यादवचंद्र पाण्डेय |
यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के पंद्रह सर्ग आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं। इस काव्य के अंतिम तीन सर्ग वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े हैं। इस कारण उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। इस काव्य के सोलहवें सर्ग "मृगतृष्णा (बुर्जुआ जनतंत्र)" का प्रथम भाग आप पढ़ चुके हैं यहां द्वितीय भाग प्रस्तुत है ................
* यादवचंद्र *
सोलहवाँ सर्ग
मृगतृष्णा (बुर्जुआ जनतंत्र)
भाग द्वितीय
भाग द्वितीय
मन्तर का रक्षक है विधान, उस के पहरे पर लश्कर है
इन्साफ धर्म की गद्दी पर
ईश्वर है और महीश्वर है
तब तक न सुरक्षित है पूंजी
जब तक विषधर का गव्हर है
गव्हर में कैद करो अहि को, फन को तोड़ो, जनता को टेरो
यन्त्रों को चाहिए जन बल, मत सोचो, बस, समता को टेरो
तुम वट विशाल की छाँव तले बिरवा रोपोगे-क्या होगा ?
पील पड़ कर मर जाएगा, माथा ठोकोगे-क्या होगा ?
धुंधुँआती ज्वाला को मारो
दो फूँक, जगा दो - मत सोचो
तूफान उठा जो उसे बुला कर
राह दिखा दो - मत सोचो
उखड़ेंगे नभचुम्बी पादप, तुम तो बौने हो - मत सोचो
सोचे जो लिए बुढ़ापा है, तुम तो छौने हो - मत सोचो
अधिकार हीन जो इतर वर्ग, उस में तुम भी हो, ख्याल रहे
उत्पादन यन्त्रों के मालिक अब तो तुम ही हो, ख्याल रहे
यन्त्रों की मुट्ठी में जन बल है
और तन्त्र यह-ख्याल रहे
इस प्रजातंत्र के माने तुम हो
महामान्य यह, ख्याल रहे
बाजार गरम रखने को संचय करो कोयला, जन बल का
अब मिल के भीतर-बाहर जग में बजे नगाड़ा जय-जय का
रुढ़िग्रस्त यह फटा-पुराना महल खड़ा जो, उसे ढाह दो
अपने दुश्मन के प्रतिपक्षी-जनता को तुम उठो, बाँह दो
मात्र आज के तुम विकल्प हो
मत जाने दो वृथा आह को
विष का थोड़ा अंश मिले
शिव बन, कर लो कण्ठस्थ दाह को
करवालो सिंहासन खाली पहले, फिर लिक्खो विधान को
अपने वेद-पुराण-शास्त्र को, धारा में विज्ञान-ज्ञान को
विश्वासों के मोती बिखरे बनो रेशमी धागा
आज लोक की आशा में आगे बढ़ कर 'हाँ' कर दो
किरण बनो, फैलो विकास के नये क्षितिज बन, उभरो
हतभागों के भाग्योदय का उचरो बन तुम कागा
नव मूल्यों के प्रति उदार तुम करो न पीछा आगा
चरण-धूलि ले शीश चढ़ाओ, जनता की जय बोलो
मान नये, उपमान नये, इतिहास नये तुम खोलो
कोटि-कोटि जन जड़वत अधरों पर हास-राग है जागा
प्रजातंत्र जीने की पद्धति है, तुम को है जीना
तार-तार जो कोटि हृदय हैं, आज तुम्हें सीना है
घर को छोड़ चले उन को भी खाना है, पीना है
सोना चांदी क्या है ? है माथे का तरल पसीना
जीवन लेन-देन का सौदा कड़ा करो अब सीना
बनिक तुला पर जैरूसेलम, काशी नपे मदीना
बेड़ियाँ टूटीं प्रभञ्जन वेग से
सिद्धियों के द्वार खट-खट खुल गये
जिन्दगी के मान जो बिलकुल नये
भर कुलाचें मञ्च पर हैं आ रहे
खोलते मुट्ठी बरसता अन्न है
सप्त रंगे वस्त्र का अम्बार है
हुक्म भर की देर है इस दैत्य को
दुष्प्राप्य क्या ? हर वस्तु इस को लभ्य
यन्त्र चालित तन्त्र पढ़ते मन्त्र हैं
चरचरा कर ब्रह्म गँवई गिर पड़े
आग खा कर जो उगलते धुआँ
दैत्य करते रव-विजन में है खड़े
नापते भूगोल डग से घड़ी में
चीरते हैं सिन्धु ज्यो कच्चा घड़ा-
डोर दे कर पड़ित खच्-सा काटता,
फाड़ते हैं गगन कदली - वीर - सा
दैत्य की यह शक्ति हो बसवर्तिनी
किस तरह, किस की, यही दो प्रश्न हैं
जो इसे बस में करे, उस के लिए
अर्थ, धर्म, कामादि सब कुछ देय
अर्थ का दे नाम युग - मन्थन करो
अमिय घट निश्चित निकलना जान लो
सर्वहारा को थमा दो काल - मुख
पाँत में बैठो, बिठाओ दलित को
पर बचाओ अमिय-भक्षण से उसे
प्रश्न भावी युद्ध का ध्रुव है, अभी
सत्व, शासन पर उभय पद की नजर
दैत्य युग के हैं खड़े सम भाव से
बन्द कर दो त्वरित उन को बैंक में
और जो सामन्त तुम से क्रुद्ध हैं
्ब हिले उन दाँत को पोटाश दो
शक्ति जो सन्मुख तुम्हारे जुड़ रही
केन्द्र उन के गाँव हैं, औ गाँव को
गाँव में ही बन्द कर लो, डोर दे
ढहे सामन्ती घरों को मदद दो
वे सहारा खोजता आधार वह
है यही मौका, न चूको, खींच लो
स्वार्थ उस का अब न रक्षित है कहीं
अहम् उस का मर गया, तर्पण करो
कहो, उट्ठे, चाकरी तेरी करे
टिम-टिमाए, विभा तुम से कर्ज ले
पढ़े तेरे विधि-विधानों को, समझ,
देख ले, जो छूट है उस को मिली
वह कटा विज्ञान युग से, नहीं तो
आज का भूगोल लख मर जायगा
खैर, गित को मैं पढ़ूंगा, वह रहे
खाता-कमाता मदद में मेरी खड़ा
पूर्ववर्ती शक्ति है वह, इसलिए
छूट उस को दे रहा हूँ, नहीं तो
अमरिका की भाँति सारे विश्व से
एक क्षण में मैं उसे देता मिटा
दिखा देता यन्त्र की जादूगरी
अर्थ के दो हाथ मैं देता बता
अलग से व्यापारियों का तन्त्र क्या?
प्रजातन्त्री खोज में ही वह खड़ा
राजतन्त्री खोल पर मैं ने लिखा
प्रजातन्त्री बोल को इंगलेंड में
राष्ट्रवादी 'सोसलिज्म खेल' को
जर्मनी में अजी मैं ने ही रचा
शुद्धतम राष्ट्रीयता की बन लहर
दुश्मनों पर कहर बन मैं टूटता
किन्तु, अपने विश्व में बिखरे हुए
बान्धवों लड़ी प्रतिपल जोड़ता
जोड़ने की युक्ति ही है सभ्यता
तोड़ने की कला ही कानून है
प्रश्न सीधा और उलटा का नहीं
पुष्टि में मेरे, वही मजमून है
दुश्मनों से जो लड़े मेरे लिए
धर्म है, साहित्य है, आदर्श है
जो मिलाए हाथ मेरे शत्रु से
घोषित हमारे मूल्य का वह शत्रु
'प्रज्ञा' मेरे कोष का वह शब्द है
व्याप्ति जिस की मात्र मेरे लोग से
और उस का तन्त्र ? जिस की राह पर
सिर्फ मेरे स्वार्थ की दूकान हो
'प्रजा द्वारा, प्रजा का, जो प्रजा हित
तन्त्र - उस के मन्त्र का गुर है यही
अर्थ इस के परे के सब व्यर्थ हैं
अर्थ सच्चा, जो खरा व्यवहार में
'प्रजा' मेरी कत्ल करती है उसे
जो प्रजा का अर्थ बहुमत मानते
और पूंजीवादियों को बाद दे
तन्त्र रचते दलित, शापित वर्ग का
या कि मेरी ही तरह संसार के
सभी शापित को पिरो कर सूत्र में
अलग अपने विधि-विधानों को बना
बात करना चाहते हम से अलग
सापेक्ष राजा का प्रजा है शब्द
पर गनीमत, श्रमिक को जो मान्य,
मान्य जो उस को, उसी के शब्द में
भुक्खड़ों की आग को कर के नियन्त्रित
मिलों की इन
लपलपाती
भट्टियों में झोंक दो
ढक्कन गिरा दो
और इन की
चाल को
दूनी बढ़ा दो
गेट पर
पहरे बिठा दो
भूत इन के
गर,
फौजें बुला लो
कामगारों
को बता दो
'न्याय-
शासन दण्ड की अभिव्यक्ति है'
हाँ, आज मेरे यन्त्र में ही
प्रजा की सब शक्ति है।
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4 टिप्पणियां:
पढ़कर काव्य में ठहर जाने का मन करता है।
अति उत्तम काव्य, शुभकामनाएं.
रामराम.
कविता तो धारदार है पर कई बार हिन्दी सख्तजान सी लगती है !
अब काफ़ी समीचीन होता जा रहा है...
दिलचस्प...
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