यादवचंद्र पाण्डे |
यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के सोलह सर्ग आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं। प्रत्येक सर्ग एक युग विशेष को अभिव्यक्त करता है। उस युग के चरित्र की तरह ही यादवचंद्र के काव्य का शिर्प भी बदलता है। इस काव्य के अंतिम तीन सर्ग वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े हैं। इस कारण उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। सत्रहवें सर्ग "मुक्ति पर्व" का प्रथम भाग यहाँ प्रस्तुत है, मुक्ति पर्व में आ कर काव्य मुक्त छंद का रूप धारण कर रहा है ................
* यादवचंद्र *
सत्रहवाँ सर्ग
मुक्ति पर्व
भाग प्रथम
तुम्हारी सभ्यता के
हजारों वर्षों में
मेरी कविता
अनब्याही रही,
क्यों कि
उस का मंगेतर
जो धरती की
सभ्यता, संस्कृति
सुख, सौष्ठव
ज्ञान, विज्ञान
औ समृद्धि का
हकदार था
तुम्हारी कारा का
कैदी है
बचपन में
तुम ने उसे
बहलाया - फुसलाया
पूतना की तरह
दूध पिलाया
और चण्डाशोक की तरह
उस के गोत्र के
हर औरत-मर्द को
कत्ल किया
औऱ जो भाग निकले ?
मेरी कविता
अनब्याही रही,
क्यों कि
उस का मंगेतर
जो धरती की
सभ्यता, संस्कृति
सुख, सौष्ठव
ज्ञान, विज्ञान
औ समृद्धि का
हकदार था
तुम्हारी कारा का
कैदी है
बचपन में
तुम ने उसे
बहलाया - फुसलाया
पूतना की तरह
दूध पिलाया
और चण्डाशोक की तरह
उस के गोत्र के
हर औरत-मर्द को
कत्ल किया
औऱ जो भाग निकले ?
उन पर
इतिहास - भूगोल
दर्शन - ज्ञान
विज्ञान - धर्म
साहित्य - विधि
कानून - नीति
औ संविधान के
हथियार बंद पहरे बिठाये
तुम ने
इतिहास - भूगोल
दर्शन - ज्ञान
विज्ञान - धर्म
साहित्य - विधि
कानून - नीति
औ संविधान के
हथियार बंद पहरे बिठाये
तुम ने
जिन पर रियायतें की
उन को
लम्बी सजाएँ सुनाई -
कि चार हजार वर्ष
सश्रम कारावास के बाद
उन्हें जेल के
बाहरी हाते में
घूमने - फिरने की
छूट मिलेगी
उन्हें
उन के श्रम का
एक हिस्सा भी मिलेगा
हाँ,
उन को
लम्बी सजाएँ सुनाई -
कि चार हजार वर्ष
सश्रम कारावास के बाद
उन्हें जेल के
बाहरी हाते में
घूमने - फिरने की
छूट मिलेगी
उन्हें
उन के श्रम का
एक हिस्सा भी मिलेगा
हाँ,
यह सब
संगीनों की
छाँव में होगा
मैं गवाह हूँ
इन बातों का
संगीनों की
छाँव में होगा
मैं गवाह हूँ
इन बातों का
गवाह है -
मेरी भूख
गुर्बत
जहालत और फटेहाली की
दम तोड़ती
उखड़ी - उखड़ी चलती
मेरी हर साँस
गवाह है -
तुम्हारी नपुंसक मुसकान
जो झूठी सभ्यता
औ संस्कृति का
लबादा ओढ़े,
हिजड़ों - बौनों
औ कुबड़ों की
अपनी महफिल में
रामगुप्त की तरह
जिन्दा होने का
स्वांग भर रही है
गवाह हैं
उस धरती के
चार अरब लोग
जिन का जन्म
तुम्हारी कारा में हुआ
और आज वे
बालिग हो गए हैं
वे आज भी
तुम्हारी दरी बुनते हैं
बोझ उठाते हैं
जूते, बॉक्स
औ पर्स बनाते हैं
सामने के हाते में
आलू - गोभी
टमाटर उगाते हैं
रस भरे गन्ने
औ छीमियों की
कतार सजाते हैं
पानी पटाते
गुलाब में
जो तुम्हारे बटन होल
या जेलर ऑफिस -
की मेज पर
जीवन के
अनुराग की तरह
दमक रहे हैं।
मतलब कि
दरी से -
पेन्सिलिन और रॉकेट तक,
टमाटर से -
मसाला और कॉफी तक,
जिन्हें बेच कर
अरबों - खरबों की
तुम रकम कमाते हो
(लूट लाते हो)
तुम अपनी अदालत में
हम से
वही कबूल कराते हो
जो तुम
कहना चाहते हो।
हमें भूखा मार कर
अपने स्कूल कॉलेजों में
बयान तहरीरी रटवाते हो
मण्डन मिश्र के
तोते की तरह
या फिर
मुझे फुसलाते हो
कि मैं
अपनी बिरादरी से
गद्दारी करूँ
अपने गिरोह में
खुफियागिरी करूँ
अपने परिवार पर
झूठा इलजाम गढ़ूँ
और उन के हिस्से का
दो फाइल खाना
तुम मुझे दोगे
मैं खाऊँगा
औ तुम्हारे धर्म
उसे भाग्य का
अटूट नियम बता कर
मेरे कुकृत्यों पर
पर्दा डालेंगे !
************** लेकिन मैं ?
मैं तुम्हारे चेहरे पर थूक दूंगा
आ ----- थू !
आक् ----- थू !
आक् थू ---- ह !
अगले अंक में जारी..........
8 टिप्पणियां:
आनन्द आ गया...आभार पढ़वाने का.
बहुत खूब !
कविता अनब्याही :श्याद कभी न व्याहता बने !
औ तुम्हारे धर्म
उसे भाग्य का
अटूट नियम बता कर
मेरे कुकृत्यों पर
पर्दा डालेंगे !
शायद यहीं से विद्रोह की परंपरा आरम्भ होती है । बहुत अच्छा लग रहा है सुन्दर प्रयास। धन्यवाद इस कालजयी रचना को पढवाने के लिये।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति ..
भाग्य का अटूट नियम बता कर कुकृत्यों पर पर्दा डालने का कार्य चल रहा है।
बहुत ही उतकृष्ट, आभार.
रामराम.
गज़ब रवानगी में बात आगे बढ़ रही है...
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