हे, पाठक!
दो सौ बरस से भी अधिक काल तक भरत खंड के देसी बासियों की छाती पर मूंग दलने के बाद, बिदेसी यूँ ही अचानक अपने डेरे तम्बू समेट कर नहीं चले गए थे। बहुत लोग कहते हैं खुद वे बहुत परेशानी में थे और भरत खंड पर राज करना मुश्किल हो रहा था। यह बात सच भी है, लेकिन दस फीसदी से ज्यादा नहीं। बनिया तब तक अपनी दुकान बंद नहीं करता जब तक उसे उस में लगी पूंजी के न्यूनतम ब्याज के बराबर भी मुनाफा होता रहे। पर रोज रोज गाँव मुहल्ले के छोकरे आ कर दुकान में पटाखे फोड़ने लगें। ग्राहक दुकान का बहिष्कार कर सौदा लेना बंद कर दें। बनिया कहीं देस में निकले और लोग उसे देख कर थूकने लगें। बेटे-बेटी कहने लगें, अब्बा इस से तो अपना देश ही अच्छा वहाँ कोई हमें देख कर थूकेगा तो नहीं, तो अब्बा को भी परदेस में रहना मुश्किल हो जाएगा। अब्बा घर में कितने ही गीत गाएँ कि वहाँ अपने देस में जो बड़ी कोठी है, वह यहाँ की कमाई के बूते पर ही है। बेटे-बेटी तो न मानें। अब्बा ने मौका देखा, और खानदान समेत खिसक लिया। जाते जाते कह गया, जा तो रहा हूँ, बरसों यहाँ का नमक खाया है, सब के बीच जिया हूँ, दुख-सुख में साथ रहा हूँ, तो रिश्ता बनाए रखना, दुकान देस में जारी रहेगी। कभी किसी चीज की जरूरत पड़े, तो मुझे खबर करना, मैं सेवा को हाजिर रहूँगा।
हे, पाठक!
यह सही है कि जब परिस्थितियाँ प्रतिकूल हुईं तो बनिया खिसक लिया। लेकिन परिस्थितियों के निर्माण में सब से बड़ा योगदान देसबासियों का था। जवानों ने पटाखे फोड़े जिन की गूँज सुन कर वे जागे। उन्हें विश्वास हो गया कि अब बनिया नहीं टिक पाएगा। फिर तो देस भर के गाँव मुहल्ले बनिये के खिलाफ जागने लगे। बनिए के खिलाफ बनिया मैदान में खड़ा नहीं होता, वह आतिशबाजी से भी डरता है। पर देस भर के धंधों पर कब्जा जमाए बनिये के खिसकने की संभावना बन जाए तो उस में देसी बनियों को भी तो चलते धंधों पर कब्जे का लाभ मिलता है। एक तो देखा फायदा, दूसरे डर भी सता रहा था कि कहीं ऐसा न हो कि लोग बनियों के ही खिलाफ हो जाएँ, और उन की नस्ल को ही साफ कर दें। पटाखे फोड़ने वाले कह भी कुछ ऐसा ही रहे थे कि, सारे बनिए एक जैसे होते हैं, चाहे परदेसी हों या देसी। इस से देसी बनियों में भय व्याप्त हो गया था। वे चुपचाप देस के भद्रजनों की मदद करने लगे। ऐसे में परदेसी बनिया देस छोड़ कर भागा। आधा-अधूरा भरतखण्ड, बोले तो भारतवर्ष पल्ले पड़ा।
हे, पाठक!
देसबासी उत्तेजित थे देस की उन्नति चाहते थे, रोजमर्रा के राजकाज में दखल चाहते थे। नेताओं ने ऐसे वादे भी किए थे। सो रोज-रोज के दखल की बात पर तो पटरी बैठी नहीं। पटरी बैठी कि देसीबासी पाँच बरस में एक बार महापंचायत चुनेंगे और वह सब काम देखेगी। चाचा पहले से बैठे ही थे। पहली तीन पंचायतों में तो वही नेता रहे। फिर वे चल बसे। उन के ही बाएँ हाथ को उन की जगह सोंपी गई। पर वे भी महापंचायत के पहले ही चल दिए। फिर चाचा की बेटी आई। उस ने महापंचायत में अपनी जुगत लगा ली। पर देसीबासी चाचा के खानदान से ऊबने लगे थे, देसी बनिए भी परदेसी जैसा बुहार करने लगे थे, ये बातें चाचा की बेटी को भी पता थी। पड़ौसी की लड़ाई में दखल दे उस ने अपना लोहा मनवाया। बनियों को रगड़ कर साहूकारों की दुकानें पंचायत के कब्जे में कीं और दूसरी बार महापंचायत में अपना लोहा मनवाया। देसीबासी फिर भी संतुष्ट न थे, खास कर नौजवान। वे बवाल खड़ा करने लगे। उसने दबाया और जेल दिखाई तो अगली महापंचायत में मुहँ की खाई। देसीबासी समझ गए कि महापंचायत में वे दखल कर सकते हैं, नेता बदल सकते हैं।
हे, पाठक!
देसीबासी जब ये समझे कि नेता बदल सकते हैं तो उन्हें इस का चस्का पड़ गया। अब तक की कथा में आप ने देखा ही है कि उन्हों ने किस कदर नेता बदले हैं, महापंचायतें चुनी हैं? इस से सब से बड़ा खतरा देसी बनियों को हुआ। वे नेता को पटा कर रखते, जिस से उन की दुकानें चलती रहें। महापंचायत में चुने जाने को नेताओं को मदद करते, उन्हें स्टेरॉयड के इंजेक्शन लगाते, नेताओं के बाजूओं की बल्लीयाँ फूल जातीं। नेताओं को भी उन की आदत पड़ने लगी। धीरे धीरे हालात ऐसे बन गए कि ज्यादातर नेता स्टेरॉयड के ऐडिक्ट हो लिए। थोड़े बहुत बचे तो उन के बाजुओं की बल्लियाँ लोगों को दिखाई ही नहीं देतीं। वे चुने ही नहीं जाते, जो थोड़े बहुत चुने जाते वे महापंचायत के नगाड़ों में तूती के माफिक बने रहते। महापंचायत में चाचा पार्टी के मुकाबिल, जो बैक्टीरिया पार्टी कहाने लगी थी, अलग अलग गांवों-मुहल्लों की रंगबिरंगी पार्टियाँ दिखने लगीं। नौ वीं महापंचायत में यह सीन स्पष्ट दृष्टिगोचर होता था।
आज का वक्त समाप्त, आगे दसवीं महापंचायत की कथा टिपियाई जाएगी। तब तक देखें नीचे के वीडियो।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
13 टिप्पणियां:
काश यहाँ भी प्रतिबंधित दवाओं के उपयोग पर खिलाड़ियों को सदैव के लिये खेल खेलने से प्रतिबंधित कर दिया जाता ।
कथा-श्रवण ने मुग्ध किया ।
स्वामी जी पता ही नही चला कब कथा खतम हो गई॥मंत्रमुग्ध हो कर सुन(पढ) रहे थे॥
अच्छी कथा ,सुंदर चित्र .
बहुत बुढिया। आपका कथामृत हर एक को मिलना चाहिए...
कुछ कथाएं ऐसी होती हैं कि उन्हें चाहे जितनी बार सुनो अच्छी लगती हैं। आपकी यह शैली तो वाकई मजेदार है। कथा सुनने में कई बातें नई लगीं।
कब तक चलेंगे स्टेरॉइड्स पर?!
हमें तो लग रहा है कि कई स्टरॉइडचार्य इस बार पस्त होने जा रहे हैं - भले ही बमकें कि हाथ काट डालेंगे या रोलर चला देंगे। :)
"महापंचायत में चुने जाने को नेताओं को मदद करते, उन्हें स्टेरॉयड के इंजेक्शन लगाते, नेताओं के बाजूओं की बल्लीयाँ फूल जातीं" बहुत ही बढ़िया पोस्ट. जब नेता स्टेरॉयड के इंजेक्शन लगवाएंगे तो जनता कौन से इंजेक्शन लगवाये . मेडिकल वाले जरुर तोड़ निकाल देंगे . एंटी नेता स्टेरॉयड इंजेक्शन बनवा देंगे. हा हा . पंडित जी गजब का लिखा है आनंद आ गया आगे की कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी . . आभार
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
हम चुनावी व्यवस्था में मशगूल होने के बावजूद पढ़ते रहे हैं देर सवेर -
wah dwivedi jee,
main to bilkul chakit hokar katha padh gaya wo bhee do do baar, kamaal hai ki abhee tak aapkaa ye andaaje bayan nahin dekh paayaa thaa, anwarat yaatraa ke anubhav kisi gathaa se kam nahin hain shaayad.saadhuvaad.
बनिये तो गये ..दुकानेँ आज भी कायम हैँ ..बहुत अच्छी चल रही है कथा ..
- लावण्या
बहुत बारीकी से इतिहास को चित्रित कर रहे हैं आप। बधाई।
अशोक वाजपेयी के लिए कहा जाता था कि वे अफसरों में लेखक और लेखकों में अफसर हुआ करते थे।
आपके लिए कहना पड रहा है कि आप वकीलों में लेखक और लेखकों में वकील हैं।
अन्यत्र आपने पुरुषोत्तम यकीन का एक दोहा प्रस्तुत किया था वही दोहा दोहराना समीचीन होगा |
कहते हैं बूढ़े-बड़े, आज ठोक कर माथ !
व्यर्थ गया अंग्रेज़ से, करना दो-दो हाथ !!
- RDS
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