चिट्ठाकार समूह पर कल भाई अविनाश गौतम ने पूछा कि 'संस्करण' के लिए उर्दू शब्द क्या होगा तो अपने अनुनाद सिंह जी ने जवाब में जुमला थर्राया कि अपने दिनेशराय जी कहते हैं कि हिन्दी और उर्दू एक ही भाषाएँ हैं और आप संस्करण के लिए उर्दू शब्द पूछ रहे हैं। मेरे खयाल से आप को समानार्थक अरबी या फारसी शब्द चाहिए। और अविनाश जी का आग्रह पुनः आया कि अरबी हो या फारसी या बाजारू आप को पता हो तो बता दीजिए। आग्रह माना गया और शब्द खोज पर शब्द बरामद हुआ वह "अशीयत" या "आशियत" था। इस के साथ ही और भी कुछ खोज में बरामद हुआ।
नॉर्थ केरोलिना स्टेट युनिवर्सिटी के कॉलेज ऑफ ह्युमिनिटीज एण्ड सोशल साइंसेज के विदेशी भाषा एवं साहित्य विभाग मे हिन्दी-उर्दू प्रोग्राम के सहायक प्रोफेसर अफरोज 'ताज' ने उन की पुस्तक Urdu Through Hindi: Nastaliq With the Help of Devanagari (New Delhi: Rangmahal Press, 1997) में हिन्दी उर्दू सम्बन्धों पर रोशनी डाली है यहाँ मैं उन के विचारों को अपनी भाषा में प्रस्तुत करने का प्रयत्न कर रहा हूँ:
दक्षिण एशिया में एक विशाल भाषाई विविधता देखने को मिलती है। कोई व्यक्ति कस्बे से कस्बे तक. या शहर से दूसरे शहर तक, या एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक यात्रा करे तो वह लहजे में, परिवर्तन, बोलियों में परिवर्तन, और भाषाओं में परिवर्तन देखेगा। भाषाओं के मध्य उन्हें विलग करने वाली रेखाएं अक्सर अस्पष्ट हैं। वे एक दूसरे में घुसती हुई, घुलती हुई, मिलती हुई धुंधला जाती हैं। यहाँ तक कि एक ही सड़क, एक ही गली में बहुत अलग-अलग तरह की भाषाएँ देखने को मिलेंगी। एक इंजीनियरिंग का छात्र, एक कवि, एक नौकर और एक मालिक सब अलग-अलग लहजे, शब्दों और भाषाओं में बात करते पाए जाएँगे।
फिर वह क्या है? जिस से हम एक भाषा को परिभाषित कर सकते हैं। वह क्या है जो भाषा को अनूठा बनाता है?
क्या वह उस के लिखने की व्यवस्था अर्थात उस की लिपि है? या वह उस का शब्द भंडार है? या वह उस के व्याकरण की संरचना है? हम एक भाषा को उस के लिखने के तरीके या लिपि से पहचानने का प्रयास करते हुए केवल भ्रमित हो सकते हैं। अक्सर असंबन्धित भाषाऐं एक ही लिपि का प्रयोग करती हैं। किसी भी भाषा का रूपांतरण उस की मूल ध्वनियों और संरचना को प्रभावित किए बिना एक नयी लिपि में किया जा सकता हे। विश्व की अधिकांश भाषाओं ने अपनी लिपि अन्य भाषाओं से प्राप्त की है। उदाहरण के रूप में अंग्रेजी, फ्रांसिसी और स्पेनी भाषाओं ने अपनी लिपियाँ लेटिन से प्राप्त की हैं। लेटिन के अक्षर प्राचीन ग्रीक अक्षरों से विकसित हुए हैं। जापानियों ने अपने शब्दारेख चीनियों से प्राप्त किए हैं। बीसवीं शताब्दी में इंडोनेशियाई और तुर्की भाषओं ने अरबी लिपि को त्याग कर रोमन लिपि को अपना लिया। जिस से उन की भाषा में कोई लाक्षणिक परिवर्तन नहीं आया। अंग्रेजी को मोर्स कोड, ब्रेल, संगणक की द्वि-अँकीय लिपि में लिखा जा सकता है। यहाँ तक कि देवनागरी में भी लिखा जा सकता है, फिर भी वह अंग्रेजी ही रहती है।
तो केवल मात्र व्याकरण की संरचना ही है, जिस के लिए कहा जा सकता है कि उस से भाषा को चिन्हित किया जा सकता है। लिपि का प्रयोग कोई महत्व नहीं रखता, यह भी कोई महत्व नहीं रखता कि कौन सी शब्दावली प्रयोग की जा रही है? एक व्याकरण ही है जो नियमित और लाक्षणिक नियमों का अनुसरण करता है। ये नियम क्रिया, क्रियारूपों, संज्ञारूपों, बहुवचन गठन, वाक्य रचना आदि हैं, जो एक भाषा में लगातार एक जैसे चलते हैं, और विभिन्न भाषाओं में भिन्न होते हैं। इन नियमों का तुलनात्मक अध्ययन हमें एक भाषा को दूसरी से पृथक करने में मदद करते हैं। इन अर्थों में हिन्दी और उर्दू जिन की व्याकरणीय संरचना एक समान और एक जैसी है, एक ही भाषा कही जाएँगी।
हिन्दी और उर्दू का विकास कैसे हुआ? और इस के दो नाम क्यों है? इस के लिए हमें भारत की एक हजार वर्ष के पूर्व की भाषाई स्थिति में झांकना चाहिए। भारतीय-आर्य भाषा परिवार ने दक्षिण एशिया में प्राग्एतिहासिक काल में आर्यों के साथ प्रवेश किया और पश्चिम में फारसी काकेशस से पूर्व में बंगाल की खाड़ी तक फैल गईं। संस्कृत की परवर्ती बोलियाँ जिन में प्रारंभिक हिन्दी की कुछ बोलियाँ, मध्यकालीन पंजाबी, गुजराती, मराठी और बंगाली सम्मिलित हैं, साथ ही उन की चचेरी बोली फारसी भी इन क्षेत्रों में उभरी। पूर्व में भारतीय भाषाओं ने प्राचीन संस्कृत की लिपि देवनागरी को विभिन्न रूपों में अपनाया। जब कि फारसी ने पश्चिम में अपने पड़ौस की अरबी लिपि को अपनाया। हिन्दी अपनी विभिन्न बोलियों खड़ी बोली, ब्रजभाषा, और अवधी समेत मध्य-उत्तरी भारत में सभी स्थानों पर बोली जाती रही।
लगभग सात शताब्दी पूर्व दिल्ली के आसपास के हिन्दी बोलचाल के क्षेत्र में एक भाषाई परिवर्तन आया। ग्रामीण क्षेत्रों में ये भाषाएँ पहले की तरह बोली जाती रहीं। लेकिन दिल्ली और अन्य नगरीय क्षेत्रों में फारसी बोलने वाले सुल्तानों और उन के फौजी प्रशासन के प्रभाव में एक नयी भाषा ने उभरना आरंभ किया, जिसे उर्दू कहा गया। उर्दू ने हिन्दी की पैतृक बोलियों की मूल तात्विक व्याकरणीय संरचना और शब्दसंग्रह को अपने पास रखते हुए, फारसी की नस्तालिक लिपि और उस के शब्द संग्रह को भी अपना लिया। महान कवि अमीर खुसरो (1253-1325) ने उर्दू के प्रारंभिक विकास के समय फारसी और हिन्दी दोनों बोलियों का प्रयोग करते हुए फारसी लिपि में लिखा।
विनम्रता पूर्वक कहा जाए तो सुल्तानों की फौज के रंगरूटों में बोली जाने वाली होच-पोच भाषा अठारवीं शताब्दी में सुगठित काव्यात्मक भाषा में परिवर्तित हो चुकी थी।
यह महत्वपूर्ण है कि शताब्दियों तक उर्दू मूल हिन्दी की बोलियों के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर विकसित होती रही। अनेक कवियों ने दोनों भाषाओं में सहजता से रचनाकर्म किया। हिन्दी और उर्दू में अन्तर वह केवल शैली का है। एक कवि समृद्धि की आभा बनाने के लिए उर्दू-फारसी के सुंदर, परिष्कृत शब्दों का प्रयोग करता था और दूसरी ओर ग्रामीण लोक-जीवन की सहजता लाने के लिए साधारण ग्रामीण बोलियों का उपयोग करता था। इन दोनों के बीच बहुमत लोगों द्वारा दैनंदिन प्रयोग में जो भाषा प्रयोग में ली जाती रही उसे साधारणतया हिन्दुस्तानी कहा जा सकता है।
क्यों कि एक हिन्दुस्तानी की रोजमर्रा बोले जाने वाली भाषा किसी वर्ग या क्षेत्र विशेष की भाषा नहीं थी, इसी हिन्दुस्तानी को आधुनिक हिन्दी के आधार के रूप में भारत की ऱाष्ट्रीय भाषा चुना गया है। आधुनिक हिन्दी अनिवार्यतः फारसी व्युत्पन्न साहित्यिक उर्दू के स्थान पर संस्कृत व्युत्पन्न शब्दों से भरपूर हिन्दुस्तानी है। इसी तरह से उर्दू के रूप में हिन्दुस्तानी को पाकिस्तान की राष्ट्रीय भाषा के रूप में अपनाया गया। क्योंकि वह भी आज के पाकिस्तान के किसी क्षेत्र की भाषा नहीं थी।
इस तरह जो हिन्दुस्तानी भाषा किसी की वास्तविक मातृभाषा नहीं थी वह आज दुनियाँ की दूसरी सब से अधिक बोले जाने वाली भाषा हो गई है और सबसे अधिक आबादी वाले भारतीय उप-महाद्वीप में सभी स्थानों पर और पृथ्वी के अप्रत्याशित कोनों में भी समझी जाती है।
26 टिप्पणियां:
एक बेहतरीन आलेख के लिए आपको बधाई. काफी विचार उठते हैं, बहुत सी बात चीत हो सकती है इस पर..किन्तु अभी आपका अनुवाद आत्मसात कर लूँ, वही बेहतर विचार देगा. फिर आऊँगा.
अच्छा है। संस्करण का उर्दू अनुवाद फ़िर क्या तय हुआ?
आपके ब्लॉग पर आना कभी व्यर्थ नही जाता.. हर बार कुछ नया मिल जाता है.. और फिर हमारे मारवाद में एक कहावत है की 'दो कोश में पानी बदले चार कोश में भाषा'
अनूप जी, ऊपर बताया तो है-"अशीयत" या "आशियत"
दिनेश जी, आपके विश्लेषण से हमारी धारणा और मजबूत हुई। भाषा को सहज अभिव्यक्ति का साधन ही बना रहने दिया जाय तो बेहतर है। इसे धर्म, जाति, संप्रदाय, और क्षेत्र विशेष की संकुचित सीमाओं में बाँधने का प्रयास बेमानी है।
मैं आपके लेख में ‘भाषा’ और ‘बोली’ के बीच जो अंतर है उसकी चर्चा भी ढूँढ रहा था।
हिन्दुस्तानी की कोंख से हिन्दी और उर्दू का जन्म हुआ इसका सजीव उदाहरण बी.बी.सी. की हिन्दी और उर्दू सेवाएं हैं। पहली बार जब रेडियो की शुरुआत हुई तो वहाँ एक ‘हिन्दुस्तानी’ सर्विस ही थी। बाद में चलकर लगभग उसी समय जब हिन्दुस्तान को बाँटकर भारत और पाकिस्तान बनाये गये तभी बी.बी.सी. ने भी अपनी ‘हिन्दुस्तानी’ को बाँटकर हिन्दी-उर्दू अलग कर दिया। आज भी इसमें काम करने वाले एक-दूसरे से गल-बहिंयाँ डाले मिल जाएंगे।
कुशजी, कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर बानी॥ ‘बानी’ यानि ‘बोली’। भाषा का क्षेत्र थोड़ा विस्तृत है।
बहुत अच्छा आलेख - भाषा और बोली की विविधता इस धरती के विविध इन्सानोँ की अपनी थाती है
३ महीने तक अमरीका मेँ आने के बाद टी.वी. पे क्या बोल रहे हैँ वो समझ मेँ कम आता था और ४ महीने होते ही, एक पुर्जा, खट से फीट हो गया और सब समझ मेँ आने लगा ...अब तो किस प्राँत से अमरीकी व्यक्ति है ये भी कुछ कुछ ताड लेती हूँ :)
For e.g. A Texan sounds diff. from a New Yorker
or a Californian sounds different from a person from Alabama.
उर्दू को "छावनी " या फौज की भाषा भी कहा जाता था न ?
-लावण्या
बढ़िया लेख
तो हिन्दी और उर्दू एक हुई या दोनो अलग अलग हुई?
अब आज आपसे पंगा कैसे लें। पहले अंग्रेजी शब्द ठेलने पर मुझसे कहा गया कि शब्द को देवनागरी में लिखने पर अगर अर्थ स्पष्ट हो तो चल जायेगा। अब आप हिन्दी और उर्दू में भेद का मुद्दा उठा रहे हैं। स्पैक्ट्रम (हिन्दी में क्या कहें - विन्यास? पता नहीं ठीक ठीक) को जितना विश्लेषित करें उतना जटिल होता जाता है मुद्दा।
बहरहाल लिखा बढ़िया है आपने। मेरा मन्तव्य पूछें तो भाषा का ध्येय सम्प्रेषण भर है। वह अगर कम यत्न और कुशलता से हो तो बहुत अच्छा। ज्यादा की दरकार क्या?
दिनेशजी से पूरी तरह सहमत हूँ ।
बहुत शानदार पोस्ट है. पढ़कर अच्छा लगा.\
बात सही है व्याकरण ही भाषा का मूलाधार है. बस मलाल ये है कि दूसरी सब से ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा की हालत निहायत मरियल है.. !
बेहतरीन आलेख... भाषा का बढ़िया विश्लेषण.
दिनेशजी बेहतरीन आलेख।
बात सौफीसद सही है। उर्दू या हिन्दी की बजाय मुझे भी हिन्दुस्तानी ज़बान कहना ज्यादा सुविधाजनक लगता है और यही कहता भी हूं।
बीते साठ सालों में हिन्दी को जितनी तरक्की करनी थी वह नहीं कर सकी क्योंकि शुद्धतावादियों के दुराग्रह ने शब्दकोशों में अन्य भाषाओं के शब्दों को आने से रोक दिया। जबकि अरबी, फारसी और उर्दू के शब्दकोशों में दूसरी भाषाओं के शब्दों को लगातार स्थान दिया जाता रहा है। ये अलग बात है कि लोकमानस खुद अपनी भाषा रचता रहा है , सो हिन्दी का जैसा विकास होना चाहिए हो रहा है मगर बोलियों के स्तर पर । भाषा के रूप में अभी भी शुद्धतावादी दुराग्रह का ही जोर है । चाहे पत्रकारिता हो, अनुवाद हो , साहित्य हो या अध्यापन।
ये तो ज़ेहनीयत की बात है कि आप हिन्दी और उर्दू को अलग अलग देखना चाहते हैं या हिन्दुस्तानी कहना चाहते हैं।
रूचिकर ज्ञानवर्धक लेख.बधाई और शुक्रिया !
आपका लेख ज्ञानवद्र्धक है पर मैं श्री ज्ञानदत पांडेय जी के इन शब्दों से सहमत हूं कि "भाषा का ध्येय सम्प्रेषण भर है। वह अगर कम यत्न और कुशलता से हो तो बहुत अच्छा। ज्यादा की दरकार क्या?*
मुख्य बात यही है कि लिखने और पढ़ने वाले को सहजता से गेय होना चाहिये और एक लेखक को अनावश्यक शब्दों का प्रयोग कर अपनी रचना के सार को कठिन नहीं बनाना चाहिए। हम जो लिख रहे हैं वह हिंदुस्तानी है इसमें संशय नहीं है। आपके पाठ ने प्रभावित किया है। बधाई
दीपक भारतदीप
अपने लिए तो इन भाषाई बहसों से ज्यादा उबाऊ कुछ नहीं. काहे खामखह दिमाग खपायें जब पल्ले कुछ पड़ने का नहीं. और हिन्दी और उर्दू दोनों काम चलाऊ तो जानते ही हैं.
अजी हम तो हिन्दी मे ही इतनी गल्तिया करते हे अब इस से आगे कया बोले सो हम तो चुप चाप आप सब की हां मे हां ही मिलाये गे
एक बेहतरीन आलेख.....आज आपने इस चर्चा को कर चौंका दिया...
बेहद अच्छा विषय चुना आपने। इस बेहतरीन लेख की प्रस्तुति के लिए शुक्रिया...
" विनम्रता पूर्वक कहा जाए तो सुल्तानों की फौज के रंगरूटों में बोली जाने वाली होच-पोच भाषा अठारवीं शताब्दी में सुगठित काव्यात्मक भाषा में परिवर्तित हो चुकी थी। "
बैठे-ठाले का बहस है...यह !
क्योंकि कोई बहस का मुद्दा ही नहीं हैं, यहाँ ?
विद्वान मैं हूँ नहीं..अलबत्ता, जागरूक दिखने की कोशिश में इतना अवश्य जानना चाहूँगा कि आपने कल परसों या आज यदि शरबत पीया हो तो क्या मीमांसा की थी कि
पानी में चीनी घुली थी या चीनी पानी में डाले जाने से घुल गयी रही होगी । यदि ऎसा है तो तत्काल चीनी और पानी को अलग अलग कर दिया जाये ताकि उनकी शुद्धता पर आँच न आये ।
आख़िर क्यों प्रयोग किया जाये मीठा सा लगने वाला, पर शरबत जैसा मिलावटी सामान ?
आइये..हम इनको अलग अलग करने के प्रयास में अनवरत जुट जायें ।
कभी तो सफलता मिलेगी..इस प्रयास में, भले एक को ताप देकर विलीन ही क्यों ना करना पड़े ?
आवश्यकता है...कुछ शुद्ध शब्दों की
सुल्तान
फ़ौज़
रंगरूट
बहस
मुद्दा
आख़िर
शरबत
मिलावटी
सामान
अलबत्ता
शुक्रिया...नहीं नहीं , धन्यवाद जी !
बहुत अच्छी ज्ञानवर्धक जानकारी -मुझे उर्दू भी बहुत प्रिय है और इसमे गजब की सम्प्रेषनीयता है .दरअसल प्रवाहपूर्ण लेखन/संभाषण में हिदी-उर्दू का भेद {?] मिटता नजर आता है .
आपको पता है, आपकी ये पोस्ट अमर उजाला के ब्लॉग कोना में प्रकाशित हुयी थी, मैंने वहीं पढ़ा तभी से सोचा था की कमेन्ट करनी है, पर समय नही मिला, देर से ही सही पर इतनी अच्छी पोस्ट के लिए जिस में आपने मेरे दिल की बात कही है...शुक्रिया..बहुत बहुत शुक्रिया...बस इसी तरह लिखते रहें ताकि हमारी सोयी हुयी सरकार थोड़ा सा जाग जाए...
@ रक्षन्दा जी, मुझे नहीं पता कि उस आलेख को अमर उजाला ने प्रकाशित किया है। मुझे नहीं मिल रहा है। आप उस की कटिंग स्केन कर मेल कर सकें तो आभारी रहूँगा।
सुना था कि आगरे और दिल्ली में उड़द और उड़द के पापड़ बेचने वालों की भाषा (यानी पब्लिक की भाषा) को उड़दू और बाद में उर्दू कहा जाने लगा. यह भाषा बोलने वालों में हिन्दू मुसलमान, दोनों होते थे. अब उर्दू को मुसलमानों की भाषा बताया जा रहा है. अपन को भाषा को धर्मों से जोड़ने वाली यह बात हजम नहीं होती द्विवेदी जी! वैसे आपके मित्र ने काफी विस्तार से समझा दिया है. आपके साथ-साथ प्रोफेसर अफरोज 'ताज' को भी धन्यवाद!
हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तानी तीनों सिर्फ़ तीन शब्द हैं, भाषा तो एक है ही। हाँ, उर्दू और हिन्दुस्तानी शब्द बाद के हैं, हिन्दी शब्द पुराना है। वैसे भी रूस के लिए रूसी, चीन के लिए चीनी तो हिंद के लिए हिंदी। जय हिंद कहते हैं हम न कि जय हिंदुस्तान।
शब्द का संग्रह भाषा नहीं है जबतक कि व्याकरण न हो। और इस हिसाब से तो निश्चय ही उर्दू और हिन्दी एक ही भाषा हैं। 'हम मजबूत हैं' या 'इन्तजार कीजिए, हम बस गए और आए।' इन दोनों वाक्यों को हम क्या कहेंगे ? उर्दू कि हिन्दी? दोनों एक हैं और एक रहेंगे। बस कुछ तथाकथित विद्वानों ने इसमें जहर घोला है कि ये अलग-अलग भाषाएँ हैं। और यही मान कर पढ़ाया भी जा रहा है।
हर शब्द का उर्दू पर्याय खोजना सही नहीं लगता। जो आसान या प्रचलित शब्द हैं, उन्हें अपनाया जाना चाहिए। एक बात कहने पर लोग नाराज हो सकते हैं, लेकिन मुसलमान कहे जाने वाले लोगों में जो पढ़े-लिखे माने जाते हैं, उनमें अधिकतर लोग उर्दू के नाम पर सिर्फ़ अरबी-फारसी बोलते हैं और उचित शब्द न मिलने पर अंग्रेजी के शब्द इस्तेमाल करते हैं लेकिन इनके लिए हिन्दी या तत्सम शब्द तो बोलने का सवाल ही पैदा नहीं होता जल्दी! जैसे कार्यक्रम को प्रोग्राम कह देंगे लेकिन कार्यक्रम नहीं।
अजित वडनेरकर साहब की बात असहमत हूँ कि हिन्दी ने दूसरों के शब्द नहीं लिए। कुर्ता, कैंची, चम्मच, गिलास जैसे कई हजार शब्द हमने पुर्तगाली, फ्रांसीसी, तुर्की से लिए हैं। अंग्रेजी के शब्द लिए हैं। अरबी-फारसी के शब्द तो हर दिन, हर घंटे हम इस्तेमाल करते हैं। उनका यह कहना बिल्कुल सही नहीं लगता कि अरबी-फ़ारसी वाले शब्दकोश में दूसरे शब्दों को स्थान देते हैं। आप प्रेमचंद को पढ़े तब और हिन्दी सिनेमा की भाषा देखें तब और अपने जीवन में देखें तब, हम हर दिन अरबी-फ़ारसी के शब्द बोलते हैं, लिखते हैं और पढ़ते हैं।
आपके इसी आलेख में देखें तब-
जवाब, खयाल, बरामद, रोशनी जैसे शब्द हम हर दिन नहीं बोलते? लेकिन किसी उर्दू लिखने वाले साहब को पढ़ें तब, शब्दकोश लेकर बैठना होगा एक सामान्य पाठक को। अब कुछ शायरों ने सरल हिन्दी में शेर कहने शुरु किए हैं लेकिन आज भी उर्दू के नाम पर चल रहे अलगाव को एक वर्ग खत्म करने को तैयार नहीं। आम शब्दों में जैसे पत्रकारिता में - खबर, हाल, बयान, कैद, सजा जैसे सैकड़ों-हजारों शब्द शुद्धतावादियों के नहीं हैं।
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