बमुश्किल पहला मकान बना। सपना यूँ पूरा होगा सोचा न था। कुछ पैसे पास में थे। सोचा था इससे प्लाट ही खरीदूंगा। दलाल ने एक दिन प्लाट बताया। मुझे ठीक लगा तो मैंने एडवांस दे दिया। अगले ही दिन सारे असल कागज पटक गया। दो तीन साल यूँ ही पड़ा रहा। पैसा नहीं था पास में, लेकिन लोगों की फूँक में मकान शुरू कर दिया। आखिर दो कमरे, टायलट, स्टोर, रसोई और डाइनिंग बन कर खड़े हो गये थे। फिनिशिंग चल रही थी।
उधर पिताजी लगातार पूछ रहे थे जल्दी कर। कब तक रामलला बन कर किराया देता रहेगा। आखिर तंग आ कर मैंने कहा मुहुर्त निकाल दो। पिताजी और मामाजी ने मिल कर शुभ मुहुर्त निकाल दिया। मुहूर्त की तारीख तक मकान के दरवाजों, खिड़कियों, अलमारियों में किवाड़ नहीं लग पाए थे। पुताई भी एक दिन पहले पूरी हुई। दो दिन पहले पिताजी गाँव से आ गए डाँटने लगे, काम पूरा नहीं हुआ था तो आगे का मुहूर्त निकाल लेते। मैं प्रत्यक्ष में क्या कहता? मन ही मन कहा, मैं तो मुहूर्त वगैरा का झंझट पालता ही नहीं, आप ही पीछे पड़े थे मुहूर्त के। अब तो परसों ही गृह प्रवेश होगा। मुहूर्त हुआ तो उसी दिन एक अतिथि ने टॉयलट में साँपजी को देख लिया। उसे वहाँ से भगा दिया गया।
खैर, सप्ताह भर बाद घऱ में शिफ्ट हो गए। करीब 19-20 साल उसमें रहे भी। फिर परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि उस मकान को निकालना पड़ा। वैसे भी मकानों के बारे में मेरी अवधारणा आम लोगों जैसी नहीं है। बल्कि मेरा सोचना है कि घर का मकान भी 20-30 साल में नया बना कर पुराना निकाल देना चाहिए। इससे नया पन आ जाता है, जीवन में ताजगी बनी रहती है। नयी जरूरतें पूरी हो जाती हैं। वरना उसी खोल में मरते खपते रहना पड़ता है। विस्टा तो आप को अब तक याद होगा ही। पहले ही नियमित सत्र में सुरक्षा टें बोल गयी।
मुहूर्त वगैरा सब चौंचले हैं। पंडित-ज्योतिषी को कुछ दक्षिणा एक्स्ट्रा दे दो तो जब चाहे मुहूर्त निकाल देते हैं, यहाँ तक कि जन्मपत्रियाँ तक मिला देते हैं। हम एक शादी के लिए मुहूर्त निकाल कर मैरिज हॉल किराए पर लेने निकले तो पता लगा शहर के सारे अच्छे मेरिज प्लेस एक ही व्यवासायी डील करता है। तय मुहूर्त पर एक भी जगह खाली नहीं थी। मैरिज हॉल वाला बोला, आजकल मुहूर्त पंडितजी नहीं हम टेण्ट हाऊस वाले तय करते हैं।
तो मेरी सोच है कि बस जिस दिन काम पूरा हो जाए वही सब से बड़ा मुहूर्त होता है। इसलिए मकान पूरा बन जाए तभी उसमें रहने जाना चाहिए। पहले जाने का मतलब है कि अधूरे काम धीरे धीरे पूरे होते हैं कई तो कभी पूरे नहीं होते। समय निकल जाने पर जरूरतें बदलती हैं और मकान पूरा होने के बजाए उसका नक्शा ही बदलने लगता है।
मैंने सुना है इसी माह अधूरे मंदिर में रामजी की प्रतिमा में प्राणों की प्रतिष्ठा की जाएगी। मुहूर्त निकाल लिया गया है। वैसे मंदिर पूरा हो जाता तो ठीक रहता। पर क्या करें। चौबीसा चुनाव भी तो जीतना है। अब रामजी को अधूरा घर पसंद आएगा या नहीं ये तो भविष्य ही तय करेगा। एक बात जरूर है कि पंडित-ज्योतिषियों को दक्षिणा अच्छी खासी मिली होगी।
1 टिप्पणी:
बहुत बढ़िया। पूर्वा जी और वैभव के बचपन के चित्र भी ब्लॉग की सुंदरता बढ़ा रहे। गुरू जी, हम आपकी तरह से बार बार घर नहीं बदल पाएं। पिछले 43 साल एक ही मकान में रह रहे हैं।
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