@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

कोविद-19 महामारी और भारत-4


नए कानूनों ने मजदूर वर्ग को कमजोर और असहाय बनाया

केन्द्र और देश के अधिकांश राज्यों में श्रीमती इन्दिरागांधी की पार्टी कांग्रेस (इ) की सरकारें थी। तभी ठेकेदार मजदूर (विनियमन एवं उन्मूलन) अधिनियम-1970 संसद में पारित हुआ। इसका उद्देश्य बताया गया था कि ठेकेदार मजदूरों को कुछ सुविधाएँ प्रदान की जाएंगी और जिन उद्योगों को जिन ट्रेड्स में उचित समझा जाएगा ठेकेदार के माध्यम से काम कराया जाना विधि से वर्जित किया जाएगा। किस उद्योग के किस ट्रेड में ठेकेदारी प्रथा का उन्मूलन किया जाएगा यह पूरी तरह केन्द्र या राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में रखा गया। इस कानून के पारित होने से पहले अक्सर मजदूरों के संगठन न्यायालय में औद्योगक विवाद उठाते थे और ठेकेदारी प्रथा को हटाने का आदेश औद्योगिक न्यायाधिकरण या श्रम न्यायालय से प्राप्त कर सकते थे। इस से उद्योगपतियों को बहुत परेशानी थी। उन्हें अपने यहाँ नियमित होने वाले कामों के लिए नियमित मजदूर नियोजित करने पड़ते थे जिन्हें ठेकेदार मजदूरों से लगभग दुगना वेतन व लाभ देना पड़ता था और उन का मुनाफा कम होता था। इस कानून के अंतर्गत अब मजदूर अदालत नहीं जा सकते थे। अब ठेकेदारी प्रथा का उन्मूलन पूरी तरह सरकार की मर्जी पर निर्भर था। यह तो सब जानते हैं कि जो सरकारें उद्योगपतियों के धन-बल पर शासन में आयी हों वे उनके हितों की अनदेखी नहीं कर सकतीं थी।

इस कानून के प्रभावी होने के पहले तक उद्योगपतियों और पूंजीपतियों को यह भय रहता था कि नियमित कामों के लिए ठेकेदार मजदूरों से काम लिया गया तो अदालत उन मजदूरों को उद्योग का मजदूर घोषित कर के उन्हें उद्योग के मजदूरों के समान लाभ दिलाने का आदेश दे देगी। इस कानून के पारित होने का नतीजा यह हुआ कि पूंजीपति बेधड़क ठेकेदार मजदूरों से नियमित काम भी करवाने लगे। कारखानों और उद्योगों में नियमित मजदूरों की भर्ती कम होने लगी और वे काम ठेकेदारों के मजदूरों से कराए जाने लगे। धीरे-धीरे उद्योगों में नियमित मजदूरों की संख्या जो पहले 70-80 प्रतिशत होती थी अब 20-30 प्रतिशत तक रह गयी। ठेकेदार मजदूरों की संख्या बढ़ कर 70-80 प्रतिशत तक चली गयी।

इसके पूंजीपतियों को अनेक लाभ मिले। अब ठेकेदार मजदूरों पर नियमित मजदूरों की बनिस्पत आधा ही खर्च करना पड़ता था। ठेकेदार मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी देकर काम चलाया जाने लगा। इस से पूंजीपतियों का मुनाफा बढ़ गया। इस नए कानून ने जो सुविधाएँ देने का प्रावधान किया था वे सुविधाएँ भी उन्हें नहीं मिलीं। क्योंकि सुविधाएँ दी जा रही हैं या नहीं इस बात का निरीक्षण तो सरकारी निरीक्षकों को करना था।  इन निरीक्षकों को मैनेज करना तो पूंजीपतियों के बाएँ हाथ का खेल था। यदि मजदूर इन सुविधाओं को देने की मांग करते या ट्रेड यूनियन के सदस्य बनते या ट्रेड यूनियन के माध्यम से अपनी आवाज उठाते तो उन्हें नौकरी से हटाना बहुत आसान हो गया। पूंजीपति ठेकेदार का ठेका खत्म कर देते। जिससे सभी मजदूरों की नौकरियाँ चली जातीं। वे किसी दूसरे ठेकेदार के माध्यम से या उसी ठेकेदार के किसी रिश्तेदार के नाम से नया ठेका दे देते। नए मजदूरों को काम पर रख लिया जाता। यह देश में बेरोजगारों की संख्या बहुत अधिक होने के कारण आसान था। इससे ठेकेदार मजदूरों को यह समझ आ गया कि वे अपने हकों की मांग नहीं कर सकते।

इसका दूसरा असर यह हुआ कि जैसे-जैसे उद्योगों में नियमित मजदूर कम होते गए वैसे-वैसे उनकी संगठन बना कर अपने हकों के लिए लड़ने की क्षमता भी कम होती गयी। इस तरह देश के मजदूर आंदोलन को धीरे-धीरे कमजोर बनाया गया। अनेक उद्योगों में समय-समय पर ठेकेदार मजदूरों की लड़ाई नियमित मजदूरों की यूनियनों ने लड़ने का प्रयत्न किया। लेकिन ऐसे आंदोलन कुचल दिए गए। ठेकेदार मजदूर बेकार हो गए। यहाँ तक कि नियमित मजदूरों के नेताओं को भी अपनी नोकरियाँ खोनी पड़ीं। धीरे-धीरे नियमित मजदूरों की मजबूत यूनियने ठेकेदार मजदूरों की लड़ाई लड़ने से कतराने लगीं। पूंजीपतियों और उनके प्रचारक मध्यवर्ग और प्रेस ने ऐसी धारणाएँ पैदा की कि मजदूर नेता आंदोलन के माध्यम से अपने हित साधते हैं और ठेकेदार मजदूरों को उन की नौकरियाँ खोनी पड़ती हैं। इस तरह पूंजीपतियों ने मजदूर वर्ग के ईमानदार नेताओँ को बेईमान प्रचारित कर उन्हें मजदूर वर्ग से दूर करने में सफलता प्राप्त कर ली। दूसरी और पूंजीपति वर्ग ने अपने समर्थक नेताओं की यूनियनें खड़ी कीं। जिन का उद्देश्य मजदूरों को उनके हकों के लिए लड़ने से रोकना और मजदूरों के वोट पूंजीपति वर्ग के राजनैतिक दलों के पक्ष में मोड़ने का काम करना था। पूंजीपति वर्ग अपने इस उद्देश्य में एक हद तक सफल रहा।

लेकिन देश की राजनैतिक परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि कांग्रेस (इ) को 1977 में सत्ता से बाहर हौना पड़ा और जनता पार्टी सत्ता में आ गयी जिसमें दक्षिणपंथी हिन्दूवादी दल जनसंघ भी विलीन हो गया था। वामपंथी इसी कारण इस सरकार से बाहर रहे। लेकिन जब तक जनता पार्टी शासन में रही तब तक पूंजीपति अपना प्रभाव नहीं बना सके और मजदूर वर्ग के दमन का बड़ा अवसर प्राप्त नहीं हुआ। इस दौर में मजदूर वर्ग के आंदोलनों का एक बड़ा उभार देखा गया। लेकिन जल्दी ही जनता पार्टी अपने अंतर्विरोध से टूट गयी और पुनः इन्दिरा गांधी के नेतृत्व में केन्द्र में सरकार बनी। कांग्रेस की इस नयी सरकार ने पुनः श्रम कानूनों में 1982 तथा 1984 में महीन परिवर्तन किए। कहा यह गया कि इस का लाभ मजदूर वर्ग को मिलेगा। लेकिन हुआ इस के उलट। मजदूर वर्ग की हालत श्रम कानूनों में इन परिवर्तनो से और बदतर हुई।                         ...  (क्रमशः)

अगली कड़ी में पढ़ें- 1984 में श्रम कानून में परिवर्तन से मजदूर वर्ग की स्थिति कैसे बदतर हुई?

बुधवार, 1 अप्रैल 2020

कोविद-19 महामारी और भारत-3

संगठित मजदूरों के क्षेत्र को न्यूनतम बनाए रखने की साजिश

इस विमर्श की कल की कड़ी में मैं ने कहा था कि कोविद-19 महामारी को फैलने से रोकने के उपायों की घोषणा मात्र से, लोगों को विशेष रूप से देश से औद्योगिक केन्द्रों से मजदूरों और उनके परिवारों द्वारा उनके गाँवों की ओर पलायन से, महामारी के तैजी से फैलने के जो अवसर पैदा हो गए, उसके पीछे को कारणों की पड़ताल करना और जानना अत्यन्त आवश्यक है। यदि इन तथ्यों को न जाना गया तो हमें समझ लेना चाहिए कि हम परमाणु बम से भी खतरनाक बम पर बैठे हैं जो कभी भी फट पड़ सकता है।  
मैंने अपने पैतृक नगर बाराँ में जो एक उपजिला मुख्यालय था 1978 में वकालत शुरू की थी। साल भर बाद 1979 के सितम्बर माह में ही मैं राजस्थान के औद्योगिक शहर कोटा में आ गया था। यह नगर जिला मुख्यालय के साथ-साथ संभाग मुख्यालय भी था। यहाँ श्रम न्यायालय एवं औद्योगिक न्यायाधिकरण स्थित था। जिस में संभाग के चारों जिलों के ओद्योगिक विवादो की सुनवाई की होती थी।  मैं ने वकालत के लिए श्रम-विवादों का क्षेत्र चुना जो मेरी रुचि के अनुरूप भी था। जल्दी ही मैं पहला श्रम विवाद मजदूर के पक्ष में जीतने में सफल रहा। मुझे लगा कि मेरा निर्णय सही था। तभी से मैं औद्योगिक क्षेत्र तथा मजदूरों से जुड़ा रहा हूँ। मैंने देखा कि 1980 तक आम तौर पर लगभग सभी उद्योगों में 75 प्रतिशत से 100 प्रतिशत मजदूर उद्योग के स्थायी मजदूर हैं। शेष 0 से 25 प्रतिशत मजदूर ठेकेदार के माध्यम से उद्योगों में काम करते हैं। कुछ काम तो ऐसे हैं जो ठेकेदारों को करने के लिए ठेके पर दे दिए जाते हैं। ये लोडिंग-अनलोडिंग, पेकिंग वगैरा के काम हैं जिनमें निरन्तर मजदूरों की जरूरत घटती बढ़ती रहती है। किसी भी कोयले से चलने वाले उद्योग में कोयले की रैक आने पर उस में से कोयला खाली कर गोदाम में रखने का काम तथा तैयार माल के बैगों या कंटेनरों को तैयार करने और उन्हें ट्रकों में लोड करने का काम ठेकेदारों को पीस-रेट पर दे दिया जाता हैं। ठेकेदार अपने मजदूरों से यह काम कराता हैं। इस तरह मूल उद्योगपतियों को यह सुविधा मिल जाती है कि उन्हें जो वेतन अपने स्थायी मजदूरों को देना होता है, उससे लगभग आधे मूल्य पर ठेकेदार मजदूरों के माध्यम से यह काम सम्पन्न हो जाते हैं, जिसमें मजदूरों की मजदूरी के साथ साथ पीएफ और ईएसआई वगैरा के खर्च तथा ठेकेदार का कमीशन भी निकल जाता है।
आंदोलनरत संगठित मजदूर 
हालाँकि ठेकेदार मजदूर (विनियमन एवं उन्मूलन) कानून वर्ष 1970 में पारित हो चुका था। इस कानून के नाम से ऐसा लगता है कि इसका उद्देश्य बड़े उद्योगों में से ठेकेदार मजूरी की शोषणकारी व्यवस्था का उन्मूलन करने के लिए बनाया गया है, लेकिन वस्तुस्थिति इसके विपरीत है। इस कानून के पहले यह स्थिति थी कि जब मजदूरों को ठेकेदारी में काम करते हुए कुछ वर्ष हो जाते थे तो वे ठेकेदार की जगह उद्योग का स्थायी कर्मचारी घोषित कर देने और उनके समान वेतन व लाभ देने की मांग करने लगते थे। इस कानून में यह व्यवस्था की गयी थी कि उचित सरकार (केन्द्र या राज्य की) किसी भी उद्योग में किसी खास ट्रेड में ठेकेदारी व्यवस्था को खत्म करने का नोटिफिकेशन जारी कर सकती थी। उस के बाद उस ट्रेड में ठेकेदार मजदूर नहीं रखे जा सकते थे। शुरू-शुरू में कुछ उद्योगों में ठेकेदारी उन्मूलन के लिए नोटिफिकेशन जारी भी किए गए। लेकिन जल्दी ही यह समझ में आ गया कि यह कानून वास्तव में मजदूरों को मूल उद्योग का स्थायी कामगार बनाने के औद्योगिक विवादों को श्रम न्यायालय या औद्योगिक न्यायाधिकरण में न्याय निर्णयन के लिए ले जाने के अधिकार को समाप्त कर दिया गया है। अब यह अधिकार सीधे-सीधे केन्द्र और राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में आ गया था।
जैसा की सभी जानते हैं कि पूंजीवादी जनतंत्रों में सरकारों को चुने जाने में प्रचार और धन की बहुत बड़ी भूमिका होती है। बड़ी मात्रा में यह धन केवल पूंजीपति और बड़ी-बड़ी औद्योगिक कंपनियाँ ही राजनैतिक पार्टियों को उपलब्ध करवा सकती हैं। लेकिन पूंजीपति वर्ग राजनैतिक दलों को यह धन ऐसे ही उपलब्ध नहीं करा देता, बल्कि उसके पीछे उनकी शर्तें होती हैं। चुनाव लड़ने के लिए पूंजीपतियों द्वारा उपलब्ध कराए गए धन के कारण सत्ता में रहने वाली राजनैतिक पार्टियाँ मजबूर हो जाती हैं कि वे सभी कानूनों की अनुपालना उनके हितों में करें। ठेकेदार मजदूरी प्रथा सीधे-सीधे पूंजीपतियों के मुनाफों और उन की पूंजी को बढ़ाती है। यह सिद्ध तथ्य है कि मुनाफों और पूंजी का निर्माण केवल और केवल अतिरिक्त श्रम से अर्थात वस्तुओँ में मजदूरों द्वारा पैदा किए मूल्य से कम मुल्य चुका कर ही किया जा सकता है। यह सारा का सारा मुनाफा और पूंजी केवल और केवल अतिरिक्त-मूल्य की ही उपज होता है। मजूरों को उनके श्रम के वास्तविक मूल्य से जितना मूल्य कम चुकाया जाता है वही मुनाफों और पूंजी में परिवर्तित होता है।
जब मजदूर संगठित होने लगता है तो वह उचित मजदूरी की मांग करने लगता है। संगठित होने से बिखरे हुए और अशक्त मजदूरों का समूह बन जाता है और उसमें शक्ति का संचार हो जाता है। मजदूरों की इस संगठित शक्ति को राज्य की मशीनरी पुलिस, प्रशासन तथा गुंडों की मदद से दबाना कठिन हो जाता है और पूंजीपतियों और सरकारी-अर्धसरकारी उद्योगों द्वारा मजदूरों की मांगों को दबाना संभव नहीं रह जाता। ऐसे में उन की मजदूरी और सुविधाएँ बढ़ानी पड़ती हैं। इस सब से पूंजीपतियों का मुनाफा कम हो जाता है, पूंजी का बढ़ना भी उसी अनुपात में कम हो जाता है, पूंजी की वृद्धि की गति कम हो जाती है। इस गति को बनाए और बचाए रखने के लिए जो उपाय हो सकते थे उनमें सर्वोत्तम उपाय यही सकता है कि किसी भी प्रकार से संगठित मजदूरों की संख्या सीमित बनी रहे और अधिकांश श्रम-शक्ति को संगठित क्षेत्र से असंगठित क्षेत्र में विस्थापित कर दिया जाए। भारत में पूंजीपतियों के पक्ष में यह काम दो तरीको से हुआ और यह दोनों तरीके कानून बदलकर ईजाद किए गए।           ...  (क्रमशः)
अगली कड़ी में पढ़ें कानून को बदल कर  ईजाद किए गए तरीके क्या हैं?