गुआहाटी में लड़कों के समूह द्वारा लड़की के साथ छेड़छाड़ करने और उस के कपड़े फाड़ देने का प्रयास करने की घटना, फौजियों द्वारा जंगल में एक लड़की के साथ छेड़खानी का प्रयत्न, लखनऊ में पुलिस दरोगा द्वारा मुकदमे में फँसाने का भय दिखा कर महिला के साथ संबंध बनाने की कोशिश, बेगूँसराय में मंदिर में दलित महिला के साथ सार्वजनिक मारपीट यही नहीं इस के अलावा घरों में खुद परिजनों द्वारा महिलाओं और बच्चियों के साथ किए जाने वाले दुर्व्यवहार और अपराधों की अनेक घटनाएँ लगातार मीडिया में आती रही हैं। मीडिया में आने वाली इन घटनाओं की संख्या हमारे समाज में स्त्रियों की स्थिति का नमूना भर हैं। इस तरह की सभी घटनाएँ रिपोर्ट होने लगें तो पुलिस थानों के पास इन से निपटने का काम ही इतना हो जाए कि वे अन्य कोई काम ही न कर सकें। स्थिति वास्तव में भयावह है।
गड़बड़ी हमारे समाज में है, हमारी व्यवस्था और राजनीति में है। अधिकांश लोग परम्परा और रिवाजों के बहाने स्त्रियों को समानता का अधिकार देने के हिमायती नहीं हैं। वे स्त्रियों को मनुष्य नहीं अपनी संपत्ति समझते हैं। बेटी उन के लिए पराया धन है जिस से वे जल्दी से जल्दी निजात पाना चाहते हैं, तो बहू परिवार की बिना वेतन की मजदूर और बेटे के लिए उपभोग की वस्तु है। दीगर महिलाएँ उन के लिए ऐसी संपत्ति हैं जिन्हें अरक्षित अवस्था में देख कर इस्तेमाल किया जा सकता है वहीं अपने घर की महिलाओं के प्रति उन में जबर्दस्त असुरक्षा का भाव है जो उन्हें बंद दीवारों के पीछे रखने को बाध्य करता है। लेकिन आजादी के बाद जिस संविधान को हम ने अपनाया और जो देश का सर्वोपरि कानून है वह स्त्रियों को समानता प्रदत्त करता है। समाज की वास्तविक स्थितियों और कानून के बीच भारी अंतर है। समाज का एक हिस्सा आज भी स्त्रियों को संपत्ति बनाए रखना चाहता है तो एक हिस्सा ऐसा भी है जो उन की समानता का पक्षधर ही नहीं है अपितु व्यवहार में समानता प्रदान भी करता है।
कानून और समाज के बीच भेद को समाप्त करने के दो उपाय हो सकते हैं। एक तो यह कि संविधान और कानून को समाज के उस हिस्से के अनुरूप बना दिया जाए जो महिलाओं को मनुष्य नहीं संपत्ति मान कर चलता है। दूसरा यह कि समाज को संविधान की भावना के अनुसार ऐसी स्थिति में लाया जाए जहाँ स्त्रियों और पुरुषों के समान अधिकार हों दोनों एक स्वतंत्र मनुष्य की तरह जीवन व्यतीत कर सकें। बीच का कोई उपाय नहीं है। पहला उपाय असंभव है। स्वतंत्र मनुष्य की तरह जी रही स्त्रियों को फिर से संपत्ति में परिवर्तित नहीं किया जा सकता। हमें समाज को ही उस स्थिति तक विकसित करना होगा जिस में स्त्रियाँ स्वतंत्र मनुष्य की भाँति जी सकें। इस बड़े परिवर्तन के लिए समाज को एक बड़ी क्रांति से गुजरना होगा। लेकिन यह कैसे हो सकेगा? उस परिवर्तन के लिए वर्तमान में कौन सी शक्तियाँ काम कर रही हैं? कौन सी शक्तियाँ इस परिवर्तन के विरुद्ध काम कर रही हैं। हमारी राज्य व्यवस्था और राजनीति की उस में क्या भूमिका है? और क्या होनी चाहिए? इसे जाँचना होगा और भविष्य के लिए मार्ग तय करना होगा।
8 टिप्पणियां:
काम गंदे सोंच घटिया
कृत्य सब शैतान के ,
क्या बनाया ,सोंच के
इंसान को भगवान् ने
फिर भी चेहरे पर कोई,आती नहीं शर्मिंदगी !
क्योंकि अपने आपको, हम मानते इंसान हैं !
maenae bhi nirantar yahii keha haen
baat samvidhaan aur kanun ki ho
naaki samaaj aur parivaar ki
meri soch sae miltaa jultaa chintan haen is post par
रचना जी! हमारे समाज में पारिवारिक व सामाजिक संगठन के अनेक रूप और स्तर हैं। हमारा संविधान समानता और जनतांत्रिक मूल्यो पर आधारित है। लेकिन समाज अभी बहुत बहुत पीछे है। अभी तो देश की राजनैतिक व्यवस्था में भी जनतांत्रिक मूल्य सिर्फ कहने भर को हैं। केवल वोट दे कर अपना जनप्रतिनिधि चुनना मात्र जनतंत्र नहीं होता। उसे समाज के हर अंग तक पहुँचाना होगा तभी हम एक सच्चा जनतांत्रिक समाज बना सकते हैं। समस्या है कि उस के लिए जो काम किया जा रहा है वह अभी व्यक्तिगत स्तर का ही है। अधिक से अधिक कुछ छोटी संस्थाएँ इस दिशा में काम करती दिखाई देती हैं। अभी उस के लिए बड़ी सामाजिक और राजनैतिक पहल बहुत दूर प्रतीत होती है।
एक क्रांति की जरूरत तो है ही हमारे देश को ..
एक नजर समग्र गत्यात्मक ज्योतिष पर भी डालें
मैं भी आपकी इसी बात का हामी हूँ -'गड़बड़ी हमारे समाज में है, हमारी व्यवस्था और राजनीति में है।'
बहुत सटीक विषलेषण किया है !
जब तक समाज को समझ नहीं आयेगा, कानून प्रभावी नहीं हो पायेगा।
ये समाज की पैदा की हुई समस्या है और समाज ही इसे प्रभावी रूप से दूर कर सकता है.
रामराम.
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