्थ प्रस्तुत करते हैं ....
तुम यह मत सोच बैठना कि इस अभिनव कथावाचक ने दो अध्याय तो पढ़े नहीं है और अभी से अपने प्रशंसकों के उद्धरण हमें बताने लगा। पर इस चैनल-नेट के युग में जो अपने मुहँ मियाँ मिट्ठू बन के रहा वह परसिद्ध हो जाय। हमें भी पहले यह कला नहीं आती थी, इस कारण से वकालत का पेशा फेल होते होते रह गया। लोगों को पता ही नहीं लगता था कि हम कितने तुर्रम खाँ हैं। जब से हमने यह कला सीखी है हमारे पौ-बारह हैं। ढाई बरस में पूरे पाँच सेमेस्टर इस कला का अध्ययन किया और फिर छह मास तक एक टीवी चैनल में ट्रेनिंग और प्रोजेक्ट किया तब जा कर यह कला हासिल कर पाए हैं। लेकिन फिर भी हम जानते हैं कि इस कला के श्रेष्ठतम कलाकार वहाँ नहीं हैं। वे जहाँ हैं उस की कथा हम आप को बताएंगे। यह मत सोचना कि जनतंतर की कथा को हमने बिसार दिया है। असलियत तो यह है कि इस कला के सारे धुरंधर जनतंतर के कर्मक्षेत्र में विराजते हैं और आज कल युद्ध-क्षेत्र में ड़टे हुए हैं। उधर तीर्थश्रेष्ठ प्रयाग के ज्ञानदत्त पाण्डे नामक एक पाठक ने जानना चाहा है कि धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र में वायरस और बैक्टीरिया क्या कर रहे हैं? हम उन की इस जिज्ञासा को जरूर शांत करेंगे। लेकिन उस के पहले जरूरी है कि जनतंतर की कुछ जनमपत्री बाँच ली जाए।
हे! पाठक,
पुराने जमाने में शासक राजा हुआ करते थे जो अपनी मरजी के मुताबिक शासन किया करते थे। जब लोग दुखी हो जाते थे तो किसी दूसरे राजा के यहाँ चले जाते थे और अपने ही राजा पर हमला करवा कर उसे उखाड़ फैंकते थे। इस तरह राजा उखाड़ खेल भरतखंड में लोकप्रिय हो गया। राजा आपस में एक दूसरे को उखाड़ फेंकने का खेल खेलने में व्यस्त रहने लगे। जनता दुखी होने के साथ साथ परेशान भी रहने लगी। तब भरत खंड के बाहर से योद्धा आने लगे और यहाँ खेल में व्यस्त राजाओं को उखाड़ कर खुद शासक बन बैठे। पर भरतखंड का तो यह रिवाज रहा है कि जो यहाँ आएगा यहाँ के रीतिरिवाजों को अपना लेगा। नतीजतन पुराने राजा और नए नवाब आपस में ये उखाड़ू खेल खेलने लगे। अब की बार इस खेल में कोई शासक नहीं आया। बल्कि कुछ परदेसी बनिए आए, पहले खेल में सहायक बने फिर सिद्धहस्त हो कर सारे भरतखंड को अपने कब्जे में ले लिया।
हे! पाठक,
इन परदेसी बनियों से जनता सौ-दोसौ बरस में ही दुखी हो गई। अब की बार जनता ही नहीं पुराने राजा-नवाब और देसी बनिए सभी दुखी हो चले थे। पर छूटने का कोई रास्ता नहीं था। पुराने राजाओं-नवाबों ने एक कोशिश तो की थी पर वे कमजोर पड़ कर पिट गए। इस पिटाई से लोग जान गए थे कि अकेले-अकेले काम नहीं चलने का। इस बार लोगों ने यानी पुराने राजों -नवाबों, देसी बनियों और जनता यानी किरसाणों-मजूरों ने मिल के फैसला कर लिया कि लोहा साथ साथ लेंगे और लेने भी लगे। लोहा लेते-लेते एक गड़बड़ शुरू हो गई। लोग सोचने लगे कि इन बनियों को तो हम भरतखंड से निकाल तो फैंकेंगे। पर राज कौन करेगा? राजा-नवाब बोले- यह तो कोई सवाल ही नहीं है। राज तो हम करते थे हम ही करेंगे। देसी बनिये और किरसाण-मजूर कहने लगे हम फोकट में काहे लोहा लें जी, हम जाते अपने-अपने गाम। मीटिंगे होने लगीं, फिर तय. हुआ कि मिलजुल कर राज करेंगे। सब राजी हो गए। लोहा लिया गया। उन्हीं दिनों परदेसी बनिए थोडे़ कमजोर पड़ गए। देखा अब चुपचाप खिसकने में ही भलाई है। कहने लगे- हम चले तो जाएंगे, पर यहाँ दाढ़ी-चोटी वालों में रोज मारकाट होगी, पहले उस का इलाज सोचो। अब लोहा लेने वाले सोच में पड़ गए। सब जानते थे कि मारकाट तो होती है, रोज होती है। पर वे जानते नहीं थे कि मारकाट कौन कराता है? सोच में पड़ जाने से लोहा लेने की लड़ाई कमजोर पड़ी तो देसी बनियों ने सोचा कि ये हाथ में आती कमान खिसकी। इस बीच परदेसी बनियों ने मजबूती पकड़ ली। उन ने आपस में फैसला कर लिया कि बाजार को बांट लो तो इस का हल निकल आएगा। उधर दाढ़ी वाले बनिए बणिज करेंगे इधर चोटी वाले बनिये । बस फिर क्या था। बाजार को बांट कर परदेसी बनिए भरतखंड से निकल लिये।
हे! पाठक,
परदेसी तो निकल लिए पर इधर खंडित भरतखंड को संभालने को महा पंचायत बैठा गए जो तय करने लगी कि राज कैसे चलेगा। बस वहीं तय हुआ कि भरत खंड के खंड-खंड से एक एक पंच चुना जाएगा फिर वे बहुमत से नेता चुनेंगे, नेता मंतरी चुनेगा और मंतरियों की सहायता से राज करेगा। बड़ा चक्कर पड़ा उस काल। बस एक नेता राज करेगा खंडित भरत खंड पर? तो यह हुआ, भरत खंड कुछ और बड़े खंड होंगे जिन पर खण्ड-खण्ड से पंच चुनेंगे जो एक-एक नेता चुनेंगे, नेता मंतरी चुनेगा और उन की सहायता से बड़े खंडों पर राज करेगा। एक और बखेडा़ था। जनता कैसे पंच चुनेगी? तो यह भी तय हो गया कि इस के लिए वोट डाले जाएँगे। इस तरह इस नयी व्यवस्था को जनतंतर कहा गया। तब से वोट की प्रथा प्रचलित हो गई। हर पाँच बरस में वोट समारोह यानी चुनाव होने लगा।
हे! पाठक,
आज हमने आप को जनतंतर, चुनाव और वोट का महात्म्य बताया। इन सब में वोट ही जनतंतर का मूल मंतर हो गया है। हर कोई वोट चाहता है। इस जनतंतर में जन को सब भूल चुके हैं और जन का वोट ही सब कुछ हो गया है। बस पाँच बरस में एक बार जो किसी भाँति जन के वोटों को हथिया लेता है, जन पाँच बरस तक उस का गुलाम हो जाता है। जो वोट के बल पर नेता चुना जाता है वही पाँच बरस तक जन का कुछ भी कर सकता है। चाहे तो उसे घाणी में पेल कर तेल निकाल सकता है। निकाल सकता क्या है? निकाल ही रहा है। आज फिर समय हो चला है, कल गणगौर है, हमारी बींदणी ने मेहंदी लगाई है, अभी गीली है। हम टिपिया रहे हैं। वह टीवी और बेडरूम की लाइट बंद करने को बुला रही है हमारे जाने की घड़ी आ चुकी है।
हम आज की कथा को यहीं विराम देते हैं।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
एक जमाना था, जब लिखने और पढ़ने का रिवाज नहीं था। उस जमाने में लोग कथाएँ कण्ठस्थ कर लिया करते थे और सभाओं में सुनाया करते थे। एक पुराणिक कथा-ज्ञानी सूत जी महाराज नैमिषारण्य में रहा करते थे और उन से कथाएँ सुनने के लिए शौनक आदि ऋषि-मुनि वहाँ जाया करते थे। लेकिन जब से लिखना-पढ़ना शुरु हुआ तब से नैमिषारण्य जाने की आवश्यकता समाप्त हो गई और कुछ लोगों ने इन कथाओं की अनेक प्रतियाँ बना ली। जिस जिस के भी पल्ले यह कथा पुस्तकें पड़ी वही व्यास नामधारी हो कर गांव-गांव, नगर-नगर जा-जा कर यह कथाएँ पढने लगा। अब जब से इंटरनेट आ गया है तब से तो कथाओं को पढ़ने-सुनने की जरूरत ही नहीं रह गई है। अब तो कथाएँ इंटरनेट पर आ रही हैं और लोग उन्हें पढ़ रहे हैं। हम ने तो अपनी इस चुनाव व्यथा-कथा का शुभारंभ इंटरनेट से ही किया है। दो ही दिनों में इस की ख्याति गौड़ प्रदेश तक जा पहुँची। इस प्रदेश के शिव कुमार मिश्र नामक एक पाठक ने टिप्पणी लिखी है उसे आप के अवलोकनार्थ प्रस्तुत करते हैं ....
हे कथावाचक,
जनतंतर-मनतंतर की जन्म-जन्मान्तर, युग-युगांतर कथा हमें बहुत सोहायी। सो, हे कथावाचक श्रेष्ठ, हम आगे की कथा की प्रतीक्षा में बैठे हैं.। आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है जनतंतर अनंत जनतंतर कथा अनंता। अतः हे वाचकश्रेष्ठ, आप पुनः आईये और आगे की कथा सुनाईये....:-)
हम यह जानने के लिए व्याकुल हैं कि वैक्टीरिया ने ज्यादा काट-काट मचाई या वायरस ने?हे! पाठक,
तुम यह मत सोच बैठना कि इस अभिनव कथावाचक ने दो अध्याय तो पढ़े नहीं है और अभी से अपने प्रशंसकों के उद्धरण हमें बताने लगा। पर इस चैनल-नेट के युग में जो अपने मुहँ मियाँ मिट्ठू बन के रहा वह परसिद्ध हो जाय। हमें भी पहले यह कला नहीं आती थी, इस कारण से वकालत का पेशा फेल होते होते रह गया। लोगों को पता ही नहीं लगता था कि हम कितने तुर्रम खाँ हैं। जब से हमने यह कला सीखी है हमारे पौ-बारह हैं। ढाई बरस में पूरे पाँच सेमेस्टर इस कला का अध्ययन किया और फिर छह मास तक एक टीवी चैनल में ट्रेनिंग और प्रोजेक्ट किया तब जा कर यह कला हासिल कर पाए हैं। लेकिन फिर भी हम जानते हैं कि इस कला के श्रेष्ठतम कलाकार वहाँ नहीं हैं। वे जहाँ हैं उस की कथा हम आप को बताएंगे। यह मत सोचना कि जनतंतर की कथा को हमने बिसार दिया है। असलियत तो यह है कि इस कला के सारे धुरंधर जनतंतर के कर्मक्षेत्र में विराजते हैं और आज कल युद्ध-क्षेत्र में ड़टे हुए हैं। उधर तीर्थश्रेष्ठ प्रयाग के ज्ञानदत्त पाण्डे नामक एक पाठक ने जानना चाहा है कि धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र में वायरस और बैक्टीरिया क्या कर रहे हैं? हम उन की इस जिज्ञासा को जरूर शांत करेंगे। लेकिन उस के पहले जरूरी है कि जनतंतर की कुछ जनमपत्री बाँच ली जाए।
हे! पाठक,
पुराने जमाने में शासक राजा हुआ करते थे जो अपनी मरजी के मुताबिक शासन किया करते थे। जब लोग दुखी हो जाते थे तो किसी दूसरे राजा के यहाँ चले जाते थे और अपने ही राजा पर हमला करवा कर उसे उखाड़ फैंकते थे। इस तरह राजा उखाड़ खेल भरतखंड में लोकप्रिय हो गया। राजा आपस में एक दूसरे को उखाड़ फेंकने का खेल खेलने में व्यस्त रहने लगे। जनता दुखी होने के साथ साथ परेशान भी रहने लगी। तब भरत खंड के बाहर से योद्धा आने लगे और यहाँ खेल में व्यस्त राजाओं को उखाड़ कर खुद शासक बन बैठे। पर भरतखंड का तो यह रिवाज रहा है कि जो यहाँ आएगा यहाँ के रीतिरिवाजों को अपना लेगा। नतीजतन पुराने राजा और नए नवाब आपस में ये उखाड़ू खेल खेलने लगे। अब की बार इस खेल में कोई शासक नहीं आया। बल्कि कुछ परदेसी बनिए आए, पहले खेल में सहायक बने फिर सिद्धहस्त हो कर सारे भरतखंड को अपने कब्जे में ले लिया।
हे! पाठक,
इन परदेसी बनियों से जनता सौ-दोसौ बरस में ही दुखी हो गई। अब की बार जनता ही नहीं पुराने राजा-नवाब और देसी बनिए सभी दुखी हो चले थे। पर छूटने का कोई रास्ता नहीं था। पुराने राजाओं-नवाबों ने एक कोशिश तो की थी पर वे कमजोर पड़ कर पिट गए। इस पिटाई से लोग जान गए थे कि अकेले-अकेले काम नहीं चलने का। इस बार लोगों ने यानी पुराने राजों -नवाबों, देसी बनियों और जनता यानी किरसाणों-मजूरों ने मिल के फैसला कर लिया कि लोहा साथ साथ लेंगे और लेने भी लगे। लोहा लेते-लेते एक गड़बड़ शुरू हो गई। लोग सोचने लगे कि इन बनियों को तो हम भरतखंड से निकाल तो फैंकेंगे। पर राज कौन करेगा? राजा-नवाब बोले- यह तो कोई सवाल ही नहीं है। राज तो हम करते थे हम ही करेंगे। देसी बनिये और किरसाण-मजूर कहने लगे हम फोकट में काहे लोहा लें जी, हम जाते अपने-अपने गाम। मीटिंगे होने लगीं, फिर तय. हुआ कि मिलजुल कर राज करेंगे। सब राजी हो गए। लोहा लिया गया। उन्हीं दिनों परदेसी बनिए थोडे़ कमजोर पड़ गए। देखा अब चुपचाप खिसकने में ही भलाई है। कहने लगे- हम चले तो जाएंगे, पर यहाँ दाढ़ी-चोटी वालों में रोज मारकाट होगी, पहले उस का इलाज सोचो। अब लोहा लेने वाले सोच में पड़ गए। सब जानते थे कि मारकाट तो होती है, रोज होती है। पर वे जानते नहीं थे कि मारकाट कौन कराता है? सोच में पड़ जाने से लोहा लेने की लड़ाई कमजोर पड़ी तो देसी बनियों ने सोचा कि ये हाथ में आती कमान खिसकी। इस बीच परदेसी बनियों ने मजबूती पकड़ ली। उन ने आपस में फैसला कर लिया कि बाजार को बांट लो तो इस का हल निकल आएगा। उधर दाढ़ी वाले बनिए बणिज करेंगे इधर चोटी वाले बनिये । बस फिर क्या था। बाजार को बांट कर परदेसी बनिए भरतखंड से निकल लिये।
हे! पाठक,
परदेसी तो निकल लिए पर इधर खंडित भरतखंड को संभालने को महा पंचायत बैठा गए जो तय करने लगी कि राज कैसे चलेगा। बस वहीं तय हुआ कि भरत खंड के खंड-खंड से एक एक पंच चुना जाएगा फिर वे बहुमत से नेता चुनेंगे, नेता मंतरी चुनेगा और मंतरियों की सहायता से राज करेगा। बड़ा चक्कर पड़ा उस काल। बस एक नेता राज करेगा खंडित भरत खंड पर? तो यह हुआ, भरत खंड कुछ और बड़े खंड होंगे जिन पर खण्ड-खण्ड से पंच चुनेंगे जो एक-एक नेता चुनेंगे, नेता मंतरी चुनेगा और उन की सहायता से बड़े खंडों पर राज करेगा। एक और बखेडा़ था। जनता कैसे पंच चुनेगी? तो यह भी तय हो गया कि इस के लिए वोट डाले जाएँगे। इस तरह इस नयी व्यवस्था को जनतंतर कहा गया। तब से वोट की प्रथा प्रचलित हो गई। हर पाँच बरस में वोट समारोह यानी चुनाव होने लगा।
हे! पाठक,
आज हमने आप को जनतंतर, चुनाव और वोट का महात्म्य बताया। इन सब में वोट ही जनतंतर का मूल मंतर हो गया है। हर कोई वोट चाहता है। इस जनतंतर में जन को सब भूल चुके हैं और जन का वोट ही सब कुछ हो गया है। बस पाँच बरस में एक बार जो किसी भाँति जन के वोटों को हथिया लेता है, जन पाँच बरस तक उस का गुलाम हो जाता है। जो वोट के बल पर नेता चुना जाता है वही पाँच बरस तक जन का कुछ भी कर सकता है। चाहे तो उसे घाणी में पेल कर तेल निकाल सकता है। निकाल सकता क्या है? निकाल ही रहा है। आज फिर समय हो चला है, कल गणगौर है, हमारी बींदणी ने मेहंदी लगाई है, अभी गीली है। हम टिपिया रहे हैं। वह टीवी और बेडरूम की लाइट बंद करने को बुला रही है हमारे जाने की घड़ी आ चुकी है।
हम आज की कथा को यहीं विराम देते हैं।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
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