यह श्री बीजी जोशी का आलेख है। वे तीस वर्षों से भी अधिक समय से लगातार विश्व हॉकी के अध्येता और रिकॉर्ड संग्रह कर्ता हैं। हॉकी का कोई भी खोया हुआ रिकॉर्ड सिर्फ और सिर्फ बीजी जोशी से ही मिल सकता है, ऐसा विश्व हॉकी में माना और जाना जाता है। वे तीस वर्षों से लगातार हॉकी पर लिख रहे हैं। भारतीय हॉकी की अधोगति और ओलम्पिक हॉकी से बाहर होने से उन से अधिक वेदना किसे हुई होगी। अपनी इस वेदना को उन्होंने 11 मार्च को नई दुनियाँ, इन्दौर में प्रकाशित आलेख में व्यक्त किया है। उन्हों ने यह आलेख अनवरत पर प्रकाशन के लिए विशेष रुप से अनुमत किया है। उन का कहना है कि " ईमानदार चयन नहीं करना हमारा चरित्र हो गया है, तो भारत में हॉकी के जीवित रहने की गुंजाइश ही कहाँ शेष है?" -दिनेशराय द्विवेदी
धृतराष्ट्र हैं हॉकी के कर्ताधर्ता
(बीजी जोशी)
हॉकी और भारत एक-दूसरे के पर्याय नहीं रहे। लगातार 18 मर्तबा ओलिम्पिक खेल कर रिकॉर्ड 8 स्वर्णपदक जीती नीली जर्सी के बगैर आगामी बीजिंक ओलिम्पिक मैं हॉकी खेल का अचंभा होगा। 1928 के एम्सटर्डम ओलिम्पिक से निरंतर हॉकी प्रेमियों को अभिभूत करने वाली भारतीय बाजीगरी वहाँ नहीं होगी।
हम भारतीयों की अपने-पराए के चरित्र की पराकाष्ठा ने यह दिन दिखाया है। राष्ट्र की प्रतिष्ठा के आगे निजी समक ने यह काला अध्याय सिख दिया है। स्लेप हिट मार कर ढी में खलबली मचाना, फ्री हिट पर काहिन स्लॉथ शॉट से शर्तिया गोल अवसर बनाना, पेनल्टी कॉर्नर पर ड्रेग फ्लिक से गोल दागना व विपक्षी पेनल्टी कॉर्नर को निष्फल करने की चार विधाओं में दक्ष ऑल राउण्डर संदीपसिंह टीम में नहीं लिए गए।
घाघ टीमों के विरुद्ध अनुभव भरा कौशल ही जीत लाता है, जंग लगी बंदूक से लड़ाई जीती नहीं जाती। ‘सब चलता है’ वाला नजरिया आत्मघाती बना। खेल जीवन की सर्वोच्च साधना ओलिम्पिक स्वर्ण के परिप्रेक्ष्य में अन्य देशों में भी हॉकी पल्लवित है। जनवरी की ही प्रीमियर हॉकी लीग में मैन ऑफ द टूर्नामेंट बने अर्जुन हलप्पा, श्रेष्ठतम गोली भरत क्षेत्री व टॉप स्कोरर दीपसिंह राष्ट्रीय टीम की धरोहर नहीं बन पाए। सच है हॉकी के कर्ताधर्ता धृतराष्ट्र हैं।
मैच गोल मार कर जीते जाते हैं। सोमवार को ब्रिटेन के विरुद्ध भी दोनों टीमों को समान पाँच पेनल्टी कॉर्नर मिले। प्रशिक्षक कारवाल्हो के चहेते रघुनाथ से गोल बने नहीं। लंदन विश्वकप (1986) में अनुभवहीन टीम ने आखिरी पायदान छुई थी। तब के प्रशिक्षक हरमीक सिंह व अजीतपाल सिंह आज मुख्य चयनकर्ता हैं। वहाँ खेले जो किम कारवाल्हो मुख्य प्रशिक्षक हैं। जो किम ने संदीप को नहीं लेने का जोखिम लेकर भारतीय हॉकी की समाप्ति में खुद को मुलजिम बना लिया है।
लंदन ओलम्पिक (1948) में ब्रिटेन को हराकर आजाद भारत ने पहला स्वर्ण पदक जीता था। भारत को हराने में ब्रिटेन को 37 वर्ष लगे थे। कराची चैम्पियंस ट्रॉफी (1986) में कारवाल्हो व अजीज ने पेनल्टी स्ट्रोक गँवा कर ब्रिटेन से 0-1 से हार कबूल की थी। अभी सैंटियागो में पुनः इन खराब तकदीर वालों ने भारत की स्याह तस्वीर पेश कर हॉकी प्रेमियों को गहरा सदमा दिया है। भारतीय हॉकी में अमृत की बूंद बची नहीं है। हलाहल कौन पिएगा।
- (नई दुनियाँ, इन्दौर से साभार)
5 टिप्पणियां:
हॉकी की दुर्दशा पर बड़ा दुख हुआ चाहकर भी कुछ नही लिख पाये क्योंकि गालीयों के सिवा कोई शब्द ही नही मिल रहे थे, १५ साल से पुलिसिया डंडा जो पड़ा है हॉकी के ऊपर।
क्या कहें तरूण साहब से सहमति है बस!
इस हलाहल का भी बही हक दार हे जिन्होने हाकी को यह दिन दिखाये हे.
बहुत अच्छा लेख है ..
काश कहीं से कोई आकर आज हलाहल पी जाए
मरती हॉकी फिर से जीने की कुछ आश सजा पाये
sahi hai....
एक टिप्पणी भेजें