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बुधवार, 25 जून 2008

दिखावे की संस्कृति-२.....समाज को आगे ले जाने की इच्छा से काम करने वाले आलोचना की कब परवाह करते हैं?

विगत आलेख में मृत व्यक्ति के अस्थिचयन की घटना के विवरण पर अनेक प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हुईं। उन में विजयशंकर चतुर्वेदी ने एक बघेली लोकोक्ति के दो रूपों का उद्धरण दिया जियत न पूछैं मही, मरे पियावैं दही और जियत न पूछैं मांड़, मरे खबाबैं खांड

दोनों का अर्थ एक ही था जीवित व्यक्ति को छाछ/उबले चावल के पानी की भी न पूछते हैं और मरने पर उस के लिए दही/चीनी अर्पित करने को तैयार रहते हैं।

Shiv Kumar Mishra ने लिखा धरती पर सोये पिता फटा चादरा तान, तेरहवी पर कर रहे बेटा शैय्यादान और अखबार में छपे फोटो से लेकर धुले हुए कुरते तक में, सब जगह दिखावा ही दिखावा हैइन के अलावा दो लोकोक्तियाँ और सामने आईँ एक इटावा (उ.प्र.) के मित्र आर.पी. तिवारी से जियत न दिए कौरा, मरे बंधाए चौरा।। दूसरे कवि महेन्द्र “नेह” से जीवित बाप न पुच्छियाँ, मरे धड़ाधड़ पिट्टियाँ”।

इन का भी वही अर्थ है। जीवित पिता को कौर भी नहीं दिया और अब उस की पगड़ी को सम्मान दिया जा रहा है तथा जीवित पिता को पूछा तक नहीं और मरने पर धड़ाधड़ छाती पीटी जा रही है।

ये सब लोकोक्तियाँ लोक धारणा को प्रकट करती हैं। जिन का यही आशय है कि लोग सब जानते हैं कि मृत्यु के उपरांत अब सब समाज के दिखावे के लिए किया जा रहा है। इस से मरणोपरांत की जाने वाली विधियों का खोखलापन ही प्रकट होता है।

अनेक मित्रों ने परंपराओं की भिन्नता की चर्चा भी की और उन की आवश्यकता की भी। लेकिन विगत आलेख का मेरा आशय कुछ और था, जो परंपराओं को त्यागने के बारे में कदापि नहीं था।

किसी भी परिवार में मृत्यु एक गंभीर हादसा होता है। परिवार और समाज से एक व्यक्ति चला जाता है, और उस का स्थान रिक्त हो जाता है। वह बालक, किशोर, जवान, अधेड़ या वृद्ध; पुरुष या स्त्री कोई भी क्यों न हो उस की अपनी भूमिका होती है, जिस के द्वारा वह परिवार और समाज में मूल्यवान भौतिक और आध्यात्मिक योगदान करता है। समाज मृत व्यक्ति की रिक्तता को शीघ्र ही भर भी लेता है। लेकिन परिवार को उस रिक्तता को दूर करने में बहुत समय लगता है। यह रिक्तता कुछ मामलों में तो रिक्तता ही बनी रह जाती है। अचानक इस रिक्तता से परिवार में आए भूचाल और उस से उत्पन्न मानसिकता से निकलने में अन्तिम संस्कार से लेकर वर्ष भर तक की मृत्यु पश्चात परंपराएँ महति भूमिका अदा करती हैं। इस कारण से उन्हें निभाने में कोई भी व्यक्ति सामान्यतया कोई आपत्ति या बाधा भी उत्पन्न नहीं करता है।

इस आपत्ति के न करने की प्रवृत्ति ने धीरे धीरे हमारी स्वस्थ परंपराओं में अनेक अस्वस्थ कर्मकांडों को विस्तार प्रदान कर दिया है। जिन का न तो कोई सामाजिक महत्व है और न ही कोई भौतिक या आध्यात्मिक महत्व।

अस्थिचयन के उपरांत मृतात्मा को भोग की जो परंपरा है उसे निभाने में किसी को कोई आपत्ति नहीं, वह किसी एक व्यक्ति द्वारा संपन्न कर दी जाती है जो मृतक का लीनियन एसेंडेंट हो। बाकी तमाम लोगों को वहाँ यह सब करने दिया जाना उस परंपरा का अनुचित विस्तार है। जिस में समय और धन दोनों का अपव्यय भी होता है।

मुझे एक ऐसे ही अवसर पर जोधपुर में जाना हुआ था। वहाँ परिवार का केवल एक व्यक्ति लीनियन एसेंडेंटएक सहायक और पंडित ने यह परंपरा निभा दी थी। मैं और मेरे एक मित्र वहाँ जरूर थे लेकिन केवल अनावश्यक रूप से, और बिलकुल फालतू। वह एक डेढ. घंटा हम ने पास ही पहाड़ी की तलहटी में झील किनारे बने एक शिव मंदिर पर बिताया।

मेरा कहना यही है कि हम इन अनावश्यक परंपराओं से छुटकारा पा सकते हैं। भूतकाल में पाया भी गया है। लेकिन उस के लिए सामाजिक जिम्मेदारी को निभाना होगा और इस के लिए भी तैयार रहना होगा कि लोग आलोचना करेंगे।

समाज को आगे ले जाने की इच्छा से काम करने वाले आलोचना की कब परवाह करते हैं?

शुक्रवार, 20 जून 2008

इतनी अकल है, तो एक बार में नहीं लिख सकते?

वाह क्या? सीन है! 

महात्मा मोदी चर्चा में हैं, विश्वविद्यालय में क्या गए, उस के कुलपति गद्गद् और कृतार्थ हो गए।

गुरू वशिष्ठ के घर राम पधारते हैं। शिष्य राम के चरण पखारते हैं। राम हैं कि जाते ही गुरू चरण वन्दना में जुट जाते हैं।  

विश्वामित्र दशरथ के यहाँ जाते हैं, दशरथ द्वार तक जाते हैं, और ऋषि के चरण पखारते हैं, उच्चासन पर बिठाते हैं खुद नीचे बैठे हैं।

सीन पढ़ कर निर्देशक दहाड़ता है.....

फाड़ कर फेंक दो! सीरियल पिटवाना है क्या? दुबारा लिखो!

स्क्रिप्ट राइटर दुबारा लिखता है...........

गुरू वशिष्ठ के घर राम पधारते हैं। शिष्य राम को माला पहनाते हैं, गुरू जी,  महाराजा राम के चरण पखारते हैं। राम हैं कि सीना तान कर सब से बड़े सिंहासन पर खुद आरूढ़ हो जाते हैं। गुरू झुकी मुद्रा में खड़े हैं।  

विश्वामित्र दशरथ के यहाँ जाते हैं, दशरथ समाचार सुन कर कहते हैं. स्वागत कक्ष में बिठाओ,  कहना अभी प्रांत संचालक से मशविरा चल रहा है। विश्वामित्र डेढ़ घंटे इन्तजार करते हैं। बुलावा आता है। दीवाने खास में विश्वामित्र पहुँच कर सिर झुका कर नमन करते हैं। राम कह रहे हैं। मास्टर जी, हम अब चक्रवर्ती हो गए हैं। जरा समय ले कर आया कीजिए।

सीन पढ़ कर निर्देशक फिर दहाड़ता है.....

इतनी अकल है, तो एक बार में नहीं लिख सकते?

बुधवार, 9 अप्रैल 2008

'भँवर म्हाने पूजण दो गणगौर'

वसंत ऋतु में प्रिया और प्रियतम का संग मिले तो कोई भी साथ को पल भर के लिए भी नहीं छोड़ना चाहता है। राजस्थान में वसंत के बीतते ही भयंकर ग्रीष्म का आगमन होने वाला है। आग बरसाता हूआ सूरज, कलेजे को छलनी कर देने और तन का जल सोख लेने वाली तेज लू के तेज थपेड़े बस आने ही वाले हैं।

ऐसे निकट भविष्य के पहले मदमाते वसंत में प्रियतम भी नहीं चाहता कि प्रिया का संग क्षण भर को भी छूटे। लेकिन प्रिया को ऐसे में भी ईशर-गौर (शंकर-पार्वती) का आभार करना स्मरण है। उस ने कुंवारे पन से ही उन से लगातार प्रार्थना की है कि उस की भी जोड़ वैसी ही बनाए जैसी उन की है। उस में भी उतना ही प्यार हो जैसा उन में है।

प्रियतम प्रिया को छोड़ना नहीं चाहता है। लेकिन प्रिया को ईशर-गौर (शंकर-पार्वती) का आभार करना है। वह अपने मधुर स्वरों में गाती है-

'भँवर म्हाने पूजण दो गणगौर'

यह उस लोक गीत का मुखड़ा है जो होली के दूसरे दिन से ही राजस्थान में गाया जा रहा था। कल राजस्थान में गणगौर का त्यौहार मनाया गया। इस गीत में पति को भँवर यानी भ्रमर की उपमा प्रदान की गई है। जो वसंत में किसी प्रकार से फूल को नहीं छोड़ना चाहता है।

जब प्रियतम को यह पता लगा कि उसे पाने का आभार करने के लिए प्रिया उससे कुछ समय अलग होना चाहती है तो वह भी उस के उस अनुष्ठान में सहायक बन जाता है। वह उसे सजने का अवसर और साधन प्रदान करता है।

हमारे यहाँ भी गणगौर मनाई गई परम्परागत रूप में। मेरी जीवन संगिनी शोभा ने तीन-चार दिन पहले ही चने और दाल के नमकीन और गेहूँ-गुड़ के मीठे गुणे बनाए। एक दिन पहले रात को मेहंदी लगाई। सुबह-सुबह जल्दी काम निपटा कर तैयार हो गई और पूजा की तैयारी की। गौरी माँ के लिए बेसन की लोई से गहने बनाए गए।

गणगौर की पूजा आम तौर पर घरों पर ही की जाती है। महिलाएं गण-गौर की मिट्टी की प्रतिमा बाजार से लाती हैं और होली के दूसरे दिन से ही उस की पूजा की जाती है। गीत गाए जाते हैं। कुँवारी लड़कियाँ इस पूजा में रुचि लेकर शामिल होती हैं। अनेक मुहल्लों में किसी एक घर में गणगौर ले आई जाती है और उसी घर में मुहल्ले की महिलाएं एकत्र हो कर पूजा करती हैं। मेरी पत्नी दो वर्षों से मुहल्ले के स्थान पर मंदिर में जा कर शिव-पार्वती की पूजा करती है। वहाँ उस दिन दर्शनार्थियों का अभाव होता है। पूजा मजे में आराम से की जा सकती है। वह कहती है कि वह पूजा करनी चाहिए जिस से मन को शांति मिले। सुबह साढ़े दस बजे हम उन्हें ले कर मंदिर गए। वे पूजा करती रहीं। हम वहाँ पुजारी जी से बतियाते रहे।

बेटी मुम्बई में है। वहाँ से खबर है कि उस ने भी उसी तरह से पूजा की जैसे यहाँ उस की माँ ने की। उस ने भी बेसन के गहने बनाए और पास के मंदिर में पार्वती की प्रतिमा को सजा कर पूजा की। दोनों ने ही मंदिरों में पूजा की और दोनों ही मंदिरों में पूजा करने वाली अकेली थीं।

मेरे जन्म स्थान में गणगौर धूमधाम से मनाई जाती थी। गणगौर वहाँ केवल महिलाओं का त्योहार नहीं था। अपितु उसने पूरी तरह से वंसंतोत्सव का रूप लिया हुआ था। उसके बारे में किसी अगली पोस्ट में...........

बुधवार, 20 फ़रवरी 2008

भाषा का संस्कार (पानी देना)

"पानी देना "
आज कहीं भी यह वाक्य सुन ने को मिल जाता है।
बचपन में एक बार भोजन करते समय तेज मिर्च लगने पर मैं एकाएक कह बैठा -अम्माँ, पानी देना।
दादी वहीं थी। पानी मिलना तो दूर वह डाँटने लगी- ऐसा नहीं बोलते।
मैं ने पूछा -क्यों।
तो, वे बोलीं - पानी मरने वाले को दिया जाता है।
उस के बाद इस शब्द का प्रयोग हमने नहीं किया।

आज इस बात की याद फिर आयी। शाम को शोभा (पत्नी) ने भोजन तैयार होने की सूचना दी। तो हम ऑफिस से उठे और कहा- हम हाथ मुंहँ धोकर ( शौच से निवृत्त हो कर) आते हैं। तब तक आप भोजन लगा दो। नहीं तो फिर कोई आ मरेगा।
पत्नी ने टोक दिया - ऐसा क्या बोलते हो? जरा शुभ-शुभ बोला करो।
मैं ने सफाई दी - इस में क्या गलत है? यह तो मुहावरा है।
-हो, मुहावरा। इस से भाषा तो खराब होती है।
मैं ने उसे सही बताते हुए अपनी गलती स्वीकार की। आइंदा सही बोलने का वायदा किया, और हाथ मुहँ धोने चल दिया।

वास्तव में परिवार में मिली इन छोटी-छोटी बातों से भाषा को संस्कार मिला। जीवन सहयात्री ने इसे बनाए रखने में सहयोग किया। अनेक ब्लॉगर साथियों को इस तरह के संस्कार नहीं मिले। वे इस अवसर से वंचित रह गए। सोचता हूँ, मैं ही उन्हें टोकना प्रारंभ कर दूँ। पर भय लगता है वे इसे अन्यथा ले कर कतराने लगे तो कहीं साथियाना व्यवहार ही न टूट जाऐ।