शिवरात्रि के अवकाश का दिन बिना कोई उल्लेखनीय काम और उपलब्धि के रीत गया। कुछ ऐसे ही एक मौका देखने जाना पड़ा। वापसी में जोधपुर जाने-आने की यात्रा के टिकट ले कर आया बस में लोअर स्लीपर मिल गया इतना पर्याप्त था इस जाती हुई और जाते जाते अपने तमाम रूप और नखरे दिखाती सर्दी में। बस अब चंबल पुल पार होने के पहले स्लीपर के बॉक्स में घुस कर कंबल डाल लेना और लेटे हुए जब तक नींद न आ जाए तब तक बाहर के अंधेरे के दृश्य देखते रहना। अंधेरी रात में अंधियार के रंग में रंगे पेड़ों और गांवों में जलती बत्तियों की रोशनी के केवल आसमान में टंगे सितारों के सिवा और क्या देखा जा सकता है। पर वहाँ जहाँ बिजली की रोशनी न हो दूर दूर तक वहाँ सितारों की चमक अद्भुत लगती है। उन में से बहुतों को मैं पहचानता हूँ। अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहणी और सब से अधिक चमकदार मृगशिर नक्षत्र। शुक्र, बृहस्पति और मंगल आसानी से पहचाने जाते हैं। बस की यात्रा में शनि को पहचानने में बहुत दिक्कत होती है। राशि मंडल के तारे हमेशा पहचानने में आ जाते हैं। खास तौर पर सिंह और वृच्छिक तो देखते ही पहचाने जाते हैं, मिथुन भी।
खैर, यह सब तो कल रात को देखा जाना है। आज राज भाटिया जी की पोस्ट बहुत भावुक कर गई। सोने के पहले अनपैक्ड दिनेशराय द्विवेदी को जो आधा रजाई में घुसा हुआ मोबाइल में डूबा था, शूट कर डाला। पास की टेबुल पर पैक्ड हुक्का उन से अधिक खूबसूरत लग रहा था। लगे भी क्यों न उस के पैदा होने के पहले ही जर्मनी जाने की टिकट जो बन गई थी। बिना कोई पासपोर्ट और वीजा के वह जर्मनी जाने वाला था हमेशा-हमेशा के लिए। बाजार से गुजरते हुए एक दुकान पर हुक्के दिखे। बस हुक्के ही हुक्के। भाटिया जी का मन ललचा गया। बोले-एक ले लेता हूँ। वहाँ जर्मनी में लोग सिगरेट ऑफर करते हैं तो मैं बोलता हूँ हम ये नहीं पीते। पूछते हैं क्या पीते हैं? तो उन्हें कहता हूँ हुक्का। फिर सवाल होते हैं कि ये हुक्का क्या है? मैं उन्हें बताता हूँ। इस बार असल ही ले जाकर बताता हूँ।
उन्हें पसंद तो बहुत बड़ा वाला आ रहा था। पर छोटा तैयार करवाया गया। जिस से ले जाने में परेशानी न हो। अब जर्मन जा रहे हुक्के का दिनेशराय द्विवेदी से क्या मुकाबला। पर फँस गया। जर्मनी जाने के पहले दिनेशराय द्विवेदी के पास होने की सजा भुगती और शूट हो गया। अब तक तो हुक्का अनपैक्ड हो कर फूँकने की शक्ल में आ गया होगा और भाटिया जी के ड्राइंगरूम की शोभा बढ़ा रहा होगा।
मजबूरी थी, कि बहिन के ससुराल में विवाह था और आना बेहद जरूरी था। भाटिया जी को छोड़ कर आना पड़ा। भाटिया जी में एक बेहतरीन साथी मिला। एक स्नेहिल भाई जैसा। शाम को शिवराम जी का कविता संग्रह माटी मुळकेगी एक दिन देख रहा था। साथी क्या होता है वहाँ जाना। आप भी देखिए .....
लो, मेरा रूमाल ले लो
-- शिवराम
किसे ढूंढ रहे हो? क्या मुझे।
नहीं भाई नहीं
साथी जेबों में नहीं मिलते
दाएँ-बाएँ भी नहीं मिलते
नहीं, ब्रीफकेस में तो हर्गिज नहीं
वे होते हैं तो हाथों में हाथ डाले होते हैं
और नहीं होते तो नहीं होते
वे आसानी से खोते भी नहीं
वे आसानी से पीछा भी नहीं छोड़ते
अपनी उंगलियों में ढूंढो
मैं अभी भी वहीं हूँ
अच्छा!
कोई और चीज ढूंढ रहे हो
कोई बात नहीं
मुझे गलतफहमी हो गई थी
मैं समझा था कि तुम
शायद मुझे ढूंढ रहे हो
तुम तो शायद रूमाल ढूंढ रहे हो
हथेलियों का मैल पोंछने के लिए
या माथे का पसीना
और, रूमाल नहीं मिल रहा है
लो, मेरा रूमाल ले लो
जो चाहो साफ करो इस से
और सुनो-
इस से आईना-ए-दिल भी
साफ किया जा सकता है।
21 टिप्पणियां:
अरे महराज, फोटू माँ दु:खी आत्मा लग रहे हैं ! का हुइ गवा ?:)
तारों और नक्षत्रों को निहारने का सौभाग्य मिला। हुक्के के संग रहने का जुगाड़ हुआ। धन्न मनाइए। और राज जी को धन्नबाद दीजिए।
शिवराम जी का रुमाल ब्लॉग जगत में लहरा दीजिए न। बहुतेरे आईना-ए-दिल जमधूल हो गए हैं।
ई न पूछिए जमधूल क्या होता है? कभी पूछा आप ने जब लोग आंग्ल और हिन्दी की संकर किश्में उपजाए? हमरा वाला तो हिन्दी हिन्दी संकर है। शंकर शंकर। हर हर बम बम।
आपके साथ आकाश दर्शन करून अपने पैत्रिक गाँव में यह इच्छा अचानक बलवती हो आयी है .
बढ़िया रहा पूरा वृतांत और भाटिया जी को याद करना.
शानदार धारदार कविता.
kya baat hai.rumaal ki achchhi khahani bataaee hai .sach aajkal dil saaf karne wale rumaal ki bahut zaroorat hai samaj mein.Bhatiyaji ke aagman par mein shahr mein nahin tha.miss kya.....
और सुनो-
इस से आईना-ए-दिल भी
साफ किया जा सकता है।
क्या बात कह गए शिवराम जी, सर। और राज जी की बातें और हुक्का प्रसंग आनंदित कर गया।
हम तो आगे ब्लॉग पर आने वाली पोस्टों पर उनके हुक्के की मज़ेदार कहानियाँ अभी से देख रहे हैं।
रेल की खिड़की से नक्षत्र दर्शन बहुत स्वापनिक और सुन्दर लगा। सादर प्रणाम और शिवरात्रि पर्व पर शुभकामनाएँ।
कहां से कहां लिंक अप किया है आपने।
शानदार्।
कविता भी उतनी ही शानदार
हुक्का पुराण से शुरू हुआ ये कथन रूमाल पे जाके खतम हुआ. ये आपका विशेष अनुह्रह है कि कवि शिवराम जी की कविताये पढने को मिल ही जाती है.
जोधपुर मे अधिक लोग नही हुट पाये है. लेकिन कुछ लोग तो मिलेन्गे ही. उसी दिन वैल इन टाइन डे भी है ना तो अधिक लोगो के साथ रिस्क भी है सो जो ४-५ लोग इस बार आपस मिल ले वही बहुत है. जिन लोगो से बात चल रही है उनके नाम ये है
आपके और मेरे अलावा
राकेश कुमार मूथा जी
सन्जय वयास जी
और एक शोभना तोमर जी
कल तक किसी और का भी कार्यक्रम बना तो थीक नही तो जैसा चाहे कल तय कर लेन्गे.
द्विवेदी सर,
थोड़ी देर के लिए आपका रुमाल मिलेगा...आइना-ए-दिल पर बड़ी धूल जम गई है...
जय हिंद...
हुक्के से रुमाल तक और भारत से जर्मनी तक का वृत्तान्त रोचक रहा. शिवरात्रि की शुभकामनाएं!
वृतान्त और कविता का कॉंटा-जोड मुकाबला है। तय करना मुश्किल रहा कि दोनों में से कौन बेहतर है। अच्छा लगा। आनन्द आया।
बहुत रोचक और दिलकश आलेख.
रामराम
बहुत ही गजब और लाजवाब लिखा है सर जी ।
अच्छा लगा आपका ये वृताँत और भाटिया जी के लिये सौगात। । शिवराम जी की कविता भी बहुत अच्छी लगी धन्यवाद्
हुक्के पर सफाई क्यों दे रहे हैं भला :)
कविता अच्छी है !
ये दोस्ती का रिश्ता है
जो कभी हाथ में हाथ देता है
जो कभी बाँहों में बाहें डाले निकलता है
जो कभी सीने से लग जाता है
और जो कभी....
'रुमाल' बनके आंसू पोछता है.
शिवराम जी की कविता बहुत अच्छी लगी, ओर आप का लेख भी बहुत प्यारा लगा, इसके बारे मै बाद मै एक लेख लिखूंगा, वेसे हुक्का मेने खोल कर अटेची मै अच्छी तरह पेक कर लिया था. दिनेश जी जब भी आप जर्मन आना चाहे आये आप का स्वागत है
हुक्का...
रूमाल...और साथी...
पूरी प्रस्तुति दिल को छूने वाली...
आपके अंदाज़ का जलवा बिखेरते हुए...
रचना और आलेख दोनों अच्छे लगे.
मजेदार...
भाटिया जी से मुलाकात का ज़िक्र और उस पर पूरक शिवराम जी की यह कविता .. मन कुछ कुछ आर्द्र सा हो गया है ।
ग़ज़्ज़ब, वर्णन और कविता दोनों शानदार है ।
अगर ओवर-रूल न करें तो थोड़ी चुहल कर लूँ ?
" दोस्त वही, जो रूमाल निकलवाये :) "
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