कई दिनों से आसमान में बादल छाए थे। लेकिन बरसात नहीं हो रही थी। तालाब सूख चुका था। पानी के लिए तालाब के पेंदे में गड्ढे बना कर काम चलाया जा रहा था। ऐसे में शाम के वक्त दो गप्पी तालाब किनारे बैठे गप्प मार रहे थे।
पहले ने कहा -मेरे दादा जी के दादा जी का मकान इतना बड़ा था कि चलते जाओ चलते जाओ कहीं छोर तक नहीं दिखाई देता था।
दूसरे गप्पी ने हाँ में हाँ मिलाई -जरूर होगा।
कुछ देर बाद दूसरा गप्पी कहने लगा -बरसात नहीं हो रही है। मेरे दादा जी के दादा जी के पास का बांस गल गया। वह होता तो मैं उस से बादल में छेद कर के पानी बरसा देता।
पहले गप्पी ने उस की बात का प्रतिवाद किया -तू गप्प मार रहा है। इतना बड़ा बांस हो ही नहीं सकता। अगर था तो वे उसे रखते कहाँ थे?
दूसरे गप्पी ने कहा -तुम्हारे दादा जी के मकान में। पहला गप्पी निरुत्तर हो गया।
यह बहुप्रचलित किस्सा है।
समय समय पर हम लोग लिखते-पढ़ते रहते हैं कि हमारे पुरखों के पास पहले से बहुत या सब ज्ञान था। पश्चिम वालों ने सब कुछ बाद में खोजा है। इस में कोई संदेह नहीं कि प्राचीन भारत में ज्ञान की कोई कमी नहीं थी। वह ज्ञान के सर्वोच्च शिखर पर था। लेकिन फिर वह ज्ञान कहाँ चला गया? कहाँ खो गया?
यदि वह ज्ञान था तो फिर हमारी अनेक पीढ़ियाँ अकर्मण्य और आलसी थीं कि वे उसे सुरक्षित नहीं रख सकीं। हम उन्हीं पीढ़ियों के वंशज हैं और हमें इस बात पर शर्म आनी चाहिए कि हम ने अपना ज्ञान और गौरव नष्ट कर दिया। फिर पश्चिम वालों ने उस ज्ञान को फिर से खोज निकाला अथवा नए सिरे से जान लिया। तो निश्चित रूप से उन्हें इस का श्रेय दिया जाना चाहिए। हम जब यह कहते हैं कि यह ज्ञान पहले से हमारे पास था तो हम केवल अपनी पीढ़ियों की अकर्मण्यता और आलस्य को प्रदर्शित करते हैं, जो निश्चित रुप से गौरव का विषय नहीं हो सकता।
आज सुबह ही ललितडॉटकॉम पर भाई ललित शर्मा जी की पोस्ट प्राचीन कालीन विमान तकनीकि-ज्ञान वर्धक !! पढ़ने को मिली। निश्चित रूप से इतने विविध प्रकार के विमानों के बारे में हमारे पूर्वजों को जानकारी थी, जान कर हर्ष हुआ। लेकिन दूसरे ही क्षण यह सोचते ही उस हर्ष का स्थान विषाद ने ले लिया कि हमारी सैंकड़ों पीढ़ियाँ इतनी अकर्मण्य थीं कि उस ज्ञान को विकसित करना तो दूर उसे सहेज कर भी न रख सकीं और सदियों तक बैलगाड़ियों में घिसटती रहीं। मुझे अपने अतीत पर गर्व के स्थान पर शर्म महसूस होने लगी।
यह सही है कि हमारे साहित्य में विमानों और उन के प्रकारों का उल्लेख है। लेकिन मुझे वे सिर्फ परिकल्पनाएँ ही लगती हैं। क्यों कि इतना सारा ज्ञान यकायक कहीं खो नहीं सकता और न हमारे पूर्वज इतने अकर्मण्य थे कि उस ज्ञान को सहेज कर भी नहीं रख सकते। हमेशा नए आविष्कारों के पहले परिकल्पनाएँ आती हैं। ये सब वही थीं। हमें प्राचीन साहित्य से गर्व करने के छंद तलाश कर लाने के स्थान पर वर्तमान ज्ञान को आगे बढ़ाने और मनुष्य जीवन को और बेहतर करने के प्रयासों में जुटना चाहिए। अतीत पर गर्व करने से कुछ नहीं होगा। क्यों कि अतीत में गर्व करने लायक जितना है। शायद उस से अधिक शर्म करने लायक भी है। मोर बहुत खूबसूरत होता है, उसे अपनी खूबसूरती पर गर्व भी है। लेकिन उसे अपने बदसूरत पैरों पर शर्म भी आती है और उन्हें देख वह रोता भी है।
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मोर भी
अपने दिव्य पंखों को फैला कर चंद्राकार
दिशाओं को समेट
अपने चारों ओर लपेट
देश और काल को नचाता
मनभर नाचता है
पर अपने पंजों को देख
होता है बेहाल
.........
डॉ. बलदेव वंशी की कविता का अंश
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मोर भी
अपने दिव्य पंखों को फैला कर चंद्राकार
दिशाओं को समेट
अपने चारों ओर लपेट
देश और काल को नचाता
मनभर नाचता है
पर अपने पंजों को देख
होता है बेहाल
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डॉ. बलदेव वंशी की कविता का अंश
15 टिप्पणियां:
एक एक शब्द से पूर्ण सहमति ....आखिर कहाँ गया वो ज्ञान ? और सृजनशील अद्भुत कल्पनाएँ क्या कुछ कमकर /कमतर हैं जो हम उन्हें साबित करने में जुटे रहते है -उन उर्वर कल्पनाशील मेधाओं को सलाम !
"यदि वह ज्ञान था तो फिर हमारी अनेक पीढ़ियाँ अकर्मण्य और आलसी थीं कि वे उसे सुरक्षित नहीं रख सकीं। हम उन्हीं पीढ़ियों के वंशज हैं और हमें इस बात पर शर्म आनी चाहिए कि हम ने अपना ज्ञान और गौरव नष्ट कर दिया।"
एकदम यही बात है द्विवेदी साहब ! और आज भी हम वही कर रहे है, जो कुछ हमारे पिछली अकर्मण्य पीढ़ियों ने किया ! क्योंकि कल किसी के ब्लॉग पर एक लेख पढ़ रहा था जिसमे उन्होंने कहा था कि हम लोग निहायत उस तरह के व्यापारी है जो सिर्फ अपने तात्कालिक फायदे को देखता है, परिणाम नहीं !
मोर भी अपने पांव को देखकर रोता है .......वाह क्या बात है .
एक अंग्रेज लेखक ने अपनी पुस्तक के प्रारम्भ में लिखा है कि सन् 1500 में भारत पूर्ण समृद्ध राष्ट्र था और यूरोप पूर्णरूपेण अविकसित देश। इस कारण इंण्लेण्ड ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी बनायी कि भारत के साथ व्यापार किया जा सके। धीरे-धीरे व्यापार करते- करते वे राज करने लगे। हमारे ही ज्ञान और पैसे से विज्ञान का उदय हुआ। चूंकि तब हम गुलाम थे इसलिए सारी उपलब्धियां उनके खाते में गयी। यह भी सत्य है कि हमारा लक्ष्य कभी भी राष्ट्रीयता नहीं रहा परिणाम हम गुलाम बने। हम हमेशा मोक्ष के मार्ग पर ही चले। आज भी यही कर रहे हैं। हमारी चिन्ता कभी भी राष्ट्रीय नहीं होती है। आज भी विदेशों में जितने आविष्कार होते हैं उनमें कहीं न कहीं भारतीय जुड़े होते हैं। मारीशस आदि अनेक देशों को अंग्रेजों के काल में बसाने और उन्नत करने का कार्य भारतीय मजदूरों ने ही किया। आज भी यदि दुनिया से सारे भारतीय यदि वापस आ जाए तो आप देखिए कि दुनिया की क्या तस्वीर होगी? हम आजादी के बाद राजनैतिक खामियों का शिकार बने इसी कारण आज यह दुर्दशा है। हम स्वयं जितना अच्छा देश के लिए कर सकते हैं बस वह करें तो सब कुछ अच्छा होता जाएगा।
इस विषय पर आपकी लेखनी देखकर प्रसन्नता हुई।
कभी समयनिकाल कर सांइस ब्लॉगर्स असोसिएशन के लिए भी लिखें। कम से खाता तो खुल जाए।
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ये इन्द्रधनुष होगा नाम तुम्हारे...
धरती पर ऐलियन का आक्रमण हो गया है।
मोर का सांकेतिक प्रयोग बढ़िया लगा !
एक परंपरा थी गुरु शिष्य और गुरुकुल की .
गुरु सोच समझ कर ही अपना ज्ञान शिष्य को देता था , की वह पात्र है या नहीं . धीरे धीरे पात्र कम होने लगे और ज्ञान छुप गया . विलोपित नहीं हुआ है अन्यथा पश्चिम भी कैसे ढूँढ लेता.
बात तो आपने ठीकाने की कही है. हो सकता है ये परिकल्पनाएं रही हों, लेकिन हकीकत के पहले परिकल्पनाएं भी उतना ही महत्व रखती है. बिना परिकल्पना आप किधर चलोगे? किसी भी दिशा मे बढने के पुर्व परिकल्पना के सहारे ही वैज्ञानिक आगे बढता है और साधक भी नेति नेति कहता हुआ अपने मार्ग पर बढता है.
खैर जो भी हो हमें सतत प्रयास करने होंगे, पूर्व के ज्ञान को हम शायद समझ नही पा रहे हैं. जो भी आपने मुद्दा बडा अहम उठाया है.
रामराम.
बढ़िया चिंतन-सुघड़ शैली.
बिलकुल सही कहा आपने मैने भी आज ललित जी की पोस्ट पढी थी बहुत अच्छी लगी । हम ही नही सहेज पाये अपनी विरासत विदेशी उन से बहुत कुछ पा गये। मोर पर कविता का अंश बहुत अच्छा लगा धन्यवाद्
समसामयिक आलेख...
आपका यह अंदाज़ अनोखा है...
किस तरहा गंभीर बातें कह जाते हैं...
आपका लेख बहुत सुन्दर है!
यह चर्चा मंच में भी चर्चित है!
http://charchamanch.blogspot.com/2010/02/blog-post_5547.html
एक पीढ़ी अतीत पर शर्म कर समय काट गई! अब नई पीढ़ी आगे कदम बढ़ा रही है - उसी से आशा है।
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बहुत सही कहा आपने, आपने पहले लिख दिया वरना मैं भी कुछ ऐसा ही पोस्ट करने की सोच रहा था।
ललितडॉटकॉम पर की गई अपनी टिप्पणी को एक बार यहाँ पर फिर दोहराने का साहस कर रहा हूँ।
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मुझे बहुत शर्म आती है कि हमारे पूर्वजों के पास यह ज्ञान था फिर भी भारत सदियों तक बैलगाड़ियाँ घसीटता रहा।
@ आदरणीय दिनेश राय द्विवेदी जी,
हाँ ऐसी शर्म तो मुझे भी आती है कि विमान उड़ाने के लिये उर्जा के आठ स्रोतों की जानकारी के बावजूद जमीन पर चलने के लिये हमारे पुरखे केवल पशु शक्ति या अपने पैरों पर चलने के अलावा कुछ और नहीं खोज पाये।
अभी समस्त श्लोकों पर चिंतन तो हुआ नहीं है... अभी से आगाह कर देता हूँ कि इन्टरनेट, गूगल अर्थ जैसी सुविधा, रिमोट सेन्सिंग, मौसम और भूकंपों की सही-सही जानकारी देने वाला सोफ्टवेयर आदि आदि भी वे बना चुके थे...और यह सब उपलब्धियां उन्होंने किसी लैब में नहीं, जंगल में बने आश्रमों में हवनकुंड में मंत्राहुति देकर पाई थीं...आगे आगे देखिये ऐसा बताते कितने श्लोक और ग्रंथ खोजे जाते हैं।
शर्माते शर्माते शायद जमीन में धंस जायेंगे हम जैसे लोग तो.... :)
आभार!
इस पोस्ट पर मुझे बहुत कुछ कहने का मन हो रहा है। ललित जी के लेख में मुझे कई कमियाँ लगीं।
आज ही मैं भारत के प्राचीन गणित और ज्योतिष पर पढ़ रहा था। इस पर तो एक पूरा लेख लिखने का मन हो रहा है। बहुत कुछ कहना चाह रहा हूँ, इसलिए यहाँ नहीं कह पा रहा।
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