वसंत ऋतु में प्रिया और प्रियतम का संग मिले तो कोई भी साथ को पल भर के लिए भी नहीं छोड़ना चाहता है। राजस्थान में वसंत के बीतते ही भयंकर ग्रीष्म का आगमन होने वाला है। आग बरसाता हूआ सूरज, कलेजे को छलनी कर देने और तन का जल सोख लेने वाली तेज लू के तेज थपेड़े बस आने ही वाले हैं।
ऐसे निकट भविष्य के पहले मदमाते वसंत में प्रियतम भी नहीं चाहता कि प्रिया का संग क्षण भर को भी छूटे। लेकिन प्रिया को ऐसे में भी ईशर-गौर (शंकर-पार्वती) का आभार करना स्मरण है। उस ने कुंवारे पन से ही उन से लगातार प्रार्थना की है कि उस की भी जोड़ वैसी ही बनाए जैसी उन की है। उस में भी उतना ही प्यार हो जैसा उन में है।
प्रियतम प्रिया को छोड़ना नहीं चाहता है। लेकिन प्रिया को ईशर-गौर (शंकर-पार्वती) का आभार करना है। वह अपने मधुर स्वरों में गाती है-
'भँवर म्हाने पूजण दो गणगौर'
यह उस लोक गीत का मुखड़ा है जो होली के दूसरे दिन से ही राजस्थान में गाया जा रहा था। कल राजस्थान में गणगौर का त्यौहार मनाया गया। इस गीत में पति को भँवर यानी भ्रमर की उपमा प्रदान की गई है। जो वसंत में किसी प्रकार से फूल को नहीं छोड़ना चाहता है।
जब प्रियतम को यह पता लगा कि उसे पाने का आभार करने के लिए प्रिया उससे कुछ समय अलग होना चाहती है तो वह भी उस के उस अनुष्ठान में सहायक बन जाता है। वह उसे सजने का अवसर और साधन प्रदान करता है।
हमारे यहाँ भी गणगौर मनाई गई परम्परागत रूप में। मेरी जीवन संगिनी शोभा ने तीन-चार दिन पहले ही चने और दाल के नमकीन और गेहूँ-गुड़ के मीठे गुणे बनाए। एक दिन पहले रात को मेहंदी लगाई। सुबह-सुबह जल्दी काम निपटा कर तैयार हो गई और पूजा की तैयारी की। गौरी माँ के लिए बेसन की लोई से गहने बनाए गए।
गणगौर की पूजा आम तौर पर घरों पर ही की जाती है। महिलाएं गण-गौर की मिट्टी की प्रतिमा बाजार से लाती हैं और होली के दूसरे दिन से ही उस की पूजा की जाती है। गीत गाए जाते हैं। कुँवारी लड़कियाँ इस पूजा में रुचि लेकर शामिल होती हैं। अनेक मुहल्लों में किसी एक घर में गणगौर ले आई जाती है और उसी घर में मुहल्ले की महिलाएं एकत्र हो कर पूजा करती हैं। मेरी पत्नी दो वर्षों से मुहल्ले के स्थान पर मंदिर में जा कर शिव-पार्वती की पूजा करती है। वहाँ उस दिन दर्शनार्थियों का अभाव होता है। पूजा मजे में आराम से की जा सकती है। वह कहती है कि वह पूजा करनी चाहिए जिस से मन को शांति मिले। सुबह साढ़े दस बजे हम उन्हें ले कर मंदिर गए। वे पूजा करती रहीं। हम वहाँ पुजारी जी से बतियाते रहे।
बेटी मुम्बई में है। वहाँ से खबर है कि उस ने भी उसी तरह से पूजा की जैसे यहाँ उस की माँ ने की। उस ने भी बेसन के गहने बनाए और पास के मंदिर में पार्वती की प्रतिमा को सजा कर पूजा की। दोनों ने ही मंदिरों में पूजा की और दोनों ही मंदिरों में पूजा करने वाली अकेली थीं।
मेरे जन्म स्थान में गणगौर धूमधाम से मनाई जाती थी। गणगौर वहाँ केवल महिलाओं का त्योहार नहीं था। अपितु उसने पूरी तरह से वंसंतोत्सव का रूप लिया हुआ था। उसके बारे में किसी अगली पोस्ट में...........
8 टिप्पणियां:
मैने बून्दी के किले में ढ़ेरों भित्ति चित्र देखे थे। कुछ तो समय के साथ खराब हो रहे हैं, पर अधिकांश अच्छी अवस्था में हैं। उनमें अधिकांश की थीम थी गणगौर उत्सव।
लगता है हाड़ोती का सबसे महत्वपूर्ण सांस्कृतिक पक्ष है गणगौर।
इस लेख से यादें ताजा हो आयीं।
हमें यहां पता ही नही चला कि कब गणगौर आई और चली गई। गुणा-मूंगडी और शक्करपारे भी नही मिले :(
रायपुर में राजस्थान के लोग बहुत आकर बसे हुए हैं सो यहां भी गणगौर उत्सव होना ही है, अखबारों से पता चलता है कि बढ़िया मनाया गया गणगौर!!
गणगौर आई और चली भी गई हमें तो पता भी नहीं चला। गाँव छूटने के बाद बस यह गीत गुनगुना कर ही मन को संतोष दे देते हैं बाकी कहां बनते हैं वह पकवान और कहां है शहरों में अब वो त्यौहार..?
खेलण दो गिणगौर भँवर म्हाने...
माथा पे मेमद ल्याय आलीजा मारी रखड़ी रतन जड़ाय.. :)
हमारे लिए नई और रोचक जानकारी है. आपको और शोभा जी को पर्व पर बधाई... गेहूँ गुड़ के मीठे गुणे से सत्तू याद आ गया. कभी बचपन में नानी के घर जाकर खाते थे.
मां के साथ बचपन से ही गणगौर की पूजा और व्रत किया है, सचमुच फ़लस्वरूप पतिदेव भोलेनाथ जैसे ही मिले.ससुराल यू.पी में होने की वजह से वहं गणगौर नहीं मनाई जाती,किन्तु सन्स्कारवश बहुत ही शौक से पूजा करती हूं, अकेले ही.
दिनेशजी , बहुत ही शानदार पोस्ट थी। आनंद आया । संस्कृति से जुड़ी ऐसी ही बातें और साझा कीजिए ।
गणगौर के बारे में सुना था अब जानकारी भी मिली , धन्यवाद ।
घुघूती बासूती
एक टिप्पणी भेजें