बढ़ने से मंजिल मिल जाती है
- महेन्द्र 'नेह'
पाँव बढ़े
जो उलझी राहों पर
रोको मत, बढ़ने दो
बढ़ने से मंजिल मिल जाती है।
दर्दों के सिरहाने
सपनों का तकिया रख
नींद को बुलावा दे
जेठ के महीने में, मेघ के अभावों में
लहराए, इतराए सच पूछो
सिर्फ वही सरिता है
सिर्फ वही सरिता है
ज्वार उठे सागर की लहरों में
बाँधो मत, बहने दो
पानी से बंशी के स्वर मिलना
याद रखो गंध धुला, दूध धुला
जीवन है, गीत है जवानी है
बुद्धि का हृदय से औ, अंतस का माटी से
द्रोह अरे!
चिंतन है, दर्शन है, स्वप्न है, कहानी है
ढाँपो मत, जलने दो
जलने से रूह निखर जाती है।
धर्म की तराजू पर
पाप-पुण्य के पलड़े
तुमने ही लटकाए
फिर खुद को उन में लटकाया है
मानव ने खुद पर विश्वास न कर
भूल-भुलैया भ्रम की
मान लुटे गलियों-चौराहों पर
झिझको मत, लुटने दो
लुटने से बोझिलता जाती है।
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13 टिप्पणियां:
दर्दों के सिरहाने
सपनों का तकिया रख
नींद को बुलावा दे
सच पूछो सिर्फ वही कविता है
इस गीत मे सबसे अधिक उल्लेखनीय है तो यह कविता की एक नई परिभाषा ।
नदिया चले, चले रे धारा
चंदा चले, चले रे तारा
ओ तुझ को चलना होगा,
तुझ को चलना होगा...
सूरज कहीं भी ठहरता नहीं
आंधी हो तूफ़ान, ये थमता नहीं है,
तू न चला तो चल दे किनारा
बड़ी ही तेज समय की ये धारा
तुझ को चलना होगा, तुझ को चलना होगा...
जय हिंद
बढ़ने से मंजिल मिल जाती है आप की बात से सहमत है जी ,जो किसमत के सहारे बेठे रहते है वो क्या मंजिल को पायेगे...
बहुत सुंदर कविता.
धन्यवाद
नेह जी के इस गीत में तो जिंदगी के उजले पक्ष का सार छुपा हुआ है । आनंद आ गया , हमेशा की तरह
नेह जी हर बार और दीवाना बना जाते हैं.
बहुत सुंदर रचना....
bahut sunder rachana,aashawadi.
jeevan ka gyan mila , Neh ji aur
aapko bahut badhayi
बेहतरीन रचना
बहुत लाजवाब रचना.
रामराम.
धर्म की तराजू पर
पाप-पुण्य के पलड़े
तुमने ही लटकाए
फिर खुद को उन में लटकाया है
मानव ने खुद पर विश्वास न कर
भूल-भुलैया भ्रम की
निर्मित कर तन-मन भटकाया है
बहुत स्ुन्दर नेह जी की कविता दिल को छू लेती है उनकी रचना की गहराई सागर जितनी गहरी है उन्हें शुभकामनायें और धन्यवाद्
बहुत उठापठक थी
ऐसे एक गीत की बडी ज़रुरत थी
आभार
शरद जी से सहमत...एक बेहद ही सुंदर गीत !
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