विगत आलेख में मृत व्यक्ति के अस्थिचयन की घटना के विवरण पर अनेक प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हुईं। उन में विजयशंकर चतुर्वेदी ने एक बघेली लोकोक्ति के दो रूपों का उद्धरण दिया “जियत न पूछैं मही, मरे पियावैं दही” और “जियत न पूछैं मांड़, मरे खबाबैं खांड”
दोनों का अर्थ एक ही था जीवित व्यक्ति को छाछ/उबले चावल के पानी की भी न पूछते हैं और मरने पर उस के लिए दही/चीनी अर्पित करने को तैयार रहते हैं।
Shiv Kumar Mishra ने लिखा “धरती पर सोये पिता फटा चादरा तान, तेरहवी पर कर रहे बेटा शैय्यादान” और “अखबार में छपे फोटो से लेकर धुले हुए कुरते तक में, सब जगह दिखावा ही दिखावा है”। इन के अलावा दो लोकोक्तियाँ और सामने आईँ एक इटावा (उ.प्र.) के मित्र आर.पी. तिवारी से “जियत न दिए कौरा, मरे बंधाए चौरा”।। दूसरे कवि महेन्द्र “नेह” से “जीवित बाप न पुच्छियाँ, मरे धड़ाधड़ पिट्टियाँ”।
इन का भी वही अर्थ है। जीवित पिता को कौर भी नहीं दिया और अब उस की पगड़ी को सम्मान दिया जा रहा है तथा जीवित पिता को पूछा तक नहीं और मरने पर धड़ाधड़ छाती पीटी जा रही है।
ये सब लोकोक्तियाँ लोक धारणा को प्रकट करती हैं। जिन का यही आशय है कि लोग सब जानते हैं कि मृत्यु के उपरांत अब सब समाज के दिखावे के लिए किया जा रहा है। इस से मरणोपरांत की जाने वाली विधियों का खोखलापन ही प्रकट होता है।
अनेक मित्रों ने परंपराओं की भिन्नता की चर्चा भी की और उन की आवश्यकता की भी। लेकिन विगत आलेख का मेरा आशय कुछ और था, जो परंपराओं को त्यागने के बारे में कदापि नहीं था।
किसी भी परिवार में मृत्यु एक गंभीर हादसा होता है। परिवार और समाज से एक व्यक्ति चला जाता है, और उस का स्थान रिक्त हो जाता है। वह बालक, किशोर, जवान, अधेड़ या वृद्ध; पुरुष या स्त्री कोई भी क्यों न हो उस की अपनी भूमिका होती है, जिस के द्वारा वह परिवार और समाज में मूल्यवान भौतिक और आध्यात्मिक योगदान करता है। समाज मृत व्यक्ति की रिक्तता को शीघ्र ही भर भी लेता है। लेकिन परिवार को उस रिक्तता को दूर करने में बहुत समय लगता है। यह रिक्तता कुछ मामलों में तो रिक्तता ही बनी रह जाती है। अचानक इस रिक्तता से परिवार में आए भूचाल और उस से उत्पन्न मानसिकता से निकलने में अन्तिम संस्कार से लेकर वर्ष भर तक की मृत्यु पश्चात परंपराएँ महति भूमिका अदा करती हैं। इस कारण से उन्हें निभाने में कोई भी व्यक्ति सामान्यतया कोई आपत्ति या बाधा भी उत्पन्न नहीं करता है।
इस आपत्ति के न करने की प्रवृत्ति ने धीरे धीरे हमारी स्वस्थ परंपराओं में अनेक अस्वस्थ कर्मकांडों को विस्तार प्रदान कर दिया है। जिन का न तो कोई सामाजिक महत्व है और न ही कोई भौतिक या आध्यात्मिक महत्व।
अस्थिचयन के उपरांत मृतात्मा को भोग की जो परंपरा है उसे निभाने में किसी को कोई आपत्ति नहीं, वह किसी एक व्यक्ति द्वारा संपन्न कर दी जाती है जो मृतक का “लीनियन एसेंडेंट” हो। बाकी तमाम लोगों को वहाँ यह सब करने दिया जाना उस परंपरा का अनुचित विस्तार है। जिस में समय और धन दोनों का अपव्यय भी होता है।
मुझे एक ऐसे ही अवसर पर जोधपुर में जाना हुआ था। वहाँ परिवार का केवल एक व्यक्ति “लीनियन एसेंडेंट” एक सहायक और पंडित ने यह परंपरा निभा दी थी। मैं और मेरे एक मित्र वहाँ जरूर थे लेकिन केवल अनावश्यक रूप से, और बिलकुल फालतू। वह एक डेढ. घंटा हम ने पास ही पहाड़ी की तलहटी में झील किनारे बने एक शिव मंदिर पर बिताया।
मेरा कहना यही है कि हम इन अनावश्यक परंपराओं से छुटकारा पा सकते हैं। भूतकाल में पाया भी गया है। लेकिन उस के लिए सामाजिक जिम्मेदारी को निभाना होगा और इस के लिए भी तैयार रहना होगा कि लोग आलोचना करेंगे।
समाज को आगे ले जाने की इच्छा से काम करने वाले आलोचना की कब परवाह करते हैं?
10 टिप्पणियां:
"हम इन अनावश्यक परंपराओं से छुटकारा पा सकते हैं।"
इसी विषय पर मेरा व्यंगात्मक आलेख तैयार पड़ा है..कभी हिम्मत न जुटा पाया..अगला तो वो ही पोस्ट करता हूँ आपको लिंकित करते हुए हिम्मत दिलाने के लिए.
आभार,,, उसे ही टिप्पणी मान लिजियेगा.
dvivedi ji ghabararana nahen chahiye. mere dada ne apane baap ko ek gadddhe men fenk diya tha marane ke baad. haalanki tab vah teerth yaatra men the.
फिर ...आयी न वही बात ?
आप सब मेरे को क्यों बोला करते थे कि..
बोलता है !
जहाँ तक हम समझते है लोग अपने आप ही वहां रुक जाते है बस एक-दूसरे की देखा देखी। ये दिखाने के लिए की वो उस परिवार के कितना नजदीक है. क्यूंकि परिवार के सदस्य किसी को भी रुकने के लिए नही कहते है।और हमारे ख़्याल से इससे मृतक के परिवार वालों को ही परेशानी होती है।
पूरे समाज को कटिबद्ध होने पड़ेगा.....ओर परिवार के सभी लोगो को विशवास में लेना होगा....
समाज में व्याप्त सारी कुरीतीयो की जड़ अशिक्षा है..
परन्तु अब ये परिवर्तन देखने को मिल रहा है.. चाहे धीमी गति से ही सही.. परिवर्तन हो रहे है..
बहुत सी कुरीतियां अपने आप टूट रही हैं, सोच बदल रही है, थोड़ा वक्त दिजिए
जी हाँ आगे ले जाने वाले परवाह नहीं करते लेकिन साथ में समस्या है की पीछे ले जाने वाले भी तो परवाह नहीं करते और उनकी संख्या ज्यादा है... जब तक आगे ले जाने वालों की संख्या ज्यादा न हो जाए... परिवर्तन होना सम्भव नहीं... पर धीरे-धीरे इस संख्या में वृद्धि हो रही है.
कर्मकाण्ड कम तो हो रहे हैं, पर रफ्तार धीमी है। और एक तरह के कर्मकाण्ड का स्थान दूसरे प्रकार के बेवकूफी के नये कर्मकाण्ड लेते जा रहे हैं - मसलन वेलेन्ताइन डे जैसे रिवाज!
hmm kuritiyan badal to rahi hai aaj ki nayi pidhi us sab ko nahi maan rahi hai
magar ye to kooot koot kar kitabon main doho main bhari padhi hai
kaha tak badal payenge
sochne ki baat hai
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