@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

रविवार, 17 मई 2009

सब से बड़ा अंतर्विरोध शासक शक्तियों और जनता के बीच : जनतन्तर कथा (30)

हे, पाठक! 
सनत और सूत जी प्रातः नित्य कर्म से निवृत्त होते उस के पूर्व ही माध्यमों ने परिणामों के रुझान दिखाना आरंभ कर दिया।  प्रारंभिक सूचनाओं से ही अनुमान हो चला था कि सरकार तो बैक्टीरिया दल का गठबंधन ही बनाएगा।  वायरस दल पिछड़ने लगा और उन के एक नेता से पूछा गया कि यह क्या हो रहा है? तो वे कहने लगे अभी तो पूरब और दक्खिन के परिणाम आ रहे हैं, हिन्दी प्रदेशों के आने दीजिए।  लेकिन उधर के परिणामों ने भी उन्हें निराशा ही परोसी।  बैक्टीरिया दल में उत्साह का वातावरण छा गया, भक्तगण फुदकने लगे।  नाना प्रकार के वाद्ययंत्र बजाने वाले स्वतः ही आ गए बजाने लगे। बहुत से लोग नृत्य करने लगे।  ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उन्हें कुबेर की नगरी लंका या इन्द्रलोक का साम्राज्य मिल गया हो।  जैसे-जैसे दिन चढ़ता गया वैसे वैंसे उन की प्रफुल्लता बढ़ती गई। 


हे, पाठक!
इधर उत्सव मनाया जा रहा था उधर दूसरे शिविरों में बहुत मायूसी थी।  वायरस दल को तो साँप सूंघ गया था। पहले जहाँ बढ़-चढ़ कर माध्यमों के अभिकर्ताओं का स्वागत किया जाता था, आज उन से अनायास ही चिढ़ पैदा हो रही थी।  अनेक लोग जनता को ही कोस रहे थे।  उन्हें छोटी-छोटी बातें भी गालियाँ जैसी प्रतीत हो रही थीं।  बैक्टीरिया दल का साथ छोड़ कर अपना राग अलापने वाले सब घाटे में रहे थे, उन का सफाया हो गया था।  कल तक जो सरकार बनाने के स्वप्न देख रहे थे, आज वहाँ सन्नाटा था।  वायरस दल का साथ छोड़ जिन ने बैक्टीरिया दल का हाथ थामा था उन के पौ-बारह हो गए थे।  लाल फ्रॉक वाली बहनों के घर भी मातम था।  जनता का साथ छोड़ने का उन्हें भी बहुत नुकसान उठाना पड़ा था।  पहले अपनी धीर-गंभीर बातों से जिस तरह वे लोगों का मन मोह लेती थीं। आज उस का भी अभाव हो गया था।  अपनी ऊपरी मंजिल पर बहुत जोर डालने पर भी वह प्रकाशवान नहीं हो रही थी।  कोई सिद्धान्त ही आड़े नहीं आ रहा था जिस के पीछे मुहँ छुपा लेतीं।


हे, पाठक!
परम आदरणीय माताजी और गंभीर हो गई थीं, उन की गंभीरता ने उन के सौन्दर्य को चौगुना बढ़ा दिया था।  वे घोषणा कर चुकी थीं कि महापंचायत में उन का नेता अर्थशास्त्री ही रहेगा और जनता से किए गए सब वादे पूरे किए जाएँगे।  अर्थशास्त्री जी राजकुमार की चिरौरी कर रहे थे कि महापंचायत के बाहर उन्हों ने जो कौशल प्रदर्शित किया है उस से अब वे अंदर भी नेतृत्व करने के योग्य हो गए हैं।  लेकिन राजकुमार को आखेट की सफलता ने मत्त कर दिया था। वह वन को हिंस्र पशुओं से हीन कर उसे उपवन बनाने की शपथ ले रहा था।  सब से अधिक धूम थी तो परामर्श की थी।  विजय वरण करने वाले कह रहे थे कि वह सब को एकत्र कर मंत्रणा करेंगे।  तो पराजय स्वीकारने वाले भी सब को एकत्र कर मंत्रणा करने की इच्छा रखते थे।  जिस से अगले युद्ध के लिए अभी से तैयारी आरंभ की जाए।  अगले दिन दक्खिन की रानी यान से राजधानी आने वाली थी उस का कार्यक्रम स्थगित हो गया था।  उस से पहले साँय उस से मिलने जाने वाले वीर बाहुबली के पूरे दिन दर्शन ही नहीं हुए।  वह कहाँ?  किस ?  अनुष्ठान में व्यस्त थे पता नहीं लग रहा था। 


हे, पाठक! कब दुपहरी हुई पता ही नहीं लगा।  बाहर गर्मी कितनी बढ़ गई थी? इस का अहसास नहीं था।  दोपहर का भोजन वहीं कक्ष में ही मंगा लिया गया था।  वहीं दिन अस्त हो गया।  रात के भोजन  लिए सूत जी सनत के साथ भोजनशाला पहुँचे तो स्थान रिक्त होने की प्रतीक्षा करनी पड़ी।  भोजनशाला  ने आज विशिष्ठ व्यंजन बनाए थे।  दोनों भोजन कर बाहर नगर में निकले तो जलूसों का शोर देखने को मिला। विजय के अतिरेक में कोई दुर्घटना न हो ले इस लिए बहुत लोगों ने अपनी दुकानें शीघ्र ही बन्द कर दी थीं।  आखिर दुकान की हानि होती तो कोई उस की भरपाई थोड़े ही करता।  दोनों शीघ्र ही वापस यात्री आवास लौट आए।  सनत पूछने लगा -गुरूवर! यह क्या हुआ?  इस की तो कल्पना ही नहीं थी?
-ऐसा नहीं कि कल्पना ही नहीं थी।  वास्तव में जनतंत्र में सब से बड़ा अतर्विरोध शासक शक्तियों और जनता के बीच ही रहता है।  शासक शक्तियों को कुछ अंतराल के उपरांत जनता से स्वीकृति लेनी होती है जिस की एक पद्यति बना ली जाती है। पद्यति शासक शक्तियों के अनुकूल होते हुए भी जनता उसे भांप लेती है।  वह शासक की शक्ति को सीमित रखने का प्रयत्न करती है।  जैसे शासक जनता को बाँट कर रखना चाहता है वैसे ही वह भी शासक शक्ति के प्रतिनिधियों को बाँट कर रखना चाहता है।  जिस से वह जितनी शासक शक्तियों से अधिक  से अधिक राहत प्राप्त कर सके।
इतना कहते कहते सूत जी अपनी शैया पर विश्राम की मुद्रा में आ गए।  सनत कुछ पूछना चाहता था।  लेकिन फिर यह सोच कर कि सुबह पूछेगा स्वयं भी अपनी शैया पर विश्राम के लिए चला गया।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

शनिवार, 16 मई 2009

कौन चुनता है खेतपति? कौन बनाता है सरकारें? : जनतन्तर कथा (29)



हे, पाठक!
प्रातःकाल के नित्यकर्म से निवृत्त हो कर सूत जी और सनत यात्री आवास से बाहर बहुत गर्मी थी। अभी दोपहर होने में समय था लेकिन सूरज प्रखरता पर था हवा गर्म हो चुकी थी।  राजधानी में होने वाले खेतपतियों के ठेकेदारों की चहल-पहल बढ़ चली थी।  माध्यम  सुबह से ही उन की हलचलों की सूचनाओं के साथ अपनी अपनी आंकड़ेबाजी प्रदर्शित करने में लगे थे।  उधर महापंचायत में नेतृत्व के इच्छुक आँकड़ेबाजी में व्यस्त थे। कौन सी चिड़िया फाँसी जा सकती है? सूत जी ने कहा -सनत! हम दो माह से घूम रहे हैं।  आज हमारा तो मन दिन में यात्री आवास में ही विश्राम करने का है।  तुम क्या कर रहे हो?
सनत बोला -मैं जरा ठिकानों की टोह ले कर आता हूँ।  कैसे कैसे प्रहसन चल रहे हैं?
 दोनों ने एक अच्छे स्थान पर प्रातः कलेवा किया।  सूत जी को वापस यात्री आवास छोड़ सनत टोह में निकल लिया।

हे, पाठक!
सायँकाल सनत वापस लौटा, दिन भर के समाचार सुनाने लगा। ये वही समाचार थे जो सूत जी को दिन भर में  माध्यमों से प्राप्त हो चुके थे। कुछ नया नहीं था। सनत ने वही प्रश्न फिर सूत जी के सामने रखा।  महापंचायत पर किस का आधिपत्य होगा? जनता किसे चुनेगी? क्या कल वही परिणाम देखने को मिलेंगे जिन का अनुमान लगाया जा रहा है?
सूत जी बोले  -सनत परिणाम भी एक दिवस भर में आ लेंगे।  लेकिन वह महत्वपूर्ण नहीं है। मैं तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर देता हूँ पर पहले तुम्हें मेरे कुछ प्रश्नों का उत्तर देना होगा।

-गुरुवर पूछें। सनत बोला।
गणतंत्र बनने से ले कर आज तक अनेक चुनाव हुए हैं, सरकारें बनी हैं, बिगड़ी हैं, नयी आई हैं।  तुम बताओ कि सब से अधिक लाभ इन सरकारों से या व्यवस्था से किस को हुआ है?
 प्रश्न बहुत गंभीर था।  सनत  देर तक सोचता रहा।

हे, पाठक!
सनत सोच कर बोला -सब से अधिक लाभ तो देश के उद्योगपतियों ने उठाया है।  उस से कुछ कम लाभ उन लोगों ने उठाया है जो देश भर में कृषि भूमि और नगरीय भूमि पर आधिपत्य. रखते हैं।
-बस यही मैं तुम से कहलाना चाहता था।  वैसे  भारत में लगी विदेशी पूँजी के बारे में तुम्हारा क्या सोचना है? सूत जी ने फिर प्रश्न किया।
सनत फिर कुछ देर सोच कर बोला -विदेशी पूँजी भी देश से बहुत लाभ कमा कर ले जाती है।
-तो सर्वाधिक लाभ कमाने वाले हुए उद्योगपति, भू-स्वामी और विदेशी पूँजी के स्वामी। यही, यही तीनों अब तक महापंचायतें चुनते आए हैं और सरकारें बनाते आए हैं।  ये ऐसे लोगों को वे सारे साधन उपलब्ध कराते हैं जिस से चुनाव जीता जा सकता है।  चुनाव की प्रक्रिया को इतना महँगा और जटिल बना दिया है कि इन तीनों की कृपा के बिना कोई चुनाव जीत कर खेतपति बनने की कल्पना तक नहीं कर सकता।  इस लिए जो भी चुन कर खेतपति बनता है वह इन्हीं का होता है।  वे इस का भी पूरा ध्यान रखते हैं कि वे उसी के बने रहें।  इसलिए यह भ्रम है कि खेतपति को जनता चुनती है, खेतपति महापंचायत में एकत्र हो कर सरकार चुनते हैं और शासन जनता का है।  वास्तव में ये तीनों ही मिल कर सब कुछ चुनते हैं।
सनत यह सत्य सुन कर सकते में आ गया।

हे, पाठक!
-पर जनता तो इस भ्रम में है कि सब कुछ वही चुनती है।  वह तो समझती है कि यह जनतंत्र है। सनत बोला।  हाँ, वह प्रारंभ में यही समझती थी।  लेकिन जनता को बहुत काल तक भ्रम में नहीं रखा जा सकता। वह अब समझने लगी है।  जब वह इस सत्य को बिलकुल नहीं समझती थी या उस का केवल एक छोटा भाग ही इस सत्य को समझता था, तब लगातार बैक्टीरिया दल को बहुमत मिलता रहा।  लेकिन जब उस का भ्रम टूटने लगा तो उस ने बैक्टीरिया दल को कमजोर किया।  बहुत उथल-पुथल के उपरांत वायरस दल सामने आया।  इस दल का चेहरा भिन्न था इसलिए उस के बारे में जनता को भ्रम रहा।  फिर भ्रम टूटा तो उसे भी जनता ने मजबूत नहीं होने दिया वापस कमजोर किया।  विकल्पहीनता की स्थिति में बहुत से छोटे-छोटे दल अस्तित्व  में आ गए हैं।  इन तीनों का काम बढ़ गया है।  अब उन्हें इस तरह इन छोटे-छोटे दलों को एकत्र करना है कि महापंचायत और देश के शासन पर उन का अधिकार बना रहे।
सनत चुपचाप सुन रहा था।  सूत जी रुके तो बोला -गुरूवर आप ने तो आँखें खोल दीं।
सूत जी बोले बहुत रात हो गई है।  कल का दिन बहुत महत्वपूर्ण है। असली आँकड़ेबाजी तो कल मतसंग्रह यंत्रों से बाहर निकलनी है।  तुम्हें बहुत व्यस्त रहना होगा।  अब शयन  करो।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

शुक्रवार, 15 मई 2009

नीली, पीली, हरी लाल सब पर्चियों में एक ही नाम : जनतन्तर कथा (28)

हे, पाठक!
जैसे वामन ने दो चरणों में ब्रह्मांड नाप दिया था, वैसे ही चुनाव आयोग ने पाँच चरणों में भारतवर्ष नाप दिया।  मतसंग्राहक यंत्रों में भारतवर्ष  के आने वाले वर्षों का वर्षफल लिख दिया गया है। परिणाम की प्रतीक्षा है। लेकिन जिन्हें आस लगी है वे अविलंब शुरू हो चुके हैं।  अपने बल पर कोई भी महापंचायत का मुखिया बनने लायक नहीं लग रहा है।  आंकड़ेबाजी और आंकड़े बाजी शुरू हो गई है। दूरभाष खड़काए जा रहे हैं।  पिछले दिनो जो लोग एक दूसरे के निन्दा रस का आनंद बरसा रहे थे, वे अब आपस में प्रेम की पींगें बढ़ा रहे हैं।  एक ओर पतंगें आसमान में उड़ने की तैयारी कर रही हैं, दूसरी ओर लोग मोटे मोटे धागों में पत्थर बांध कर डालने को लंगर तैयार कर रहे हैं।  किस रंग की पतंग पर लंगर डाला जाए? पतंग को हवा लगे उस से पहले ही लंगर डाल दिया जाए। कहीं कोई दूसरा न डाल ले।

हे, पाठक!
सनत और सूत जी ने संध्या विश्राम में बिताई।  प्रातः उठ कर सनत सूत जी की डाक देखते देखते जोर से बोला -गुरुवर, बरेली से किसी कायचिकित्सक अमर कुमार संदेसा है....
क्या? पढ़ कर सुनाओ!
सनत पढ़ने लगा ......
हे ज्ञानश्रेष्ठ, इन क्षणभँगुर आवत जावत नट व नटनियों पर आप पर्याप्त मसि व्यय कर चुके,
अब त्राहिमाम के असफ़ल जाप से दुःखार्त जन की सुधि लेय ।
उनकी पीड़ा का यदि कोई श्रवण भर कर ले, यही उनका सँतोष है ।
पीड़ा को सह , उपजे सँतोष व निराश आशाओं पर जीवित रहने के अनोखे सुख के प्रसँग का समावेश कर, हे ज्ञानश्रेष्ठ !

संदेसा सुन सूतजी मुसकाए, बोले - वाकई अमर है।  याज्ञवल्क्य का शिष्य ऐसी बात  कर सकता है।  अब इस ने कहा है तो बात माननी पड़ेगी।  शिष्य तैयार हो जाओ आज बस्ती चलते हैं।
शिष्य ने दूरभाष खड़काया, वाहन का प्रबंध किया।  प्रातःकालीन कर्मों से निवृत्त हो चल दिए बस्ती में।

हे, पाठक!
एक स्थान पर भीड़ लगी थी।  लोग पुराने, मैले कपड़े पहने खड़े थे।  वाहन रोका गया। यह इन्सानों की मंडी थी।  सैंकड़ों लोग दिन भर को बिकने को तैयार थे। खरीददारों की कमी थी।  इन में बेलदार, कुली थे, और औजार लिए राजगीर थे। लोग निकट आए, उन की आँखों में आस थी।
आप से मतदान किस किस ने किया।  कुछ पूछते ही वापस दूर हो लिए।
एक बोला -मैं ने किया है। काम बंद था। लोग घर बुलाने आए मैं चला गया मत दे आया।
बुलाने न आते तो? सनत ने पूछा।
-तो न जाता।  मत देने से हम को मिलता क्या है।  साल में दस पन्द्रह दिन की मजदूरी कोई भी खा जाता है।  मजदूरी दिला दे ऐसा तो कोई इंतजाम किसी पंचायत ने आज तक नहीं किया।
-ये लोग दूर क्यों चले गए? सनत ने पूछा।
-उन ने वोट नहीं डाला। उन का नाम यहाँ नहीं गाँव में है। अब मत देने कोई गाँव कैसे जाएगा?
काम कितने दिन मिलता है?
कभी मिलता है, कभी नहीं मिलता। कभी बीमारी-सीमारी से नहीं जा पाते। महीने में पन्द्रह-बीस दिन कर लेते हैं।
इस संक्षिप्त साक्षात्कार के उपरांत सनत और सूत जी आगे चल दिए।  एक बस्ती में पहुँचे। बस्ती में गंदगी में खेलते बच्चे थे और झुग्गियों के बाहर बैठे कुछ बूढ़े।  सनत ने एक वृद्ध से पूछा -जवान लोग नजर नहीं आ रहे। वृद्ध ने सनत को अजीब निगाहों से घूरा, फिर बोला  -सब काम पर गए हैं। 
-काम पर कहाँ गए हैं?
-जिन के पास काम है वे अपने अपने काम पर गए हैं। जिन के पास नहीं है वे तलाश करने गए हैं। कहीं सड़क किनारे भीड़ में दिख जाएंगे।
आप ने मत डाला?
क्यों न डालेंगे? हम हर बार मत डालते हैं।  उधर उस्ताद रहता है वही हर बार नेताओं से बात करता है। जिस को कहता है डाल देते हैं।  घंटा भर में डाल कर वापस आ जाते हैं।  कभी दो दिन की, कभी तीन दिन की मजूरी मिलती है।
-मत पैसा लेकर डालते हैं आप?
-सब डालते हैं। उस दिन कोई काम पर नहीं जाता।  काम पर सिर्फ एक दिन की मजूरी मिलती है। नेता मत के दिनों में ही आते हैं।  फिर कोई इधर नहीं आता।  काम होने पर हम जाते हैं तो सूरत नहीं पहचानते। उस्ताद हमारे हमेशा काम आता है।
सनत सूत जी आगे चल दिए।

हे, पाठक!
दोनों एक बहुमंजिला भवनों के पास एक पान की गुमटी पर रुके।  पान वाले से बात की  - इधर चुनाव का क्या हाल रहा?   
-कुछ खास नहीं। आधे लोग भी मत देने नहीं गए।  जो गए उन में दोनों तरफ के थे।  किस ने किस को मत डाला पता नहीं पर लगता है इधर का मामला 19-20 ही रहा होगा। सब डाल आते तब भी यही रहता।
दोनों दिन भर घूमते रहे।  साँझ को वापस लौटे तो नतीजा वही था।  लोग अनमने थे।  या तो मत देना नहीं चाहते थे, या फिर सोचते थे कि किसी को डाल दो क्या फऱक पड़ता है।  उन पर तो कोई फरक पड़ना नहीं है।  जीवन जैसे चल रहा है वैसे ही चलेगा।
हे, पाठक!
रात को भोजन कर विश्राम करने लगे तो सनत ने पूछा -गुरूवर,  मैं ने पूछा था, जनता किस को वरेगी तो आप हँस दिए थे कहा था कुछ दिन में पता लग जाएगा।  तो आप क्यों हँसे थे?  और आप का आशय क्या था?  आज तो बता दें।
सूत जी बोले -सनत! जनता किसी को नहीं वरती।  वरे तो तब जब वरने के लिए विकल्प हों।  नीली, पीली, हरी लाल सब पर्चियों में एक ही नाम लिखा है।  किसी को उठा लो चुना तो वही जाएगा।
-गुरुवर बात पल्ले नहीं पड़ी।
-बहुत रात हो गई, अब सो लो। कल बात करेंगे।
सूत जी कुछ ही देर में खर्राटे भरने लगे। सनत देर तक सोचता रहा कि गुरूवर क्या कहना चाहते हैं?
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

गुरुवार, 14 मई 2009

बिजली कटौती के बाद

सुबह उठे, कॉफी पी है।  अखबार को श्रीमती जी ले कर बैठ गई हैं। हम ने कम्प्यूटर चालू किया।  पढ़ने को चिट्ठे खोले। पहला पढ़ना शुरू किया ही था कि बाहर से श्रीमती जी बोल उठीं। 7 बजे से बिजली कटौती है 10 बजे तक। सात बजने वाली है। ..........


.............बस इतना लिखा ही था कि ध्यान कंप्यूटर जी की घड़ी पर गया तो केवल दो मिनट शेष थे।  बिना कोई देरी किए हम ने जितना लिखा था पोस्ट कर दिया। जैसे ही ब्लागर जी ने सूचना दी कि आलेख पोस्ट हो गया है, बिजली चली गई।  हम ने अखबार पढ़ना शुरू किया .... उन्नाव-बरेली, इलाहाबाद-मैनपुरी, बल्लभगढ़-नोएडा और बल्लभगढ़-महारानी बाग की 400 केवी तथा बरेली-पंतनगर और बरेली-दोहना की 220 केवी लाइनों के खंबे बड़ी संख्या में अंधड़ के कारण गिर गए हैं।  जिस से उत्तरी ग्रिड से राजस्थान को मिलने वाली बिजली में अचानक कमी आ गई है।  तकनीकी कारणों से राजस्थान की अनेक इकाइयों में उत्पादन अवरोध के कारण पहले ही बिजली की कमी थी।  अब बिजली की सप्लाई मिलने तक कटौती जारी रहेगी।  राजधानी जयपुर में कितनी कटौती की गई है यह नहीं बताया गया था।  लेकिन संभाग मुख्यालयों पर 3 घंटे, जिला मुख्यालयों पर 4 घंटे, नगरपालिका क्षेत्रों में 5 घंटे और 5 हजार से अधिक की आबादी के कस्बों में 6 घंटे की बिजली कटौती रहेगी।  गाँवों के बारे में क्या निर्णय किया गया बताया नहीं गया है।

वैसे पिछले साल की बरसात के बाद यह पहली बार बिजली की कटौती हुई है।  आज कल सुबह की अदालतें हैं। लेकिन मैं नौ बजे के बाद ही घर से निकलता हूँ।  बिजली कटौती के कारण मैं इस बीच एक दम काम विहीन हो गया।  तसल्ली से घर आने वाले तीनों अखबार पढ़े, स्नान किया, नाश्ता किया और अदालत के लिए रवाना हो गया। एक बजे वहाँ से लौटा हूँ तो फिर से दुनिया से जुड़ पाया हूँ।


बिजली जाने के बाद कुछ देर तो गर्मी का अहसास हुआ। खूब पसीना आया। फिर सब खिड़कियाँ दरवाजे खोले। हवा ठीक चल रही थी।  पसीने संपर्क में आई तो बदन शीतल कर गई।  मुझे बचपन याद आने लगा। क्या क्या स्मृति कोष से निकला? यह आप को बताउंगा तो अजित वडनेरकर नाराज हो लेंगे कि फिर बकलम का क्या होगा?  इस लिए आगे कुछ नहीं लिखूंगा।  उधर दिल्ली में आँकड़े बाजी शुरू हो गई है।  लोग ताक में हैं कि किस पर आँकड़ा डालें? कौन फँस सकता है कौन नहीं? पहले मित्रों के बीच भी विरोधी नजर आते थे। अब विरोधियों के बीच मित्र तलाशे जा रहे हैं।  मैं फिर अतिलंघन कर रहा हूँ, बिजली की बात तो कभी की समाप्त हो चुकी है।  यह जनतन्तर कथा बीच में कहाँ से आए जा रही है।  अच्छा तो चलते हैं। मिलते हैं शाम की सभा में जनतन्तर कथा के साथ।  जै सियाराम !

तीन घंटे की बिजली कटौती ?

सुबह उठे, कॉफी पी है।  अखबार को श्रीमती जी ले कर बैठ गई हैं। हम ने कम्प्यूटर चालू किया।  पढ़ने को चिट्ठे खोले। पहला पढ़ना शुरू किया ही था कि बाहर से श्रीमती जी बोल उठीं। 7 बजे से बिजली कटौती है 10 बजे तक। सात बजने वाली है।

मंगलवार, 12 मई 2009

लालटेन भभका क्यों? मर्दुआ लपका क्यों? : जनतन्तर कथा (28)

हे, पाठक! 
अगला दिन राजधानी में मतदान का दिन था।  सूतजी सनत के साथ दिन भर राजधानी में मतदान के नजारे करते रहे।  राजधानी में अधिक उत्साह दिखाई नहीं दिया।  राजधानी में अनेक महत्वपूर्ण राजनेता अपने अपने क्षेत्र छोड़ कर मतदान करने पहुँचे।  माध्यम दिन भर उन के चित्र दिखाते रहे।  बैक्टीरिया दल के मुखिया की बेटी जो सारे चुनाव परिदृश्य में जो साड़ी पहने भारतीय महिला की छवि परोसती रही,  मतदान के दिन अपने जीवनसाथी के साथ नए फैशन की पोशाक में दिखाई दी।   जैसे दौड़ में भाग लेने आई हो।  सूत जी ने सनत से कहा, "तुम्हारा मीडिया की मुख्य खबर आज यह पोशाक बनने वाली है।"   राजधानी का दूसरा बड़ा समाचार यह भी था कि चुनाव कराने कराने वाले विभाग के मुखिया का नाम ही मतदाता सूची से अन्तर्ध्यान हो गया।  हड़कम्प मचा तो तत्काल किसी दूसरी सूची में उन का नाम तलाश कर उन का मत डलवा दिया गया।  संभवतः उन्हें अहसास हुआ हो कि आम मतदाता का क्या हाल होता होगा?

हे, पाठक! 
उधर बैक्टीरिया दल के मुखिया के बेटे के श्री मुख से आपत्कालीन मसाला बत्ती की तारीफ सुनी तो दल के गायकों ने एक स्वर से राग दरबारी में कोरस आरंभ कर दिया।  राजकुमार तो मात्र जिन का साथ चाहता था उन्हें बताना चाहता था कि उन के पास बैक्टीरिया दल के अलावा कोई मार्ग शेष नहीं है।  पर कोई पड़ोसी की मसाला बत्ती की तारीफ करे तो  घर की लालटेन को तो भभकना ही था।  उधर दो पत्तियों की तारीफ हुई तो दक्खिन में सूरज उगते उगते बादलों की ओट चला गया। रैली स्थगित हो गई।  मसाला बत्ती अपनी तारीफ सुन कर गदगद हो उठी, उसने दाँत बर्राए और सफाई दी कि देखिए हमरी सरकार गठबंधन की हैं, उसे छोड़ कर कइसे जा सकत हैं।  अइसे तो हमरा घर बार ही बरबाद नहीं न हो जाई। हम कहीं नहीं जा रहे हैं।  इस से अभिनय से जिन की त्योरियाँ चढ़ी थीं वापस यथा स्थान आ गईं। उधर वायरस दल में भी हलचल हो चली  सारे छत्रप एक साथ एक ही यान में इकट्ठा किए।  घोषणा की गई कि हमारा यान भरा भरा है और अब चलने ही वाला है। हम चल ही देते जो पाँचवा दौर बीच में पहाड़ सा न खड़ा होता। मसाला बत्ती जिस से सब से अधिक दूर भागती थी उसी मरदुआ  ने उस का हाथ पकड़ कह दिया- जे हमरी साथी हैल देखो हम एकई सीट मैं धँसे हैं साथ साथ।  मसाला बत्ती ने वहाँ भी दाँत बर्रा दिए। फोटू खिंच गए।  क्या फोटू था?  बहुतों को तुरंत बरनॉल की जरूरत पड़ गई। वायरस दल में शीतलता की लहर दौड़ पड़ी।  लगा जैसे बहुत सारे वातानुकूलक एक साथ चला दिए गए हों।  मन फुदकने लगा,  पुष्पवर्षा  होने लगी, प्रशस्तिगान के स्वर ऊँचे हो गए।

हे, पाठक! 
मसाला बत्ती वापस घर पहुँची तो पड़ोसी पूछने लगे -यह क्या हुआ ?  तुम तो कहती थी जहाँ वह मरदुआ होगा तुम फटकोगी भी नहीं, जहाँ वह होगा हम उस देहरी पर नहीं चढेंगी।   मरदुआ ने सब के सामने तुम्हारा हाथ पकरा, तुमने सारी बत्तीसी दिखा दी।
मसाला बत्ती बोली -हम क्या करती? हमें थोड़े ना पता था, मरदुआ उधर जा धमकेगा। हम ने तो बुलाया नहीं था।   मरदुआ पिच्छे से आ धमका टप्प से बइठ गवा हमरी बगल में अउर हमरा हाथ पकर कै ऊँचा कर दीन,   ऊपर से फोटू भी खींच रहीन।  अब हम सब के सामने रोने तो बैठने से रहीं।  फिर रिस्तेदारी देखीं। हम कुछ कहतीं तो रिस्तेदारी न बिगड़ती।  हमरा घर ही दाँव पे न लग जाता।  मसाला बत्ती कहते कहते रुआँसी हुई तो
 देख कर लालटेन को तसल्ली हुई गई, उस का भभकना बंद हुआ गया।  वह फिर से  जलने लगी पर तब तक लालटेन का गोला काला पड़ गया था। रोशनी अंदर ही घुट रही थी।


हे, पाठक! 
इस सारे प्रहसन को देख सनत ने सूत जी से पूछा -इस का अर्थ क्या हुआ, गुरूवर?
सूत जी बोले  -इस का अर्थ यह हुआ कि न तो लालटेन को रोशनी करने से मतलब  है न मसाला बत्ती को अंधेरा मिटाने से।  इन्हें मतलब है सिर्फ खुद को अच्छी दुकान में सजे रहने से।
-गुरूवर! समझ गया, सब समझ आ गया।  दुकानों को मतलब है कि उन के पास इतना माल सजा रहे कि ग्राहक बाहर से न सटक ले।  पर इस बार समझ नहीं आ रहा कि कौन महापंचायत को वरेगा?  जनता किस को इस लायक समझेगी? -सनत ने फिर प्रश्न किया।   इस प्रश्न को सुन कर सूत जी को हँसी आ गई। बोले -एक दो दिन में इस प्रश्न का उत्तर भी तुम्हें मिल जाएगा।  अभी कुछ प्रतीक्षा करो।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

रविवार, 10 मई 2009

पादुका प्रहार का फैशन और नयी महापंचायत की चौसर : जनतन्तर कथा (27)

हे, पाठक!
यात्री-निवास पहुँच कर सूत जी ने स्नान-ध्यान किया।  भोजनशाला पहुँचे तब वहाँ भोजन का अंतिम दौर चल रहा था।  भोजन पा कर वापस अपने कक्ष पहुँचे तो अर्धरात्रि हो चुकी थी।  तभी चल-दूरभाष से आरती का स्वर उभरा  -जय जगदीश हरे....    दूसरी ओर सनत था।
-गुरुवर कहाँ हो? सूत जी ने बताया कि वे रात्रि विश्राम स्वामी पद्मनाभ की विश्राम स्थली तिरुवनंतपुरम में कर रहे हैं।
सनत-गुरुवर, समाचार देखे सुने?
सूत जी-नहीं आज तो समय नहीं मिला, कुछ विशेष है क्या?
सनत-चौथे दौर का प्रचार अभियान थमते ही महा पंचायत की चौसर शुरू हो चुकी है।  चाचा वंश के राज कुमार ने बैक्टीरिया दल की और से पासा फैंक दिया है।  लालटेन की प्रतिद्वंदी आपत्कालीन मसाला-बत्ती की प्रशंसा कर दी कि यह सीधे विद्युत से ऊर्जा प्राप्त करती है और उसे सहेज कर रखती है, जिसे आपत्काल में काम लिया जा सकता है।  यह कोसी की बाढ़ के बाद लोगों के बहुत काम आई।  यह भी कहा कि बैक्टीरिया दल लाल फ्रॉक का सहयोग प्राप्त कर सकता है।  इस से लालटेन भभक उठी  है, उस का कांच का गोला कभी भी तड़क सकता है। मैं  राजधानी पहुँच गया हूँ।   यहाँ का मतदान भी देख लेंगे और आगे का सारा खेल तो यहीं होना है।  आप राजधानी कब पहुँच रहे हैं?
सूत जी- बस, कल प्रातः स्वामी के दर्शन कर आगे की योजना को अंतिम रूप देता हूँ फिर भी कोशिश रहेगी कि मतदान आरंभ होते होते राजधानी पहुँच लूँ।
सनत- ठीक है गुरूवर आप विश्राम कीजिए।  मैं  राजधानी में  आप की प्रतीक्षा करूंगा।

हे, पाठक!  
सूत जी बुरी तरह थके हुए थे,  शैया पर जा लेटे।  सोचने लगे, सत्तावन वर्ष पूर्व आरंभ हुई भारतवर्ष के गणतंत्र की यह यात्रा आज कहाँ पहुँच चुकी है?   भारतीय गंणतंत्र यथार्थ में एक अनूठा प्रयोग स्थल हो गया है, जहाँ मानव समाज के विकास की कथा कुछ पृथक रीति से अंकित हो रही है।   वे  आज यहाँ केरल में आर्थिक विकास के स्तर और लोगों की सामाजिक-राजनैतिक चेतना के स्तर को देख कर बहुत प्रभावित हुए थे।  वे सोच रहे थे कि शायद पूरे भारतवर्ष मे ऐसा हो सकता था।  यदि गणराज्य और उस के दूसरे प्रान्तों की पंचायतों ने भी यहाँ की भांति भूमि सुधार और शिक्षा के मामलों में आजादी के आंदोलन के दौरान घोषित नीति को दृढ़ता से लागू करने  के लिए वैसी  प्रतिबद्धता दिखाई होती जैसी  केरल की पहली प्रान्तीय सरकार ने दिखाई थी।  यद्यपि उस प्रतिबद्धता  के कारण ही उस पहली पंचायत का ही वर्ष  में  जबरन अवसान कर दिया गया।  लेकिन पंचायत की प्रतिबद्धता ने जनता को उस स्तर तक शिक्षित कर दिया था कि आने वाली पंचायतें इन दोनों पक्षों की उपेक्षा नहीं कर पाई।  तब शायद देश में भी यहाँ की तरह दो ही राजनैतिक दल या ध्रुव होते। .... विचारते विचारते ही सूत जी निद्रामग्न हो चुके थे।

हे, पाठक!  
सूत जी दूसरे दिन साँयकाल राजधानी पहुँच गए।  मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।  वह अकेला नहीं रह सकता।  सन्यास धारण कर लेने के उपरांत भी उसे किसी का साथ तो चाहिए ही।  सनत पहले ही राजधानी पहुँच चुका था।  उन्हों ने उसे भी अपने पास ही बुला लिया।  अब दोनों साथ हो लिए थे।  अगले दिन राजधानी के सभी खेतों के प्रतिनिधियों के लिए मतदान होना था।  यहाँ पिछले दिनों बहुत अनूठी घटनाएँ हुई थीं।  चुनाव के आरंभ में ही बैक्टीरिया दल के एक नेता पर पादुका प्रहार हुआ था।  जिस का असर ये हुआ कि राजधानी क्षेत्र में बैक्टीरिया दल ने अपने दो सशक्त उम्मीदवारों को बदल दिया था।  एक तरह से बैक्टीरिया दल ने अपने पूर्व अपराध की स्वीकारोक्ति कर ली थी।  सूत जी जानते थे कि मतदाता की स्मृति बहुत क्षीण होती है।  वे अवश्य ही इस स्वीकारोक्ति के उपरांत बैक्टीरिया दल को माफ कर देंगे और बैक्टीरिया दल माफी का लाभ  प्राप्त करने में सफल हो लेगा।   इस पादुका प्रहार ने फैशन की जगह ले ली थी।  अब तक के चुनाव प्रचार में उस के अनोखे उदाहरण सामने आए।  यहाँ तक कि महापंचायत के वर्तमान मुखिया और वायरस दल के घोषित मुखिया भी इस के प्रहारों से न बच सके।  पर पादुका प्रहार का यह फैशन अहिंसक ही बना रहा और उस ने किसी को भी भौतिक चोट नहीं पहुँचाई।  यद्यपि बहुत से मीमांसकारों ने इस पर चिंताएँ प्रकट करते हुए पत्र-पत्रिकाओं के पृष्ठ रंग डाले।  पर सूत जी जानते थे कि पादुका प्रहार एक फैशन की तरह आया है और फैशन की तरह चला जाएगा।   एक फैशन और चला कि पहले पहल पादुका प्रहार के लक्ष्य बने नेताओं ने इसे अपनी अहिंसा की नीति के अंतर्गत प्रहारकों को क्षमा कर दिया।  लेकिन इस महानता का कार्य करने में वायरस दल के नेता पिछड़ गए।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....