- आत्माराम
एक मत यह भी है कि, धर्म की उत्पत्ति उस वक्त की बात है, जब आम जनता की मेहनत को लूटने वाला एक ताकतवर तबका जन्म ले चुका था और उसने आम जनता पर विधिवत राज करना भी प्रारंभ कर दिया था। अर्थात हमारा मानव समाज सीधे-सीधे दो हिस्सों में बंट चुका था। उनमें से एक मेहनत करने वालों का हिस्सा था और दूसरा मेहनत को लूटकर राज करने वालों का। अब यह अलग बात है कि धर्म ने समाज के दोनों हिस्सों को किस तरह प्रभावित किया, और दोनों हिस्सों ने किस-किस रूप में धर्म को अपनाया। हम यह तो नहीं जानते कि इसकी उत्पत्ति के पीछे किसी व्यक्ति या समाज विशेष का हाथ रहा होगा। लेकिन इतना जरूर जानते हैं कि इसके उपयोग में निश्चित ही एक खास वर्ग का हाथ जरूर रहा है। वर्णों और जातियों में विभक्त हमारे समाज में धर्म की धारणा के अलग अलग पैमाने किस तरह तय हुए होंगे ? इसका इतिहास जानना बहुत ही दिलचस्प होगा।
हमारे लिए यह जानना भी बहुत दिलचस्प रहेगा कि हर नये धर्म की पैदाइश का आधार ही, साधारण जनता को पुराने समाज के जुल्मों से मुक्ति दिलाना रहा है। जैसे बौद्ध धर्म का आधार सनातनी ब्राह्यणी समाज-व्यवस्था में जकड़ी भारतीय जनता को मुक्ति दिलाना ही रहा था। यह अलग बात है कि ऐसा संभव नहीं हुआ। क्यों कि धर्म में एक सीमा के बाद मानव समाज के भविष्य की कोई साफ़ सुथरी अवधारणा ही नहीं रह जाती है। जहां तक मानव को दुःखों से मुक्ति मिलने का सवाल है- हम कहना चाहेंगे कि मानसिक गुलामी से मुक्ति की राह ढूंढे बिना सामाजिक मुक्ति के रास्ते पर चलना बहुत कठिन है।
आज तक समाज मुक्ति के परे मानव मुक्ति की कोई अलग अवधारणा नहीं देखी गयी। इस जगत को छोड़कर कोई हिमालय में जाकर बैठ जाय तो वह शख्स हमारी चिंता का विषय नहीं हो सकता। हमारी चिंता का विषय जीता जागता और मेहनत करता हुआ इन्सान ही हो सकता है। जैसे आप, जो पढ़ रहें हैं और मैं, जो लिख रहा हूँ।
7 टिप्पणियां:
हमारे लिए यह जानना भी बहुत दिलचस्प रहेगा कि हर नये धर्म की पैदाइश का आधार ही, साधारण जनता को पुराने समाज के जुल्मों से मुक्ति दिलाना रहा है। जैसे बौद्ध धर्म का आधार सनातनी ब्राह्यणी समाज-व्यवस्था में जकड़ी भारतीय जनता को मुक्ति दिलाना ही रहा था। यह अलग बात है कि ऐसा संभव नहीं हुआ।
मैं आपकी इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ। हम सब धर्म के मूल रूप को भूल मात्र आडम्बर तक सीमित रह जाते हैं। सुन्दर लेख के लिए बधाई।
बढ़िया आलेख, विचारणीय मुद्दा। धर्म एक साधन के रूप में मानव द्वारा गढ़ा गया लेकिन कुछ दलाल टाइप लोगों ने इसे साध्य बनाकर प्रचारित करने का काम शुरू कर दिया। यहीं से आडम्बर और रूढ़ियों की भेंट चढ़कर धर्म का स्वरूप लांछित होने लगा।
kahi gahae tak aatmmanthan ki jarurat hai...
कई विचार उठ रहे हैं आपको पढ़ते पढ़ते! उम्दा चिन्तन!
इन्सान की " मैँ कौन हूँ " कहाँ से आया हूँ " क्यूँ आया हूँ " ये प्र्शनोँ के उत्तर उनकी खोज अत्मचिँतन के कपाट खोल देने का कार्य करते हैँ
- लावण्या
हर नया धर्म, कालान्तर में जड़ हो जाता है। लोगों को प्रकाश दिखाने की बजाय रस्सी से बांधने लगता है। बल्कि जो जितना नया है वह उतनी जल्दी जड़ हो रहा है। जो बहुत समय से चल रहा है, उसमें कुछ तो है जो उसे जिलाये हुये है।
अभी दोनों भाग पढ़े इसके... अच्छा लेख तो है ही इसमें कोई दो राय नहीं है. ज्ञान जी की बात भी गौर करने लायक है.
हिमालय चले जाना और वैराग्य धारण कर लेने का अपना महत्त्व होगा, शायद उसे समझने की क्षमता नहीं. पर एक इंसान को खुश रखने का काम, दया करने का काम एक गरीब को खाना खिला सकने का काम करने की प्रेरणा अगर धर्म देता है तो बस वही सच्चा धर्म लगता है मुझे. बाकी क्या सही है क्या ग़लत ! ये तो कोई नहीं बता सकता !
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