आम तौर पर राज्य को आज मनुष्य समाज के लिए आवश्यक माना जाता है और उस के बारे में यह समझ बनाई हुई है कि वह मनुष्य समाज में सदैव से विद्यमान था। लेकिन हम ने पिछली कुछ कड़ियों में जाना कि यह हमेशा से नहीं था। ऐसे समाज भी हुए जिन में राज्य नहीं था, उन्हों ने उस के बिना भी अपना काम चलाया। ऐसे समाजों को राज्य और राज्यसत्ता का कोई ज्ञान नहीं था। आर्थिक विकास और श्रम विभाजन की एक अवस्था में जब अतिरिक्त उत्पादन होने लगा और उस का विपणन होने लगा तो नगर विकसित हुए। इन नगरों में केवल एक गोत्र, बिरादरी या कबीले के लोग नहीं रह गए थे। वहाँ अनेक लोग ऐसे भी आ गए जो इन से अलग थे। वैसी अवस्था में उत्पन्न वर्गों और उन के बीच के संघर्ष को रोकने के लिए राज्य की अनिवार्य रूप से उत्पत्ति हुई। राज्य की उत्पत्ति से ही वर्तमान इतिहास सभ्यता के युग का आरंभ भी मानता है। इसे हम इस तरह भी समझ सकते हैं कि सभ्यता समाज के विकास की ऐसी अवस्था है जिस में श्रम विभाजन, उस के परिणाम स्वरूप होने वाला उत्पादों का विनिमय और इन दोनों चीजों को मिलाने वाला माल उत्पादन जब अपने चरम पर पहुँच जाते हैं तो वे पूरे समाज को क्रांतिकारी रुप से बदल डालते हैं।
सभ्यता के पहले समाज की सभी अवस्थाओं में उत्पादन मूलभूत रूप से सामुहिक था और उसे इसीलिए उपभोग के लिए छोटे-बड़े आदिम सामुदायिक कुटुम्बों में सीधे सीधे बाँट लिया जाता था। साझे का यह उत्पादन अत्यल्प होता था लेकिन तब उत्पादक उत्पादन प्रक्रिया के और उत्पाद के खुद मालिक होते थे। वे जानते थे कि उन के उत्पादन का क्या होता है, वे स्वयं उस का उपभोग करते थे और वह उन के स्वयं के हाथों में रहता था। जब तक उत्पादन उत्पादकों के नियंत्रण में रहा ऐसी कोई शक्ति खड़ी नहीं कर सका जैसी शक्तियाँ सभ्यता के युग में नियमित रूप से खड़ी होती रहती हैं।
जब उत्पादन अपनी आवश्यकता और उपभोग के स्थान पर विनिमय के लिए होने लगा तो पैदावार एक हाथ से निकल कर दूसरे हाथ तक जाने लगी। अब उत्पादक नहीं जानता कि उस की पैदावार का क्या हुआ। जैसे किसान समर्थन मूल्य पर बिके अनाज के बारे में तब तक ही जानता है जब तक कि उसे वह बेच नहीं देता है। बाद में तो उसे अखबार से ही खबर मिलती है कि कितना अनाज रखरखाव के अभाव में सड़ गया है। मुद्रा और व्यापारी बीच में आ कर खड़े हो जाते हैं। व्यापारी भी कम नहीं हैं। एक व्यापारी दूसरे व्यापारी को माल बेचता है। माल एक हाथ से दूसरे हाथ में ही नहीं एक बाजार से दूसरे बाजार में जाने लगता है। इस तरह उत्पादकों का अपने जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं के कुल उत्पादन पर भी नियंत्रण नहीं रह जाता है। व्यापारियों के हाथ भी यह नियंत्रण नहीं रहता है। इस तरह उत्पादों पर जब नियंत्रण नहीं रह जाता है तो लगने लगता है कि उपज और उत्पादन दोनों संयोग के अधीन हो गए हैं।
हमें प्रकृति में भी संयोग या भाग्य का शासन दिखाई पड़ता है। लेकिन विज्ञान ने सभी क्षेत्रों में बहुत बार यह सिद्ध किया है कि आवश्यकता और नियमितता सभी संयोगों के पीछे है। जो प्रकृति का सच है वही समाज का भी सच है। सामाजिक क्रियाओं या उन के क्रम पर मनुष्य का सचेत नियंत्रण रख पाना जितना कठिन होता जाता है उतनी ही ये क्रियाएँ मनु्ष्य के नियंत्रण के बाहर होती जाती हैं और ऐसा लगने लगता है कि ये क्रियाएँ केवल संयोगवश हो रही हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि ये संयोग स्वाभाविक आवश्यकता के कारण घटित हो रहे हैं। माल उत्पादन और माल विनिमय में जो संयोग दिखाई देते हैं वे भी नियमों के अधीन होते हैं अलग अलग उत्पादकों और विनिमय कर्ताओं को ये नियम एक विचित्र अज्ञात शक्ति तक प्रतीत होने लगते हैं जिन का पता लगाने के लिए अत्यधिक श्रम के साथ खोजबीन आवश्यक हो जाती है।
माल उत्पादन के ये नियम उत्पादन के रूप के विकास की प्रत्येक अवस्था में थोड़े बहुत बदल जाते हैं। सभ्यता के युग में ये नियम हावी रहते हैं। आज भी उपज उत्पादक पर हावी है। आज भी समाज का उत्पादन किसी ऐसी योजना के अंतर्गत नहीं होता जिसे सामुहिक रूप से सोच विचार के बाद तैयार किया गया हो। वह इन अंध-नियमों से परिचालित होता रहता है जो अंध शक्तियों की तरह काम करते रहते हैं और अंत में व्यापारिक संकटों के तूफानों के रूप में प्रकट होते रहते हैं। आरंभ में ये तूफान एक अंतराल के बाद आते थे। लेकिन इन दिनों तो हम देख रहे हैं कि एक तूफान की गर्द अभी वापस धरती तक नहीं पहुँचती है कि दूसरा तूफान आता दिखाई पड़ने लगता है। आज ही हम देख सकते हैं कि यूरोप अभी ग्रीस के संकट से नहीं सका था कि उस के सामने इटली एक संकट के रूप में सामने आ खड़ा हुआ है। यूरोप ही क्यों सारी दुनिया का आर्थिक तंत्र इस तूफान के सामने थरथरा रहा है।
7 टिप्पणियां:
ज्ञानवर्धक आलेख!
अच्छा ज्ञानवर्धन हो रहा है आपकी इस श्रंखला से| आभार|
Gyan Darpan
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कुछ नए बिंदु मिले हैं. आभार.
संसाधनों व कार्यों का विभाजन सदा ही विवाद का विषय बना रहा है।
बेहतर...
पूरी कडियाँ नह्4एए पढ पाई। शुभकामनायें\
गुरुवर जी, आपके ब्लॉग "अनवरत" के ब्लॉग जगत पर चार वर्ष पूर्ण करके पांचवे वर्ष में प्रवेश करने के लिए शुभकामनाएं प्रेषित करता हूँ. इस नए वर्ष में "अनवरत" व "तीसरा खम्बा" नामक दोनों ब्लोगों पर पिछले दो-तीन वर्षों की तुलना* में ज्यादा पोस्ट लिखने का आपको समय मिले. इस के लिए आपको भगवान अधिक समय दें. भगवान आपकी समय के अभाव की शिकायत को दूर करें. आपकी आज से चार साल पहले कल के दिन पहली बार लोगों ने आपकी पहली पोस्ट को देखा था. आप अपने ब्लॉग के उद्देश्यों में कामयाब हो और आपके ब्लॉग को पहले से भी उच्च रेंकिग(जो पहले 82 थी, अब 73 है) प्राप्त हो. इन्ही कामनाओं के साथ .............आपकी लेखनी निरंतर चलती रहे और आपके दायित्व की जिम्मेदारी जल्दी से जल्दी पूर्ण हो. आप अपनी लेखनी द्वारा लोगों में ज्ञान रूपी ज्योत जलाते रहें. ब्लॉग के उद्देश्य कभी दिशाहीन ना हो और कथनी व करनी में कभी फर्क ना आये. अपने ब्लोगों के माध्यम से लोगों में बिना जाति और धर्म में भेदभाव किये ही स्नेह, प्रेम के साथ ज्ञान बांटते रहे.
*(जैसे-सन २०१० में अक्टूबर में १९ लिखी और इस साल केवल आठ ही लिखी है. यह क्रम हर साल व हर महीने के हिसाब से चल रहा है)
नोट: आप इस टिप्पणी को भी मेरा प्रचार, विज्ञापन बताकर या अन्य कोई कारण बताकर "स्पैम" कर सकते हैं, क्योंकि आपके ब्लॉग पर आपका अधिकार है. सरकार और उसके अधिकारी सच बोलने वालों को गोली मारना चाहते हैं
4 August 2011 6:29 PM गुरुवर जी, आज अलेक्सा में तीसरा खम्बा की रैंकिंग 6,71,000 और अनवरत की 5,85,363 और 4 October 2011 6:29 PM गुरुवर जी, आज अलेक्सा में तीसरा खम्बा की रैंकिंग 7,38,546 और अनवरत की 9,83,270 थीं. अब 18 November 2011 21:14 PM गुरुवर जी, आज अलेक्सा में तीसरा खम्बा की रैंकिंग 18,25,091 और अनवरत की 23,22,321 है.
नोट: आप इस टिप्पणी को भी मेरा प्रचार, विज्ञापन बताकर या अन्य कोई कारण बताकर "स्पैम" कर सकते हैं, क्योंकि आपके ब्लॉग पर आपका अधिकार है. सरकार और उसके अधिकारी सच बोलने वालों को गोली मारना चाहते हैं
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