1. प्रलय की अवस्था में सारा पदार्थ, समस्त तत्व एक अपूर्वता (Singularity) में निहीत होता है। इसे साँख्य प्रधान अथवा मूल प्रकृति कहता है।
2. मूल प्रकृति के तीन आंतरिक अवयव सत्व, रजस् और तमस् होते हैं जिन्हें गुण कहा गया है। प्रलय की अवस्था में साम्य होने से मूल प्रकृति अचेतन प्रतीत होती है। लेकिन ये आंतरिक अवयव लगातार क्रियाशील रहते हैं केवल साम्य बनाए रखते हैं। तीनों अवयवों को सम्मिलित रूप से त्रिगुण कहा गया है और प्रकृति को त्रिगुण मय।
3. त्रिगुणों द्वारा स्थापित साम्य के भंग होने से जगत का विकास आरंभ होता है।
4. प्रकृति से अन्य 24 तत्वों की उत्पत्ति होती है। ये तत्व भी प्रकृति की भाँति त्रिगुणमय होते हैं। किन्तु उन में किसी एक गुण की प्रधानता होती है, जिस से उन का चरित्र और कार्य निर्धारित होता है।
5. प्रथमतः सत्व की प्रधानता वाले तत्व महत् की उत्पति होती है, जिसे बुद्धि भी कहा गया है। यह साँख्य का दूसरा तत्व है। यह प्रकृति से उत्पन्न होने से भौतिक है, लेकिन उस का रूप मानसिक और बौद्धिक है
6. महत् से रजस् प्रधानता वाले तीसरे तत्व अर्थात अहंकार की उत्पत्ति हुई, जो स्वः की अनुभूति को प्रकट करता है। यह साँख्य का तीसरा तत्व है।
7. अहंकार से तत्वों के दो समूह उत्पन्न होते हैं। सात्विक अहंकार से ग्यारह तत्वों का प्रथम समूह जिस में एक मनस या मन, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं।
8. चौथा तत्व मन, बुद्धि से पृथक है। यह ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के बीच सामंजस्य रखते हुए बाह्य जगत से संकेत और सूचनाएं प्राप्त करता है, उन्हें निश्चित धारणाओं में परिवर्तित करता है और अनुभवकर्ता अहंकार को सूचित करता है। साँख्य का यह मन अहंकार का उत्पाद है और खुद भी उत्पादित करने की क्षमता रखता है। लेकिन बुद्धि के बारे में यह कथन उचित नहीं। साँख्य तत्व बुद्धि, स्वयं तो प्रकृति का उत्पाद है, लेकिन वह उत्पादन की क्षमता से हीन है।
9. सात्विक अहंकार से उत्पन्न पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ 1.श्रोत्र, 2.त्वक, 3.चक्षु, 4.रसन और 5.प्राण हैं।
10. सात्विक अहंकार से ही उत्पन्न पाँच कर्मेन्द्रियाँ 1.वाक, 2.पाणि, 3.पाद, 4.पायु और 5.उपस्थ हैं।
11. तामस अहंकार से उत्पन्न पाँच तन्मात्राएँ अथवा सूक्ष्मभूत 1.शब्द, 2.स्पर्श, 3.रूप, 4.रस और 5.गंध हैं।
12. इन पाँच तन्मात्राओं या सूक्ष्मभूतों से उत्पन्न पाँच स्थूलभूत या महाभूत 1.आकाश 2.वायु 3.अग्नि 4.जल और 5.पृथ्वी हैं।
मूल साँख्य के ये 24 तत्व हैं।
13. इस तरह प्रकृति से जगत का विकास होता है। विकास का अंतिम चरण पुनः प्रलय है। जब सभी 23 तत्वों में निहित त्रिगुण पुनः साम्यावस्था में पहुँच जाते हैं। पुनः प्रधान या मूल प्रकृति स्थापित हो जाती है। इस मूल प्रकृति में त्रिगुणों का साम्य भंग होने से पुनः एक नवीन जगत का विकास प्रारंभ हो जाता है।
14. परवर्ती साँख्य वेदांत के प्रभाव से 25वें तत्व पुरुष को मानता है। जो वेदान्त की आत्मा के समान है। लेकिन यह वेदांत के ब्रह्म से भिन्न है। पुरुष अनेक हैं। प्रत्येक शरीर के लिए एक भिन्न पुरुष है। इस पुरुष की मुक्ति के लिए ही प्रकृति विकास करती है। पुरुष का कोई कार्य नहीं है। वह केवल दृष्टा है जो प्रकृति के विकास को देखता रहता है। प्रकृति उसे दिखाने के लिए ही विकास करती है।
15. परवर्ती साँख्य भी किसी ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता। उस का मानना है कि ईश्वर को सिद्ध नहीं किया जा सकता, उस का कोई अस्तित्व नहीं है।
16. योग प्रणाली भी साँख्य का ही विस्तार है जो ईश्वर या ब्रह्म को 26 वाँ तत्व मानती है। उस का मानना है कि ब्रह्म या ईश्वर से मूल प्रकृति और पुरुष उत्पन्न होते हैं और फिर पुरुष की मुक्ति के लिए प्रकृति उसी भांति विकास करती है, जिस भांति दर्शकों के मनोरंजन के लिए एक नर्तकी नृत्य करती है।
17. प्रकृति-परिणामवाद साँख्य का मूल सिद्धान्त है। उस का कथन है कि प्रकृति सत्य है, और उस का परिणाम यह जगत भी सत्य है।
18. वेदांत का सिद्धांत ब्रह्म-विवर्तवाद है जिस का कथन यह है कि एक ब्रह्म ही सत्य है और यह जगत मिथ्या है, और मूल कारण ब्रह्म की विकृति है।
(समाप्त)
13 टिप्पणियां:
लगा कि कहीं गंभीर प्रवचनमयी माहौल में चला आया हूँ. लगा साथ बहुत कुछ ले जा रहा हूँ. घर पहुँचे तो वो ही ठन ठन गोपाल.
आभार-जारी रहिये.
प्रकृति सत्य है, और उस का परिणाम यह जगत भी सत्य है।
........तो यही निष्पत्ति रही सांख्य दर्शन की --बहुत ज्ञान वर्धक और रोचक भी !
शीर्षक के अनुरूप आपने सचमुच सांख्य का सार ही प्रस्तुत किया है जो बहुत ही सटीक और ज्ञानवर्धक है दिनेश भाई। अच्छा आलेख।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
बहुत सुंदर विवेचना है. शुभकामनाएं.
रामराम.
साँख्य सार इतना रोचक और सरल हुआ कि आनन्द आ गया बहुत बहुत धन्यवाद आगे भी इसी तरह हमारे ग्यान को बढाते रहें शुभकामनायं
पिछली पोस्टों का सुंदर सारांश। लय-विलय ही तो प्रकृति का नियम है।आभार।
सांख्य के सार को इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और विकास के साथ दिया जाता तो और बेहतर हो जाता...
वरना पाठक को यह भ्रम होने लगता है, कि यही वह गूढ सत्य है जिसे जाना जाना है, और अभी यह समझ में नहीं आ रहा है।
वह अपनी सामान्य चेतना में, तत्काल समझ में आए जुमलों या निष्कर्षों को बैठा लेता है।
और भी श्रृंखलाओं का इंतज़ार रहेगा।
आपने पिछली पोस्ट में यह कोशिश बखूबी की थी।
पर वह इस सार के साथ ज्यादा ठीक रहती।
अपनी जल्दबाजी़ के लिए मुआफ़ी की दरकार है। टिप्पणी के बाद पिछली पोस्ट पर गया।
"प्रथमतः सत्व की प्रधानता वाले तत्व महत् की उत्पति होती है, जिसे बुद्धि भी कहा गया है। यह साँख्य का दूसरा तत्व है।"
प्रथम तत्व महत् को ही यदि दूसरा तत्व बुद्धि कहा गया है तो पहला तत्त्व क्या है?
गीता में योगेश्वर कृष्ण अपने को सांख्य का प्रवर्तक 'कपिल' कहते हैं। अर्थ यह है कि उसे मान देते हैं। लेकिन
"..ब्रह्म या ईश्वर से मूल प्रकृति और पुरुष उत्पन्न होते हैं और फिर पुरुष की मुक्ति के लिए प्रकृति उसी भांति विकास करती है, जिस भांति दर्शकों के मनोरंजन के लिए एक नर्तकी नृत्य करती है। " के अनुसार योग पुरुष को जबरी महत्त्वपूर्ण बना देता है।
प्रकृति है लेकिन पुरुष के विकास के लिए! वह भी मनोरंजन हेतु नर्तकी समान। गड़बड़झाला है। लोचा है।
ध्यान से पढ़कर समझा, बहुत अच्छा लिखा है आपने!
---
विज्ञान पर पढ़िए: शैवाल ही भविष्य का ईंधन है!
Aabhaar.
{ Treasurer-T & S }
सांख्य का सारांश बहुत कुछ समझा गया । जरूरी था यह हमारी त्वरित बुद्धि के लिये । आपके सभी आलेखों का प्रिंट आउट ले रहा हूँ - मेरी समझ बनाने के लिये यह आवश्यक है कि कम्प्यूटर के पर्दे से अलग इन्हें पढ़ूँ ।
इस ब्लॉग पर इनलाइन कमेंटिंग की सुविधा लाइनबज़ (Linebuzz) क्यों नहीं ?
सांख्य का अंग्रेजी में अनुवाद क्या होगा?
कृपया इतनी शुद्ध हिंदी की बजाये आसान हिंदी इस्तेमाल करें तो मुझ जैसे अज्ञानियों को समझने में आसानी रहेगी
आभार
एक टिप्पणी भेजें