@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: फिर से पढना, मुल्कराज आनंद के उपन्यास "कुली" का

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

फिर से पढना, मुल्कराज आनंद के उपन्यास "कुली" का

किसी भी शाकाहारी के लिए वह भी ऐसे शाकाहारी के लिए जिस के लिए किसी भी तरह के अंडा और लहसुन तक त्याज्य हो,  यात्रा करना एक चुनौती से कम नहीं। वह भी तब जब कि उसे भारत से बाहर जाना पड़ रहा हो। बेटी पूर्वा के साथ भी यही चुनौती उपस्थित हुई थी। उसे पहली बार किसी कार्यशाला के लिए एक अफ्रीकी  देश जाना था। कुल एक सप्ताह की यात्रा थी। आखिर उस की मित्रों ने सलाह दी की तुम्हारी माँ तो बहुत अच्छे खाद्य बनाती है जो महीनों सुरक्षित रहते हैं, तो वही बनवा कर ले जाओ। यह बात जब शोभा तक पहुँची तो पत्थर की लकीर हो गया। बेटी जब पहली बार विदेश जा रही हो तो उस से मिलने जाना ही था। खैर, शोभा ने बेटी के लिए खाद्य बनाए। कुछ और वस्तुएँ जो उसे पहुँचानी थी, ली गई। यात्रा दो से चार दिन की हो सकती थी। कुछ किताबें पढ़ने के लिए होनी चाहिए थीं। मैं ने अपनी अलमारी टटोली और दो बहुत पहले पढ़ी हुई पुस्तकों का चयन किया। इन में से एक भारत के प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक मुल्कराज आनंद के उपन्यास कुली का हिन्दी अनुवाद था।
कुली आजादी के पूर्व के परिदृश्य में एक अनाथ पहाड़ी किशोर की कहानी है। चाचा चाची कहते हैं कि वह पर्याप्त बड़ा हो गया है उसे कमाना आरंभ कर देना चाहिए। उसे नजदीक के कस्बे में एक बाबू जी के घर नौकर रख दिया जाता है। उद्देश्य यह की खाएगा वहाँ और जो नकद कमाएगा वह जाएगा चाचा की जेब में। अपना ही निकटतम पालक परिजन  जब शोषक बन जाए तो औरों की तो बात कुछ और ही है। वह शोषण और निर्दयता का मुकाबला करता हुआ उस से भाग कर एक नए जीवन की तलाश में भटकता रहता है। लेकिन जहाँ भी जाता है वहाँ शोषण का अधिक भयानक रूप दिखाई पड़ता है। अंततः 15 वर्ष की आयु में वह यक्ष्मा का शिकार हो कर मर जाता है। 
स उपन्यास में देश में प्रचलित अर्ध सामंती, नए पनपते पूंजीवाद और साम्राज्यवादी शोषण के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं। इस में लालच के मनुष्यों को हैवान बना देने के विभत्स रूप देखने को मिलते हैं, तो कहीं कहीं शोषितों के बीच सहृदयता और प्यार के क्षण भी हैं।  भले ही यह उपन्यास आजादी के पहले के भारत का परिदृश्य प्रस्तुत करता है। लेकिन पढ़ने पर आज की दुनिया से समानता दिखाई देती है। शोषण के वे ही विभत्स रूप आज भी हमें अपने आसपास उसी बहुतायत से दिखाई देते हैं। वे हैवान आज भी हमारे आस-पास देखने को मिलते हैं। जिन्हें हम देखते हुए भी अनदेखा कर देते हैं, वैसे ही जैसे बिल्ली कुत्ते को देख कर आँख मूंद लेती है।
मैं इस उपन्यास को आधा कोटा से फरीदाबाद जाते हुए ट्रेन में ही पढ़ गया। शेष भाग फरीदाबाद में पढ़ा गया। बहुत दिनों बाद पढ़ने पर लगा कि जैसे मैं उसे पहली बार पढ़ रहा हूँ। बहुत ही महत्वपूर्ण पुस्तक है। जो हमारे वर्तमान समाज के यथार्थ को शिद्दत के साथ महसूस कराती है। यह पुस्तक मिल जाए तो आप भी अवश्य पढ़िए। जो लोग इसे खरीदने में समर्थ हैं वे इसे खरीद कर अपने पुस्तकालय में इसे अवश्य सम्मिलित करें।  यात्रा में ले जाई गई दूसरी पुस्तक का मैं एक ही अध्याय फिर से पढ़ सका। आज मेरे एक कनिष्ट अधिवक्ता उसे पढ़ने के लिए ले गए हैं। देखता हूँ वह कब वापस लौटती है। इस दूसरी पुस्तक के बारे में बात फिर कभी।

10 टिप्‍पणियां:

पूनम श्रीवास्तव ने कहा…

yah pustak padhi to nahi ,par aapke lekh ko padh kar laga kiyah pustak vastava me samaaj ki ke asliyat ko hi pradarshit karata hai jo apne aap ko kai roopoon me baante hue hai.
poonam

डॉ. मनोज मिश्र ने कहा…

अब आपनें कहा है तो अवश्य देखेंगे.

वाणी गीत ने कहा…

तुम्हारी माँ तो बहुत अच्छे खाद्य बनाती है जो महीनों सुरक्षित रहते हैं, तो वही बनवा कर ले जाओ...
लम्बी यात्राओं पर भारत में भी माँ के बनाये हुए खाद्य पदार्थ ही सहारा होते हैं ...
और साथ में अच्छी पुस्तकें हो तो बात ही क्या...पढ़ कर देखते हैं ...!!

Udan Tashtari ने कहा…

जरुर कोशिश करेंगे इस पुस्तक को खरीद कर पढ़ने की. कोई भला आदमी खरीद कर हमें भिजवा दे तो कीमत मय पोस्टल के अदा की जा सकती है. पोस्टल खर्च मात्र १५० से २०० रुपये के बीच बैठता है/

इन्तजार रहेगा ऐसे सज्जनता के प्रतीक का. :)

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

बहुत आभार बताने के लिये.

रामराम.

विष्णु बैरागी ने कहा…

यात्रा हो या एकान्‍त, पुस्‍तकों से बेहतर सहचर तो कोई हो ही नहीं सकता(।
कोशिश करूँगा कि 'कुली' पढ लूँ।
ऐसे अच्‍छे अनुभव बॉंटने के लिए विशेष धन्‍यवाद।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

पुस्तक पढ़नी पड़ेगी ।

राज भाटिय़ा ने कहा…

तुम्हारी माँ तो बहुत अच्छे खाद्य बनाती है जो महीनों सुरक्षित रहते हैं, तो वही बनवा कर ले जाओ...
लेकिन यह सारे खाने हाथ के बेग मै बिलकुल ना रखे बिटिया से बोल दे, खाने को अटेची मै पेंक कर के रखे... लेकिन फ़िर भी अफ़्रिका मै खाने पीने के बारे पहले से जानकारी रखे, भगवान ना करे कस्टम वाले खाने पीने की चीजो को आज कल फ़ेंक भी देते है, हेंड बेग के लिये तो विदेशो मै बहुत सख्ती है. बाकी आप की यह किताब दिसमबर मै खरीद कर पढेगे

Abhishek Ojha ने कहा…

मुल्क राज आनंद की अनटचेबल, कुली और स्टोरी ऑफ़ इंडिया पढ़ी है. एक भाई साहब के बीए के सिलेबस में थी. एक अपने सिलेबस में और एक किसी ने गिफ्ट कर दिया था... शाकाहारी होने पर दिक्कत तो होती है पर फल, फूल और सलाद तो हर जगह मिल ही जाते हैं. कम दिनों के लिए जाना हो तो मैगी का भी प्रचलन है आजकल !

Himanshu Pandey ने कहा…

शाकाहारी होने के सुख और दुख दोनों जानता-पहचानता हूँ ! शुद्ध शाकाहारी हूँ !

कुली भारतीय़ अंग्रेजी लेखन का क्लासिक-नॉवेल है ! अनिवार्यतः पठनीय़ !
आभार ।