@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: पाठक की संवेदना चोटिल होने पर लेखक-प्रकाशक जिम्मेदार नहीं होंगे; पाठक अपनी रिस्क पर पढ़ें

शनिवार, 29 अगस्त 2009

पाठक की संवेदना चोटिल होने पर लेखक-प्रकाशक जिम्मेदार नहीं होंगे; पाठक अपनी रिस्क पर पढ़ें

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बहुत कीमती है, जनतंत्र में  आ कर मिली है। कुछ प्रतिबंध भी हैं, लेकिन उन की परवाह कौन करता है? मैं रेलवे की बुक स्टॉल पर सब से ऊपर रखा अखबार देखता हूँ। शीर्षकों में वर्तनी की तीन अशुद्धियाँ दूर से ही दिख गई हैं। मैं अखबार खरीद लेता हूँ। देखना चाहता हूँ अखबारों की दुनिया में आखिर नया कौन आ गया है? मैं एक दो और किताबें खरीदता हूँ, लेकिन देख लेता हूँ कि उन में तो वर्तनी की अशुद्धियाँ नहीं हैं।

पहले तो कोई किताब खरीदना ही नहीं चाहता। हर कोई मांग कर या मार कर पढ़ना चाहता है। एक दो घंटे में पढ़ी जा सकने वाली किताब क्यों खरीदी जाए? पढ़ने के बाद रद्दी जो हो जाती है। फिर खरीदे तो कम से कम ऐसी तो खरीदे जिस में वर्तनी की अशुद्धियाँ नहीं हों। हमने वर्तनी की अशुद्धियों वाली किताबें कम ही देखी हैं। कभी किताब छापने की जल्दी में अशुद्धियाँ रह जाती हैं। उन का शुद्धिपत्र अक्सर किताब में विषय सूची के पहले ही नत्थी होता है। मूर्ख  हैं वे, जो अशुद्धियों की सूची इस तरह किताब के पहले-दूसरे पन्ने पर चिपका कर खुद घोषणा कर देते हैं कि किताब में अशुद्धियाँ हैं। वे तो किताब पढ़ने वाले को पढ़ने पर पता लग ही जाती हैं। हर पाठक को लेखक की संवेदना का ख्याल रखता है। वह लेखक-प्रकाशक को कभी नहीं बताता कि उस की किताब में  गलतियाँ हैं, बस इतना करता है कि उस लेखक प्रकाशक की किताब खरीदना बंद कर देता है। भला पैसे दे कर गलतियों वाली किताब खरीदने में कोई आनंद है?
ब्लागिंग मजेदार चीज है। इसे पढ़ने के लिए खरीदना नहीं पड़ता। बस यूँ ही नेट पर लोग पढ़ लेते हैं। यहाँ कुछ भी लिख दो, वह जमा रहता है, तब भी, जब कोई पढ़े और तब भी जब कोई न पढ़े। यहाँ अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता है। ब्लागर वर्तनी की अशुद्धियों से बे-चिंत हो कर टाइप कर सकता है, और प्रकाशित भी कर सकता है। हिन्दी में तो यह काम और भी आसान है। राइटर में वर्तनी की अशुद्धियाँ बताने वाला टूल ही गायब है। हिन्दी को उस की जरूरत भी नहीं है। लोग उस के बिना भी अपनी संवेदनाओं को ट्रांसफर कर सकते हैं।  वे लोग निरे मूर्ख हैं जो इस तरह वर्तनी की अशुद्धियाँ जाँचने के टूल बनाते हैं। 
प्राइमरी की छोटी क्लास में वर्तनी की एक अशुद्धि पर डाँट मिलती थी। पाँचवी तक पहुँचते-पहुँचते वह मास्टर जी के पैमाने से हथेली पर बनी लकीर में बदल गई। मिडिल में पहुँचते पहुँचते हम वर्तनी की अशुद्धियों को देखने से वंचित हो गए। वे किसी किताब में मिलती ही नहीं थी। आठवीं के विद्यार्थी छुपा कर कुछ छोटी-छोटी किताबें लाते थे और दूसरों को पढ़ाते थे। सड़क पर बैठा बुकसेलर उन किताबों को के जम कर पैसे वसूल करता था। उन में चड्डी के नीचे के अंगों और उन के व्यवहार के बारे में महत्वपूर्ण सूचनाओं  की अभिव्यक्ति वर्तनी की भरपूर त्रुटियों के साथ होती थी। छात्र अक्सर वर्तनी की अशुद्धियाँ पढ़ने के लिए ही उन किताबों को पढ़ते थे और मध्यान्ह नाश्ते के लिए घर से मिले पैसे आठवीं के उन विद्यार्थियों को दे देते थे। 
हर पाठक को लेखक की संवेदनाओं का पूरा खयाल रखना चाहिए। चाहे वह किताब में हो, अखबार में हो, इंटरनेट के किसी पेज पर हो या फिर ब्लागिंग में हो। कोई ऐसी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए जिस से कोई मासूम लेखक-ब्लागर की संवेदना को चोट पहुँचे, पाठक की संवेदना को पहुँचे तो पहुँचे। अब कोई भूला भटका अगर टिप्पणी से लेखक-ब्लागर की संवेदना को चोट पहुँचा भी दे तो उसे जरूर एक आलेख लिख कर पाठकों को आगाह कर देना चाहिए कि आइंदा वे टिप्पणी कर के ऐसा न करें। पाठक की संवेदना का क्या ?  उसे चोट पहुँच जाए तो इस की जिम्मेदारी लेखक-ब्लागर की थोड़े ही है। पाठक खुद चल कर आता है, पढ़ने के लिए। उसे किसने पढ़ने का न्यौता दिया?  अब वह आता है तो अपनी रिस्क पर आता है, पढ़ने से उस की संवेदनाओं को पहुँचने की जिम्मेदारी लेखक-प्रकाशक की थोड़े ही है। 
अब हम वकील हैं, सलाहकारी आदत है। कोई उस के लिए पैसे ले कर आता है तो तत्पर हो कर करते हैं। पर जब कोई नहीं आता है तो आदतन बाँटते रहते हैं। इसलिए इस आलेख के उपसंहार में भी एक सलाह दिए देते हैं, वह भी बिलकुल मुफ्त। इस से आप की संवेदनाओं को चोट पहुँचे तो इस की कोई गारंटी नहीं है। आप चाहें तो इस आलेख को यहीं पढ़ना छोड़ सकते हैं। 
(सलाह के पहले एक छोटा सा ब्रेक, जो सलाह न चाहें वे अपना ब्राउजर बंद कर सकते हैं) 
सलाह ............
जो हर लेखक को अपनी किताब के पहले पन्ने पर और हर ब्लागर को ब्लाग के शीर्षक के ठीक ऊपर यह  चेतावनी टांक देनी चाहिए....
"इस ब्लाग में वर्तनी की अशुद्धियों से किसी पाठक की संवेदना चोटिल होने पर लेखक-प्रकाशक की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी"
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18 टिप्‍पणियां:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

द्विवेदी जी, इस 'वैधानिक चेतावनी' वाली जानकारी के लिए हार्दिक धन्यवाद, मैं भी टांगने की सोच रहा हूँ :-))

बेनामी ने कहा…

बेशक ब्लॉगिंग मजे की चीज है और पाठक उस तक चल कर जाता है मजा लूटने। मजा सदैव क्षणिक होता है, जैसे सड़क पर ...उन किताबों ...में चड्डी के नीचे के अंगों और उन के व्यवहार के बारे में महत्वपूर्ण सूचनाओं की अभिव्यक्ति को वर्तनी की भरपूर त्रुटियों के साथ लिया जाता है। वे तमाम किताबें एक संकुचित, सीमित दायरे में ही कथित मजा देती हैं तथा इनका वास्तविक जीवन में कोई रोल नहीं होता न ही इनका स्थान किन्हीं अन्य पूजनीय ग्रंथों के समतुल्य माना जाता है।

वर्तनी की भरपूर त्रुटियों वाली पुस्तक न तो किसी संदर्भ में मानक होती है और ना ही किसी तरह की सार्थकता प्रदान करती हैं।

अभिव्यक्ति के नाम पर यदि लेखक, पाठक की संवेदना का ख्याल नहीं रखते तो कालांतर में पाठक भी उसकी संवेदनायों को चोट पहुँचाता है, तब बड़े-बड़े लेखकों की असंवेदनशीलता दिख जाती है। :-)

बेशक पाठक जाता है लेखक की कृति के पास, किन्तु उस पाठक तक अपनी अभिव्यक्ति पढ़ने का न्यौता पहुँचाने के लिए लेखक इतने पापड़ क्यों बेलता है, जिसकी संवेदनाओं का उसे ख्याल ही नहीं रखना!?

कोई चाहे तो पुस्तक/ किताब के बदले ब्लॉगिंग शब्द रख कर पुन: पढ़ ले।

ब्लॉगिंग से मजा लेने वाले तब तक गंभीर नहीं होंगे, जब तक धनार्जन न शुरू हो। तब हम आप देखेंगे कितने ब्लॉगर अपने ब्लॉग पर यह लिखे टांगेंगे कि किसी पाठक की संवेदना चोटिल होने पर लेखक-प्रकाशक की कोई जिम्मेदारी नहीं :-))

आनंद और मज़े में अंतर होता है

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

बच निकले। हमारी संवेदनायें चोटिल न हुई!

राज भाटिय़ा ने कहा…

दिनेश जी आप ने बहुत अच्छा लिखा,लेकिन कई लोग नही समझते, आप का यह लेख पढ कर शायद हम सब को अकल आ जाये.
धन्यवाद

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

बहुत बढिया बात कही आपने.

रामराम.

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

वर्तनी नुक़्ते को जाने दीजिये..आज तो लिंग भेद तक की त्रुटि स्वीकार करने का चलन भी पैर पसार रहा है...रही सही क़सर केबल टी वी और एफ़ एम चैनलों ने पूरी कर दी, अधकचरे नौसिखियों की तो पांचों घी में हैं... रेडियो पर भाड़ झोंकने के बाद ये और भी असह्य लगता है

Sudhir (सुधीर) ने कहा…

आपकी इस वैधानिक चेतावनी तो बड़े काम की है....कई मामलों में काम आ सकती हैं...

बहुत मजेदार. साधू!!

बेनामी ने कहा…

अच्छी उलटबासी उछाली है आपने...
गंभीर इशारों के साथ...

बेनामी ने कहा…

उफ़ कितनी हाय तोबा हैं इस वर्तनी के चक्कर कि
ना जाने कितने ब्लॉग पर सीधा हेडिंग मे गलती
हैं , और जिन जिन के ब्लॉग पर हैं वही शुद्ध हिंदी कि बात करते हैं . व्यंग का आप का अटेम्प्ट बढ़िया हैं .
किताबो पर याद आया बहुत से लोग
डाक से कित्ताब मांगा लेते हैं , पर बाद मे पैसा
नहीं भेजते . मामूली से १५० - २०० रूपए के लिये
हमेशा के लिये नॉन रीच एबल होते हैं . शायद
किताब पढ़ कर आंकते हैं कि मूल्य जितना लिखा
या नहीं . मूल्यांकन करना लिखे का जब तक
पन्नो के वजन से होगा तब तक चेतावनी
संवैधानिक हो या वैधानिक क्या फरक पड़ता हैं
शब्द केवल जरिया होते है अपनी बात कहने का ,बोलते तो गूंगे भी हैंपर उनको समझने के लिये संवेदना चाहिये और गूंगो कि आवाज जो बनता हैं हमेशा उंचाबोलता हैं , क्युकी शोर करने से ही गूंगो कि आवाज बहरो तक पहुचती हैं

अजय कुमार झा ने कहा…

सिर्फ़ इतना कि ..जरूरी नहीं कि ..हर व्यक्ति समझने के लिये तैयार ही हो ..तो उनके लिये वैधानिक क्या और कहें तो संवैधानिक क्या..मगर जो भी हो ये अन्दाज़ ज्यादा मारक है...बढिया लगा मुझे तो...

Ghost Buster ने कहा…

ये तो सलाह से पहले सलाह हुई.

"जो सलाह न चाहें वे अपना ब्राउजर बंद कर सकते हैं"

अजय कुमार झा ने कहा…

अरे..एक बात तो कहना भूल ही गया..आपका ये अंदाज़ लगता है .अपने ब्लोग्वाणी जी को पंसंद नही आया..चटका लगा रहा हूं..आगे नहीं बढ रहा...सो यहीं बता दूं..मुझे पंसंद आया...और चटका लगा दिया है..आगे...ब्लोगवाणी की मर्ज़ी..

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

"सलाह के पहले एक छोटा सा ब्रेक, ..."
हम तो समझे ...बीड़ी सुलगाने का ब्रेक दे रहे हैं..

यह खेद का विषय बनता जा रहा है कि लोग ब्लाग तो लिखना चाहते हैं पर विषय और वर्तनी पर ध्यान देने के सुझाव पर कतरा जाते हैं।

बेनामी ने कहा…

अजय जी, यह कोई नई बात नहीं है।

बिन माँगी मित्रवत सलाह दिए जाने वाले पंगे के बाद उनकी गूढ़ अर्थ लिए टापू में आग वाली पोस्ट से जारी यह सिलसिला अक्सर ही द्विवेदी जी की लोकप्रिय पोस्टों पर देखने को मिलता है। आप लाख प्रयास कर लें विश्व के किसी भी कोने से। पसंद नहीं बढ़नी है, नहीं बढ़ेगी।

हम-आप जैसे कोई इस बात को जाहिर करते हैं तो एक-दो बार आंकड़ा बढ़ता है, फिर अटक जाता है। ये तकनीकी नहीं, मानवीय चूक दिखती है।

Arvind Mishra ने कहा…

बिलकुल साफगोई से और बड़ी स्पष्ट राय आपने दी ! शुक्रिया !

वीनस केसरी ने कहा…

अशुद्ध वर्तनी गंदे कपडे के सामान है पहले लोग सलाह देते है "साफ़ कपडे पहनिए श्रीमान"
फिर विनती करते हैं अगर कोई फिर भी न माने तो लोग उससे दूर भागने लगते है


वीनस केसरी

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने कहा…

अरे वाह, यह मामला तो जोर पकड़ चुका है।
अभी-अभी एक गपशप वाली पोस्ट पर अरविन्द जी को समझाकर आ रहा हूँ। बेचारे अशुद्धियों से हलकान हुए जा रहे हैं।

मामला यह है कि ब्लॉग पर हिन्दी लिखने और छापने की राह में किसी प्रकार की बन्दिश नहीं है तो ब्लॉग लिखने वाला इस अनन्त स्वतंत्रता का उन्मुक्त होकर प्रयोग करेगा ही। उसे कोई क्यों रोके? ‘आपके व्यंग्य आलेख’ का यह नजरिया स्पष्ट है। मुझे इससे कोई हकतलफ़ी नहीं है। डॉ. अरविन्द मिश्र को जाने क्यों हो गयी। मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की है। मुख्य अंश यूँ हैं-

यह दृष्टिकोण वैसा ही है जैसे कोई दाढ़ी-बाल बढ़ाकर, बिना कंघी किए, हफ्तों बिना नहाए, गन्दे और मुड़े-तुड़े कपड़ों में रहने का शौकीन हो जाय और कहे कि दूसरे हमें क्यों टोकें। हमारी मर्जी... हम तो ऐसे ही बिन्दास रहेंगे।

ठीक है भाई, बिन्दास रह लो।

लेकिन है क्या कि ऐसे भंगी टाइप दिखने वाले को कोई भला आदमी कभी-कभी नहा धोकर साफ-सुथरा हो लेने की सलाह दे ही डालता है। अपरिचित को नहीं बल्कि उसे जिसे वो अपना नजदीकी समझ बैठा हो। किसी समूह या सभा में भी ऐसे लोग अपनी उपस्थिति से सबको नवाजते हैं और कहीं मनोरंजन तो कहीं उपहास का पात्र भी बनते हैं। मैने तो बहुत प्रतिभाशाली लोगों को भी इस फक्कड़ सिन्ड्रोम का शिकार बनते देखा है। कालान्तर में प्रायः उन्हें गुमनामी के अन्धेरे में खोते भी देखा है।

सभ्यता के विकास के साथ हमारे रहन-सहन का एक सलीका तय हो जाता है जिसे अधिकांश लोग अपनाते हैं। सामान्य तौर पर साफ-सुथरी और इश्तरी की हुई वेश-भूषा और सजा-सँवरा चेहरा पसन्द किया जाता है। समाज में रहने वाला नॉर्मल व्यक्ति इन घोषित और अघोषित नियमों का यथासामर्थ्य ख्याल भी रखता है। खासकर यदि वो घर से बाहर निकलकर किसी सार्वजनिक स्थल पर जाता है तो जरूर कुछ बेहतर पहन-ओढ़कर और चेहरा चमकाकर जाना चाहता है। बातें भी देहाती इश्टाइल के बजाय शुद्ध खड़ी बोली में करना ठीक समझता है। इन बातों को सामाजिक संस्कार से भी जोड़ा जाता है। लेकिन कुछ लोग इसे बहुत तवज्जो नहीं देते। अपने तरीके से ही रहते हैं। संस्कार कोई थोपने की चीज तो है नहीं। लेकिन जो संस्कारहीन होकर रहना चाहता है उसे समाज भी धीरे-धीरे तवज्जो देना बन्द कर देता है।

भाषा का भी एक संस्कार होता है। वर्तनी की शुद्धता, व्याकरण के नियमों का सही पालन, लिंग-वचन का उचित प्रयोग करने से यह संस्कार पुष्ट होता है।

लेकिन कुछ लोग यदि इन संस्कारों से अपने को बाँधकर नहीं रखना चाहते तो वे इसके लिए स्वतंत्र हैं। बिल्कुल टोकने की जरूरत नहीं है। इनकी पहचान और नियति दोनो स्पष्ट होते देर नहीं लगेगी।

डा. अमर कुमार ने कहा…


बिलागर मोफ़त का फ़ैसिलिटी देयेला है, बाप ।
जिस माफ़िक चाहिये उस माफ़िक लिक्खो ।
कोई हलकट तो तुमारे बरोबर का निकलेंगाइच, पिच्छू उनको पडने को बोलना ।

पँडित जी, आजकल नसीहत अली रोज़े क्या रख रहे हैं, आप तो चढ़े जा रहे हो ।
उपर से कहते हो कि, चोटिल न हो । पहले आप अपनी दलील से साबित करो कि घोड़ा = गधा !
गूगल तो साबित किहे देय रहा है, डा. रूपचन्द्र शास्त्री = पुन्नू सींह ! न मानो तो पेज़रैंक तौल लेयो !