@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: जुकाम
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बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

वसंत का अंत, इतनी जल्दी

 
जब भी वसंत आता है तो चार बरस की उमर में दूसरी कक्षा की पुस्तक का एक गीत स्मरण हो आता है....

आया वसंत, आया वसंत
वन उपवन में छाया वसंत 
गैंदा और गुलाब चमेली
फूल रही जूही अलबेली 
देखो आमों की हरियाली 
कैसी है मन हरने वाली
जाड़ा बिलकुल नहीं सताता
मजा नहाने में है आता .....

इस के आगे की पंक्तियाँ अब स्मरण नहीं हैं।  यह गीत भी इसलिए याद आता है कि माँ वसन्त पंचमी के दिन से ही स्कूल जाने के पहले मुझे नहलाने के पहले इसे जरूर सुनाती थी, और मैं इसे सुनते-गाते ताजे पानी की ठंडक झेल जाता था।  वाकई वसंत खूबसूरत मौसम है। समस्या इस के साथ यह कि यह हमारे यहाँ बहुत जल्दी चला भी जाता है।  31 जनवरी को जब वसंत पंचमी थी तो फूल ठीक से खिलने भी नहीं लगे थे।  उस के बाद शादियों का दौर चला कि भाग दौड़ में पता ही नहीं चला कि वसंत भी है और अब जब वसंत को चीन्हने की फुरसत हुई है तो देखता हूँ नीम में पतझऱ शुरू हो गया है।  हमारे अदालत परिसर में नीम बहुत हैं।   इन दिनों अदालत परिसर की भूमि इन गिर रहे पत्तों से पीली हुई पड़ी है।  शहर की सड़कों का भी यही नजारा है जहाँ किनारे-किनारे नीम लगे हैं।  पर यह पतझर भी नवीन के आगमन का ही संकेत है।  कुछ दिनों में नयी कोंपलें फूटने लगेंगी और हमारा नया साल आ टपकेगा।  उस दिन से कोंपलों की चटनी की गोलियाँ जो खानी है।

अभी नए साल में महीना शेष है। अभी तो होली के दिन हैं, फाग का मौसम।  पर इस बार कहीं चंग की आवाज सुनाई नहीं देने लगी है।  नगर के लोगों में गाने, बजाने और नाचने का शऊर नहीं, वे नाचेंगे भी तो कैसेट या सीडी बजा कर।    वाद्य तो गायब ही हो चुके हैं।  चमड़े का स्थान किसी एनिमल फ्रेण्डली प्लास्टिक ने ले लिया है, इस से आवाज तो कई गुना तेज हो गई है लेकिन मिठास गायब है।   इस साल घर के आसपास किसी इमारत का निर्माण भी नहीं चल रहा है जिस में लगे मजदूर रात को देसी के सरूर में चंग बजाते फाग गाएँ और अपनी अपनी प्रियाओं को रिझाएँ।  मुझे याद आता है कि दशहरा मैदान में नगर निगम के नए दफ्तर की इमारत बन रही है।  रात को स्कूटर ले कर उधर निकलता हूँ तो कोई हलचल नजर नहीं आती।  कुछ छप्परों में आग जरूर जल रही होती है।  मैं वहाँ से निकल जाता हूँ।  वापस लौटता हूँ तो चंग की आवाज सुनाई देती है।   मजदूर इकट्ठे होने लगे हैं। कोई एक गाना शुरू करता है।  उन में से एक चंग पर थाप दे रहा है।   कुछ ही देर में प्रियाएँ भी निकल आती हैं वे भी सुर मिलाने लगती हैं और नाच शुरू हो जाता है।  मैं सड़क किनारे अकेला स्कूटर रोक कर उस पर बैठा हूँ।  लोग उन्हें देख कर नहीं, मुझे देख देख कर जा रहे हैं जैसे मैं कोई अजूबा हूँ।  मैं अजूबा बनने के पहले ही वहाँ से खिसक लेता हूँ।

घर लौटता हूँ तो दफ्तर में कोई बैठा है।  मैं उन से बात करता हूँ।  वे जाने लगते हैं तो दरवाजे तक छोड़ने आता हूँ।  दरवाजे के बाहर लगे सफेद फूलों से लदे कचनार पर उन की दृष्टि जाती है तो कहते हैं, फूल शानदार खिले हैं, खुशबू भी जोरदार है।  मैं अपनी नाक में तेजी से फूलों की खुशबू घुसती मंहसूस करता हूँ।  वे चल देते हैं।  तभी छींक आती है।  मैं अंदर दफ्तर में लौटता हूँ। कुछ ही देर में नाक में जलन आरंभ हो जाती है और समय के साथ बढती चली जाती है।  मैं समझ जाता हूँ कि कचनार के फूलों से निकले पराग कणों ने प्रिया से न मिल पाने का सारा गुस्सा मुझ पर निकाला है।  मैं जुकाम और  "हे फीवर" की दवा में लग जाता हूँ।  तीन दिन यह वासंती कष्ट भुगतने पर कुछ आराम मिलता है।  शाम को बेटी से फोन पर बात करता हूँ तो उस की आवाज भारी लगती है।  बताती है उसे जुकाम हो गया है। पत्नी कहती है, पापा को हुआ था तो बेटी को तो होना ही था।  वह फोन  पर बेटी को दवाओं के नामं और उन्हें लेने की हिदायतें देने लगी है।  बेटी  बताती है कि वह उन हिदायतों पर पहले ही अमल शुरू कर चुकी है।  इधर दिन में तेज गर्मी होने लगी है।  मेरे कनिष्ठ वकील नन्दलाल दिन में कह रहे थे, तापमान बढ़ जाने से इस बार फसलें एक माह से बीस दिन  पहले ही पक गई हैं।  मैं कहता हूँ, अच्छा है फसल जल्दी आ गई।   वे बताते हैं, लेकिन फसल का वजन कम हो गया है।

गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

बहत्तर घंटे पूरे होने का इंतजार

जुकाम का आज तीसरा दिन है।  परसों शुरू हुआ था तो समझा गया था कि होमियो बक्से की दवा से स्टे मिल जाएगा। पर नहीं मिला। रात बारह बजे बाद तक नाक की जलन के मारे नींद नहीं आ सकी थी और सुबह चार बजे ही खुल गई। तब से नाक  एक तरफ से उस बरसाती छत की तरह टपकती रही जिस के टपके से डर कर शेर गधा हो गया था और कुम्हार ने उसे बांध लिया था। दुबारा नींद आई ही नहीं। मजबूरी यह कि अदालत जाना जरूरी है, सो गए। वरना कोई न कोई मुकदमा लहूलुहान हो सकता था। रात तक टपका जारी रहा। घर लौटे तो पत्नी जी की सलाह से कुछ नयी दवाओं को आजमाया गया। पर नाक ने अपना स्वभाव दिन भर की तरह जारी रखा।
शाम को ब्लाग पढ़ने बैठे तो अलग सा पर एक बिमारी, जिसे कोई बिमारी ही नहीं मानता पढ़ कर तसल्ली मिली कि एक आदमी, नहीं ब्लागर, तो है जिस  को हमारे जुकाम का पता लगा। पढ़ कर बहुत तसल्ली मिली कि दवा करो तो तीन दिन में और न करो तो बहत्तर घंटों में आराम आ जाता है। हम दवा कर चुके थे। बड़ा अफसोस हुआ कि नहीं करते तो दिनों के बजाए घंटों में ठीक हो जाते। फिर कुछ गणित लगाई तो पता लगा। बात एकै ही है।

रात को वही बारह बजे बाद जैसे तैसे नींद आई। सुबह उठे तो सवा छह बजे थे। यानी बहत्तर में छह और कम हुए। नाक दोनों सूखी थी। लेकिन लग रहा था कि सांस के साथ अंदर तक कुछ असर हुआ है। सफाई वफाई करने पर पता लगा कि बहना बंद है। हम खुश हो गए। पर कुछ देर बाद ही दूसरी वाली साइड चालू हो गई। यानी नाक की साइडें शिफ्टों में काम कर रही थी।

आज भी काम कम नहीं है। एक मुकदमे में बाहर भी जाना था। मुवक्किल को कल ही बता दिया था कि नाक ने साथ दिया तो जा पाऊँगा वरना नहीं। अब लगता है कि नहीं जा सकता। उस का फोन आया तो ठीक, वरना मुवक्किल इतना होशियार है कि अपना इंतजाम खुद कर लेगा। हाँ कोटा की अदालत तो जाना ही पड़ेगा। तैयारी सब कर ली है। बहत्तर घंटे शाम को छह-सात बजे पूरे हो रहे हैं। उस के बाद भी बरसात जारी रही तो फिर अपनी नाक को नुक्कड़ वाले डाक्टर धनराज आहूजा हवाले ही करना पड़ेगा।

अब अदालत के लिए तैयार होते हैं। शाम को फिर मिलेंगे।

पुनश्च- डाक्टर प्रभात टंडन ने फरमाया है...ख़ुश रहिए और सर्दी से बचिए
कहा है जुकाम का कारण तनाव है। अब तलाशता हूँ कि कोई तनाव था क्या? और था तो क्यों, किस कारण से?