कल सुबह टंकी पर चढ़े सेमटेल-सेमकोर पिक्चर ट्यूब कारखानों के श्रमिक प्रशासन से बातचीत और आश्वासनों के बाद शाम को टंकी से नीचे उतर गए। पर प्रश्न है कि क्या प्रशासन उन्हें उन का बकाया वेतन दिलवा सकेगा? कारखाने 7 नवम्बर 2012 को बंद हुए थे। अक्टूबर 2012 के पूरे महिने श्रमिकों ने पूरी मेहनत से काम किया था और क्षमता से अधिक उत्पादन किया था। उस माह का वेतन भी आज तक बकाया है। इस वेतन को वसूल करने के लिए एक मुकदमा श्रमिकों की ओर से वेतन भुगतान प्राधिकारी के यहाँ पेश किया गया। जिस में निर्णय हुए आज चार माह हो चुके हैं। लेकिन न तो राज्य सरकार मालिक से वेतन की वसूली कर सकी है और न ही वसूल करने के लिए कंपनियों की संपत्ति पर कुर्की का कोई आदेश जारी कर सकी है। उलटे मालिक ने कारखाने बंद करने की जो अनुमति सरकार से मांगी थी उस आवेदन का 60 दिन में निर्णय कर के मालिक को सूचित न करने के कारण मालिक को स्वतः ही अनुमति मिल गई है।
लेकिन जो आग मजदूरों में, उन के परिवारों के सदस्यों में, स्कूल जाने वाले बच्चों में पैदा हुई है वह नहीं बुझेगी। सरकार और पूंजीपति समझ रहे हैं कि उस पर राख पड़ जाएगी। पर आग तो आग है, वह राख के नीचे भी सुलगती रहेगी। फिर यह आग पेट की भूख से पैदा हुई है जो कभी नहीं बुझती। इन मजदूरों के परिवार कुछ महिनों में अपने अपने गाँव चले जाएंगे या फिर रोजगार की तलाश में देश के विभिन्न हिस्सों में चले जाएंगे। सरकार, नौकरशाह और पूंजीपति समझेंगे काम खत्म। लेकिन ये लोग देश के जिस भी हिस्से में जाएंगे आग को साथ ले जाएंगे।
सरकार, नौकरशाह और पूंजीपति जान लें कि उन्हों ने हनुमान नाम के बंदर की पूंछ में आग लगा दी है। उस की पूंछ की यह आग तभी बुझेगी जब लंका के तमाम सोने के महल आग की भेंट न चढ़ जाएंगे।
4 टिप्पणियां:
आपने सच कहा सरकार मालिकों साथ है. अभी इतेजार है एक हनुमान की जो इस भ्रष्टाचार के लंका को जलाकर रख कर दें.
डैश बोर्ड पर पाता हूँ आपकी रचना, अनुशरण कर ब्लॉग को
अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
latest postजीवन संध्या
latest post परम्परा
किसी की भी पूंछ में आग लगाने का अओर भला क्या परिणाम हो सकता है?
रामराम.
श्रमिकों का आक्रोश समझा जा सकता है पर निर्माता भी क्या करे जब CRT की बाज़ार में मांग ही नहीं रही
काजल जी,
लगता है आप ने पोस्ट को ठीक से पढ़ा ही नहीं। या इस मामले की पिछली पोस्टें नहीं पढ़ीं। श्रमिक कहाँ कारखाने को बंद करने का विरोध कर रहे हैं। उन का कहना है उन्हें उन का कमाया हुआ वेतन, कानूनी मुआवजा और ग्रेच्यूटी दे दो वे घर चले जाएँ। लेकिन मालिक उस का आधा भी देने को तैयार नहीं है। राज्य सरकार मालिक की तरफदारी में खड़ी है।
ऐसे में क्रूर और बेईमान मालिक वर्ग के प्रति आप की श्रद्धा और सहानुभूति किसी तरह समझ नही आ सकती।
एक टिप्पणी भेजें