@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

आप भुवनेश शर्मा को जानते हैं? नहीं, तो जानिए, और बधाई दीजिए

हुत बहुत दिनों से यह साध थी कि उस की शादी में जरूर जाउंगा, और अकेला नहीं, बल्कि सपत्नीक। लेकिन कहते हैं न कि सोचा हमेशा सधता नहीं। कल तक इरादा पक्का था। लेकिन एक काम ऐसा पड़ा कि उसे तुरंत करना जरूरी था। उसी में लगा रहा। रात तारीख बदलने तक उसे करता रहा। काम से उठने के पहले सोचा, अब सुबह जल्दी निकला जा सकता है। लेकिन उठते ही हाजत हाजिर, निपट भी लिया, लेकिन सहज नहीं हुआ। सुबह तीन-चार के बीच फिर जाना पड़ा, पर सहजता नहीं लौटी। लगा कि अब सुबह छह बजे की ट्रेन नहीं ही पकड़ पाएंगे। फिर जाना मुल्तवी कर दिया। कल दोपहर तक दूल्हे का फोन आया था। सर! आ रहे हैं न आप? मैं ने पूरी गर्मजोशी से कहा था, आ रहा हूँ। शाम को फिर फोन आया तो फिर गर्मजोशी दिखाई थी। लेकिन अगली सुबह होने के पहले हवा निकल गई। 
ब मैं डर रहा था कि दूल्हे का फोन आया तो क्या कहूंगा? जो हुआ वह बताऊँ या नहीं? फिर सोचा, मैं शादी में पहुँच जाता तो क्या कर लेता, ठीक बारात निकलने के पहले पहुँच पाता। थोड़ा विश्राम कर सूट पहन बारात में चल देता। फिर रिसेप्शन में स्वागत झेलता। दूल्हे के सिवा मैं किसी से परिचित नहीं था। और दूल्हे से भी बस आभासी परिचय ही था। पहली बार मिलते। लेकिन वह अधिकतर घोड़ी पर होता या फिर स्टेज पर दुलहिन के साथ। जैसे-तैसे शादी निपटती। दूल्हे को तो अभी फुरसत भी नहीं होती कि हमारी रवानगी लग जाती। नहीं जा पाए तो कोई बात  नहीं, दूल्हे को दुल्हिन के साथ घर बसा लेने दो फिर दो-चार महीने बाद चलेंगे। एक-दो दिनों का समय निकाल कर, जिस से उसे भी मेजबानी का सुख मिले और हम भी उन के साथ मिलें और उस इलाके को भी घूम-फिर कर देखें। मैं इसी तरह सोच रहा था कि उस का फिर फोन आ गया -सर! कहाँ तक पहुँचे? मैं ने सहज बता दिया कि मैं किस कारण से रवाना नहीं हो सका हूँ। यह भी कहा कि कोई बात नहीं दो-चार माह बाद आएंगे दो-एक दिन रुकेंगे। दूल्हे को कुछ तसल्ली होती लगी तो मैं ने कहा -तुम ही आओ दुलहिन को लेकर, दो-एक दिन रुको। तुम्हें इस इलाके में घुमा दें। अब शादी के दिन वैसे ही दूल्हे पर समय बहुत कम होता है। फोन पर बात खत्म हो गई। 
भुवनेश शर्मा
ब आप को बता दूँ कि ये दूल्हा महाशय वकील और हमारे अपने हिन्दी ब्लाग जगत के ब्लागीर भुवनेश शर्मा हैं। इन के तीन ब्लाग हिन्‍दी पन्‍ना, एक वकील की डायरी और Amazing Pictures हैं। ये आज रात्रि अपने ही नगर की आयुष्मति रश्मि को अपनी जीवन संगिनी बनाने जा रहे हैं। कल सुबह सूर्योदय की पहली किरण के साथ अपनी रश्मि को साथ ले कर घर लौटेंगे। अब हम इन के विवाह के साक्षी तो नहीं बन सके, लेकिन इन्हें अपनी ओर से बधाई तो दे ही सकते हैं। 
भुवनेश व रश्मि दोनों के आपस में जीवन-साथी बनने पर बहुत बहुत बधाइयाँ!!! और सफल प्रसन्नतायुक्त वैवाहिक जीवन के लिए अनन्त शुभकामनाएँ!!!
म ने दे दी हैं, आप भी दे ही दीजिए........

अब तुम्हीं बताओ, जनता! इस में मेरा क्या दोष है?

अब तुम्हीं बताओ, जनता! 
स में मेरा क्या दोष है? पार्टी ने चुनाव लड़ा, चुनाव में कहा "वे मुझे प्रधानमंत्री बनाएंगे"। तुमने इतना वोट नहीं दिया कि अकेले मेरी पार्टी मुझे प्रधानमंत्री बना सके। पर, तुम से किया वायदा तो पूरा करना था ना? तो उस के लिए पार्टी ने जुगाड़ किया, मुझे प्रधानमंत्री बनाया। अब जुगाड़ यूँ ही तो नहीं हो जाता, उस के लिए न जाने क्या-क्या करना पड़ता है? तुम तो सब जानती हो। नहीं भी जानो तो खुद को लोकतंत्र का स्वयंभू चौथा खंबा मानने वाले लोग तुम्हें जना देते हैं। वे यही नहीं जनाते कि क्या-क्या किया गया? वे तो, जो नहीं किया गया, लेकिन जो किया जा सकता था, उसे भी बता देते हैं। (बड़ा बेपर्दगी का जमाना आ गया है।) अब जुगाड़ तो जुगाड़ है, वह खालिस तो है नहीं कि उस की कोई गारंटी हो। उधर कई जुगाड़ सड़कों पर चल रहे हैं, बिना नंबर के, बिना बीमा के, बिना लायसेंस के ड्राइवर उन को चला रहे हैं। कोई उन से टकराकर मर जाए, तो कोई क्या कर ले? जैसे-तैसे पुलिस मुकदमा दर्ज भी कर ले तो क्या? सबूत तो कुछ होता नहीं। किसी को सजा नहीं होती। मुआवजे का मुकदमा कर दो तो ये साबित करना मुश्किल हो जाता है कि जुगाड़ का मालिक कौन था। वैसे जुगाड़ तो जुगाड़ होता है, उस का क्या मालिक, और क्या नहीं मालिक। 

प्यारी जनता!
तुम तो सब जानती हो, तुम से क्या छुपा है? बड़े बड़े लोगों को भले ही न पता हो, पर गरीब जनता को सब पता होता है। बड़े लोग सब लोग जुटा लेते हैं, जुगाड़ में तो तुम्हें ही चलना पड़ता है। वैसे ऐसा भी नहीं कि बड़े लोगों का जुगाड़ से कोई नाता ही नहीं हो। वे भी जुगाड़ करते हैं। पर वे ये सब कुछ इस तरह करते हैं कि पता तक नहीं चलता। वे चाहते हैं जैसा कानून बनवा लेते हैं, कोई कानून आड़े आ रहा हो तो उसे खत्म करवा देते हैं। फिर बड़े लोगों को कानून की परवाह क्यों हो। उन के पास बड़े वकील हैं, सर्वोच्च अदालत में जाने का माद्दा है। वैसे ही देश में अदालतें बहुत कम हैं। क्या करें? मैं तो चाहता हूँ  कि और अदालतें खुलें, लेकिन उन के लिए धन कहाँ से लाएँ? जब भी कानून मंत्री जी नई अदालतें खोलने की बात करते हैं तभी वित्तमंत्री जी कह देते हैं -जुगाड़ में तेल कम है। जब भी अदालत का नाम सामने आता है तो सर में दर्द होने लगता है और सारे दर्द-निवारक काम में लेने के बावजूद नहीं मिटता। लगता है उन का काम जनता के मुकदमों का फैसला करना नहीं, सिर्फ सरकारों को परेशान करना है। आखिर मुझे कहना पड़ा कि अदालत को जुगाड़ के कामों में दखल नहीं करना चाहिए। लेकिन फिर एक जज कह गया कि कोई जुगाड़ी नहीं चाहता कि अदालत मजबूत हो। वह मजबूत होगी तो जुगाड़ बिना एक्सीडेंट के भी धर लिया जाएगा। कानून तोड़ने का चालान किया जाएगा। वैसे जुगाड़ी इन चालानों से नहीं घबराते। उन का इलाज करना तो आता है। पर शिकायत करने वाले भी आज कल जुगाड़ी हो चले हैं, थानों में रपट कराने के बजाए सीधे अदालत के पास जा कर इस्तगासा ठोंक देते हैं। 

हे न्यारी जनता! 
ब ये विरोधी पार्टी वाले नहीं समझें, तो न समझें। तू तो सब कुछ समझती है। तू खुद जुगाड़ में लगी रहती है। जो जुगाड़ चलाता है, जो उस का इस्तेमाल करता है, उसे तो मेरी मजबूरी समझना चाहिए ना। अब तू ही बता जुगाड़ के सामने कोई भाई आ जाए तो उसे चंदा देना पड़ता है और कोई खाकी आ जाए तो उसे भी मनाना पड़ता है। अब तो समझ में आई मेरी मजबूरी। विरोधियों को तो समझ नहीं आएगी, उन्हों ने नहीं समझने की कसम खा रखी है। पर ये समझ नहीं आता है कि इस चौथे खंबे को क्या हो गया है। आज कल बुरी तरह पीछे पड़ा है। वह तो भला हो इस जुगाड़ के पुर्जों का जो कोई बिगड़ा नहीं। एक दो बोल जाते तो जुगाड़ को यहीं खड़ा कर के तेरे पास आना पड़ता। अब ये थोड़े ही हो सकता है कि मेरी पार्टी पाँच  साल पूरे होने के पहले ही तुम्हारे पास आ जाऊँ। आखिर मैं ने पूरे पाँच साल का कान्ट्रेक्ट किया था। उसे पूरा निभाऊंगा। अब तुम्हीं बताओ कोई  जुगाड़ वाला तुम्हारी बेटी की शादी में टेंट हाउस का माल ढोने का कांट्रेक्ट करे और बीच में ही जुगाड़ छोड़ भागे तो तुम पर क्या बीतेगी? मैं कम से कम ऐसा तो नहीं कर रहा हूँ, कांट्रेक्ट पूरा कर के ही हटूंगा। दो बार दिल का आपरेशन करवा चुका हूँ, जरूरत पड़ी तो तीसरी बार भी करवा लूंगा, पर पीछे नहीं हटूंगा। 

हे जनता!
ब ये बात भी कोई पूछने की है, कि कहीं ऐसा न हो कि तुम भी अफ्रीकियों के रास्ते पर चल पड़ो। मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हूँ। तुम उस रास्ते पर नहीं चलोगी। आखिर अफ्रीका के में लोगों को बोलने की ऐसी आजादी थोड़े ही थी जैसी यहाँ है। अब बोलने भी न दोगे तो पेट तो फूलेगा ही। अब यहाँ अपने देश में इत्ती बड़ी आजादी दे रखी है वह काफी नहीं है क्या? तुम कहीं भी कुछ भी बोल सकती हो और खुश हो सकती हो। वहाँ बीस-बीस साल तक राष्ट्रपति नहीं बदलता, हमें देखो, हम पाँच साल में बदल देते हैं। यूँ चाहो तो तुम सरकार भी बदल सकती हो। पर विपक्ष में कोई ऐसा है भी तो नहीं जो सरकार बना सके, और बना ले तो चला सके। एक हम ही हैं जो जुगाड़ कर के भी सरकार चला सकते हैं। एक बार नहीं दो-दो बार चला सकते हैं। चला कर बताएंगे कि हम पूरे पाँच साल एक जुगाड़ चला सकते हैं। पर आखिर जुगाड़ है तो जुगाड़ का धर्म निभाना पड़ता है। इसीलिए तुम्हें तकलीफ झेलनी पड़ रही है। इस बार जो गाड़ी चलाना ही पड़े तो कम से कम चलाने के लिए जुगाड़ का मौका मत देना। जुगाड़ में कई झंझट हैं। कई देवता ढोकने पड़ते हैं। जुगाड़ न होता तो एक कुल देवी से ही काम चलाया जा सकता था। 

ओ...मेरी सुहानी जनता! 
ब तू ही बता इस में मेरा क्या दोष है? मैं बिलकुल निर्दोष हूँ, बस जुगाड़-धर्म निभा रहा हूँ। फिर भी तू मुझे दोषी मानती है तो, इस बार का पाँच-साला कांट्रेक्ट निभा लेने दे। सजा ही देनी हो तो पाँच साल पूरे होने का इंतजार कर। मैं जानता हूँ तुम सब कुछ सहन कर सकती हो। प्याज का भाव सहन कर लेती हो, शक्कर की तेजी सहन कर लेती हो, तेल का उबाल सहन कर लेती हो फिर मुझ जैसे ईमानदार कमजोर आदमी को कुछ बरस और सहन नहीं कर सकती?

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

वाह! सांसद जी ........ वाह ! ...... कमाल किया आप ने ! ...... अब जरा तैयार हो जाइए!

सासंद जी,
प हर बार इलाके में वोट मांगने आए। कुछ ने आप का विश्वास किया,  कुछ को आपने जैसे-तैसे-ऐसे-वैसे पटाया। आप के पिटारे में लाखों वोट इकट्ठे होते रहे और आप संसद में जाते रहे। वहाँ गए तो आप ने संविधान की कसम ली कि आप देश की जनता की भलाई के लिए काम करेंगे। आप वहाँ गए थे, सरकार चुने जाने के लिए नफरी बढ़ाने, कानून बनाने पर अपनी मोहर लगाने, जनता की बात कहने और उस के लिए लड़ने के लिए, जनता को न्याय दिलाने के लिए। पर क्या आप का कर्तव्य यह भी नहीं बनता था क्या कि आप कानून के रखवाले भी बने रहें। आप के सामने कानून की धज्जियाँ उड़ गईं, आप उन धज्जियों को घोल कर पी गए और  बीस बरस तक सांस भी नहीं ली। इस बीच आप न जाने क्या क्या कहते रहे, लेकिन यह बात कैसे इतने दिन पची रही। आप को कभी उलटी नहीं आई?

सांसद जी,
प के लिहाज से शायद यह पुण्य का काम था कि दारू की दुकानें बंद न हों, गरीब लोग परेशान न हों, दारू के अभाव में जहरीली दारू पी कर न मरें। इसीलिए आप की जुबान पर अब तक ताला पड़ा रहा। अब आपने जुबान खोली भी है तो उस जज का नाम नहीं बता रहे हैं, जिसे वह 21 लाख रुपए दिए गए थे। आप ये भी कह रहे हैं कि आप के पास साबित करने को सबूत नहीं हैं। आप ने व्यर्थ ही इतने बरसों तक बात को छुपाए रखने की मशक्कत की, वरना उस अपराध के सब से पहले सबूत तो आप ही थे। आप! लाखों की जनता के चुने हुए प्रतिनिधि, संसद सदस्य। इस सबूत को तो आपने ही नष्ट कर दिया, इस तरह आप ने अपराध किया। फिर इतने बरसों तक आप ने इस बात को छुपा कर एक और अपराध किया। अपराधी तो आप भी हैं ही। पर यह सब करने की जरूरत आप को क्या थी? 

सांसद जी, 
हीं ऐसी बात तो नहीं कि वे सभी दारूवाले आप के मिलने वाले हों, आप को चुनाव जीतने के लिए भारी-भरकम चंदा दिया हो, आप को सांसद बनाने में बड़ी भूमिका अदा की हो। आप को अपने इन हमदर्दों पर दया आ गई हो कि दुकानें बंद हो जाएंगी तो क्या खाएंगे? जिन्दा कैसे रहेंगे? अगला चुनाव कैसे लड़ेंगे? कहीं ऐसा तो नहीं कि जज साहब और इन दारूवाले मित्रों के बीच की कड़ी आप ही हों, और इसीलिए यह बात इतने दिन इसी लिए छुपा रखी हो।

सांसद जी,
र आप यह कैसे भूल गए कि आप उसी राज्य के सांसद हैं, जिस राज्य ने इन दुकानों को बंद करने का आदेश दिया था? आप यह कैसे भूल गए कि आप के प्रान्त से  एक जज हुए थे सु्प्रीम कोर्ट में, वी.आर. कृष्णा अय्यर और वे अभी तक जीवित ही नहीं हैं सक्रिय भी हैं। फिर भी आप ने यह बात खोल दी। अब मुझे यह समझ नहीं आ रहा है कि इस बात को खोलने के पीछे आप की मंशा क्या है? या फिर आप की मजबूरी क्या है? लेकिन अब आपने बात खोल ही दी है तो भुगतना तो पड़ेगा ही। थाने में आप के खिलाफ अपराध दर्ज हो गया है। ये सवाल मैं नहीं पूछ रहा हूँ, बल्कि बता रहा हूँ कि ऐसे ही सवाल पुलिस आप से पूछने वाली है। जरा तैयार हो जाइए!

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

हम वस्तु नहीं हैं

मशेर बहादुर सिंह के शताब्दी वर्ष पर राजस्थान साहित्य अकादमी और विकल्प जन सांस्कृतिक मंच कोटा द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी का समापन हुआ। विकल्प का एक सदस्य होने के नाते मुझे इस आयोजन में शिरकत करने के साथ कुछ जिम्मेदारियों को भी निभाना पड़ा। बीच-बीच में अपने काम भी देखता रहा।  यह संगोष्ठी इस आयोजन में शिरकत करने वाले रचनाकारों के लिए शमशेर के साहित्य, उन के काल, अपने समय और दायित्वों को समझने के लिए अत्यन्त लाभदायक रही है। यूँ तो मुझे इस आयोजन की रिपोर्ट यहाँ प्रस्तुत करनी चाहिए। पर थकान ने उसे विलंबित कर दिया है। इस स्थिति में आज महेन्द्र नेह की यह कविता पढ़िए जो इस दौर में जब अफ्रीका महाद्वीप के देशों में चल रही विप्लव की लहर में उस के कारणों को पहचानने में मदद करती है। 
हम वस्तु नहीं हैं
  • महेन्द्र 'नेह'
ऊपर से खुशनुमा दिखने वाली
एक मक्कार साजिश के तहत
उन्हों ने पकड़ा दी हमारे हाथों में कलम
औऱ हमें कुर्सियों से बांध कर 
वह सब कुछ लिखते रहने को कहा 
जिस का अर्थ जानना 
हमारे लिए जुर्म है

उन्हों ने हमें 
मशीन के अनगिनत चक्कों के साथ
जोड़ दिया
और चाहा कि हम 
चक्कों से माल उतारते रहें
बिना यह पूछे कि 
माल आता कहाँ से है

उन्हों ने हमें फौजी लिबास 
पहना दिया
और हमारे हाथों में 
चमचमाती हुई राइफलें थमा दीं
बिना यह बताए 
कि हमारा असली दुश्मन कौन है
और हमें 
किस के विरुद्ध लड़ना है

उन्हों ने हमें सरे आम 
बाजार की मंडी में ला खड़ा किया
और ऐसा 
जैसा रंडियों का भी नहीं होता 
मोल-भाव करने लगे

और तभी 
सामूहिक अपमान के 
उस सब से जहरीले क्षण में
वे सभी कपड़े 
जो शराफत ढंकने के नाम पर
उन्हों ने हमें दिए थे
उतारकर
हमें अपने असली लिबास में 
आ जाना पड़ा
और उन की आँखों में
उंगलियाँ घोंपकर
बताना पड़ा 
कि हम वस्तु नहीं हैं।

रविवार, 13 फ़रवरी 2011

घूम कर जाना है

ज का दिन शमशेर के नाम रहा। राजस्थान साहित्य अकादमी और विकल्प जन-सांस्कृतिक मंच कोटा द्वारा शमशेर बहादुर सिंह की जन्मशताब्दी पर आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी आज यहाँ आरंभ हुई। संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में मुख्य अतिथि वरिष्ठ गीतकार, राजस्थान उच्चन्यायालय के पूर्व न्यायाधीश व राष्ट्रीय विधि आयोग के सदस्य शिवकुमार शर्मा  (कुमार शिव) थे। किन्तु अचानक हुई अस्वस्थता ने उन्हें दिल्ली से रवाना होने के बाद भी मार्ग में जयपुर ने ही रोक लिया। उन के अभाव में वरिष्ठ  नन्द भारद्वाज को यह भूमिका निभानी पड़ी, सत्र की अध्यक्षता अलाव के संपादक रामकुमार कृषक ने की। उद्घाटन सत्र के बाद 'हिन्दी ग़ज़ल में शमशेरियत' विषय पर एक संगोष्ठी सम्पन्न हुई जो शाम साढ़े छह तक चलती रही। फिर रात को साढ़े आठ बजे एक काव्य गोष्ठी आरंभ हुई जो रात ग्यारह बजे तक चलती रही। काव्य गोष्ठी शायद देर रात तक चलती रहती, यदि कोटा के बाहर से आए अतिथियों को भोजन न कराना होता।  
सुबह अतिथियों का स्वागत करने से ले कर रात तक आयोजन सहयोगी के रूप में शिरकत करने के कारण हुई थकान गोष्ठी की रिपोर्ट प्रस्तुत करने में बाधा बन रही है। इस बीच दो पंक्तियाँ रची गईं वे ही यहाँ रख रहा हूँ -

यूँ तो ठीक सामने ही है घर मेरा, सड़क के उस पार 
बीच  में  डिवाइडर है, चौराहे  से  घूम  कर जाना है


शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

शमशेर पर दो दिवसीय राष्ट्रीय साहित्यिक संगोष्ठी

ब्दों के कुछ समूह हमारी चेतना पर अचानक एक हथौडे़ की तरह पड़ते हैं, और हमें बुरी तरह झिंझोड़ डालते हैं। दरअसल हथौडे़ की तरह पड़ने और बुरी तरह झिंझोड़ डालने वाली उपमाओं के पीछे होता यह है कि इन शब्दों ने हमारे सोचने के तरीके पर कुठाराघात किया है, हमें हमारी सीमाएं बताई हैं, और हमारी छाती पर चढ़ कर कहा है, देखो ऐसे भी सोचा जा सकता है, ऐसे भी सोचा जाना चाहिए। जाहिर है कविता इस तरह हमारी चेतना के स्तर के परिष्कार का वाइस बनती है।
विकुमार का उक्त कथन उन के अपने कविता पोस्टरों का आधार बनी कविताओं के लिए है। लेकिन शमशेर बहादुर सिंह की लगभग तमाम कविताओं पर खरा उतरता है। शमशेर ऐसे ही थे। सीधे अपने पाठक और श्रोता की चेतना को झिंझोड़ डालते थे, व सोचने पर बाध्य हो जाता था कि वह कहाँ गलत था और सही क्या था। 
ह नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, फैज हमद फैज, गोपाल सिंह नेपाली और अज्ञेय का जन्म शताब्दी वर्ष है, हम इस बहाने उन के साहित्य से और उस के माध्यम से पिछली शती के भारतीय समाज से रूबरू हो रहे हैं। इसी क्रम में राजस्थान साहित्य अकादमी और 'विकल्प' जनसांस्कृतिक मंच कोटा 12-13 फरवरी को शमशेर बहादुर सिंह पर एक राष्ट्रीय साहित्यिक संगोष्ठी का आयोजन कर रहा है। निश्चित रूप से इस अवसर से बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। जो मित्र-गण इस में सम्मिलित हो सकते हों वे सादर आमंत्रित हैं -


निमंत्रण को ठीक से पढ़ने के लिए उस पर क्लिक करें।

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

रक्षा न करने के अपराधी

स दिन मेरे निर्माणाधीन मकान में आरसीसी छत में कंक्रीट डाली जानी थी। मैं पहुँचा, तो  मजदूर आ चुके थे। वे सभी मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के भील आदिवासी थे। हमारे यहाँ उन्हें मामा कहते हैं और स्त्रियों को मामी। उन के बच्चे भी साथ थे। एक मामी ने एक बल्ली उठाई और पास में खड़े खंबे से तिरछा कर के बांध दिया। फिर उस बल्ली पर रस्सी का एक झूला बनाया और कपड़े से झोली डाल दी। उधर रेत में कपड़ा बिछा कर एक गोद का बच्चा लिटाया हुआ था। मामी ने उसे उठाया और झूले के पास बैठ कर उसे अपना दूध पिलाया और झोली में लिटा कर झुलाने लगी। कुछ ही मिनटों में वह सो गया। मामी उठ कर काम पर लग गई। दिन में काम करते हुए बीच-बीच में वह बच्चे को संभालती रही। ये वे लोग थे जिन की जरूरतें अधिक नहीं बढ़ी थीं। बस कुछ काम चलाने लायक कपड़े। सुबह शाम भोजन चाहिए था उन्हें कुछ वे बचा कर भी रखते थे, बुरे दिनों के लिए या फिर देस में जा कर खेती को कुछ सुधारने या घर को ठीक करने के लिए। वे अपने बच्चों से प्रेम करते हैं, शायद इतना कि वक्त आने पर अपने बच्चों के प्राणों की रक्षा के लिए शायद अपनी जान भी दे दें। यहाँ तक कि कभी तो औरों की रक्षा के लिए प्राण देते भी लोगों को देखा है। कम से कम उन के पास होते तो बच्चे को बाल भी बाकां न होने दें। 
कुत्ता मनुष्य के साथ रहने वाला प्राणी है। कुतिया चार-पाँच बच्चे एक साथ देती है। जब तक बच्चे खुद जीने लायक नहीं होते उन्हें अपने संरक्षण में रखती है, उन के पास किसी को फटकने तक नहीं देती। यहाँ तक कि उन कुत्तों को भी जिनमें शायद कोई उन बच्चों का पिता भी हो। धीरे-धीरे बच्चे खुद जीने लायक हो जाते हैं। इस बीच यदि उस के बच्चों पर कोई मुसीबत आए तो उस मुसीबत पर खुद मुसीबत बन कर टूट पड़ती है। उस हालत में गली के कुत्ते तो क्या इंसान भी उस कुतिया से खौफ खाने लगते हैं। उस से दूर हो कर निकलते हैं। लेकिन मनुष्य ... ?
जैसे-जैसे उस ने जीने के लिए साधन बनाना आरंभ किया, वैसे-वैसे शायद वह खुदगर्ज होता गया। आज इंसान अपने लिए जीता है। कमाता है, समाज में अपना मान बढ़ाता है, फिर उस मान की रक्षा करने में जुट जाता है। इस मान के लिए वह अपने ही बच्चों का कत्ल तक करने से नहीं चूकता। हम हर साल बहुत सारी मान-हत्याओं को अपने आस-पास होते देखते हैं। वह पिता जिस ने अपनी संतान को पाला-पोसा और बड़ा किया, वह माँ जिसने उसे गर्भ में नौ माह तक अपने खून से सींचा, प्रसव की पीड़ा सही, फिर अपना दूध पिलाया, उस के बाद उसे मनुष्यों की तरह जीना सिखाया वे ही इस मान के लिए अपनी संतान के शत्रु हो गए, उन्हें खुद ही मौत की नींद सुलाने को एकदम तैयार। आखिर यह मान इत्ती बड़ी चीज है क्या?
ब आरूषी की हत्या हुई तो कई दिनों तक मैं ने भी औरों की तरह टी.वी. देखने और अखबारों को पढ़ने में बहुत समय जाया किया।  पहले तीन दिनों की टीवी रिपोर्टें देखने के बाद मैं ने सवाल भी उठाया था कि क्या आरुषि के हत्यारों को सजा होगी?  मैं ने कहा था, "हो सकता है कि अपराधी के विरुद्ध अभियोजन भी हो। लेकिन सबूत इस कदर नष्ट किए जा चुके हैं कि उसे किसी भी अदालत में सजा दिया जाना अभी से असंभव प्रतीत होता है।" अब तो सब को पता है सबूत नष्ट किए जा चुके हैं, अब सीबीआई के मुताबिक शक की सुई खुद आरुषी के माता-पिता की और जाती है लेकिन पर्याप्त सबूत नहीं हैं। उत्तर प्रदेश पुलिस ने तो पहले ही तलवार को गिरफ्तार कर लिया था, चाहे सबूत उन के पास भी न हों।
म मान लेते हैं कि तलवार दंपति ने आरुषी और हेमराज का खून नहीं किया। लेकिन क्या फिर वे दूध के धुले हैं? मैं और बातों में नहीं जाता। मैं सोचता हूँ, ये कैसे माँ बाप हैं। जिन के बगल के कमरे में इकलौती बेटी की हत्या हो गई, नौकर मारा गया, नौकर की लाश छत पर पहुँच गई और वे सोते पड़े रहे। यहाँ तक कि इस बीच इंटरनेट ऑपरेट भी हुआ। क्या दोनों नशे में मदहोश पड़े थे? ऐसे लोगों को क्या बच्चे पैदा करने का हक भी है। उन्हों ने मातृत्व और पितृत्व दोनों को कलंकित किया। हक न होते हुए भी संतान पैदा की। संतान को पालते रहे, लेकिन एक मूल्यवान वस्तु की तरह, सर पर लगी मान की कलगी की तरह। जिसे गंदी होते ही किसी कूडे़ दान में फैंक दिया जाता है। वे बच्चे की हत्या के अपराधी भले ही न हों लेकिन वे अपनी ही संतान की रक्षा न कर पाने के अपराधी तो हैं हीं। उन्हें सजा मिलनी ही चाहिए।