जयपुर धमाकों ने अनेक जानें ले लीं। अनेक घायल हुए, उन में अनेक ऐसे होंगे जो अब कभी भी सामान्य जीवन व्यतीत नहीं कर पायेंगे। अनेक ऐसे भी होंगे जो कदमों की दूरी से इन हादसों के दर्शक रहे होंगे, और उन के दिलों-दिमागों पर इन घटनाओं ने जो असर छोड़ा होगा वह शायद जीवन भर न जाए। हफ्तों, महीनों और बरसों तक उन के मस्तिष्क में वे धमाके गूँजते रहेंगे। शवों के परखच्चे दिखाई देते रहेंगे। अनेक होंगे जो हादसों की जगह जाने से न जाने कितने दिनों तक कतराते रहेंगे, और आने जाने के लिए लम्बे रास्ते चुनते रहेंगे। न जाने कितनी माँएँ होंगी जो अपने बच्चों को महिनों तक भीड़ भरे मंदिरों तक जाने से रोकती रहेंगी और मुहल्ले की हदों से आगे न जाने की हिदायत देती रहेंगी। बमों से निकले छर्रों का विश्लेषण पुलिस और फोरेंसिक विशेषज्ञ कर लेंगे। लेकिन इन हादसों से निकल कर दहशत के जो छर्रे अनेक लोगों के दिलों-दिमागों में जा जमे हैं, न तो उन का कोई विश्लेषण करेगा और न ही उन छर्रों से घायल मानुषों की कोई चिकित्सा हो पाएगी। इन घायलों को न कोई मुआवजा मिलेगा और न कोई सहानुभूति ही। वे दर्द के उन दरियाओं में बह निकलेंगे, जो न जाने कितने बरसों से मानुषों की बस्तिय़ों के बीच से गुजरते हैं। वे जगह बदल लेते हैं, गहरे और उथले हो जाते हैं, पर लगातार बह रहे हैं।
दर्द का एक दरिया उस घर में भी बह रहा होगा जिसे चलाने वाला ही हादसे के साथ चला गया है। मंदिर के सामने फूल-माला, प्रसाद और पूजा बेचने वाले की जगह खाली रहेगी, यही कोई तेरह दिन। इन तेरह दिनों में से किसी दिन उस दुकान (?) को खुलाने की रस्म पूरी होगी। पर क्य़ा दुकान खुल पाएगी? कौन बैठेगा उस पर? कोई महिला जो चूल्हे की जिम्मेदारियों को छोड़, घर चलाने की जिम्मेदारी उठाएगी। या कोई नाबालिग किशोर जिसे अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ेगी। जिस पर अपनी माँ के सिवा अपने भाई, बहनों और बूढ़े दादा-दादी की रोटी का भी भार आ पड़ा है। या कोई नहीं आएगा उस परिवार से वहाँ, या कोई और उस जगह को खरीद लेगा, अपना परिवार चलाने के लिए। धमाके की गूँज रोटी की जरूरत के नीचे दब जाएगी।
ऐसे में कोई मदद बाँट कर अपनी फोटो अखबार में छपवा रहा होगा। इधर दूसरे ही दिन से रक्तदान के कैम्प सजने लगे हैं। लोग माला पहन, तिलक लगवा कर टेण्ट हाउस के बिस्तरों पर लेट फोटो खिंचवा रहै हैं। दो चार दिन यह सब चलेगा। कुछ दिनों के लिए रक्त बैंकों के सामने लगे 'रक्त चाहिए' के होर्डिंगों पर से ब्लड ग्रुप गायब हो जाएंगे। लेकिन कुछ दिनों बाद सभी वापस दिखने लगेंगे।
हादसे की रात ही शहर बंद का ऐलान आ गया। दूसरे दिन सुबह के अखबारों में छपा भी। शहर शोक में बंद रहा या आतंक की छाया में? उत्तर सब जानते हैं, मगर कोई नहीं जानता। सुबह ही लोग पीले-केसरिया पटके कांधो पर सजाए टोलियों में निकले। जो दुकान खुली मिली उसी पर कहर बरपा गए। शहर पूरा बंद रहा। बंद स्वैच्छिक था? अखबारों में बंद की तस्वीरें हैं और खबरें भी। जयपुर के एक अखबार में हवामहल समेत सामने की वीरान सड़क का रंगीन छाया चित्र छपा है, बिना किसी चिड़िया और पिल्ले के। कैप्शन है "बंद के दौरान जयपुर"। इधर खबर यह भी छपी है कि इस इलाके में कर्फ्यू था, जो कुछ घण्टों की छूट के अलावा अब भी जारी है।
कोटा के बंद की खबरें यहाँ के सब अखबारों में हैं। आप खुद इस खबर का जायजा लें....................
पढ़ ली, खबर? ये है, आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई का चेहरा। छिपे आतंकवाद के सामने खुले आतंकवाद का प्रदर्शन। आप पकड़िये आतंकवाद को। यही लोग पैरवी कर रहे हैं, फिर से पोटा जैसा कानून लाने की। किस के खिलाफ उपयोग करेंगे इस कानून का। जो इन के बंद में दुकान खोलने की जुर्रत करेगा? या खुले आतंकवाद का सामना करने के लिए सामने आएगा?
9 टिप्पणियां:
'उन में अनेक ऐसे होंगे जो अब कभी भी सामान्य जीवन व्यतीत नहीं कर पायेंगे'- क्या बात है द्विवेदीजी!
मार्मिक, संवेदनशील पोस्ट ।
बहुत मर्मिक पोस्ट.
बिलकुल सही कहा आपने..
यही तो वो सम्यक नजरिया है जिसे सभी को अपनाने की जरूरत है। नहीं तो हम प्रचार के उपजे भ्रमों में ही जिंदगी काट देंगे और आतंकवाद कभी काबू में नहीं आएगा।
sir har bar bar bar kisi stone se takrane ke bad bhi usse attechment badhiya nahi hai,
do hi vikalp hai pahla rasta badl do ya fir
dam lagao aur use ukhad kar fainko
shiv
scam24inhindi
स्वभाविक, सारगर्भित आक्रोश
बात समझ में आती है। और वह आतन्कवाद इस आतन्कवाद को हवा देने का ही मकसद रखता है।
मौके की ताक में अंदर भी,बाहर भी।
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