आठ फरवरी को रुचिका छेड़छाड़ मामले के अभियुक्त एसपीएस राठौर पर उत्सव नाम के युवक ने चाकू से हमला किया और उसे घायल कर दिया। बताया गया है कि उत्सव दिमागी तौर पर बीमार है और उस की चिकित्सा चल रही है। रुचिका प्रकरण में बहादुरी और संयम के साथ लड़ रही रुचिका की सहेली आराधना ने कहा है साढ़े उन्नीस साल से हम भी हमेशा कानूनी दायरे में ही काम करते रहे हैं। इसलिए मैं आग्रह करूंगी कि लोग यदि आक्रोशित हैं तो भी कृपया कानून के दायरे में रहें। हमें न्यायपालिका की कार्रवाई का इंतजार करना चाहिए और किसी को भी कानून अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए।
आराधना इस के सिवा और क्या कह सकती थी? क्या वह शिवसेना प्रमुख के बयानों की तरह यह कहती कि लोगों को राठौर से सड़क पर निपट लेना चाहिए? निश्चित रूप से आज भी जब एक मामूली छेड़छाड़ के प्रकरण में अठारह वर्ष के बाद निर्णय होता है तो कोई विक्षिप्त तो है जो कि संयम तोड़ देता है।
देश की बहुमत जनता अब भी यही चाहती है कि न्याय व्यवस्था में सुधार हो लोगों को दो ढ़ाई वर्ष में परिणाम मिलने लगें। लेकिन इस दिशा की और बयानों के सिवा और क्या किया जाता है? देश की न्यायपालिका के प्रमुख कहते हैं कि उन्हें अविलंब पैंतीस हजार अधीनस्थ न्यायालय चाहिए। यदि ध्यान नहीं दिया गया तो जनता विद्रोह कर देगी।
आज यह काम एक विक्षिप्त ने किया है। न्याय व्यवस्था की यही हालत रही तो इस तरह के विक्षिप्तों की संख्या भविष्य में तेजी से बढ़ती नजर आएगी। स्वयं संसद द्वारा निर्धारित मानकों के अनुसार देश में इस समय साठ हजार अधीनस्थ न्यायालय होने चाहिए। देश के मुख्य न्यायाधीश तुरंत उन की संख्या 35 हजार करने की बात करते हैं। वास्तव में इस समय केवल 16 हजार न्यायालय स्थापित हैं जिन में से 2000 जजों के अभाव में काम नहीं कर रहे हैं। केवल 14 हजार न्यायालयों से देश की 120 करोड़ जनता समय पर न्याय प्राप्त करने की आशा नहीं कर सकती।अमरीका के न्यायालय सभी प्रकार की आधुनिक सुविधाओँ से युक्त हैं और उन की न्यायदान की गति तेज है। फिर भी वहाँ 10 लाख की आबादी पर 111 न्यायालय हैं। यदि अमरीका की जनसंख्या भारत जितनी होती तो वहाँ न्यायालयों की संख्या 133 हजार होती।
अधीनस्थ न्यायलयों की स्थापना की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है, जिन की अधिक न्यायालय स्थापित करने में कोई रुचि नहीं है। मुख्य न्यायाधीश और प्रधानमंत्री द्वारा लगातार अनुरोध करने के उपरांत भी राज्यों का इस ओर कोई ध्यान नहीं है। क्या ऐसी अवस्था में यह सोच नहीं बननी चाहिए कि दीवानी और फौजदारी मामलों में न्यायदान की जिम्मेदारी राज्यों से छीन कर केंद्र सरकार को अपने हाथों में ले लेनी चाहिए?
13 टिप्पणियां:
Mahatwapoorna aankdon ki jankari di aapne..sach kah rahe hain aap ab nyay daan kendra ke hath me hona chahiye.
आपने समस्या के मर्म पर चोट की है पर समाधान कही दूर तक नज़र नही आता.
आज डा कुमर विश्वास के जन्मदिन पर एक पोस्ट लिखी है.
http://hariprasadsharma.blogspot.com/
अति विचारणीय पोस्ट.
यह ठीक है मगर हम तो कब से कान लगाये बैठे थे सुनने को कि क्या उत्सव के कदम को दिनेश जी भी जस्टिफाई करेगें ?
तो क्या आपने उत्सव को बरी किया ?
इन दिनों आस्ट्रेलियाई नस्लभेदी / गुंडों / दंगाइयों का ख्याल आते ही मेरे सामने ठाकरों के चेहरे तैर जाते हैं और कोर्ट से निकलते वक्त राठौर के चेहरे पर चस्पा हास्य मुझे हॉन्ट करता है संभवतः यह विश्व का सबसे क्रूरतम हास्य होगा :(
न्याय हमेशा आक्रोश को जन्म देता है और न्याय की स्थिति किसी से छुपी नही है। जब तक ऐसे उत्सव नही उठेंगे तब तक सरकार कुछ नही करेगी। उत्सव को शुभकामनायें कि उस ने युवकों को कमान सम्भालने के लिये ललकारा है। आपने सही तथ्य निकाले हैं धन्यवाद्
यह अजीब तरह का मामला है,शुरुआत में तो कारणों का पता नहीं चल पा रहा है.
@ Arvind Mishra
अरविंद जी,
उत्सव ने जो हरकत की है उसे जायज कहना भूल होगी। राठौर ने अपराध किया है। उसे समय पर दंडित करना न्यायप्रणाली का काम है। न्यायप्रणाली अपर्याप्त है, यह हमारी राज्य व्यवस्था का दोष है। इसे दुरुस्त कराने के लिए एक सजग सामूहिक आंदोलन चाहिए। उत्सव की हरकत तो न्यायप्रणाली की अपर्याप्तता से उपज रहे फ्रस्ट्रेशन का परिणाम है। लेकिन यदि न्यायप्रणाली ऐसी ही बनी रही और इस फ्रस्ट्रेशन को एक सजग आंदोलन की दिशा नहीं मिली तो उत्सवों की संख्या बढ़ेगी।
फ्रस्ट्रेशन से ऐसी घटनाएं बढेंगी (बढ़ रही है) इसमें दो राय नहीं.
jarurat bhi hai utsav ki..virodh ki..!
सहंशक्ति की एक सीमा होती है , उसके बाद ही विद्रोह जन्म लेता है ।
हताशा बढ़ने के संकेत हैं जरूर। न्यायव्यवस्था उसका एक उत्प्रेरक है।
लेख के मर्म से सहमत
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