आदर्श सोसायटी बिल्डिंग |
देश की जनसंख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। नगर सुविधा संपन्न हैं और वहाँ पूर्णकालिक नहीं तो आंशिक रोजगार मिलने की संभावना सदैव बनी रहती है। नतीजा ये है कि नगरों की आबादी तेजी से बढ़ रही है। अब नगरों की इस आबादी को रहने का ठौर भी चाहिए। लेकिन जिस गति से आबादी बढ़ रही है उस गति से उन्हें आवास की वैधानिक सुविधा नहीं मिल पा रही है। वैधानिक सुविधा से मेरा तात्पर्य यह है कि आबादी भूमि पर नगर पालिका नियमों के अंतर्गत बने और मंजूरशुदा मकान लोगों को उपलब्ध नहीं हो रहे हैं। उस का एक प्रमुख कारण आवश्यक मात्रा में कृषि भूमि से नगरीय भूमि में रूपांतरण न होना है। राज्य सरकारें नगरों का विस्तार कर देती हैं। गजट में सूचना प्रकाशित हो जाती है कि अमुक-अमुक गाँवों को नगरीय सीमा में शामिल कर दिया गया है। लेकिन इन गावों की भूमि अभी भी कृषि भूमि में ही बनी हुई है। जिन के पास काला-सफेद धन है वे इस कृषि भूमि को खरीदते हैं, उन पर अपनी मर्जी के मुताबिक आवासीय योजना बनाते हैं और योजना के भूखंड बेच देते हैं। इन भूखंडों को जो लोग खरीदते हैं उन की मंशा उन पर आवास बनाने की नहीं है। वे केवल उसे निवेश की दृष्टि से खरीदते हैं और रोक लेते हैं। एक कृषक द्वारा भूमि का विक्रय करते ही उस पर कृषि कार्य बंद हो जाता है। उन पर आवास निर्माण नहीं होता है। नतीजे के तौर पर भूमि कुछ बरसों के लिए बेकार हो जाती है।
लवासा (महाराष्ट्र) |
अब राज्य सरकार भू-परिवर्तन के लिए नियम बनाती है। नियम ऐसे हैं कि केवल कॉलोनाइजर्स ही भू-परिवर्तन करा सकते हैं। लेकिन वे तो भूखंडों को अनेक लोगों को विक्रय कर चुके हैं। उन्हों ने अपना पैसा समेट लिया है और मुनाफा बना लिया है। वे आगे और कृषि भूमि खरीद रहे हैं, नयी योजनाएँ बना रहे हैं। अब जिन लोगों को ने भूखंड रोके हैं उन में से कुछ को पैसों की जरूरत है, वे खरीददार मिलने पर भूखंडों को बेच रहे हैं। खरीददारों में भी अधिकांश ने निवेश की दृष्टि से ही उन्हें खरीदा है। इक्का-दुक्का जरूरत मंदों ने भी खरीदा है, वे वहाँ मकान बना रहे हैं। भूमि अभी आबादी की नहीं है, इस कारण से नगर पालिका या विकास न्यास उन पर मकान बनाने की इजाजत नहीं दे सकता।
मकान फिर भी बन रहे हैं। कभी-कभी इन निर्माणों को रोकने की कवायद भी होती है, पर अधिकतकर अनदेखी होती है। जैसे-जैसे मकान बनते रहते हैं जमीन की कीमतें बढ़ती रहती है। जब किसी योजना में तकरीबन आधे मकान बन चुके होते हैं तो सरकार भू-परिवर्तन नियमों में छूट देती है और उन का नियमन होने लगता है।इन योजनाओं में भूखंड हैं और सड़कें हैं। बिजली विभाग बिजली कनेक्शन देने में कोई आनाकानी नहीं करता। लेकिन पानी की सप्लाई नहीं है, हर घर में एक नलकूप बनता है। पानी की व्यवस्था भी हो गई है। लेकिन केवल इतना ही तो नहीं चाहिए। एक आबादी के बच्चों को खेल की जगह भी चाहिए, पार्क भी चाहिए और पेड़ पौधे भी। लेकिन वे इन योजनाओं से नदारद हैं। इस तरह हमारे नगर विकसित हो रहे हैं।
लवासा |
सरकारें और पालिकाएँ नगर की जरूरत को आँक कर, भूमि अधिग्रहण कर, लोगों को समय पर आवास और आवास हेतु भूमि उपलब्ध कराए तो उन्हें राजस्व भी मिले। ठीक ढंग से योजनाओं में विकास भी हो, नागरिकों को उचित सुविधाएँ भी प्राप्त हों। लेकिन वह ऐसा नहीं करती। सरकार जब योजनाएँ बना कर भूखंड उपलब्ध कराती भी है तो चाहे वह नीलामी से बेचे या फिर आवेदन के आधार पर हर बार अधिकांश भूखंड उन्हीं के पास पहुँच जाते हैं जिन्हें उन में धन निवेश करना है। जरूरतमंद आदमी हमेशा एक उचित मूल्य के घर के लिए ताकता रहता है। एक सवाल यह भी उठता है कि सरकारें आवास की समस्या से निपटने में वाकई इतनी अक्षम हैं, या जानबूझ कर अक्षम बनी रहना चाहती हैं? इस प्रश्न का उत्तर सब को पता है कि सरकारें सक्षम हो जाएँ तो जिन लोगों के पास फालतू सफेद-काला धन है, उन्हें उसे दुगना-चौगुना अवसर कैसे मिले?
यही कारण है कि देश में आदर्श सोसायटी और लवासा जैसे कांड सामने आते हैं। अब इन पर कार्यवाही की जा रही है। लेकिन कितनी? हर नगर में एकाधिक आदर्श सोसायटियाँ और हर राज्य में लवासा जैसे एकाधिक नगर हैं।
9 टिप्पणियां:
रिफाइंड भू-माफिया हर जगह हैं.. हर शहर में.. रसूखदार उद्योगपति, बिल्डर, नेता, भ्रष्ट अफसर.. सब शामिल हैं..
सही कहा जी यह सब इन्ही लोगो की मिली भगत से होता हे, सरकार अगर कानून बना दे कि जो भी जमीन लेता हे उसे साल दो साल के अंदर ही मकान बनवाना हे वर्ना वो जमीन सरकार ले लेगी, ओर जमीन खरीदने वाला उस जमीन को बाहर किसी को भी दस या बीस साल तक नही बेच सकता, ओर अगर जमीन बेचनी हे तो सरकार को ही बेच सकता हे, फ़िर देखे यह माफ़िया केसे अपनी दाल गलाते हे, लेकिन जब सरकार ही मिली हो इन के संग तो क्या हो सकता हे.
बहुत सुंदर आलेख, भरपूर जानकारी, धन्यवाद
भूमाफिया और राजनेताओं की साठगांठ जगजाहिर है। सबै भूमि गोपाल की जैसी उक्ति को इन्होंने मूल भावना भुलाकर खुद के लिए समझ लिया है।
बढ़िया आलेख
आपके मन्तव्य और निष्कर्ष सदैव ही व्यावहारिकता पर केन्द्रित और आधारित होते हैं। आपसे असहमत होने का कोर्इ प्रश्न ही नहीं।
jnaab yeh baat so tka shi he isiliyen to aadrsh ghotaale men jaanch ke itne lmbe naatk ke baad bhi aek chhotaa saa muqdma bhi drj nhin kiya jaa skaa he he naa shrmnak baat is desh ke liyen . akhtar khan akela kota rajsthan
जब सरकार की लोगों को सस्ते घर बना कर देने वाले विभाग भी अपनी जमीने बिल्डरों को बेचने लगे तो और क्या किया जाये मुंबई में अभी म्हाडा ( जैसे दिल्ली में DDA ) ने अपनी जमीन निजी बिल्डरों को बेच दी जबकि जहा की जमीन बेचीं है वही पर उसके बनाये हजारो मकान है फिर भी उस जमीन पर खुद घर बना कर बेचने के बजाये बिल्डरों को बेच दी वो भी बिना टेंडर मंगाए | साफ जाहिर है की ना केवल सरकारी कर्मचारी बल्कि नेता और मंत्री भी खुले तौर पर इन बिल्डरों से मिले होते है तभी पावर खुल कर लवासा के पक्ष में बोलते है और हिरान्नदानी ग्रुप के जुर्माने को २००० करोड़ से घटा कर २०० करोड़ उनके मंत्री कर देते है |
भूमि दशकों से बेकार पड़ी है, लाभ अन्ततः नेता और व्यवसायी को ही होता है।
आपने बहुत अच्छा लिखा है। मुझे लगता है यह मामला सामाजिक सोच से जुड़ा है।
विषय पर एक संजीदा पोस्ट -लोगों को लगता तो सचमुच यही है -
सबै भूमि गोपाल की !
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