क्यों ?
आज संध्या को घोषणा की जाएगी।
..............दिनेशराय द्विवेदी..............
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कल आलेख पोस्ट होने के तुरन्त बाद ही एक और कविता महेन्द्र नेह से प्राप्त हुई। मुझे लगा कि वे इसे कल अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर आप तक पहुँचाना चाहते थे। तब तक ब्लॉगर पर कुछ अवरोध आ गया। मैं ने उन्हें नहीं बताया। लेकिन आज इस कविता “विश्व सुंदरी” को आप के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ.............
“विश्व सुंदरी”
चलते चलते
राह में ठिठक गई
इस एक अदद औरत को क्या चाहिए?
इस के पावों को चाहिए
दो गतिमान पहिए
ले जाएँ इसे जो
धरती के ओर-छोर
इसे चाहिए
एक ऐसा अग्निकुण्ड
जिस में नहा कर
पिघल जाए
इस की पोर-पोर में जमी बर्फ
दुनियाँ के शातिर दिमाग
लगा रहे हैं हिसाब
कितने प्रतिशत आजादी
चाहिए इसे?
गुलामी से कितने प्रतिशत चाहिए निजात?
ये, कहीं बहने ना लग जाए
नदी की रफ्तार
कहीं उतर न आए सड़क पर
लिए दुधारी तलवार..........
इस से पहले कि
बाँच सके यह
किताब के बीच
फड़फड़ाते काले अधर
सजा दिए जाएँ
इस के जूड़े में रंगीन गजरे
गायब कर दी जाए
इस की असल पहचान
स्वयं के ही हाथों
उतरवा लिए जाएँ
बदन पर बचे खुचे परिधान
गहरे नीले अंधेरे के बीच
अलंकृत कर दिया जाए
इस के मस्तक पर
“विश्व सुंदरी” का खिताब
इस से पहले
कि हो सके यह
सचमुच आजाद.............
* * * * * * *
महेन्द्र “नेह” की पसंद की कविता.........
आओ, आओ नदी - महेन्द्र “नेह”
अनवरत चलते चलते
ठहर झाती है जैसे कोई नदी
इस मक़ाम पर आकर ठहर गई है
इस दुनियाँ की सिरजनहार
इसे रचाने-बसाने वाली
यह औरत।
इतिहास के इस नए मोड़ पर
तमन्ना है उसकी कि लग जाऐं
तेज रफ्तार पहिए उस के पाँवों में
ले जाएं उसे धरती के ओर-छोर।
चाहत है उसकी उग आएं उसके हाथों में
पंख, और वह ले सके थाह
आसमान के काले धूसर डरावने छिद्रों की।
इच्छा है उसकी, जन्मे उसकी चेतना में
एक सूरज, पिघला दे जो
उसकी पोर-पोर में जमी बर्फ।
सपना है उसका कि
समन्दर में आत्मसात होने से पहले
वह बादल बन उमड़े-घुमड़े बरसे
और बिजली बन रचाए महा-रास
लिखे उमंगों का एक नया इतिहास
ब्रह्माण्ड के फलक पर।
इधर धरती है, जो सुन कर उस के कदमों की आहट
बिछाए बैठी है, नए ताजे फूलों की महकती चादर
आसमान है जो उस की अगवानी में बैठा है,
पलक पांवड़े बिछाए
और समन्दर है जो
उद्वेलित है, पूरे आवेग में गरजता-तरजता
आओ-आओ नदी
तुम्हीं से बना, तुम्हारा ही विस्तार हूँ मैं
तुम्हारा ही परिवर्तित सौन्दर्य
तुम्हारे ही हृदय का हाहाकार...........
मेरी पसंद का गीत................
नाचना बन्द करो - महेन्द्र “नेह”
तुम ने ही हम को बहलाया
तुम ने ही हम को फुसलाया,
तुम ने ही हम को गली-गली
चकलों-कोठों पर नचवाया।
अब आज अचानक कहते हो
मत थिरको अपने पावों पर,
अपनी किस्मत की पोथी को
अब स्वयं बाँचना बन्द करो।
मत हिलो नाचना बन्द करो।।
तुम ने ही हम को दी हाला
तुम ने ही हमें दिया प्याला,
तुम ने औरत का हक छीना
हम को अप्सरा बना ड़ाला।
अब आज अचानक कहते हो
मत गाओ गीत जिन्दगी के,
मुस्कान अधर पर, हाथों में
अब हिना रचाना बन्द करो।
चुप रहो नाचना बन्द करो।।
तुम ने ही हम को वरण किया
तुम ने ही सीता हरण किया,
तुम ने ही अपमानित कर के
यह भटकन का निष्क्रमण किया।
अब आज अचानक कहते हो
मत निकलो घर से सड़कों पर,
अपनी साँसों की धड़कन को
बेचना-बाँटना बन्द करो।
मत जियो, नाचना बन्द करो।।
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अब आप बताएं, किस की पसन्द कैसी है?
१, मार्च २००८,
भड़ास को किसी ने नहीं हटाया
भड़ास को की सी ने नहीं हटाया। न ब्लॉगर ने और न ही चिट्ठा संकलकों ने।
इसमें कोई भी बात बुरी नहीं। सबके अपने अपने पाठक हैं। मगर ख़ुद ही अपने चिट्ठे पर उसे हटाने का नाटक भी खूब रहा। हम गच्चा खा गए। कोई बात नहीं मधु मास चल रहा है और कुछ लोग मदन मस्ती पर उतर आये हैं। उन्हें अपना काम करने दीजिये। बाकी लोग अपना काम करें।