निश्चित रूप से परिवार नियोजन का कार्यक्रम सामाजिक सुधार का कार्यक्रम था। “दो या तीन बच्चे” और बाद में “हम दो हमारे दो” के नारे गलत नहीं थे। हमारी बढती आबादी जो धीमी गति से होने वाली हमारे देश की भौतिक प्रगति को लील जाती है उस से निजात पाने के लिए जरूरी कार्यक्रम था। इस का कोई काला पक्ष नहीं था। लेकिन इस कार्यक्रम को जिस तरीके से जबरन लागू किया गया उस ने इस के सारे पक्षों को काला कर दिया था। बाद में 1977 के आम चुनाव में इन्दिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की जो बुरी पराजय हुई उस में इस जबरन नसबंदी का बहुत बड़ा योगदान था।
आज उस घटना को फिर से याद दिलाने की एक मात्र वजह यही है कि मौजूदा नोटबंदी उस नसबंदी से भी अधिक सामाजिक परिवर्तन का कार्यक्रम कहा जा रहा है। लोगों की जेब में जो बैंक नोट थे उन्हें रातों-रात प्रधानमंत्री के एक रिकार्डेड वीडियो से अवैध घोषित कर दिया और अब उन्हें बदलने के लिए तमाम जनता को लगातार तरसाया जा रहा है। लोगों के पास भोजन जुटाने को नोट नहीं है, लोगों को पगार नहीं मिल रही है। अनियमित रोजगार करने वाले और रोज कमा कर खाने वाले जिन की जनसंख्या इस देश में 40 प्रतिशत हैं परेशान हैं। उस जबरन नसंबंदी से जितने लोग बुरी तरह प्रभावित हुए थे, उस से कई गुना लोग इस नोटबंदी से प्रभावित हैं। निश्चित रूप से यह नोटबंदी आगामी समय में चुनावों को प्रभावित करेगी।
लोग कहते हैं कि विपक्ष मुर्दार है, वह असंगठित है जिस का लाभ उठा कर मात्र 31 प्रतिशत मत ले कर मोदी ने पूर्ण बहुमत प्राप्त कर लिया है। विपक्ष बंटा होना अभी भी वैसा ही है और इस कारण मोदी फिर से सत्तासीन हो जाएगा। पर यह सब अभी से कैसे कहा जा सकता है। इमर्जेंसी लगी तब भी विपक्ष एक साथ नहीं था। जिस दिन चुनाव के लिए इमर्जेंसी हटाई गयी उस दिन भी विपक्ष एक नहीं था। लेकिन दो ढाई माह में ही उस ने एक हो कर इन्दिरा गांधी और उन की कांग्रेस पार्टी को लोहे के चने चबवा दिए थे और उसे सत्ता के बाहर कर दिया था। भारत की जनता यह कारनामा दोबारा दोहरा सकती है। यह भी है कि दूसरी बार जब वही कारनामा दोहराना हो तो अधिक दक्षता के साथ दोहराया जा सकता है, बल्कि उस में अधिक पैनापन होना बहुत स्वाभाविक है।