बिटिया कुल छह दिन घर रही। आज सुबह छह बजे की ट्रेन पर उसे छोड़ा। उसे काम पर लौटना जरूरी था। वह एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था में सांख्यिकिज्ञ और जनसंख्या विज्ञानी है, जो स्वास्थ्य के क्षेत्र में एम्स और कुछ राज्य सरकारों का सहयोग करती है। कुछ ही दिनों में संस्था का एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन है जिस में उसे भी अपने काम की दो प्रस्तुतियाँ देनी हैं। उन्हें अंतिम रूप देना है। रुकना संभव न होने से सुबह पाँच बजे ही भाई को टीका लगा उस ने भैया दूज मना ली।
मंगलवार सुबह पहुंच कर एक दिन आराम किया, दूसरे दिन अपने काम निपटाए और तीसरे दिन ही घर देखा और सजावट के स्थान चुने। बहिन-भाई ने सजावट का प्रारूप भी तय कर लिया। बाजार से तेल रंग मंगा कर मांडणे बनाने बैठी। कोई चार बरस बाद उस ने घर में मांडणे बनाए। हमारे यहाँ हाड़ौती में कच्चे घरों में गेरू मिला कर गोबर से घर के फर्श को लीपा जाता है। फिर खड़िया के घोल से उन पर मांडणे बनाए जाते हैं जो रंगोली की अपेक्षा अधिक स्थाई होते हैं और अगली लिपाई तक चलते हैं, जो घर में कोई और मंगल उत्सव न होने पर अक्सर होली पर होती है। इन मांडणों के बाद कच्चे घर पक्के घरों की अपेक्षा अधिक सुहाने लगते हैं। दीवाली के दिन उन्हों ने फूलों से घर सजाया। लक्ष्मी पूजा की और पटाखे छोड़े। दोनों बच्चे और शोभा इस काम में लगे रहे। मेरी भूमिका इस बीच दर्शक या मामूली सहयोगी की रही। पर यह सब होते देखना कम आनंददायक नहीं था। लाल और सफेद पेंट से कोटा स्टोन के फर्श पर बनाए गए ये मांडणे कम से कम दो बरस तक इसी तरह चमकते रहेंगे।
मंगलवार सुबह पहुंच कर एक दिन आराम किया, दूसरे दिन अपने काम निपटाए और तीसरे दिन ही घर देखा और सजावट के स्थान चुने। बहिन-भाई ने सजावट का प्रारूप भी तय कर लिया। बाजार से तेल रंग मंगा कर मांडणे बनाने बैठी। कोई चार बरस बाद उस ने घर में मांडणे बनाए। हमारे यहाँ हाड़ौती में कच्चे घरों में गेरू मिला कर गोबर से घर के फर्श को लीपा जाता है। फिर खड़िया के घोल से उन पर मांडणे बनाए जाते हैं जो रंगोली की अपेक्षा अधिक स्थाई होते हैं और अगली लिपाई तक चलते हैं, जो घर में कोई और मंगल उत्सव न होने पर अक्सर होली पर होती है। इन मांडणों के बाद कच्चे घर पक्के घरों की अपेक्षा अधिक सुहाने लगते हैं। दीवाली के दिन उन्हों ने फूलों से घर सजाया। लक्ष्मी पूजा की और पटाखे छोड़े। दोनों बच्चे और शोभा इस काम में लगे रहे। मेरी भूमिका इस बीच दर्शक या मामूली सहयोगी की रही। पर यह सब होते देखना कम आनंददायक नहीं था। लाल और सफेद पेंट से कोटा स्टोन के फर्श पर बनाए गए ये मांडणे कम से कम दो बरस तक इसी तरह चमकते रहेंगे।
हर दीवाली पर देसी-घी में घर पर पकाए गुलाब जामुन हमारे यहाँ जरूर बनाए जाते हैं। लेकिन इस बार मावे की संदेहास्पद स्थिति में तय किया गया कि मावे का कोई भी पकवान घर पर न बनेगा। घर पर मैदा, बेसन के नमकीन, और मिठाइयाँ बनाए गए। जिन में उड़द-चने की नमकीन पापड़ियों का स्वाद तो भुलाए नहीं भूला जा सकता। दीवाली हुई और दूसरा दिन बेटी की जाने की तैयारी में ही निकल गया। आज का दिन एक उदास दिन था। पौने बारह खबर मिली कि वह गंतव्य पर पहुँच गई है और सीधे अपने काम पर जा रही है, अब शाम को ही उस से बात हो सकेगी। आज का दिन उदास बीता। शाम होने के बाद ही दीदी के यहाँ टीका निकलवाने जा सका। (क्षमा करें कुछ चित्र अपलोड नहीं हो पाए)
20 टिप्पणियां:
Bahut achcha laga padh kar....
लाल और सफेद पेंट से कोटा स्टोन के फर्श पर बनाए गए ये मांडणे कम से कम दो बरस तक इसी तरह चमकते रहेंगे।( मुझे लग रहा था कि फर्श धोते ही यह मिट जाते होंगे)......
यह मेरे लिये एक बहुत रोचक जानकारी थी और आप का वर्णन करने का स्टाईल भी इतना खूब है कि आपने जिस तरह से मिठाईयों की बातें की हैं, ऐसा लगा कि हम ने वे सब खा ही लीं।
समझ सकते हैं कि जब बच्चे घर से विदा होते हैं तो मन उदास होना स्वाभाविक ही है। ईश्वर इन्हें सदैव अपने काम में सफलता प्रदान करे।
बच्चों के जाते ही सूनापन और उदासी आ ही जाती है..मै खुद इसी से गुजर रहा हूँ हफ्ते भर से...
मांडणे बहुत सुन्दर दिख रहे हैं..बिटिया गुणी है.
Bahut aakarshak lage Poorva bitiya ke banaye gaye Maandne
( abhee Bitiya ke lap top se lihk
rahee hoon -- Angrezee mei tippani ker rahee hoon --)
Chane Udad ki Paandee ki Recipe
Sau. Shubha ji se pooch ker batayein to khushee hogee ...
Tyohaar ke baad sunapan jyada hee
lagta hai --
Yehan Jan ka mahina bharee THAND aur Deeepawali , Christmas ke jane ke baad , bekar sa beet jata hai -
Aur 31 din hone se bahut lamb lagta hai :-(
Post sunder lagee -- Tasveer bhee dikh rahee hai
Sa sneh,
- Lavanya
ऐसे विवरण आपकी लेखनी की आत्मीयता से सबके अनुभव बन जाते हैं ।
मांडणे तो खैर सुन्दर हैं ही, गुलाब जामुन का उल्लेख ललचा गया । आभार ।
द्विवेदी सर,
पोस्ट के शब्दों की आत्मीयता दिल को छू गई...सचमुच त्यौहार या घर में किसी उत्सव के बाद का खालीपन थोड़े वक्त के लिए भारी लगता है...लेकिन सब अपने काम में लगे रहें...क्योंकि जीवन चलने का नाम...चलते रहो सुबह-ओ-शाम...
जय हिंद...
त्यौहार के बाद परिजनों की अनुपस्थिति से मन का उदास होना स्वभाविक है। कभी कभी हम भी इस उदासी से गुजरते हैं।
बी एस पाबला
इसी का नाम दुनियादारी है. शुभकामनाएं.
रामराम.
ग्र हमे पता होता तो हम भी आपके यहाँ बिटिया के साथ दिवली मनाते। उदासी तो इतनी धिइम धाम के बाद लगती ही है शुभकामनायें
एकदम पते की बात कह दी दिवेदी साहब ! खुसी वाले सिक्के का दूसरा पहलू, जिसे आप और मै बदल नहीं सकते सिर्फ झेल सकते है !
सौभाग्य्शाली हैं जो बिटिया देस ही में है! वो क्या कहें जिनकी बिटिया बिदेस जा बसी.... मिलना तो बस बरस दो बरस में .... आये और गए:(
मांडने देखकर मन खुश हो गया। बिटिया तो होती ही परायी ही है लेकिन आजकल केवल वो ही अपनी सी होती है इसी कारण जब बिछुडती है तब दर्द होता ही है। दीवाली की शुभकामनाएं।
दो साल तक चलता है ये? वाह !
बिल्कुल सही कहा आप ने बच्चो के जाते ही उदासी छा जाती है, ओर घर सुना सुना लगता है... लेकिन बच्चो के भले के लिये यह सब भी करना पडता है. बाकी चित्र बहुत अच्छॆ लगे.
धन्यवाद
ओह पूर्वा चली गई.. चलिये अभी वैभव तो होगा ही..
घर से आकर अक्सर सुनता हूं कि घर एकदम उदास हो गया है.. कभी इस तरह की उदासी को महसूस करने का मौका नहीं मिला है.. घर से निकलने पर एक अलग तरह की उदासी रहती है.. जिसे अभी पूर्वा महसूस कर रही होगी..
बहुत छू लेने वाली पोस्ट! दक्ष ब्लॉगिंग का सशक्त नमूना।
Aapne bitiya ke jaane ke baareme likha aur mai ro padee..
Jamandin kee badhayi ke liye tahe dilse shukriya ! Mai hairan hun ki, aapko pata kaise chala?
"मांडणे" शब्द से मेर नया परिचय हुआ। शुक्रिया द्विवेदी जी...
सुबह पाँच बजे ही बहन का टीका लगाने वाली बात एक पुरानी भैया दूज की याद दिला गयी।
दिन की उदासी का सबब समझ सकता हूँ।
इस उदासी मे एक खुशी भी शामिल है कि बिटिया कुशलता पूर्वक घर पहुंच गई । जीवन का क्या है.. जैसे साइकल की चेन... उतर जाये तो फिर चढ़ा दो .. फिर चलने लगे ।
द्विवेदी जी,
माँडणे के बारे में आज ही पता चला। अब बिटिया से पूछूँगी। शायद राजस्थानी ससुराल में उसने भी यह बनाया जाता देखा हो।
कच्चे फर्श पर गोबर लीपकर, गेरू लगाकर भीगे चावल पीसकर उँगलियों से रेखाओं वाला एँपण कुमाँऊ में भी दिया जाता है। वहाँ त्यौहारों के अतिरिक्त यह नित्य दिया जाता है। कच्चे फर्श पर तो नहीं किन्तु लगभग हर त्यौहार पर यह मैंने भी किया है। वैसे बंगाल में भी गेरू व चावल से अल्पना बनाई जाती है। विधि अलग हैं किन्तु उद्देश्य सब जगह एक ही है।
इस बार हमारे यहाँ उल्टी गंगा बही। मैं दीपावली बिटिया के घर मनाकर लौटी हूँ। वे घर से जाएँ या मैं उनके घर से लौटूँ, अलग होना सदा कष्टदायी होता है। बच्चों को चिड़िया के बच्चों की तरह उड़ना सिखाकर उड़ने देना ही सही है। हम तो उनसे फिर भी यदाकदा मिल लेते हैं, चिड़िया तो शायद न मिल पाती हो !
घुघूती बासूती
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