पशुपालन के साथ मनुष्य अनेक नयी चीजें सीख रहा था। जांगल युग में वह तत्काल उपभोग्य वस्तुएँ मुख्यतः प्रकृति से प्राप्त करता था। लेकिन पशुपालन के माध्यम से उस ने स्वयं उत्पादन करना आरंभ किया। मांस और दूध उस के उत्पादन थे। मृत पशुओं के चर्म से उसे तन ढकने को पर्याप्त चमड़ा भी प्राप्त हो रहा था। लेकिन पशुओं को पालने के लिए सब से आवश्यक चीज थी पशुओं के भोजन के लिए चारा। जो उस समय तक प्राकृतिक रूप से प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था। बस पशुओं को चारे के समीप ले जाना था। इस तरह मनुष्य समूह अपने पशुओं के साथ, जो तब तक उस की प्रमुख बन चुके संपत्ति थे, चारे की तलाश में स्थान बदलता रहा। इस दौरान उस ने देखा कि किस तरह एक मैदान का सारा चारा पशुओं द्वारा चर जाने पर भी अनुकूल परिस्थितियों में चारा दुबारा उगने लगता है। काल के साथ उस ने यह भी जाना कि चारे को उगाया जा सकता है। खेती का आरंभ संभवतः सब से पहले चारे के उत्पादन के लिए ही हुआ। इस तरह उस ने एक नयी उत्पादन पद्धति कृषि का आविष्कार किया। इस खेती के आविष्कार ने उस की बारम्बार जल्दी-जल्दी स्थान परिवर्तन की आवश्यकता को कम कर दिया। उस ने मैदानों में जहाँ जल की उपलब्धता थी और चारे की खेती की जा सकती थी टिकना आरंभ कर दिया। वह मिट्टी की ईंटों के घर बनाने लगा। इसी दौरान उस का परिचय लौह खनिजों से हुआ और उस ने लौह खनिजों को गला कर उन से खेती में काम आने वाले औजार मुख्यतः हल का आविष्कार किया। लेकिन जब तक वह केवल चारा उगाता रहा तब तक मुख्यतः पशुपालक ही बना रहा। खेती भी उस के पशुपालन की आवश्यकता मात्र थी। जब घासों की खेती करना उस ने सीख लिया तो वह दिन भी दूर नहीं था जब उस ने यह भी जाना कि कैसे कुछ घासों के बीज मनुष्य को पोष्टिक भोजन प्रदान कर सकते हैं। इस तरह स्वयं के भोजन के लिए जब उस ने बीजों को उगाना सीख लिया तो उन का उत्पादन भी आरंभ हो गया। धीरे-धीरे खेती प्रमुखता प्राप्त करती गयी और पशुपालन खेती का एक सहायक उद्योग भर रह गया।
इसी दौर में उस ने अक्षर लिखने की कला का आविष्कार किया और लेखन में उस का प्रयोग आरंभ कर दिया। इसी अवस्था में हमें पहली बार पशुओं की मदद से लोहे के हलों के प्रयोग से जुताई कर के बड़े पैमाने पर खेती का उपयोग देखने को मिलता है। लोहे के औजार मनुष्य का जीवन बदल रहे थे। जंगलों को काट कर उन्हें खेती और चरागाह भूमि में बदलना लोहे की कुल्हाड़ी और बेलचे की मदद के बिना संभव नहीं था। जनसंख्या तेजी से बढ़ने लगीं और बस्तियाँ आबाद होने लगीं। इस दौरान लोहे के उन्नत औजारों के साथ धोंकनी, हथचक्की, कुम्हार का चाक, तेल और शराब निर्माण, धातुओं के काम का कलाओं के रुप में विकास। गाड़ियों, युद्ध के रथों, तख्तों से जहाजों का निर्माण, स्थापत्य का कला का प्रारंभिक विकास, मीनारों-बुर्जों व प्राचीरों से घिरे नगरों का निर्माण महाकाव्य और पुराणों की रचना इसी युग की देन हैं।
खेती के आविष्कार ने मनुष्य को प्रचुर संपदा का मालिक बना दिया था। गुलाम अब भी मौजूद थे लेकिन खेती के काम के लिए उन्हें सदा के लिए बांध कर नहीं रखा जा सकता था। खेती के लिए उन्हें छूट की आवश्यकता थी। इस तरह दासों की एक नयी किस्म भू-दासों का उदय हो रहा था। इस तरह अब समूह खेती करने योग्य भूमि का स्वामी भी हो चुका था। भू-दास समूह के लिए खेती करते थे। समूह के सदस्य उन पर नियंत्रण रखने का काम करने लगे थे। खेती की उपज समूह की संपत्ति थी। भू-दासों को उपज का केवल उतना ही हिस्सा मिलता था जितनी कि उन के जीवनधारण के लिए न्यूनतम आवश्यकता थी। हम कुछ काल पहले तक देखते हैं कि अकाल आदि की अवस्था में भी किसान को जमींदार का हिस्सा देना होता था। चाहे वास्तविक उत्पादक के पास उस का जीवन बनाए रखने तक के लिए भी कुछ न बचे। उसे अपने जीवन को बचाए रखने के लिए जमींदार से कर्जा लेना होता था और इस तरह वह सदैव कर्जे में दबा रहता था।
इस बीच समूह के सद्स्यों की संख्या भी बढ़ रही थी और खेती योग्य भूमि भी। यह संभव नहीं था कि समूह सारी भूमि पर खेती की व्यवस्था कर सके। इस के लिए समूह ने परिवारों को भूमि बांटना आरंभ कर दिया। इस तरह परिवारों के पास भूमि एक संपत्ति के रूप में आ गयी। परिवारों के मुखिया को भूमिपति की तरह पहचाना जाने लगा। संपत्ति की प्रचुरता से लेन-देन और वस्तुओं के विनिमय का भी आरंभ हुआ। समूह अब परिवारों में बंट गया था। परिवारों की अपनी संपत्ति होने लगी थी। परिवार के विभाजित होने पर संपत्ति का विभाजन भी होने लगा। इस तरह परिवार के हर सदस्य का भाग संपत्ति में निर्धारित होने लगा। उस के लिए लेन-देन, व्यापार, उत्तराधिकार और विवाह के लिए स्पष्ट विधि की भी आवश्यकता महसूस होने लगी। विधि की पालना के लिए राज्य के उदय के लिए परिस्थितियाँ बनने लगीं। बाद में राज्य बने और उन के विस्तार के लिए युद्ध भी हुए। आने वाला संपूर्ण सामन्ती काल भूमि और संपदा के लिए युद्धों के इतिहास से भरा पड़ा है। अभी उस के विस्तार में जाने के स्थान पर केवल इतना समझ लेना पर्याप्त है कि मनुष्य ने अपनी सहूलियत को बढ़ाने के लिए नयी उत्पादन पद्धति और साधनों का विकास किया। लेकिन प्रत्येक उत्पादन पद्धति ने न केवल मनुष्य के जीवन को बदला अपितु मनुष्य समाज के ढांचे, उस की व्यवस्था को भी अनिवार्य रूप से परिवर्तित किया।
इस बीच समूह के सद्स्यों की संख्या भी बढ़ रही थी और खेती योग्य भूमि भी। यह संभव नहीं था कि समूह सारी भूमि पर खेती की व्यवस्था कर सके। इस के लिए समूह ने परिवारों को भूमि बांटना आरंभ कर दिया। इस तरह परिवारों के पास भूमि एक संपत्ति के रूप में आ गयी। परिवारों के मुखिया को भूमिपति की तरह पहचाना जाने लगा। संपत्ति की प्रचुरता से लेन-देन और वस्तुओं के विनिमय का भी आरंभ हुआ। समूह अब परिवारों में बंट गया था। परिवारों की अपनी संपत्ति होने लगी थी। परिवार के विभाजित होने पर संपत्ति का विभाजन भी होने लगा। इस तरह परिवार के हर सदस्य का भाग संपत्ति में निर्धारित होने लगा। उस के लिए लेन-देन, व्यापार, उत्तराधिकार और विवाह के लिए स्पष्ट विधि की भी आवश्यकता महसूस होने लगी। विधि की पालना के लिए राज्य के उदय के लिए परिस्थितियाँ बनने लगीं। बाद में राज्य बने और उन के विस्तार के लिए युद्ध भी हुए। आने वाला संपूर्ण सामन्ती काल भूमि और संपदा के लिए युद्धों के इतिहास से भरा पड़ा है। अभी उस के विस्तार में जाने के स्थान पर केवल इतना समझ लेना पर्याप्त है कि मनुष्य ने अपनी सहूलियत को बढ़ाने के लिए नयी उत्पादन पद्धति और साधनों का विकास किया। लेकिन प्रत्येक उत्पादन पद्धति ने न केवल मनुष्य के जीवन को बदला अपितु मनुष्य समाज के ढांचे, उस की व्यवस्था को भी अनिवार्य रूप से परिवर्तित किया।
15 टिप्पणियां:
इस पोस्ट को जैसे जैसे पढ़ती गई मुझे लगा कि इसे आपने जल्दी में समेत दिया है.मनुष्य के विकास को और विस्तार से पढ़ना चाह रही थी.फिर बाद में लगा कि इसका मुख्य उद्देश्य तो दासप्रथा पर प्रकाश डालना था:) जो बेहतरीन तरह से किया है आपने.आभार.
सुविधा की ओर जाते समाज की तस्वीर उभर रही है. बढ़िया आलेख.
मैंने आज ही तीनो कड़ियाँ पढ़ी। सभ्यता के विकास की कहानी आप बहुत सरलता से और संक्षेप में प्रस्तुत कर रहे हैं। यह सबके लिए अत्यन्त उपयोगी होगा। जारी रखें।
सर , पहले दोनों कडियां पढ के आता हूं फ़िर टीपूंगा
चर्चा-मंच पर हैं आप
पाठक-गण ही पञ्च हैं, शोभित चर्चा मंच |
आँख-मूँद के क्यूँ गए, कर भंगुर मन-कंच |
कर भंगुर मन-कंच, टिप्पणी करते जाओ |
प्रस्तोता का करम, नरम नुस्खा अपनाओ |
रविकर न्योता देत, द्वार पर सुनिए ठक-ठक |
चलिए रचनाकार, लेखकालोचक-पाठक ||
शुक्रवार
चर्चा - मंच : 653
http://charchamanch.blogspot.com/
इतनें रोचक अतीत को और विस्तार की आवश्यकता थी , बढ़िया आलेख.
समुचित ढंग से पेट भरने को खेती आवश्यक थी।
रोचक एवं ज्ञानवर्धक जानकारी
is post ko enjoy karne ke liye bhai
ajayji ke saath ho aata hoon.......
very interesting.....
pahli hi tippani se sahmati ban gai......darz ho....
pranam.
मानव समाज के विकास के बारे में रोचक प्रस्तुति !
bahut badiya rochak prastuti.
NAVRATRI kee haardik shubhkamnayen!
आपने बहुत ही रोचक ढंग से विषय पर प्रकाश डाला है, अपनी बात का मर्म समझाते हुये संक्षेप में कथन को समेट देना आपके ही वश की बात है, बहुत ही सुंदर आलेख.
रामराम.
यह श्रंखला बहुत भाई. आभार.
हाँ, भाषा तो सरल और अच्छी थी, लेकिन इस तीसरे और शायद अन्तिम भाग से निराश हैं। इसे जल्दी में खत्म कर दिया गया है। खेती के बाद खनिज तक पहुँचते ही यह लेख असंतुष्ट करने लगता है। आशा है आप ध्यान देंगे।
सर्वप्रथम नवरात्रि पर्व पर माँ आदि शक्ति नव-दुर्गा से सबकी खुशहाली की प्रार्थना करते हुए इस पावन पर्व की बहुत बहुत बधाई व हार्दिक शुभकामनायें। सभ्यता के विकास का सुंदर चित्रण…
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