@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

किरपा का धंधा और आत्मविश्वास

र से अदालत तक के नौ किलोमीटर के मार्ग के ठीक बीच में है बाबूलाल की पान की दुकान। मैं  जाते समय रोज वहाँ रुकता हूँ, पान लेने के लिए। जब तक पान बनता है तब तक एक-दो ग्राहक वहाँ ‘विमल’ गुटखा खरीदने आते हैं। उन में अधिकतर बाजार में काम करने वाले मजदूर, दफ्तरों के चपरासी और बाबू आदि हैं। मैं उन में से अनेक से पूछ चुका हूँ –यह ‘विमल’ बनता काहे से है? उन में से हर कोई यह समझता है कि मैं गुटखा के निर्माण की कच्ची सामग्री के बारे में पूछ रहा हूँ। हर कोई थोड़ा सोचता है और फिर बताता है –भाई साहब यह तो पता नहीं कि यह बनता किस से है। मैं उन्हें कुछ और सोचने के लिए कहता हूँ लेकिन फिर भी उन का उत्तर यही रहता है। तब मैं उन्हें कहता हूँ –चलो मैं ही बता देता हूँ कि यह किस से बनता है। वास्तव में ‘विमल’ बनता है ‘मल’ से।

मेरा उत्तर सुनते ही बाबूलाल हर बार एक ठहाका लगा देता है और विमल खरीदने वाला सिटपिटा जाता है। मेरा आशय हर बार ‘विमल’ शब्द से होता है। मैं हर बार उन से कहता हूँ कि विमल की यह व्युत्पत्ति पसंद नहीं आई हो तो इसे छोड़ दो। लाभ ही होगा। कम से कम तंबाकू और उस में मिले हानिकारक रसायनों से अपने शरीर को तो बचा ही लोगे।

ल अदालत जाते हुए मैं बाबूलाल की दुकान पर रुका। तभी एक ग्राहक ने उस से विमल गुटखा का पाउच मांगा। बाबूलाल ने उसे पाउच दिया और वह तुरंत ले कर चल दिया।  उस के जाते ही बाबूलाल ने मुझ से पूछा –भाई साहब¡ आप कहते हैं कि ‘विमल’ मल से बनता है। हाँ कहता हूँ-मैं ने जवाब दिया।
-तब तो ‘निर्मल’ भी मल से ही बनता होगा? बाबूलाल ने तपाक से पूछा।
-हाँ, निर्मल’ भी मल से ही बनता है। मैं ने उत्तर दिया। मैं विचार में पड़ गया कि आखिर बाबूलाल को आज अचानक निर्मल की कैसे याद आई। मैं ने उस से पूछा तो उस ने बताया कि चार-पाँच रोज से निर्मल बाबा की बहुत चर्चा है, तो मुझे लगा कि “जैसे यह विमल मल से बनता है वैसे ही निर्मल भी मल से ही बनता होगा। उस के जवाब से ठहाका लगाने की बारी मेरी थी। मैं ने लगाया भी। लेकिन तुरंत ही बाबूलाल मुझसे एक सवाल और पूछ बैठा।
-भाई साहब¡ जरा इस “कृपा” शब्द की जन्मपत्री भी बता दीजिए। निर्मल बाबा ने जिस की फैक्ट्री खोली हुई है।
अब मैं क्या कहता? फिर भी अपनी समझ से कहना शुरू किया।
भाई मेरे हिसाब से तो कृपा, दया, मेहरबानी वगैरा वगैरा जितने शब्द हैं, उन का वास्तव में कोई अर्थ नहीं होता। हम किसी से पूछते हैं कि क्या हाल हैं? वह तत्काल कहता है। -आप की दया है, या बस आप की कृपा है, या फिर कहता है बस आप की मेहरबानी है। अब न तो हम किसी पर दया करते हैं और न ही कृपा या मेहरबानी। लेकिन फिर भी लोग कहते रहते हैं, सामने वाले का मन रखने को। जिस से लगता है कि वह आप को सम्मान दे रहा है।
-लोग जो आम बोलचाल में इस तरह की बात करते हैं वो तो अलग बात है। पर ये निर्मल बाबा तो अपना दरबार लगाता है, किसी शक्ति की बात करता है,  यह भी कहता है कि उस के पास शक्ति है जो अपनी कृपा बरसाती है। और लोग भी हजारों रुपया दे कर उस के दरबार में जाते हैं। कहते हैं उस के पास एक दिन में करोड़ से अधिक रुपया जमा हो जाता है। ये निर्मल बाबा जिस शक्ति की बात करता है और जिस कृपा की बात करता है वो क्या हैं?
ब तक बाबूलाल की दुकान पर तीन चार ग्राहक और इकट्ठा हो गए थे और इस चर्चा का आनन्द लेने लगे थे। इस बार बाबूलाल ने मुझ से कठिन सवाल कर लिया था और मुझे लगने लगा कि वह मेरा इंटरव्यू कर रहा है। मैं समझ रहा था कि मैं ने उस के सवालों का संतोषजनक उत्तर न दिया तो वह मुझे जरूर फेल कर देगा। चर्चा लंबी होती दिख रही थी और मैं अदालत पहुँचने में लेट हो रहा था। फिर भी कोई न कोई जवाब दे कर चर्चा को विराम तो देना ही था। मैं ने कहना शुरू किया।
भाई, बाबूलाल जी, ये बाबा की शक्ति और कृपा दोनों ही फर्जी हैं। बहुत लोग हैं दुनिया में जिन्हें प्रयत्न करते हुए भी नहीं मिलती और वे हताश और निराश हो जाते हैं, उन्हें प्रयत्न करना निरर्थक लगने लगता है। वे प्रयत्न करना छोड़ देते हैं। लेकिन आखिर सफलता तो प्रयत्न से ही मिलती है। प्रयत्न करना छोड़ देने से तो कुछ नहीं होता। ऐसे समय में आवश्यकता इस बात की होती है कि उन की निराशा और हताशा को दूर कर के उन्हें फिर प्रयत्नशील बना दिया जाए। बस यही बाबा करता है। लोग उस के पास जाते हैं ये यकीन कर के कि बाबा के पास शक्ति है उस की कृपा हो जाए तो उन का काम बन जाएगा।  बाबा उन से कुछ भी करने को कह देता है। जैसे काला पर्स जेब में रखना या फिर किसी धर्मस्थल की यात्रा करना या फिर कोई अन्य ऊटपटांग उपाय बताता है। लोगों को बाबा की बात का विश्वास तो है ही वे वैसा ही करते हैं जैसा बाबा कहता है। इस से उन में आत्मविश्वास पैदा होता है कि अब की बार वह प्रयत्न करेगा तो अवश्य ही उस का काम सफल होगा। वह आत्मविश्वास के साथ पूरी शक्ति लगा कर प्रयत्न करता है। पूरे  आत्मविश्वास के साथ और अपनी पूरी शक्ति के साथ जब कोई काम किया जाता है तो उस का सफल होना स्वाभाविक है। इस तरह शक्ति भी व्यक्ति की स्वयं की होती है और आत्मविश्वास भी उस का खुद का ही होता है। लेकिन व्यक्ति समझता है कि यह सब बाबा की शक्ति कर रही है। उसे वे बाबा की शक्ति की कृपा मान बैठते हैं। जिस दिन लोग यह समझने लगेंगे कि शक्ति उन में स्वयं में है उन्हें आत्मविश्वास भी पैदा होगा और उस दिन कोई ऐसे बाबाओं, ज्योतिषियों, नजूमियों को कोई नहीं पूछेगा।
मेरी बात समाप्त होते ही एक ग्राहक बोल उठा -बात तो सही है। ये लोग हमारी हताशा का लाभ उठाते हैं। तभी मेरे मोबाइल की घंटी बजने लगी। मैं ने कहा –बाबूलाल जी, आज का प्रवचन समाप्त। अब चलते हैं। अदालत से मुवक्किलों की घंटियाँ आने लगी हैं। कोई बात छूट गई हो तो कल फिर इसी वक्त दरबार लगा लेंगे।   

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

दोराहा, निश्चय और समंजस


कोई पैंतीस बरस हुए, बुआ की पुत्री के विवाह में जाते हुए रास्ते में दुर्घटना हुई और पिताजी के दाहिने हाथ की कोहनी में गंभीर चोट लगी। रेडियस अस्थि का हेड अलग हो गया। हड्डी की किरचें मांस में घुस गईं। जिन्हें निकालने के लिए कुछ ही दिनों के अन्तराल से कुछ आपरेशन्स कराने पड़े। हमें जोधपुर में रुकना पड़ा। वहां विवाह में आए हुए अनेक परिजन थे जो विवाह के उपरान्त भी रुके थे। दिन भर क्या करते तो शाम को कहीं न कहीं घूमने निकल पड़ते। एक दिन भूतनाथ जाने की योजना बनी। तीसरे पहर जब सब लोग जाने के लिए घर से बाहर निकले उसी समय मुझे हाजत हुई और मैं यह कह कर फिर से घर में घुस गया। मुझे कहा गया कि वे भी रुकते हैं। लेकिन मैंने उन्हें कहा कि मैं पहुंच जाउंगा, मार्ग किसी न किसी से पूछ लूंगा। कोई दस मिनट बाद मैं घर से बाहर निकला बाजार में गंतव्य की दूरी और मार्ग पूछा तो पता लगा गंतव्य कम से कम चार-पांच किलोमीटर से कम नहीं है। सभी लोग कोई वाहन भाड़े पर लेकर गए हैं। मैंने भी एक साइकिल किराए पर ली और चल पड़ा।

रास्ता पूछते पूछते मैं शहर के बाहर आ गया। वहां पूछा तो किसी ने बताया कि यह जो रास्ता जा रहा है उसी पर चले जाओ भूतनाथ पहुंच जाओगे। मैं उसी पर चल पड़ा। कोई डेढ़ किलोमीटर चलने के बाद रास्ता एक दोराहे में बदल गया। एक रास्ता ऊपर पहाड़ी की ओर जाता था, दूसरा सीधा जाता हुआ नीचे जाता था। मैंने आस पास नजरें दौड़ाईं लेकिन कोई भी न दिखाई दिया जिससे रास्ता पूछा जा सकता। अब मुझे ही निर्णय करना था कि किस मार्ग पर जाना है। भूतनाथ में झील है यह मैंने सुना था। मैंने विचार किया कि झील पहाड़ के ऊपर तो हो नहीं सकती। निश्चय ही नीचे जाने वाला मार्ग ही भूतनाथ जाता होगा। मैंने अपनी साइकिल उसी मार्ग पर बढ़ा दी।

कोई एक किलोमीटर चलने पर डामर की सड़क नीचे की ओर जाने लगी। अचानक सड़क के बीचों बीच जहां डामर हटा हुआ था, मैंने देखा कि वहां करीब आठ फुट का एक झाड़ उगा हुआ था। निश्चय ही वह कम से कम दो वर्ष से तो वहां अवश्य ही रहा होगा। मैं गलत रास्ते पर आ चुका था। वह एक पुराना बंद मार्ग था। बंद न होता तो वहां झाड़ न उगा होता। लेकिन अब वापस दोराहे तक लौटना और फिर दूसरे मार्ग पर जाना मुझे रुचिकर नहीं लग रहा था। मैंने विचार किया कि भले ही वह मार्ग कुछ वर्षों से बंद रहा हो, लेकिन डामर की सड़क है तो कहीं तो जाती होगी। मैं उसी मार्ग पर चलता रहा। कोई एक फर्लांग बाद ही सामने रेलवे लाइन दिखाई दी। मैं समझ गया कि रेलवे लाइन पर पहले यहां फाटक रहा होगा। फाटक बंद हो जाने से ही वह मार्ग बंद हो गया होगा। रेलवे लाइन के ठीक बाद ही उस के समानान्तर एक उच्च मार्ग जा रहा था। मैंने साइकिल को हाथों में उठा कर रेलवे लाइन पार की और उच्च मार्ग पर आ गया। पास ही उच्च मार्ग से एक सड़क निकल रही थी। वहीं एक बोर्ड लगा था- “कायलाना झील- एक कि.मी.”। मैं भूतनाथ नहीं जा सका था लेकिन कायलाना के नजदीक  था। मैं वहीं गया। झील देख कर मन प्रसन्न हो गया। बहुत दिनों से तैरा न था। कपड़े खोल कर मैं झील के शीतल और पारदर्शी जल में उतर गया और बहुत देर तक तैरता रहा। सारी गर्मी और थकान गायब हो गयी। घर पहुंचने पर मुझ से पूछा गया कि मैं कहां रह गया था? भूतनाथ क्यों न पहुंचा? मैं उन्हें सुनाने लगा कि मैं कायलाना झील में तैर कर आ रहा हूं।

मैं दो स्थानों पर असमंजस में था। पहली बार जब दोराहा पड़ा और दूसरी बार तब जब सड़क के बीच झाड़ को उगा पाया। दोनों बार मैंने निश्चय किया कि मुझे क्या करना है। दोनों बार मेरे निश्चय के उपरान्त जो स्थिति उत्पन्न हुई उसे समञ्जस की स्थिति कहा जा सकता है। हमारे जीवन में अनेक बार ऐसे दोराहे आते हैं, असमंजस की स्थिति उत्पन्न होती है। लेकिन वहीं हमें निर्णय करना होता है कि हम क्या करें? वापस लौट चलें या आगे बढ़ें? किसी भी एक मार्ग पर आगे बढ़ने का निर्णय ही समञ्जस उत्पन्न करता है।  ऐसे में हम जहां भी पहुंचें हम स्वयं को आगे बढ़ा हुआ ही पाएंगे, पीछे हटा हुआ नहीं।


संस्कृत में समञ्जस के अर्थ -उचित, तर्कसंगत, ठीक, योग्य, सही, सच, यथार्थ, स्पष्ट, बोधगम्य। 

गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

क्या सर्वोच्च न्य़ायालय गरीब विद्यार्थियों के पक्ष में निर्णय देगा?

शिक्षा के अधिकार कानून द्वारा निजी विद्यालयों पर 25 प्रतिशत आर्थिक रूप से कमजोर विद्यार्थियों को प्रवेश देने की बाध्यता के विरुद्ध प्रस्तुत की गई याचिकाओं पर आज सर्वोच्च निर्णय निर्णय देने वाला है। लंबी सुनवाई के उपरान्त दिनांक 3 अगस्त 2011 को निर्णय को मुख्य न्यायाधीश एचएस कापड़िया, न्यायाधीश केएसपी राधाकृष्णन् तथा न्यायाधीश स्वतंत्र कुमार द्वारा सुरक्षित रख लिया गया था। इस मामले में  दो पृथक पृथक निर्णय दिए जाएंगे जिनमें से एक मुख्य न्यायाधीश एचएस कापड़िया का तथा दूसरा न्यायाधीश केएसपी राधाकृष्णन् का होगा। इस मामले में सोसायटी फॉर अनएडेड प्राइवेट स्कूल्स तथा इंडिपेंडेंट स्कूल्स फेडरेशन ऑफ इंडिया तथा कुछ अन्य ने चुनौती दी है कि इस कानून से राज्य के हस्तक्षेप के बिना विद्यालय संचालित करने के उन के अधिकार का उल्लंघन हुआ है। उन का यह भी कहना है कि 25 प्रतिशत विद्यार्थियों को निशुल्क प्रवेश देने से उन के संचालन के लिए आर्थिक स्रोत चुक जाएंगे। फिर भी ऐसा किया जाता है तो ऐसे विद्यालयों द्वारा जो व्यय इन 25 प्रतिशत विद्यार्थियों पर किया जाता है उस की सरकार द्वारा भरपाई की जानी चाहिए।  

देश की अधिकांश जनता का विश्वास है कि इस मामले में निर्णय गरीब विद्यार्थियों के पक्ष में होगा। निश्चय ही देश के बच्चों की शिक्षा की जिम्मेदारी वहन करना राज्य का कर्तव्य होना चाहिए। सभी विद्यालय राज्य के नियंत्रण में ही संचालित किए जाने चाहिए और विद्यालयों के स्तर में किसी तरह का कोई भेद नहीं होना चाहिए। लेकिन निजि विद्यालयों ने शिक्षा में समता को पूरी तरह नष्ट कर दिया है। जो लोग अपने बच्चों के लिए धन खर्च करने की क्षमता रखते हैं उन के लिए अच्छे और साधन संपन्न विद्यालय मुहैया कराने की छूट ने और सरकारी विद्यालयों के लगातार गिरते स्तर ने शिक्षा को एक उद्योग में बदल दिया है और इस उद्योग में निवेश कर के लोग अकूत धन संपदा एकत्र कर रहे हैं। एक निजि विद्यालय हर वर्ष अपनी संपदा में वृद्धि करते हैं। संरक्षकों की जेबें खाली कर नयी नयी इमारतें खड़ी की जाती हैं। सरकारी विद्यालयों से अधिक अच्छी शिक्षा प्रदान करने का दावा करने वाले इन विद्यालयों के कर्मचारियों को सरकारी विद्यालयों के कर्मचारियों की अपेक्षा बहुत कम वेतन दिया जाता है। उन्हें किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा नहीं मिलती। राज्य सरकारों ने कहीं कहीं इन कर्मचारियों की सामाजिक सुरक्षा के लिए कानून बनाए भी हैं तो उन की पालना कराने वाला कोई नहीं है। 

क स्थिति यह भी है कि सरकारों के पास अच्छे विद्यालय खोले जाने के लिए पर्याप्त आर्थिक साधन नहीं हैं। ऐसे में जनता की जेबें खाली करने वाले विद्यालयों पर 25 प्रतिशत निर्धन विद्यार्थियों को निशु्ल्क शिक्षा प्रदान करने की जिम्मेदारी राज्य द्वारा सौंपी जाती है तो वह किसी प्रकार संविधान के प्रावधानों के विपरीत नहीं हो सकता। अपेक्षा की जानी चाहिए कि आज सर्वोच्च न्यायालय निर्धन विद्यार्थियों के पक्ष में अपना निर्णय. देगा।

सोमवार, 2 अप्रैल 2012

'अभिव्यक्ति' सामाजिक यथार्थवादी साहित्य की पत्रिका


पिछले दिसंबर के पन्द्रहवें दिन फरीदाबाद में सड़क पर चलते हुए अचानक बाएँ पैर के घुटने के अंदर की तरफ का बंध चोटिल हुआ कि अभी तक चाल सुधर नहीं सकी है। चिकित्सको का कहना है कि मुझे कम से कम एक-डेढ़ माह का बेड रेस्ट (शैया विश्राम) करना चाहिेए। तभी यह ठीक हो सकेगा। मैं चलता फिरता रहा तो इस के ठीक होने की अवधि आगे बढती जाएगी। अब बेड काम तो मुझ से कभी हुए नहीं तो अब बेड रेस्ट कैसे होता? वैसे भी मेरा पेशा ऐसा है कि मैं दूसरों की जिम्मेदारी ढोता हूँ। उस में कोताही करने का अर्थ है उन्हें न्याय और राहत प्राप्त  करने में देरी। मेरी कोशिश रहती है कि मैं अपने मुवक्किलों के प्रति जिम्मेदारी को अवश्य पूरा करूँ। लेकिन यह भी कोशिश रहती है कि मुझे काम के दिनों में कम से कम चलना पड़े, घुटने पर जोर कम से कम देना पड़े। अवकाश  के दिन तो मैं घर से निकलना भी पसंद नहीं करता। लेकिन अपने कार्यालय में तो बैठना ही पड़ता है। पर इस में पैर पर कोई जोर नहीं पड़ता। घर से न निकल पाने के कारण पिछले ढ़ाई माह में उन लोगों से जिन से मेरी निरंतर मुलाकात होती रहती थी उन्हें भी मैं नहीं मिल सका हूँ। आज भी एक दुकान के उद्घाटन और कम से कम दो लोगों की सेवा निवृत्ति पर हो रहे कार्यक्रम में जाना था पर पैर को आराम देने के लिए वहाँ जाना निरस्त किया। दिन में चार पाँच लोग कार्यालय में आए, कुछ लोग मिलने भी आए। शाम को अचानक महेन्द्र नेह आ गए। उन का आना अच्छा लगा। वे सामाजिक यथार्थवादी साहित्य की पत्रिका 'अभिव्यक्ति' के 38वें अंक की पाँच प्रतियाँ साथ ले कर आए थे। 
शिवराम
भिव्यक्ति मेरा सपना है, जिसे मैं ने तब देखा था जब मैं स्नातक की पढ़ाई कर रहा था। मैं चाहता था कि मेरी अपनी पत्रिका हो जिस के माध्यम से मैं लोगों के साथ रूबरू हो सकूँ। लेकिन एक स्नातक विद्यार्थी के लिए इस सपने को साकार कर पाना संभव नहीं था। बाद में शिवराम मिले और बाराँ की संस्था दिनकर साहित्य समिति ने उन के संपादन में पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया। तब से मैं इस का प्रकाशक रहा हूँ। पिछले बरस शिवराम ने अनायास ही हमेशा के लिए हमारा साथ छोड़ दिया। तब अभिव्यक्ति का 37वाँ अंक लगभग तैयार था। शेष काम महेन्द्र नेह ने पूरा किया। लेकिन मार्च 2012 का यह 38वाँ अंक पूरी तरह से महेंद्र नेह के संपादन में तैयार हुआ है। महेन्द्र नेह के जाने के बाद मैं ने पत्रिका का अंक देखना आरंभ किया। निश्चित रूप से एक पत्रिका संपादक का माध्यम होती है। अभिव्यक्ति के प्रकाशन का शिवराम, महेन्द्र नेह और इस से जुड़े तमाम लोगो का उद्देश्य एक ही है. लेकिन संपादन का असर उस के रूप पर पड़ना स्वाभाविक था। इस कोण से देखने पर मुझे अभिव्यक्ति का यह 38वाँ अंक एक अलग अनुभूति दे गय़ा। हालाँकि इस अंक का एक बड़ा भाग स्मृति भाग है। लेकिन इस में इस के अतिरिक्त अत्यन्त महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं। कोटा के लोगों की भागीदारी इस बार बढ़ी है। 

दा की तरह इस अंक का मुखपृष्ठ भी रविकुमार के रेखाकंन से बोल रहा है। मुख पृष्ठ पर ही वीरेन डंगवाल की एक कविता है- 

बेईमान सजे बजे हैं,
तो क्या हम मान लें कि 
बेईमानी भी एक सजावट है? 
कातिल मजे में है 
तो क्या हम मान लें कि 
क़त्ल एक मजेदार काम है?
मसला मनुष्य का है 
इसलिए हम को हरगिज न मानेंगे
कि मसले जाने के लिए ही बचा है मनुष्य !!
-वीरेन डंगवाल
त्रिका के 38वें अंक का संपादकीय महत्वपूर्ण है, और अन्य रचनाएँ भी। आप को जिज्ञासा होगी कि आखिर इस पत्रिका में क्या है? हमारी कोशिश होगी कि अभिव्यक्ति के 38वें अंक और इस से आगे के अंको की सामग्री  हम शनैः शनैः इसी नामके ब्लाग (अभिव्यक्ति) के माध्यम से आप तक पहुँचाएँ। आशा है हिन्दी ब्लाग जगत इस का स्वागत करेगा।

शनिवार, 31 मार्च 2012

गलती करो तो भुगत लो, पर गाँठ जरूर बांध लो


यूँ तो मुझे सब लोग कहते हैं कि मैं बहुत सुस्त वकील हूँ। पर मैं जानता हूँ कि जल्दबाजी का नतीजा अच्छा नहीं होता। अभी कुछ दिन पहले एक मुकदमे में सफलता हासिल हुई। मुवक्किल बहुत प्रसन्न थे। मिठाइयों के डब्बे और कोटा की मशहूर कचौड़ियाँ ले कर अदालत पहुँचे। उन्हों ने मुझे ही नहीं, मेरे सभी सहयोगियों, क्लर्कों और अदालत के चाय क्लब के दोस्तों को नवाजा। वे इतना लाए थे कि सब का मन भरपूर हो गया। मिठाइयों और कचौड़ियों का स्वाद ले कर कॉफी की चुस्कियाँ ली गईं। फिर वे हमें पान की दुकान तक ले चले। रास्ते में मैं ने उन्हें कहा कि लोग मुझे बहुत सुस्त वकील कहते हैं। तो उन की प्रतिक्रिया थी कि वे सही कहते हैं। लेकिन मैं उस के साथ एक बात और जोड़ना चाहूंगा कि आप मनचाहा परिणाम भी लेते हैं जो अधिक महत्वपूर्ण है।  सही है कि जब हम कोई काम पूरा जाँच परख कर करेंगे तो उस का मनचाहा परिणाम भी मिलेगा और इस सब में समय लगना तो स्वाभाविक है। लेकिन कभी कभी मेरे जैसा व्यक्ति भी गलती कर ही बैठता है।

ह गलती तब होती है जब आप खुद पर जरूरत से अधिक विश्वास कर बैठते हैं। कई बार सुरक्षा को ताक पर रख देते हैं। पिछले शनिवार मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ। रात के कोई सवा बारह बजे होंगे। घड़ियाँ और कलेंडर तारीख बदल चुके थे। मैं भी अपने काम का समापन कर सोने के लिए जा ही रहा था। कंप्यूटर बन्द करने के पहले आदतन मेल बॉक्स देखने लगा तो वहाँ एक मेल बेटे की आईडी से आई हुई थी। मैं ने सोचा जरूर कुछ महत्वपूर्ण संदेश होगा। मेल को खोला तो वहाँ केवल एक लिंक मिला। तुरंत उस पर चटका लगा दिया। एक जाल पृष्ठ खुला। वहाँ कोई सोफ्टवेयर डाउनलोड करने की सुविधा थी।  आनन फानन में मैने उसे डाउनलोड भी कर डाला और जैसा कि अक्सर होता है एक एक्जीक्यूटेबल फाइल हमारे कंप्यूटर में सुरक्षित हो गई। इतना करने के बीच में एक बार यह चेतावनी भी मिली कि यह कोई मेलवेयर भी हो सकता है। मैं ने उस की भी अनदेखी कर डाली।  इस बात का विश्वास था कि बेटे ने भेजा है तो कोई असुरक्षित वस्तु हो ही नहीं सकती। फिर इस तरह के मेलवेयर की चेतावनी पिछले दिनों मुझे मेरी ही वेबसाइट के बारे में इतनी बार मिली है कि मैं उस का आदी हो चुका था। खैर!

तना करने में केवल दस मिनट खर्च हुए। मैंने उसे तुरंत ही एक्जीक्यूट कर दिया और वह जो भी सोफ्टवेयर था वह इंस्टॉल हो गया। जैसे ही वह इंस्टाल हुआ उस ने कंप्यूटर को स्केन कर डाला और कुछ ही मिनटों में एक सौ से अधिक मेलवेयर फाइलें तलाश कर दीं। फिर कहने लगा इन फाइलों को हटाने और दुरुस्त करने के लिए मुझे उस के निर्माता से पूरा पैकेज खरीदना चाहिए जिस की कीमत थी 98 डालर। यह तो  मेरे बस में न था कि कंप्यूटर की सुरक्षा के लिए पाँच हजार रुपए खर्च किए जाएँ। । मुझे संदेह होने लगा कि यह सब बेटे की नहीं बल्कि बेटे के नाम से किसी और की करतूत है। मैं ने उस सोफ्टवेयर को अनइंस्टॉल करना चाहा। लेकिन यह संभव नहीं था। मैं ने सोचा सुबह यह सब बेटे से ही पूछा जाएगा। मैं ने कंप्यूटर बंद किया और जा कर सो गया। 
सुबह उठा कंप्यूटर संभाला। आदतन सब से पहले मेल जाँचने के लिए ब्राउजर खोला तो वह पहली मेल देखते देखते क्रेश हो गया। वह बार बार ऐसा ही करने लगा। एक मेल पढना भी संभव नहीं रहा। दूसरे दो ब्राउजर्स के साथ कोशिश की तो उन का भी वही हाल हुआ। हर बार वही रात को इंस्टॉल किया हुआ सोफ्टवेयर सर पर बंदूक तान कर कह रहा था निकाल पाँच हजार मैं तेरे कंप्यूटर को ठीक कर दूंगा। मैं सोच रहा था यह कौन आफत आ पड़ी? एक तो ठीक से चल रहा कंप्यूटर का इस ने कबाड़ा कर दिया और अब ब्लेक मेल कर रहा है। मेरा बस होता तो इसे घर में घुसने ही न देता। पर मैं बेटे के नाम से आए व्यक्ति को कम से कम ड्राइंगरूम तक तो आने से भी कैसे रोकता?

तने में बेटी सो कर उठी। मैं ने उसे अपना हाल बताया तो कहने लगी- यह मेल तो मुझे भी मिली थी, लेकिन मैं ने तो भैया को रात ही फोन कर के पूछ लिया था। उस की मेल आईडी हैक हो गई है और उस से यह मेल कई लोगों को भेजी गई है। मैं ने और बेटी ने दो घंटे तक प्रयत्न किया कि घर में इस तरह छद्म तरीके से घुस बैठे राक्षस को निकाल फैंका जाए। पर वह निकलने को तैयार न था और दूसरे काम भी न करने दे रहा था। मैं ने बेटे से संपर्क किया तो उस की सलाह थी कि यह ऐसे न निकलेगा। कंप्यूटर ही फॉर्मेट करना पड़ेगा। आखिर मैं ने मोर्चा संभाला। ऑपरेटिंग सिस्टम वाले ड्राइव से सभी जरूरी फाइलें हटा कर दूसरे ड्राइव मे डाली और ड्राइव को फॉरमेट कर फिर से आपरेटिंग सिस्टम डालना आरंभ किया। आपरेटिंग सिस्टम काम करने लगा तो दूसरे ए्प्लीकेशन चालू किए। इस बीच सिस्टम ने मॉनीटर निचले दाय़ें कोने पर झंडी टांग दी कि विंडो की यह प्रति असली नहीं है। मुझे तो यह झंडी दो मिनट के लिए भी बर्दाश्त न थी। बेटे से जानकारी ली गई। माइक्रोसोफ्ट से प्रति की जाँच कराई गई। जाँच के बाद उस ने प्रति को असली पाया। फिर अपडेटस् और सर्विस पैक्स आने लगे। माइक्रोसोफ्ट ने अपना वायरस प्रतिरोधक (माइक्रोसोफ्ट सीक्योरिटी असेंशियल) मुफ्त भेंट किया। हम निहाल हो गए। हमारा कंप्यूटर अब दौड़ रहा है।

मैं अपने बेटे पर कैसे अविश्वास कर सकता था? लेकिन मुझे बेटे के नाम से मिली वस्तु पर जरूर अविश्वास करना चाहिए था। क्यों कि विश्वासघात वहीं होता है जहाँ घोर विश्वास होता है। उस वस्तु के बारे में मिली चेतावनी को अनदेखा नहीं करना चाहिए था।  सब से बढ़ कर तो यह कि किसी भी काम को बहुत देख-परख कर सोच समझ कर काम करने की आदत किसी भी विश्वास के तहत कभी त्यागनी नहीं चाहिए।

गुरुवार, 29 मार्च 2012

ओलों से सर की बचत के लिए हम बालों के मोहताज नहीं

कोई सर मुड़ा कर नाई की दुकान से निकला ही हो और आसमान से ओले गिरने लगे हों ऐसा छप्पन साल की जिन्दगी में न  तो सुना और न ही अखबार में पढ़ा। इस से पहले किसी किताब में भी इस तरह की किसी घटना का उल्लेख नहीं देखा। लेकिन चूँकि मुहावरा है और चल निकला है तो चल निकला है। वैसे मेरे जैसे लोगों के लिए इस मुहावरे का कोई अर्थ नहीं है जिन के सर पर या तो बाल पूरी तरह भूतकाल की वस्तु हो कर रह गए हैं या फिर किनारों पर सिमट कर रह गए हैं। हमारे लिए तो ओले कभी भी पड़ें क्या फर्क पड़ता है? हम जानते हैं कि ओले पड़ने पर क्या करना है। शायद यही कारण है कि अब तक अनेक बार ओले पड़ते देखे हैं पर सिर को कभी नुकसान नहीं पहुँचा। लेकिन इस बार ओले काम कर गए हम तो हम, उस्ताद भी देखते रह गए।

हुआ यूँ कि तीन-चार बरस पहले हम ने वेब साइटस् चलाने वाले मित्र से वैसे ही शौकिया तौर पर पूछा था कि क्या तीसरा खंबा डाट कॉम डोमेन मिल सकता है? उन्हों ने मात्र बीस मिनट बाद ही बताया कि हमारे नाम से यह डोमेन ले लिया गया है। अब आगे की कोई गणित तो हमें आती नहीं थी। सो वह डोमेन पड़ा ही रहा। हम ब्लागस्पाट की सेवाओं का आनन्द लेते रहे। इस साल हमने ठान ही लिया कि अपने ब्लाग तीसरा खंबा को अपने डोमेन पर ले जा कर वेबसाइट बना डालेंगे। फिर मित्र की और हमारी कवायद चली आखिर तीसरा खंबा को अपने डोमेन पर स्थानान्तरित करने में कामयाबी मिल गई। हम ने भी जोर शोर से अपने ब्लागस्पॉट के ब्लाग तीसरा खंबा पर अपने ब्लाग की अंतिम पोस्ट की घोषणा कर दी और नए वर्ष की पहली तारीख 1 जनवरी 2012 को तीसरा खंबा अपने डोमेन की वेबसाइट में परिवर्तित हो गया। 


म अपना सिर मुंड़वा कर प्रसन्न थे। खूब जोर शोर से साइट आरंभ हो गई। पाठकों में भी निरंतर वृद्धि होती रही। बहुत सारी सुविधाएँ भी मिलीं। दो माह कैसे गुजरे, पता भी नहीं लगा। मार्च का आरंभ हुआ तो पता लगा रास्ते इतने आसान नहीं हैं। हम पर कभी रूमानियत सवार थी तो सोचते थे कहीं जाएँ न जाएँ एक बार सोवियत संघ के रूस जरूर हो कर आएंगे। वह मेरे अनेक प्रिय लेखकों टाल्सटॉय, चेखव, गोगोल, गोर्की, मायकोवस्की आदि का देश था। गंगा तो देखी थी पर वोल्गा और देखना चाहते थे। मास्को का वह विश्वविद्यालय देखना चाहते थे जहाँ महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने अध्यापन किया, विवाह किया और एक संतान भी उन्हें हुई। लेकिन रूमानियत में या तो आदमी रांझा, मजनूँ, भगत सिंह हो कर शहीद हो सकता है या फिर उस की  रूमानियत यथार्थ की शक्ल अख्तियार कर लेती है। हम रूमानियत से निकल कर अपने वतन के यथार्थ में उलझे रह गए। सोवियत संघ अपनी गलतियों का शिकार हो कर टूट गया। इस से यह सिद्ध हुआ कि काबुल भले ही घोडों के लिए प्रसिद्ध रहा हो लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि वहाँ गधे नहीं होते। 

तो, फरवरी निकलते ही पता लगा कि केश-विहीन सिर पर  कठोर-कठोर शीतल-शीतल कंकड़ पड़ने लगे हैं। आसमान पर देखा तो वहाँ कोई बादल तक न था, सूरज तेज चमक रहा था। आखिर यह ओले आए कहाँ से। तीसरा खंबा न पाठकों से खुल रहा था और न ही हम से उस का एडमिन खुल रहा था। जब भी खोलना चाहते ब्राउजर किसी रूसी वेबसाइट के पते पर पहुँचा देता, तो कभी ब्राउजर रिपोर्टेड अटैक साइट का बोर्ड चिपका जाता। हम ने अपने वेब एडमिनिस्ट्रेटर को बताया तो पता लगा हमला हम पर ही नहीं हुआ है नासा पर भी हो रहा है। बताया कि वे हमले को विफल करने की तैयारी कर रहे हैं, बस कुछ समय लग सकता है। हम ने संतोष की साँस ली। हम ने सोचा चलो एक दो दिन इस काम से फुरसत मिली। 
दूसरे दिन तीसरा खंबा खुलने लगा। हम फिर प्रसन्न हो गए कि हमला विफल हो गया है। लेकिन तीसरे दिन फिर तीसरा खंबा रूस जाने लगा। अब तो धूप छाहँ का सिलसिला आरंभ हो गया। एक दिन हमला विफल होता। हम चैन की साँस लेते। तीसरा खंबा पर कोई न कोई माल अपलोड कर देते। लेकिन दूसरे दिन ही फिर वही हाल वेब साइट अपहृत पाई जाती। बताया गया कि जिस सर्वर से हमारी वेबसाइट संचालित हो रही है उस के सभी किराएदारों को यही परेशानी है। छत का एक छेद बंद किया जाता है। दूसरे दिन छत दूसरी जगह से टपकनी शुरू हो जाती है। वह मार्च का आरंभ था अब मार्च का अंत भी आ रहा है लेकिन छत है कि टपकना बंद ही नहीं हो रही है। हम ने शिकायत की तो पता लगा, घर बदलने की व्यवस्था की जा रही है। सप्ताह भर में घऱ बदल दिया जाएगा। हम ने भी सप्ताह भर चैन से बैठने की ठान ली है। देखते हैं, सप्ताह भर में क्या होता है? तीसरा खंबा की रूस यात्रा बंद होती है या नहीं?  होती है तो ठीक वर्ना, वर्ना क्या? जो हम से बन पड़ेगी करेंगे। पर तीसरा खंबा को रूस न जाने देंगे। मजबूत सी टोपी लाएंगे, सर पर पहनेंगे, पर ओलों को सर पर तबला न बजाने देंगे।