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शनिवार, 9 जून 2018

बिकाऊ-कमाऊ की जगह कैसे हो सब के लिए मुफ्त शिक्षा?



यूँ तो हर कोई सोचता है कि एक अखबार खबरों का वाहक होता है। लेकिन जब मैं आज सुबह का अखबार पढ़ कर निपटा तो लगा कि आज का अखबार खबरों के वाहक से अधिक खुद खबर बन चुका है। अखबार के पहले तीन पृष्ठ पूरी तरह विज्ञापन थे। इन में जो विज्ञापन थे वे सभी कोचिंग कालेज, निजी शिक्षण संस्थानों और निजी विश्वविद्यालयों के थे। ये सभी विज्ञापन ऐसे नहीं थे जैसे अक्सर विद्यार्थियों की भर्ती की सूचना के लिए निकलते हैं। ये विज्ञापन रंगे –चुंगे थे, बिलकुल वसन्त में पौधों और वृक्षों पर खिले उन फूलों की तरह जो तरह तरह के कीटों को इसलिए आकर्षित करते हैं कि कीट आएँ और उन में परागण की प्रक्रिया को पूरा कर जाएँ, वे पौधे और वृक्ष जल्दी ही फलों से लद कर अमीर हो जाएँ। 

आज के अखबार ने खुद अपनी हालत से यह खबर दी है कि, खबरों से बढ़ कर व्यवसाय है, किसी भी वस्तु की गुणवत्ता से अधिक मूल्य उस की बिकने की क्षमता में है। कोई भी व्यवसायी बड़ा व्यवसायी तब है जब वह बेहतरीन मालों के मुकाबले अपना सड़ा हुआ माल लोगों को सफलता से बेच लेता है। गुणवत्ता वाला माल तो कोई भी बेच सकता है उस में कोई कला नहीं। असली कला तो इस बात में है कि बिना गुणवत्ता वाला बेचा जा सके। जीवन के लिए बेहद जरूरी सामान बेच डालने में कोई कला नहीं है, कला इस बात में है कि कतई गैर जरूरी सामान बेजा जाए और खरीददार उसे जरूरी चीजों पर तरजीह दे कर खरीद ले। यही वे सर्वोपरि मूल्य है जो पूंजीवाद ने विगत पचास सालों में स्थापित किए हैं।

आज से साठ बरस पहले, जब वाकई नेहरू का जमाना था। तब एक बच्चा बिना स्कूल में दाखिला लिए रोज बस्ता ले कर स्कूल जाता था, इस लिए कि वह अभी पूरे चार बरस का भी नहीं था और स्कूल में दाखिला केवल पाँच बरस का पूरा होने पर ही हो सकता था। वह पूरे बरस स्कूल जाता रहा। एक अध्यापक ने उसे टोका कि उस का नाम रजिस्टर में नहीं है तो वह क्लास में कैसे बैठा है। बच्चा रुआँसा सा कक्षा के बाहर आ कर खड़ा हुआ तो हेड मास्टर ने राउंड पर देख लिया और सारी बात पता लगने पर उस अध्यापक को डाँट खानी पड़ी कि स्कूल अध्ययन के लिए है यदि कोई बिना दाखिला लिए भी क्लास में पढ़ने के लिए बैठता है तो उसे वहाँ से हटाने का कोई अधिकार नहीं है। आज का जमाना दूसरा है, यदि फीस नियत दिन तक जमा नहीं की जाए तो विद्यार्थी को अगले दिन से क्लास में बैठने की इजाजात नहीं होती। 

उच्च शिक्षा की स्थिति और खतरनाक है। हमारे जमाने में एक ठेला चलाने या मंडी में माल ढोने वाला मजदूर यह सपना देख सकता था कि वह उस के बेटे बेटी को डाक्टर या इंजिनियर बना सकता है। उस का बच्चा किसी सरकारी स्कूल में पढ़ कर भी किसी मेडीकल या इंजिनियरिंग कालेज में दाखिला पा सकता था, पाता था और पढ़ कर डाक्टर इंजिनियर भी बनता था। आज स्थिति बिलकुल विपरीत है। तीन साल पहले मेरे परिवार के एक बच्चे ने मेडीकल एंट्रेंस के लिए तैयारी करना शुरू किया था तब हम भी सोचते थे कि वह एडमीशन पा लेगा। लेकिन प्रवेश परीक्षा पास कर लेने पर और कालेजों में कुल खाली सीटों की संख्या के बराबर वाली पात्रता सूची में आधे से ऊपर नाम होने पर भी स्थिति यह रही कि कालेज की फीस भर पाना मुमकिन नहीं था। मित्रों ने कहा कि उसे एक साल और तैयारी करनी चाहिए जिस से वह मेरिट में ऊपर चढ़े और किसी कम फीस वाले कालेज में दाखिला ले सके। लेकिन उस ने मना कर दिया और अपने ही शहर के पीजी कालेज में बीएससी में दाखिला ले लिया। मेरे पूछने पर उस ने बताया कि सरकारी कालेज की फीस इतनी है कि उसे चुकाने में परिवार की कुल आमदनी भी पर्याप्त नहीं है। फिर बाकी घर कैसे चलेगा। 

अब हालात ये हैं कि डाक्टर और इंजिनियर बनने के लिए पहले एक बच्चा साल दो साल कोचिंग करे। उस में दो-चार लाख खर्च करे। फिर एडमीशन के लिए भटकता फिरे कि उस की हैसियत का कोई कालेज है कि नहीं। एक मध्यम वर्गीय परिवार की पहुँच से शिक्षा केवल इसलिए हाथ से निकल जाए कि वह फीस अदा नहीं कर सकता तो समझिए कि शिक्षा सब से अधिक बिकाऊ और कमाऊ कमोडिटी बन गयी है। हर साल महंगी से और महंगी होती जा रही है। वह अब केवल उच्च और उच्च मध्यम वर्ग मात्र के लिए रह गयी है। 

आजाद भारत के आरंभिक सालों में एक सपना देखा गया था कि जल्दी ही हम शिक्षा और स्वास्थ्य को पूरी तरह निशुःल्क कर पाएंगे। लेकिन वह सपना आजादी के पहले तीस सालों में ही भारतीय आँखों से विदा हो गया। यह नेहरू के बाद की राजनीति की देन है। पिछले पाँच सालों की राजनीति ने उसे पूरी तरह कमाऊ-बिकाऊ कमोडिटी बना डाला है। आज जो राजनीति चल रही है वह इस पर कतई नहीं सोचती। शिक्षा राजनैतिक विमर्श से दूर चली गयी है। माध्यमिक शिक्षा पर कुछ काम दिल्ली में दिल्ली की राज्य आप पार्टी की सरकार ने पिछले दिनों जरूर किया है उस ने अपने अधिकतम संसाधनों का उपयोग किया। उस की उपलब्धियाँ बहुत महत्वपूर्ण हैं। लेकिन वे भी ऊँट के मुहँ में जीरा मात्र है। इस से देश का काम नहीं चल पाएगा। 

आज जरूरत इस बात की है कि राजनीति के सबसे महत्वपूर्ण सवालों में शिक्षा का सवाल शामिल हो और लक्ष्य यह स्थापित किया जाए कि अगले दस सालों में हम देश के नागरिकों को संपूर्ण मुफ्त शिक्षा उपलब्ध करा सकें। यह साल कुछ महत्वपूर्ण प्रान्तों की विधानसभाओँ और लोकसभा चुनने का साल है। इस साल में राजनीति रोहिणी के सूरज की तपन की तरह अपने उच्च स्तर पर होगी। देखते हैं राजनीति की इस गर्मी में सब के लिए सारी शिक्षा मुफ्त का नारा कहीं स्थान पाता है या नही? या फिर वह ताल, तलैयाओँ, झीलों और नदियों की तरह सूख जाने वाला है?

शनिवार, 14 अप्रैल 2018

मेष संक्रान्ति, बैसाखी, बोहाग बिहु, पुथण्डु, विशु और बगाली नववर्ष पोइला बैशाख

ज 14 अप्रैल 2018 को बैसाखी (वैशाखी) है। हालांकि अधिकांश वर्षों में यह दिन 13 अप्रेल को होता है, क्योंकि यह सूर्य की मेष संक्रांति के दिन होता है। आज हम जानते हैं कि हमारी पृथ्वी निरन्तर एक अंडाकार कक्षा में निरन्तर सूर्य की परिक्रमा करती रहती है। इस से होता यह है कि आकाशीय गोल (खगोल) के दूरस्थ तारों व नीहारिकाओं द्वारा निर्मित लगभग अपरिवर्तनीय पृष्ठ भूमि में सूर्य चलते हुए दिखाई देता है। हर गोल नाप में 360 अंश (डिग्री) का होता है। हमने अपने खगोल के 360 अंशों को हमने अपनी सुविधा के लिए 30-30 अंशों के 12 बराबर के हिस्सों में बाँट रखा है। हर हिस्से को हमने एक नाम दिया हुआ है यही 12 हिस्से मेषादि राशियाँ कहलाती हैं। हमें सूर्य और अन्य सभी ग्रह और चंद्रमा इन्हीं 12 राशियों में चलते हुए दिखाई देते हैं। सूर्य की एक परिक्रमा को ही हम वर्ष के रूप में पहचानते हैं। हर वर्ष पहली जनवरी को, मकर संक्रांति के दिन और बैसाखी के दिन सूर्य खगोल के इस राशि चक्र में उसी स्थान पर होता है जहाँ पिछले वर्ष था। इस राशि चक्र में हम मेष राशि को सब से पहले और मीन राशि को सब से बाद में रखते हैं। इस तरह सूर्य हमें मेश राशि के प्रारंभ से गति करता हुआ अंत में मीन राशि से होता हुआ उसी प्रारंभिक बिन्दु पर पहुंच जाता है जहाँ से वह चला था। यह चक्र मेष राशि के आरंभिक बिन्दु से चला था वहीं आ कर समाप्त हो जाता है, अपने खगोल के इस स्थान को हम मीन राशि का समापन बिन्दु भी कह सकते हैं। जिस दिन सूर्य इस बिन्दु को पार करता है उसे हम ज्योतिष की भाषा में मेष की संक्रांति कहते हैं। भारतीय संदर्भ में हम मेष की संक्रांति के दिन से सर्वग्राही वर्ष का आरंभ मान सकते हैं। यदि हम भारतीय वैज्ञानिक रूप से अपना वर्षारंभ चुनना चाहें तो यही दिन सर्वाधिक रूप से उपयुक्त है। इस तरह यह दिन संपूर्ण भारत और भारतवासियों के लिए नववर्ष का दिन हो सकता है। 


यह एक संयोग ही है कि इस दिन हमारा पंजाब प्रान्त और संपूर्ण सिख समुदाय बैसाखी के रूप में मनाता है। यह सौर चैत्र मास का अन्तिम दिन तो होता ही है, यह सौर बैसाख मास का पहला दिन भी है। लेकिन संक्रान्ति का समय तो लगभग दो मिनट का होता है क्यों कि सूर्य के अयन को किसी भी खगोलीय बिन्दु को पार करने में लगभग इतना ही समय लगता है। पृथ्वी को सूर्य की एक परिक्रमा पूरी करने में 365.25 दिन के लगभग का समय लगता है। इसी कारण हम ग्रीगेरियन कैलेंडर में चौथे वर्ष एक दिन 29 फरवरी को रूप में बढ़ा देते हैं। इस कारण संक्रांति की घटना 24 घंटों के दिन में कभी भी घटित हो सकती है। कभी वह अर्धरात्रि के पूर्व या पश्चात हो सकती है तो कभी वह सूर्योदय या सूर्यास्त के ठीक पहले या ठीक बाद हो सकती है। भारत में दिन के आरंभ की अवधारणा सूर्योदय से होती है जब कि संपूर्ण विश्व अब दिन का आरंभ मध्यरात्रि से मानने लगा है। 



यदि हम किसी सूर्य संक्रान्ति के दिन को वर्षारंभ के रूप में मानें तो जिस दिन संक्रांति की यह घटना होती है उस दिन संक्रान्ति के पूर्व पिछला वर्ष होगा और संक्रान्ति के पश्चात नव वर्ष। इस तरह यह दिन पुराने वर्ष का अंतिम और नए वर्ष का पहला दिन होता है। यदि हम यह चाहें कि हमारे वर्ष का पहला दिन पूरी तरह नए वर्ष का होना चाहिए तो हमारा नव-वर्ष वर्षान्त और वर्षारम्भ के अगले दिन होगा। भारतीय जब नव संवत्सर को नव वर्ष के रूप में मनाते हैं तो वह वास्तव में नव वर्ष आरंभ होने का अगला दिन होता है। क्यों कि यह प्रतिपदा को मनाया जाता है। भारतीय पद्धति में कोई भी तिथि पूरे दिन उस दिन मानी जाती है जिसमें सूर्य उदय होता है। यदि इसी मान्यता के आधार पर हम सौर नववर्ष मानें तो यह मेष की संक्रांति के अगले दिन होगा, अर्थात बैसाखी के दिन के बाद का दिन हमारा नव वर्ष होगा। यह संयोग नहीं है कि हमारे बंगाली भाई बैसाखी के बाद वाले दिन को अपने नववर्ष के रूप में मनाते हैं। इसे वे अपना नववर्ष अथवा पोइला बैशाख कहते हैं। 


मेष की संक्रान्ति से जुड़े त्यौहार संपूर्ण भारत में किसी न किसी रूप में मनाए जाते हैं। इस वर्ष 14 अप्रेल के इस दिन को जहाँ पंजाब और सिख समुदाय बैसाखी के रूप में मना रहा है वहीं तमिलनाडु इसे पुथण्डु के रूप में, केरल विशु के रूप में, आसाम इसे बोहाग बिहु के रूप में मना रहा है। तमाम हिन्दू इसे मेष संक्रान्ति के रूप में तो मनाते ही हैं। 


आजादी के उपरान्त भारत ने अपना नववर्ष वर्नल इक्विनोक्स वासंतिक विषुव के दिन 22/23 मार्च को वर्ष का पहला दिन मानते हुए एक सौर कलेंडर बनाया जिसे भारतीय राष्ट्रीय पंचांग कहा गया। यह राष्ट्रीय पंचांग सरकारी कैलेंडर के अतिरिक्त कहीं भी स्थान नहीं बना सका। क्यों कि यह किसी व्यापक रूप से मनाए जाने वाले भारतीय त्यौहार से संबंधित नहीं था। यदि बैसाखी के दिन या बैसाखी के दिन के बाद के दिन से हम राष्ट्रीय सौर कैलेंडर को चुनते तो इसे सब को जानने में बहुत आसानी होती और यह संपूर्ण भारत में आसानी से प्रचलन में आ सकता था। यदि हमारी संसद चाहे तो इस काम को अब भी कर सकती है।किसी भी त्रुटि को दूर करना हमेशा बुद्धिमानीपूर्ण कदम होता है जो चिरस्थायी हो जाता है। हम चाहें तो इस काम को अब भी कर सकते हैं। 


फिलहाल सभी मित्रों को बैसाखी, बोहाग बिहु, पोइला बैशाख, पुथण्डु और विशु के साथ साथ मेष संक्रान्ति की शुभकामानाएँ और बंगाली मानुषों को नववर्ष की शुभकामनाएँ जिसे वे कल मनाएंगे।

मंगलवार, 13 मार्च 2018

वे सब जल्दी ही साथ साथ लड़ेंगे

ह दिनों चलते रहने से पैरों में पड़े छाले लिए जब हजारों हजार किसान मुम्बई शहर पहुँचे तो वहाँ की जनता ने उन का स्वागत किया। किसी ने फूल बरसाए, किसी ने उन्हें पीने का पानी पहुँचाया, किसी ने खाना खिला कर इन किसानों से अपना रिश्ता बनाना चाहा।

आखिर क्या था उन किसानों के पास? वे तो अपने फटे पुराने वस्त्रों के साथ चल पड़े थे।कईयों के जूते चप्पलों ने भी रास्ते में साथ छोड़ दिया था। किसी ने उन्हें पहनाया तो उन्हों ने उसे पहन लिया, कोई उन्हें दवा पट्टी करने लगा। किसानों ने भी इस स्वागत का आल्हाद के साथ उत्तर दिया।

शहर के मेहनतकश गरीब जब गाँवों से आते किसानों में अपने रिश्ते तलाश रहे थे, नए रिश्ते बना रहे थे तब उन के जेहन में कहीं न कहीं वह गाँव भी था जहाँ उन के पूर्वज बरसों रहे। उन में से कई अब भी गाँव में हैं। वे एक दूसरे को पहचान रहे थे, जैसे ही आँखों में पहचान नजर आती वे गले मिलते थे।

ये पहचान वर्गों की पहचान थी। वे पहचान रहे थे कि शहर में आ जाने से खून पूरी तरह से शहरी नहीं हो जाता है उन में बहुत सा गाँव वाला खून भी बचा रहता है। गाँव वाले भी देख रहे थे कि इन शहरियों में तो अब भी आधे से कहीं ज्यादा खून गाँव का है। भले ही शहरों में आ कर वे नौकरी करने लगे हों लेकिन उन का मूल तो वही गाँव है। शहर वाले तो ग्रामीणों को बिलकुल अपने बच्चों जैसे लगे।

इन दृश्यों को देख कर जनता के खेतों में अपनी राजनीति की फसल उगाने में लगे लोग भी, तिरंगे, भगवे, पीले, नीले निशान लिए किसानों का स्वागत करने महानगर के प्रवेश द्वार से भी आगे तक आ गए थे। सब ने किसानों को कहा कि वे सरकार से लड़ाई में उन के साथ हैं। इतना देखने पर सरकार को भी शर्म आई। उसने अपना एक दूत भेजा और कहा कि वे किसानों की मांगों पर गंभीर हैं और उन से बात करेंगे।
बच्चों की पढ़ाई और आराम में खलल न हो, नगर का यातायात न रुके इस के लिए किसान बिना रुके चलते ही रहे और रात को ही मुम्बई पहुंँच गए। अगले दिन सरकार ने बातचीत की, किसानों की अधिकांश मांगें मानने की घोषणा कर दी गयी। यहाँ तक कि सरकार ने किसानों को घरों तक वापस पहुँचाने के लिए दो स्पेशल ट्रेन भी लगा दी। किसानों का महानगर में बने रहने को सरकार ने बड़े खतरे के रूप में देखा।

किसान सरकार की बात मान गए, पर न जाने क्यों फिर भी उन्हें विश्नास है कि सरकार अपनी बातों से मुकर जाएगी और कोई न कोई खेल दिखा देगी। वे बस सरकार की हरकत देखेंगे। खुद को और मजबूत बनाएंगे, अपने मित्र बढ़ाएंगे। वे जानते हैं कि उन्हें शहर में उन के खोए हुए बच्चे मिल गए हैं। वे भी शहर में रहने वाली इस सरकार पर निगाह रखेंगे। जैसे ही कुछ गड़बड़ दीखेगी उन्हें बताएंगे। ये शहरी बच्चे भी सोच रहे हैं कि वे भी अब किसानों के साथ कंधे से कंधा मिलाएंगे, वे भी एका बना कर मजबूत बनेंगे। वे सब जल्दी ही साथ साथ लड़ेगे।

शनिवार, 9 दिसंबर 2017

शट-अप


एक सच्ची सी 'लघुकथा'

मारे मुहल्ले की एक औरत बहुत लड़ाकू और गुस्सैल थी। अक्सर घर में सब से लड़ती रहती। सास, पति, ननद, देवर, बेटे, बेटी कोई भी उस की लड़ाई से महरूम नहीं था। अब इस आदत की औरत पड़ौसियों से कैसा व्यवहार करताी होगी इस का अनुमान तो आप लगा सकते हैं। उस के दोनों पड़ौसियों से रिश्ते सिर्फ और सिर्फ लड़ाई के थे। हमारा घर उस के घर से दो घर छोड़ कर था। इस कारण इस लड़ाई की मेहरबानी से हम बचे हुए थे। कभी राह में मिलती तो मैें तो भाभीजी प्रणाम कर के खिसक लेता। कभी कभी मेरी उत्तमार्ध शोभा को मिल जाती तो बातें करती। एक बार उसे लगा कि शोभा ने किसी से उस की बुराई कर दी है। तो वह तुरन्त लड़ने हमारे घर पहुँच गयी।

ये वो वक्त था जब मैं अदालत गया हुआ था और शोभा घर पर थी। वह आई और गेट पर हमारी घंटी बजा दी। जैसे ही शोभा ड्राइंग रूम से बाहर पोर्च में आयी उस ने अपना गालियों का खजाना उस पर उड़ेल दिया। शोभा को न तो गाली देना आता है और न ही लड़ना। वह यह हमला देख कर स्तब्ध रह गयी। उसे कुछ भी न सूझ पड़ा कि वह इस मुसीबत का सामना कैसे करे। गालियां सुन कर गुस्सा तो आना ही था गुस्से में उस ने अपने दाहिने हाथ की तर्जनी पड़ोसन को दिखाई और जोर से बोली शट-अप।

पड़ोसन शट-अप सुन कर हक्की बक्की रह गयी। शोभा से उसे ऐसी आशा न थी। वह तुरन्त मुड़ी और सड़क पर जा कर चिल्लाने लगी। मुझे फलाँनी ने शट-अप कह दिया, वह ऐसा कैसे कह सकती है? ऐसा उसे आज तक किसी ने नहीं कहा। वह बहुत बदतमीज है। उस की इस तरह चिल्लाने की आवाज सुन कर मोहल्ले की औरतें बाहर आ कर पड़ोसन को देखने लगी। सारा वाकया समझ कर सब हँसने लगी। यहाँ तक कि जब बाद में उस के परिजनों को पता लगा तो उन का भी हँसने का खूब मन हुआ। पर लड़ाई के डर से हंसी को पेट में ही दबा गए। आखिर उस लड़ोकनी पड़ोसन को किसी ने शट-अप तो कहा।

मुझे शाम को यह खबर शोभा ने सुनाई तो मुझे भी खूब हँसी आई। इस घठना ने मेरी ही नहीं बल्कि उस मुह्ल्ले के लगभग सभी लोगों की स्मृति में स्थायी स्थान बना लिया है।

  • दिनेशराय द्विवेदी

मंगलवार, 5 दिसंबर 2017

किस का कसूर

कविता

किस का कसूर 

दिनेशराय द्विवेदी 

जब कोई अस्पताल
मरीज के मर जाने पर भी
चार दिनों तक वेंटिलेटर लगाकर
लाखों रुपए वसूल लेता है
तब किसी डॉक्टर का कोई कसूर नहीं होता।


कसूर होता है अस्पताल का
जिसमें कारपोरेट प्रबंधन होता है
बैंकों से उधार ली गई वित्तीय पूंजी लगी होती है,और
न्यूनतम संभव वेतन पर टेक्नीशियन काम कर रहे होते हैं

वित्तीय पूंजी का स्वभाव यही है
वह अपने लिए इंसानों का खून मांगती है
खून पीती है और दिन-रात बढ़ती है
सारा कसूर इसी वित्तीय पूंजी का है

क्या है यह वित्तीय पूंजी?
जो रुपया हम जैसे छोटे छोटे लोगों ने
अपनी मासिक तनख्वाह से
हाड़तोड़ मेहनत की कमाई से
पेट काटकर बचाया, और
बुरे वक्त के लिए बैंकों में जमा कराया
वहीं वित्तीय पूंजी है

वही रुपया बैंकों ने कंपनियों को
उद्योगों और अस्पतालों को ऋण दिया
और वही ऋणीअब हमारे लिए
बुरा वक्त पैदा कर रहे हैं

इन बैंकों पर सरकारों का नियन्त्रण है
सरकारों पर पूंजीपतियों का
इसलिए किसी डॉक्टर का कसूर नहीं है
अब आप जानते हैं कसूर किसका है?
04.12.2017

रविवार, 3 दिसंबर 2017

व्यायाम किया और दर्द गायब

फिस मुश्किल से आधा किलोमीटर था, साथ में हमेशा बहुत सारी फाइल्स होने और रास्ते में ट्रेफिक न होने के कारण पैदल न जा कर अपनी एक्टिवा से जाता था। वापसी में एक दिन उसे बहुत सारी मोटरसाइकिलों के बीच घिरा पाया। निकालने को मशक्कत करनी पड़ी। पीछे से उठाना भी पड़ा। बस यह पीछे से उठाना भारी पड़ गया। अचानक कमर में कुछ चटखा और लगा कि रीढ़ की हड्डी में कुछ हुआ है। शाम तक साएटिका जैसा दर्द होने लगा। मैं ने अपने एक सरजिकल एड कंपनी के सेल्समेन मित्र को बताया तो उसने कमर पर बांधने की बैल्ट लाकर दे दी जो रीढ़ को सीधा रखने में मदद करती है। मैं उसे बांधने लगा। ुकुछ दिन में कमर सामान्य रहने लगी। लेकिन मैं बैल्ट को कम से कम अदालत जाने के पहले से घर लौटने तक बांधने लगा। 

कोई महीने भर पहले फिर ऐसा हुआ की एक्टिवा को पीछे से उठा कर हटाने की नौबत आ गयी। पहले तो मैं ठिठका, फिर आसपास देखा। ऐसा कोई नहीं था जिस से मैं निस्संकोच मदद के लिए बोलता। कमर पर बेल्ट भी बंधी थी। आखिर खुद ही एक्टिवा को उठा कर निकाला। फिर वैसा ही चटखा हुआ। फिर से साएटिका जैसा दर्द होने लगा। कभी तो इतना कि चलते चलते दो कदम रखना भी दूभर हो जाता। रुकना पड़ता और दर्द हलका होेने पर आगे चलता। अब तो नौबत यह हो गयी कि सुबह शाम एक एक गोली दर्द निवारक लेनी पड़ने लगी।

इसी बीच किसी संबंधी के रोग के सम्बन्ध में इंटरनेट काफी सर्च किया और समाधान तलाशे। फिर ध्यान आया कि साएटिका के लिए भी तो समाधान वहाँ मिल सकता है। मैं ने तलाश करना आरंभ किया। कई विकल्प वहाँ थे जिन में एक विकल्प नियमित व्यायाम का था। व्यायाम का उल्लेख देखते ही मुझे याद आ गया कि नियमित रूप से प्रातः भ्रमण करीब डेढ़ वर्ष से बन्द सा है और व्यायाम भी। प्रातः भ्रमण तो शायद इन दिनों मेरे लिए संभव नहीं लेकिन व्यायाम तो मैं कर ही सकता था। मैं ने साएटिका के व्यायाम देखे तो पता लगा कि ये तो वही साधारण व्यायाम हैं जिन्हें में रोज करता रहा था। 

कल रात मैंने सोने के पहले बिस्तर पर कुछ व्यायाम किए तो पाया कि पेशियाँ वैसी स्टिफ नहीं हैं जैसी होने की मुझे संभावना थी। शायद यह दिन भर अदालत में अपने व्यवसायिक कामों के लिए घुटनों में दर्द होने पर भी चलते फिरते रहने के कारण था जो अब मेरी आदत सी बन गयी है। 

सुबह उठ कर मुश्किल से पाँच-सात मिनट साएटिका के लिए बताए गए व्यायाम किए। स्नान किया और नाश्ता कर के घर से निकला। आज मुझे चलने में वैसी समस्या नहीं आ रही थी जैसी पिछले कुछ दिनों से आ रही थी। साएटिका जैसा वह दर्द भी पूरी तरह गायब था। आज से फिर सोच लिया है कि कुछ भी हो यह पाँच से दस मिनट का ्व्यायाम कभी नहीं छोड़ना है।

मंगलवार, 12 सितंबर 2017

बौद्धिक जाम का इलाज : शारीरिक श्रम

कुछ दिन पहले एक मुकदमा मुझे मिला। उस के साथ चार फाइलें साथ नत्थी थीं। ये उन संबंधित मुकदमों की फाइलें थीं पहले चल चुके थे। मैं ने उस फाइल का अध्ययन किया। आज उस केस में अपना वकालतनामा पेश करना था। कल शाम क्लर्क बता रहा था कि फाइल नहीं मिल रही है। मैं ने व्यस्तता में कहा कि मैं उसे देख रहा था यहीं किसी मेज पर रखी होगी।

आज सुबह जब मैं आज की फाइलें देख रहा था, वही फाइल न मिली। मैं ने भी कोशिश की पर मुझे भी नहीं मिली और बहुमूल्य आधा घंटा उसी में बरबाद हो गया। अब तो क्लर्क के आने पर वही तलाश कर सकता था।  किसी ओर काम में मन नहीं लगा। जब तक फाइल नहीं मिलती लगता भी नहीं।पर तब तक मैं क्या करता?

मैं ने अपने काम की जगह छोड़ दी। शेव बनाई और स्नानघर मे ंघुस लिया। वहां दो चार कपड़े  बिना धुले पड़े थे, उन्हें धो डाला। फिर लगा कि बाथरूम फर्श तुरन्त सफाई मांगता है। वह भी कर डाली। फिर स्नान किया और स्नानघर से बाहर आया तब तक क्लर्क आ चुका था।

मैं ने उसे बताया कि वह फाइल पेशियों वाली अलमारी में होनी चाहिए। वह तुरन्त तलाश में जुट गया। इस के पहले कि मैं कपड़े वगैरह पहन कर तैयार होता उस ने फाइल ढूंढ निकाली। मेरा दिमाग जो उस फाइल के न मिलने से जाम में फँस गया था। फर्राटे से चल पड़ा।

मुझे महसूस हुआ कि जब बौद्धिक कसरत से कुछ न निकल रहा हो तो वह कसरत छोड़ कर कुछ पसीना बहाने वाले श्रम साध्य कामों में लग जाना चाहिए, कमरों से निकल कर फील्ड में मेहनतकश जनता के साथ काम करने चल पड़ना चाहिए। राह मिल जाती है।