नगर तेजी से विस्तार पा रहे हैं। लेकिन केन्द्र और राज्य सरकारों के नगरीय विकास विभाग इस विस्तार से आँख मूंदे बैठे हैं। लोग नगरों में शरण पाते हैं तो उन्हें रहने को छप्पर तो चाहिए ही। रोजगार मिलने के बाद सब से पहले आदमी यही सोचता है कि उसे एक छत मिल जाए। वह उस की तलाश में लग जाता है। वह किराए का घर लेता है। जो हमेशा उस की जरूरत से बहुत छोटा होता है। जैसे तैसे कुछ बचाता है और एक अपना घर बनाने की जुगाड़ में लग जाता है। नगरों में जमीनें कीमती हैं और उस के बस की नहीं। लेकिन अपने घर की चाह बनी रहती है
इसी चाह का लाभ उठाते हैं वे लोग जिन के पास लाठी है, जिनकी लाठी की राजनीतिज्ञों को जरूरत होती है और जिन के पास कुछ पैसा भी है। वे जमीनों पर कब्जा करते हैं, झुग्गियाँ डालते हैं और उन्हें किराए पर उठाते हैं, बेच भी देते हैं। सस्ती झुग्गी खरीद कर आदमी उसे पक्की करने में जुट जाता है। यह झुग्गी हमेशा अवैध होती है जब तक कि पूरी बस्ती के वोटों का दबाव सरकार पर नहीं बन जाता है। हमारे नगरीय विकास विभाग इन झुग्गियों के न बसने का और लोगों को आवास मुहैया कराने का कोई माकूल इलाज आज तक नहीं निकाल पाए।

