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गुरुवार, 2 अक्टूबर 2008

सूनिए बापू का प्रिय गान

आज प्रिय बापू का जन्म-दिन है ..
सुनिए उन का प्रिय गान......
वैष्णव जन तो तैने कहिए........

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कोई काल नहीं जब नहीं था, वह

वह एक 
तब भी था
अब भी है
आगे भी रहेगा।
कोई काल नहीं जब 
नहीं था, वह
कोई काल नहीं होगा
जब वह नहीं होगा।
काल भी नहीं था,

तब भी था वह,
और तब भी जब
स्थान नहीं था। 
उस के बाहर नहीं था
कुछ भी 
न काल और न दिशाएँ
उस के बाहर आज भी नहीं 
कुछ भी।
न काल और न दिशाएँ 
और न ही प्रकाश
न अंधकार।
जो भी है सब कुछ 
है उसी के भीतर।
आप उसे सत् कहते हैं?
जो है वह सत् है जो था वह भी सत् ही था 
जो होगा वह भी सत् ही होगा।
असत् का तो 
अस्तित्व ही नही।
कोई नहीं उस का 
जन्मदाता,
वह अजन्मा है 
और अमर्त्य भी।
वही तेज भी 
और शान्त भी,
कौन मापेगा उसे? 
आप की स्वानुभूति।
वह मूर्त होगा
आप के चित् में।
क्या है वह? 
पुरुष? या 
प्रकृति?या 
प्रधान?

कुछ भी कहें 
वह रहेगा 
वही,
जो था 
जो है 
जो रहेगा।

मंगलवार, 30 सितंबर 2008

नवरात्र को आत्मानुशासन का पर्व बनाएँ

छह माह पहले चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से प्रारंभ नववर्ष का पहला पखवाड़ा नीम की कोंपलों और काली मिर्च के सेवन और एक समय अन्नाहार से प्रारंभ हुआ था। समाप्त हुआ श्राद्ध के सोलह दिनों से जिसमें पूर्वजों की स्मृति के माध्यम से विप्र, परिजनों और मित्रों के साथ खूब गरिष्ठ पकवान्नों का सेवन हुआ। नतीजा कि तुल आएँ तो तीन से चार किलोग्राम वजन अवश्य ही बढ़ गया होगा। यह पतलून के पेट पर कसाव से ही पता लगता है। अवश्य ही कोलेस्ट्रोल भी वृद्धि को ही प्राप्त हुआ होगा। लेकिन वर्ष के उत्तरार्ध ने जैसे ही दस्तक दी नवरात्र के साथ और साथ ही जता दिया कि जितना बढ़ाया है वापस घटाना होगा वरना यह उत्तरार्ध चैन नहीं लेने देगा। एक समय अन्नाहार आज से फिर प्रारंभ हो गया है।

दोनों नवरात्र मौसम परिवर्तन के साथ आते हैं। उधर दिन रात से बड़े होने लगते हैं और इधर रातें दिन से बड़ी। मौसम में तापमान लघु जीवों के लिए इतना पक्षधर होता है कि उन की संख्या बढ़ने लगती है। मनुष्य को यह मौसम कम रास आता है। पेट के रोग, जीवाणुओं और विषाणुओं से उत्पन्न रोगों की बहुतायत हो जाती है। उस का सब से अच्छा बचाव यह है कि आप आहार की नियमितता बना लें।अन्नाहार एक समय के लिए सीमित कर दें और फलाहार करें। शरीर को विटामिनों की मात्रा प्राकृतिक रूप से मिले। आप किसी धार्मिक कर्मकांड को न मानें तो भी स्वाध्याय अवश्य करें। किसी पुस्तक का ही अध्ययन सिलसिलेवार कर डालें। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के बारे में कहा जाता है कि वे अपने पूजा के लंबे समय में पुस्तकों का अध्ययन करते थे। मैं ने इन दिनों धर्म और दर्शन संबन्धी कुछ पुस्तकें हासिल कर ली हैं, अवश्य ही नवरात्र में पढ़ लूंगा। आज के अवकाश में अपनी दुछत्ती की सफाई भी करवा ली है, जहां से बहुत सारी पत्रिकाओं के पुराने अंक बरामद हुए हैं जिन में बहुत सी काम की जानकारी है। मेरा खुद का इतिहास सामने आ गया है।

नवरात्र के पहले दिन ही राजस्थान को एक बहुत बड़े हादसे को झेलना पड़ा है। दो सौ से कुछ कम लोग जोधपुर में चामुंडा मंदिर हादसे में जान गंवा बैठे हैं, इतने ही घायल हैं। यह हादसा किसी आतंकी के कारण नहीं हमारी अपनी अव्यवस्था, अनुशासन हीनता और अंधविश्वास का परिणाम है। भाई ईश्वर है, तो एक ही ना? फिर देवी माँ भी एक ही होंगी। नगर में देवी माँ के अनेक मंदिर होंगे। फिर सब की दौड़ एक ही मंदिर की ओर क्यों? क्यों मन्दिर ही जाया जाए। वहाँ भीड़ लगाई जाए। घर में भी आप घट स्थापना करते ही हैं। हर श्रद्धालु के घर एक चित्र तो कम से कम देवी माँ का अवश्य ही होगा। वहीं उस के दर्शन कर प्रार्थना, अर्चना की जा सकती है। क्यों देवी मंदिर ही देवी माँ और आप के बीच आवश्यक है?  फिर घर में और घर में नहीं तो पड़ौस में कम से कम एक महिला/बालिका तो होगी ही क्यों न उसे ही देवी का रूप मान लेते हैं। उस से भी देवी माँ रुष्ट नहीं होंगी। शायद प्रसन्न ही होंगी। क्यों हम एक मूर्तिकार या चित्रकार की घड़ी मूर्ति या चित्र पर विधाता की घड़ी मूरत से अधिक तरजीह देते हैं?

क्या हमारी यह अनुशासनहीनता, अन्धविश्वास और सामाजिक अव्यवस्था उस आतंकवाद से अधिक खतरनाक नहीं जो अनायास ही सैंकड़ों जानें ले लेते हैं? हम कुछ तो सामाजिक हों। नवरात्र आत्मानुशासन का पर्व है। उसी पर हम उसे खो बैठते हैं। पुलिस और प्रशासन को दोष देने से कुछ नहीं होगा। क्यों नहीं जो नगर 20-25 हजार श्रद्धालु सूर्योदय के पूर्व 400 फुट ऊंचे मंदिर पर चढ़ाई करने को तैयार कर देता है वह 200-250 स्वयंसेवक इस पर्व पर सेवा के लिए तैयार कर पाता है? और भी बहुत से प्रश्न हैं जो कुलबुला रहे हैं। जरूर आप के पास भी होंगे? क्यों न हम किसी सामाजिक संस्था से जुड़ कर उन प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयत्न करें?

कल ईद की नमाज भी होने वाली है। हजारों हजार लोग देश भर की ईदगाहों पर नमाज अदा करेंगे। वैसे वे सभी रमजान के पूरे महीने एक अनुशासन पर्व से गुजर कर निकलें हैं। इतना तो अनुशासन होगा कि किसी हादसे का समाचार सुनने को न मिले। 


आज के लिए बस इतना ही। सभी पाठकों को नवरात्र के लिए और आने वाली ईद के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ।

सोमवार, 29 सितंबर 2008

आज कद्दू खाएँ, कद्दू दिवस मनाएँ

मुझे कल ही पता लगा कि आज के दिन यानी 29 सितम्बर को भारत में गरीब की सब्जी कहे जाने वाले फल  कद्दू के लिए कद्दू-दिवस मनाया जाता है। आकार में सब से विशाल होते हुए भी इस फल को अक्सर बड़ी ही बेचारगी से देखा जाता है। लेकिन यह बहुत गुणकारी है। वैसे आज कल हमारे यहाँ कद्दू पखवाड़ा चल रहा था जिस का समापन आज 29 सितम्बर को होना है।
आज कल श्राद्ध-पक्ष चल रहा है। इन दिनों की खास डिश जो घरों में बनाई जाती है वह चावल की खीर और मालपुए हैं। इस के साथ उड़द दाल की कचौड़ी या बेड़ई, या इमरती जरूर होती है। सब्जियों में आलू सदा बहार है। मगर मालपुए बने हों तो कद्दू की सूखी सब्जी के बिना उन का स्वाद अधूरा रह जाता है। नतीजा यह है कि इन दिनों सब से सस्ती सब्जी होते हुए भी कद्दू का भाव दूसरी सब्जियों को छूने लगता है। परसों सब्जीमंडी की सैर हुई धर्मपत्नी जी के सौजन्य से। जो सब्जी वाले मोहल्ले में आ रहे थे वे कद्दू ले कर आ ही नहीं रहे थे। इक्का दुक्का ले कर आ रहे थे वे गहरे पीले रंग का कद्दू ला रहे थे वह श्रीमती जी को पसंद नहीं था, स्वादिष्ट जो नहीं होता। हम मंडी से कद्दू लाए 15 रुपए किलो। जब कि दूसरा अधिक पीला या केसरिया रंग वाला 8 रुपए किलो बिक रहा था। वाकई कल कद्दू की सब्जी को सराहा गया। एक- दो लोग जो इस के नाम से ही चिढ़ते थे उन्हें आग्रह के साथ खिलाया गया तो वे भी इस का लोहा मान गए।

यह स्वादिष्ट तो है ही गुणकारी भी बहुत है। कद्दू हृदयरोगियों के लिए लाभदायक यह फल कोलेस्ट्राल कम करता है, पेट की गड़बड़ियों को ठीक रखता है इसी कारण शायद मालपुओं जैसे भारी खाने के साथ इस की जुगलबंदी हो गई है। शर्करा नियंत्रक होने के कारण मधुमेह रोगियों के भी बड़े काम का है।  इस में विटामिन ए का स्रोत बीटा केरोटीन मौजूद है। इस के बीजों में आयरन, जिंक, पोटेशियम और मैग्नीशियम होने से बड़े काम के हैं।अधिक जानकारी के लिए बड़े काम की चीज है कद्दू अवश्य पढ़ें।अमरीका में पैदा हुआ यह फल आज विश्व नागरिक बन पूरी दुनिया की सेवा में लगा है। आप से आग्रह है आज जब श्राद्ध पक्ष का समापन है और सर्वपितृ श्राद्ध है कद्दू को भोजन में किसी भी रूप में इस्तेमाल करें और कद्दू दिवस भी साथ मनाएँ।

गुरुवार, 25 सितंबर 2008

"जन गण मन" दुनिया का सर्वश्रेष्ठ राष्ट्र-गान है।

अनवरत पर कल एक ई-मेल का उल्लेख किया गया था, जो मुझे अपनी बेटी से मिला था। मैं ने इस मेल को आगे लोगों को प्रेषित करने के स्थान पर अपने इस ब्लॉग पर सार्वजनिक किया। बाद में पता लगा कि वह ई-मेल किसी की शरारत थी। नवभारत टाइम्स ने आज यूनेस्को के एक अधिकारी के हवाले से इस ई-मेल द्वारा फैलाई जा रही सूचना को गलत ठहराया है।



अभिषेक ओझा, संजय बेंगाणी  और Dr. Amar Jyoti, ने इस समाचार पर संदेह व्यक्त किया। Suitur   जी ने मुझे सूचित किया कि नवभारत टाइम्स में इस मेल को भ्रामक बताया गया है।  ab inconvenienti   जी को तो मुझ पर बहुत क्रोध आया और उन्हों ने लिखा


खेद है की आप उम्र के छठे दशक में भी अफवाहों पर न केवल भरोसा कर लेते हैं, बल्कि उन्हें क्रॉसचैक किए बिना ही प्रसारित कर जनता को भ्रमित भी करते हैं.
कुछ इसी तरह का 'होक्स' मोबाइल कंपनियों, दैनिक भास्कर और सेवन वंडर्स फाउन्देशन ने 'आज नहीं तो ताज नहीं' कैम्पेन को देश की इज्ज़त, देशप्रेम के साथ जोड़कर खेला था. दुखद और शर्मनाक की आप वकील होते हुए भी इन 'ख़बरों' की असलियत समझने में नाकाम हैं!
 उन्हों ने यह बिलकुल सही कहा कि मैं ने उम्र के छठे दशक में भी अफवाहों पर न केवल भरोसा किया, बल्कि उसे क्रॉसचैक किए बिना ही प्रसारित कर जनता को भ्रमित भी किया। 

मैं उन का यह आरोप सहर्ष स्वीकार करता हूँ, मैं सातवें, आठवें, नवें, दसवें और इस के बाद भी कोई दशक आए तो भी इस भ्रम में रहने का प्रयत्न करूंगा। इस की कोई सजा हो तो वह भी भुगतने को तैयार रहूँगा। लेकिन? ...

...... लेकिन यह अफवाह बहुत मन-मोहक  थी। इस पर शरीर और मन के कण कण से विश्वास करने को मन करता था। सच कहिए तो यह अफवाह मेरी मानसिक बुनावट में एकदम फिट हो गई। एक क्षण के लिए अविश्वास हुआ भी, और मैं ने बेटी से बात भी की। वह खुद इस खबर को पा कर इतनी उल्लास में थी कि उस ने इतना ही कहा कि "मुझे यह खबर मिली और मैं ने आगे सरका दी"।

कुछ भी हो। वह राष्ट्र-गान जो मेरे देश का है, जिसे सुनने को कान तरसते हैं, जिसे सुन कर रोमांच हो उठता है, उस के लिए यह सुनने को मिले कि वह सर्वोत्तम घोषित किया गया है। कान क्यों न उसे स्वीकार करें? क्यों मन उस पर संदेह करे? क्यों वहाँ बुद्धि बीच में आनंद के उन क्षणों का कचरा करने को इस्तेमाल की जाए?

यूनेस्को के खंडन के बाद भी मेरे लिए वह गान दुनिया का सर्वोत्तम राष्ट्र-गान है और मरते दम तक रहेगा। यूनेस्को के उस खंडन का मुझ पर कोई असर नहीं होने का और उन धिक्कारों का भी जो मुझे इस अपराध के लिए मिले। मुझे करोड़ों धिक्कार मिलें, मैं उन्हें गगन से बरसते, महकते फूलों की तरह स्वीकार करूंगा। मुझे इस की कोई भी सजा दी जाए, उसे भी स्वीकार करूंगा। फिर भी यही कहूंगा कि मेरा राष्ट्र-गान "जन गण मन" दुनिया का सर्वोत्तम राष्ट्र-गान है।

बुधवार, 24 सितंबर 2008

सभी भारत वासियों को बधाई : हमारा राष्ट्र-गान दुनियाँ का सर्वोत्तम राष्ट्र-गान घोषित


अभी अभी बेटी पूर्वाराय द्विवेदी से मुझे एक बधाई संदेश प्राप्त हुआ। जिस में मुझे कविन्द्र रविन्द्र रचित हमारे राष्ट्र-गान
 
" जन गण मन अधिनायक जय हे, भारत भाग्य विधाता
को संयुक्त राष्ट्र शिक्षा, विज्ञान एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) द्वारा
दुनिया का सर्वोत्तम राष्ट्र-गान घोषित किए जाने पर बधाई दी गई थी।






इस अवसर पर सभी देश वासियों को हार्दिक बधाई

हमें गर्व है,  हम भारत वासी हैं!

शनिवार, 20 सितंबर 2008

पूर्वजों को स्मरण करने का अवसर

चार दिनों से व्यस्तता के कारण  अपने किसी चिट्ठे पर कुछ नहीं लिख पाया। कुछ ब्लाग पढ़े, कुछ पर टिप्पणियाँ की। लेकिन ऐसा लगा जैसे घर से दूर हूँ और केवल चिट्ठी-पत्री ही कर रहा हूँ। इन चार दिनों में चम्बल में बहुत पानी बह गया। इधर श्राद्ध पक्ष चल रहा है। आज के समय में कर्मकांडी श्राद्ध का महत्व कुछ भी न रह गया हो। लेकिन यह पक्ष हमेशा मुझे लुभाता रहा है। यही एक पक्ष है जब हम परंपरा से हमारे पूर्वजों को स्मरण करते हैं। पूर्वजों की यह परंपरा वैश्विक है। सभी संस्कृतियों में पूर्वजों को स्मरण करने के लिए कोई न कोई पर्व नियत हैं। आज चीजें बदल रही हैं। लोग स्मृति दिवस मनाने लगे हैं। लेकिन इन स्मृति दिवसों में जो होता है वह भी केवल पूर्वजों की ख्याति से वर्तमान में कुछ पा लेने की आकांक्षा अधिक रहती है। फिर श्राद्ध पक्ष में अपने पूर्वजों को  स्मरण करने की परंपरा का ही क्यों न निर्वाह कर लिया जाए।

हमारे यहाँ परंपरा ऐसी रही है कि पूर्वजों में स्त्री पुरुष का कोई भेद नहीं है। परिवार की माताओं, पिताओं, अविवाहित पूर्वजों का समान रूप से स्मरण किया जाता है। जिस पूर्वज के दिवंगत होने की तिथि पता है। उसे उसी तिथि को स्मरण किया जाता है। जिस वैवाहिक स्थिति अर्थात् अविवाहित, विवाहित, विदुर या वैधव्य की अवस्था में पूर्वज का देहान्त हुआ था। उसी वैवाहिक स्थिति के किसी ब्राह्मण स्त्री या पुरुष को भोजन के लिए आमंत्रित किया जाता है। उसे ही अपना पूर्वज मान कर पूरे आदर और सम्मान के साथ भोजन कराया जाता है। गऊ, कौए और कुत्ते के लिए उन का भाग अर्पित किया जाता है। इस के उपरांत अपने परिवार के सदस्यों और मित्रों के साथ भोजन किया जाता है।

मुझे अथवा मेरे परिवार में किसी को भी यह स्मरण नहीं, लेकिन गोत्र के किसी पूर्वज के देहान्त के उपरांत उस की पत्नी ने भी कुछ ही घंटों में प्राण त्याग दिये और दोनों का अंतिम संस्कार एक साथ हुआ और उन्हें सती युगल की महत्ता प्राप्त हुई। उस दिन पूर्णिमा थी, परिणाम यह कि श्राद्ध पक्ष के प्रथम दिवस ही किसी युगल को भोजन के लिए आमंत्रित किया जाता है। बाद में यह सिलसिला पूरे पखवाड़े चलता रहता है। जिन पूर्वजों की संस्कार तिथियाँ स्मरण हैं उन तिथियों को श्राद्ध किया जाता है। यह मान कर कि पूर्वजों की यह परंपरा अनंत है और हर तिथि किसी न किसी पूर्वज का संस्कार हुआ होगा, पूरे पखवाड़े प्रतिदिन स्वादिष्ट भोजन बनता है। गऊ, कौए और कुत्ते का भाग उन्हें देने के उपरांत एक व्यक्ति का भोजन किसी भी व्यक्ति को करा दिया जाता है। श्राद्ध पक्ष के अंतिम दिन अमावस्या को भूले बिसरे पूर्वजों के नाम से श्राद्ध अवश्य किया जाता है। मेरी पत्नी पूरी परंपरावादी है, और चाहती है कि इन परंपराओं की जानकारी हमारी संतानों को भी रहे तथा वे भी इसे निभाएँ। इसलिए जितना उन्हों ने अपने वैवाहिक जीवन में देखा है उतना तो वे अवश्य करती हैं।

श्राद्ध पक्ष में मुझे भी अपने पूर्वजों को स्मरण करने का भरपूर अवसर प्राप्त होता है। मेरी इच्छा यह रहती है कि पूरे पक्ष में कम से कम एक दिन नगर में उपलब्ध परिवार के सभी सदस्य एकत्र हो कर एक साथ भोजन करें और कम से कम दो-चार घंटे साथ बिताएँ और मेरे मित्रगण भी उपस्थित रहें। इस से मुझे अपने पूर्वजों के सत्कर्मों को स्मरण करने, उन की स्मृतियाँ ताजा करने और उन के सद्गुणों को अपनी आगे की पीढ़ी तक पहुँचाने का अवसर प्राप्त होता है। मैं श्राद्धपक्ष के कर्मकांडीय और किसी धार्मिक महत्व में विश्वास नहीं करता। लेकिन यह महत्व अवश्य स्वीकारता हूँ कि आज हम जो कुछ भी हैं उस में हमारे पूर्वजों का महत्व कम नहीं है। वे न होते तो क्या हम होते? हमें उन्हें अवश्य ही स्मरण करना चाहिए। मुझे इस के लिए परंपरागत रूप से प्रतिवर्ष आने वाला श्राद्धपक्ष का यह पर्व सर्वथा उचित लगता है। इसे बिना बाध्यता के साथ, अपनी आर्थिक क्षमता के अनुरूप अपने पूर्वजों के साथ पूरे सम्मान, आदर और पूरे उल्लास के साथ संपन्न करना चाहिए।