@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: आजाद भारत की बेटियाँ

गुरुवार, 14 अगस्त 2008

आजाद भारत की बेटियाँ

कुछ दिन पहले मेरी बेटी पूर्वाराय द्विवेदी ने एक आलेख मुझे पढ़ने को भेजा था। वह एक जनसंख्या विज्ञानी (Demographer) है और अनतर्राष्ट्रीय जनसंख्या विज्ञान संस्थान, मुम्बई के आश्रा प्रोजेक्ट से वरिष्ठ शोध अधिकारी के रूप में सम्बद्ध है। मुझे लगा कि आजादी की 61वीं वर्षगाँठ पर आप सब के साथ इस आलेख को बांटना चाहिए। मैं ने इस का अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद किया है। आलेख लंबा हो जाने से ब्लाग पाठकों के लिए इस के दो भाग कर दिए हैं, दूसरा और अंतिम भाग कल 15अगस्त की सुबह आप यहाँ पढ़ सकते हैं.....

 

आजाद भारत की बेटियाँ

  • पूर्वाराय द्विवेदी
61 वर्ष पूर्व आजादी हासिल होने पर ‘यूनियन जैक’ के स्थान पर लाल किले पर पहला तिरंगा फहराने वाले भारतीय प्रधानमंत्री और विचारक जवाहर लाल नेहरू ने सच कहा था कि आप किसी भी देश की स्थितियों का पता उस की महिलाओं की हालत को देख कर लगा सकते हैं।
हम भारतवासी पृथ्वी को ‘धरती-माता’ और अपने राष्ट्र को ‘भारत-माता’ कहते नहीं अघाते, और खुद को देवियों के परम भक्त प्रदर्शित करते हैं। लेकिन, क्या यह सही नहीं कि हमारी भक्ति केवल कुछ मौखिक शब्दों तक ही सीमित है? एक और हम माँ-दुर्गा, माँ-सरस्वती और माँ लक्ष्मी को देवी कह कर पूजा करते हैं और दूसरी ओर हम अपनी ही बेटियों को शिक्षा, वस्त्र, पोषण, और स्वास्थ्य से वंचित रखते हैं। यहाँ तक हम उन्हें जन्म लेने की इजाजत तक नहीं देते। हम ईश्वर के मूल्यवान उपहार, एक बालिका को जन्म से पहले ही मार देते हैं।

शताब्दियों से लड़कियाँ उपेक्षित हैं, और सदैव माता-पिता पर आर्थिक और नैतिक दायित्व मानी जाती हैं। भारत के गांवों में लड़कियों से चार और पांच वर्ष की नाजुक/कमसिन उमर में घरों पर काम लेना शुरू हो जाता है, वे विकसित होने की सुविधा से वंचित कर दी जाती हैं। घरों पर किए गए उन के श्रम को किसी भी तरह नहीं नवाजा जाता। जब कि बेटों द्वारा वैसे ही काम यदा-कदा कर लिए जाने पर उन की प्रशंसा में कसीदे पढ़ना प्रारंभ हो जाता है। लड़कियों पर घरेलू कामों का भार लड़कों की अपेक्षा लड़कियोँ पर बहुत अधिक रहता है। वे अपने छोटे भाई-बहनों की देखभाल, बरतनों की सफाई, पानी भरने, ईंधन एकत्र करने और पालतू पशुओं की देखभाल करने जैसे काम करते हुए परिवार की आय में अप्रत्यक्ष रुप से अपना महत्वपूर्ण योगदान करती हैं। उन से खेती के कुछ काम जैसे फसलों की निन्दाई-गुड़ाई और कटाई आदि भी कराए जाते हैं। अक्सर वे उन के माता-पिता या परिवार के अन्य सदस्यों को खेतों पर भोजन देने जाने का काम भी करती हैं। जिस उम्र में उन्हें दुनियां भर की विभिन्न चीजों का ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता होती है, उसी उम्र में उन्हें घरों के कामों में जोत दिया जाता है।

भारत और कुछ पड़ौसी देशों में लड़कियों के प्रति यह पूर्वाग्रह इस विश्वास पर आधारित है कि “पुत्र परिवार के लिए कमाई करेंगे और वंश को चलाएंगे”। इस तरह पुत्रों को भविष्य की बीमा पॉलिसी समझा जाता है, जब कि पुत्रियों को नहीं। पुत्रियों को परिवार का अस्थाई और बाहर जाने वाला सदस्य समझा जाता है। वे हमेशा ही दूसरे की अमानत होती हैं। अत्यन्त कमसिन बचपन में ही सेवा, अधीनता, त्याग, विनम्रता और आज्ञाकारिता के मूल्यों को वहन करने के लिए उन का प्रशिक्षण आरंभ हो जाता है। बच्चे पैदा करना, उन की देखभाल करना और घरों की जिम्मेदारियाँ उठाना ही नारियों की भूमिका समझी जाती है। वे परिवार के लिए मात्र एक बोझा समझी जाती हैं।

तमिलनाडु की एक महिला ने जिस के पहले से ही एक बेटी थी, जब दूसरी बेटी को जन्म दिया तो उसे तीसरे दिन ही मार डाला। उस ने अपनी दूसरी बेटी को मात्र तीन दिनों के जीवन में भी अपना दूध पिलाने से इन्कार कर दिया। जब शिशु बेटी भूख से चिल्लाने लगी तो उस ने उसे ऑलिएन्डर की झाड़ी के पत्तों से निचोड़े हुए दूध और अरंडी के तेल को साथ मिला कर बनाया गया जहरीला पेय जबरन शिशु के गले से नीचे उतार दिया। शिशु की नाक से रक्त निकला और वह जल्दी ही मर गई। दूसरी औरतों ने उस महिला के साथ सहानुभूति प्रदर्शित की, क्यों कि उस परिस्थिति में होने पर वे खुद भी शायद यही करती, जो उस महिला ने किया। किसी के पूछने पर कि उसने कैसे अपनी ही बेटी को मार दिया? उसने दृढ़ता से जवाब दिया - एक बेटी हमेशा एक बोझा होती है, फिर कैसे मैं दूसरी बेटी को अपने जीवन में स्थान देती? वह जीवन भर नर्क भोगती, इस से पहले ही मैं ने उसे इस (नर्क) से मुक्ति दे दी। (यह घटना विवरण मादा शिशुओं की मृत्यु पर भारत-और चीन में किए गए एक अध्ययन से लिया गया है)

यह मात्र एक मामला नहीं, इसी तरह की बहुत सी बेटियाँ उन की माताओं या परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा इस दुनियाँ में आने से पहले ही, अथवा तुरंत बाद मार दी जाती हैं। अक्सर कहा जाता है कि भगवान ने ‘माँ’ को इस लिए बनाया कि वह खुद हर स्थान पर उपस्थित नहीं रह सकता। ऐसी हालत में यह अविश्वसनीय ही होगा कि भगवान की यह प्रतिनिधि (‘माँ’) भगवान की इन सुन्दरतम कृतियों का जीवन इस दुनियाँ में आने और प्रकृति की सुन्दरता को देखने के पहले ही छीन लेती है। यही स्थितियाँ आज भी देश के विभिन्न भागों में मौजूद हैं। मादा भ्रूण और शिशु हत्याओं के लिए महाराष्ट्र, हरियाणा, राजस्थान, तमिलनाडु और पंजाब जैसे राज्यों का बड़ा नाम है।
गरीबी, लिंग-भेद तथा पुत्र प्रधानता के मूल्य एक बालिका के पोषण की स्थिति को भी बुरी तरह प्रभावित करते हैं। देश में साढ़े सात करोड़ से अधिक बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। इनमें भी तीन चौथाई अर्थात पाँच करोड़ से अधिक केवल बालिकाएँ हैं, जो गंभीर रुप से कुपोषण की शिकार हैं। जो लड़कियाँ कुपोषण की इस कठोर अवधि को झेल कर जीवित रह जाती हैं, उन में से अधिकांश किशोरावस्था में ही असामाजिक तत्वों के जाल में फंस जाती हैं। जब कि उन की यह उम्र में उन की सामान्य वृद्धि और शारीरिक विकास के लिए भरपूर पोषण प्राप्त करने की होती है। दुर्भाग्यवश बेटियों की पोषण की आवश्यकताओं की घोर उपेक्षा की जाती है और उन्हें अक्सर घरों की चारदिवारियों में बंद कर दिया जाता है। किशोरावस्था में कुपोषण से लड़कियों के प्रजनन स्वास्थ्य में अनेक गंभीर समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। ये प्रजनन स्वास्थ्य समस्याएँ कम उम्र में विवाह, बिना उचित अंतराल के गर्भधारण, पारंपरिक प्रथाओं और परिवार नियोजन सम्बन्धी सूचनाओं तथा ज्ञान के अभाव आदि के कारणों से अधिक उग्र रूप धारण कर लेती हैं।(जारी)

19 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत आभार आपका इस बेहतरीन आलेख को पढ़वाने का..अगली कड़ी का इन्तजार है.

Satish Saxena ने कहा…

सत्य एवं अच्छा लिखा है, ८० % तबके की सोच यही है , हमें अपनी मां बहुत अच्छी लगती है, परुन्तु पुत्री जन्म से परहेज है !

समय चक्र ने कहा…

लाल किले पर पहला तिरंगा फहराने वाले भारतीय प्रधानमंत्री और विचारक जवाहर लाल नेहरू ने सच कहा था कि आप किसी भी देश की स्थितियों का पता उस की महिलाओं की हालत को देख कर लगा सकते हैं ।
saty kaha hai .
bahut sundar aalekh prastut karne ke liye abhaar

बेनामी ने कहा…

पूर्वाराय द्विवेदी एक प्रतिभा संपन्न बेटी है . आप ने उनको सक्षम बनाया की वो " सोच " सके और उस से भी ज्यादा " अपनी सोच को स्वतंत्र कर सके " और निर्भीकता से कह सके . नारी आधरित विषयों पर जो भी महिला बात करती हैं उनमे ज्यादा तर वो होगी जिनको ऐसा माहोल मिला हैं की वो जो चाहे स्वंत्रता से कह सके . और इस लिये वो सब भाग्यशाली है और उन नारियों के ऊपर लिखती हैं जो आज भी स्वंतंत्र नहीं हैं . जिनको आज भी जीने के लिये वो अधिकार नहीं मिले जो संविधान मे बारबरी के हैं . मुझे पूर्ण विशवास हैं की आपके संरक्षण मे पूर्वा बिटिया का लेखन और नारी से सम्बंधित उनके कार्य दोनो को निरंतर प्रोत्सहान मिलेगा. आशा हैं जल्दी ही वो अपना स्वतंत्र ब्लॉग बना कर हम सब को अपने
विचार पढ़ने का अवसर प्रदान करेगी . तब तक आप उनसे ले कर कुछ ना कुछ यहाँ पढ़वाते रहे इसी कामना के साथ , पूर्वा को आशीष और कल के स्वतंत्रता दिवस की बधाई आप दोनो को

कुश ने कहा…

बहुत आभार इसे यहा पढ़वाने के लिए.. वाकई ये विचारणीय पत्र है.. बाकी बात कल पूरा पढ़कर लिखूंगा

Anil Pusadkar ने कहा…

marmik aur sateek,badhai aapko achha lekh padhwaane ki.samaj ki aankhen kholne ki ye koshish hameshaa jaari rehna chahiye,yahan to aur bura haal hai,ghar ke kamon se lekar sabji bechane,thela dhakelne se lekar bojha dhone ke kaam me mahilaon ki hissedaari jyada hai.sare desh me yahan ki mahilayen mazdoori karte mil jayengi.ek bar fir badhai aapko aur poorva jee ko

डॉ .अनुराग ने कहा…

सचमुच एक विचारणीय लेख है ......आपकी बेटी भी आपकी तरह प्रतिभाशाली है....लेख में कही गई कई बातें विचारणीय है ओर उन पे गौर किया जाना चाहिए.....

Ila's world, in and out ने कहा…

पूर्वा को मेरी ओर से बधाई दीजिये.उसने जो भी लिखा है वो बहुत विचारणीय है.आपकी सी प्रतिभा पाई है उसने लेखन में.स्वतंत्रता दिवस की बधाई स्वीकार करें.यदि पूर्वा आई हुई हो तो मेरी बात ज़रूर करायें.

बेनामी ने कहा…

एक प्रश्न हैं दिमाग मे कल जब पोस्ट करे तो उसका उत्तर भी अगर दे सके तो आभार होगा .
पूर्वा आप की पुत्री हैं उसने स्त्री विमर्श पर लिखा हैं , और भी बहुत सी महिला स्त्री विमर्श पर लिख रही हैं पर उनके ब्लॉग पर लोगो के जो कमेन्ट आते हैं उस प्रकार के कमेन्ट यहाँ नहीं हैं . इस का कारन क्या ये तो नहीं हैं की लोग केवल उन उन स्त्रियों के कार्यो को ही "मानता" देते हैं जो पुरूष के संरक्षण मे रह कर काम करती हैं .
आप के जवाब का इंतज़ार रहेगा

Arvind Mishra ने कहा…

बात तो सच है !

बलबिन्दर ने कहा…

एक सारगर्भित आलेख पढ़वाने के लिये आपको और आपकी सुपुत्री को धन्यवाद।
यह हमारे कथित सभ्य समाज की तस्वीर है, जिसमें परिवार (कृपया इसे पुरूष पढ़ें)को होने वाली दुश्वारियों (!?) से, इसी तरह, निज़ात पायी जाती है।
दूसरे भाग का इंतज़ार रहेगा।

रंजू भाटिया ने कहा…

विचारणीय है यह लिखा हुआ ..सही लिखा है पूर्वा ने ...अगली कड़ी का इन्तजार रहेगा

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

आपने पूरा न्याय किया है - बधाई जी !
..इसी तरह साहस और शाँति से ,
अपनी सच्ची बातोँ को,
सबके सामने रखने के लिये पूर्वा बिटिया को बहुत आशिष व स्नेह भेज रही हूँ ~
कार्य से जुडी ऐसी गँभीर बातोँ को अब मँच मिला है !
पूर्वा बेटे, आप आगे भी लिखती रहीयेगा ..
और आशा तो यही है कि स्थिति सुधरती जाये ..
- लावण्या

Anita kumar ने कहा…

्पूर्वा बिटिया से प्रार्थना है कि वो अपना स्वतंत्र ब्लोग बनाए। आई आई पी एस में ऐसे कई मुद्दों पर शोध होती है उससे हमें भी अवगत कराये तो अच्छा लगेगा

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने कहा…

ऐसी चर्चाओं से समाज के भीतर एक चिन्तन प्रक्रिया आगे बढ़ती है और जागरूकता फैलती है। इसे लगातार प्रसारित करना होगा। अच्छा और सफल प्रयास...।

L.Goswami ने कहा…

jane kab badlega hamara samaj? kab yah sab khatm hoga?? shayad kabhi nahi.

प्रवीण त्रिवेदी ने कहा…

लेख पढ़ कर लगा की जैसे मैं फ़िर से उसी कथा - व्यथा में फ़स गया ........जन्हा से मैं निकलना चाहता हूँ / क्या यह देश डिजीटल बटवारें के साथ साथ सामाजिक बटवारें की ओर भी बढ़ रहा है ? मैं अध्यापक होने के नाते देखता हूँ की जंहा एक ओर लड़कियां और महिलाएं कार्य और जिम्मेदारी के बोझ तले दबी हुई हैं / वहीँ यह भी एक तथ्य है की हमारे स्कूलों में लड़कियों की संख्या का प्रतिशत लड़को की तुलना में प्रतिवर्ष बढ़ता जा रहा है /
फ़िर भी कभी - कभी बड़ा कष्ट होता है जब किसी का पिता , बाबा और दादी अपनी घर की लड़कियों को बड़ी होने का हवाला देकर उसकी पढ़ाई बंद करवा देता है / ध्यान दे इस कार्य में माँ चाहती है की मेरी बेटी और पढ़ जाए , लेकिन ..............................................
इस का न कोई हल मेरे पास होता है और न ही कोई रास्ता !
एक बार मानसिक उथल पुथल मचाने के लिए धन्यवाद् !

Girish Kumar Billore ने कहा…

मन को प्रफुल्लता मिली आलेख अच्छा है

Girish Kumar Billore ने कहा…

पुत्री वती भव: कहने में डर कैसा"
men kuchh kahane kee koshish kee hai
link http://sanskaardhani.blogspot.com/2008/08/blog-post_09.html