पुरुषोत्तम 'य़कीन' से आप पूर्व परिचित हैं। उन की एक ग़ज़ल का पहले भी आप अनवरत पर रसास्वादन कर चुके हैं। जब जम्मू-कश्मीर में वोट के लिए छिड़ा दावानल मंद होने का नाम नहीं ले रहा है। वहाँ उन की यह ग़ज़ल प्रासंगिक हो आती है......
लड़ाते हैं हमें और अपने अपने घर बनाते हैं
पुरुषोत्तम 'यकीन'
न वो गिरजा, न वो मस्जिद, न वो मंदर बनाते हैं
लड़ाते हैं हमें और अपने-अपने घर बनाते हैं
हम अपने दम से अपने रास्ते बहतर बनाते हैं
मगर फिर राहबर रोड़े यहाँ अक्सर बनाते हैं
कहीं गड्ढे, कहीं खाई, कहीं ठोकर बनाते हैं
यूँ कुछ आसानियाँ राहों में अब रहबर बनाते हैं
बनाते क्या हैं, बहतर ये तो उन का खुदा ही जाने
कभी खुद को खुदा कहते कभी शंकर बनाते हैं
अभयदानों के हैं किस्से न जाने किस ज़माने के
हमारे वास्ते लीड़र हमारे डर बनाते हैं
न कुछ भी करते-धरते हों मगर इक बत है इन में
ये शातिर रहनुमा बातें बहुत अक्सर बनाते हैं
न जाने क्यूँ उन्हीं पर हैं गड़ी नज़रें कुल्हाड़ों की
कि जिन शाखों पे बेचारे परिन्दे बनाते हैं
इसी इक बात पर अहले-ज़माना हैं ख़फ़ा हम से
लकीरें हम ज़माने से ज़रा हट कर बनाते हैं
दिलों में प्यार रखते हैं कोई शीशा नहीं रखते
बनाने दो वो नफ़रत के अगर पत्थर बनाते हैं
'य़कीन' अब ये ज़रूरी है य़कीन अपने हों फ़ौलादी
कि अफ्व़ाहों के वो बेख़ता नश्तर चलाते हैं
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14 टिप्पणियां:
बहुत सही लिखा है
"हमारे वास्ते लीड़र हमारे डर बनाते हैं"
और
"न जाने क्यूँ उन्हीं पर हैं गड़ी नज़रें कुल्हाड़ों की
कि जिन शाखों पे बेचारे परिन्दे बनाते हैं"
-लावण्या
गजब है भाई...बहुत उम्दा एक एक शेर...मजा आ गया. आपकी पहचान के कायल हो गये,,बाकी भी होते होंगे क्यूंकि हम भी तो आपके पूर्व परिचित कहलाये,,,हा हा!!!
bahut sundar samayik rachana . badhai pandit ji rachana ko prastut karne ke liye.
sateek,humare waaste leader humare dar banate hain.. dhanyawaad aapko acchi gazal padhne ka mauka diya
सटीक और यथार्थ । नेताओं का असली चेहरा।
बहुत सही लिखा है.. कमाल की ग़ज़ल.. बहुत अभूत धनवद ये ग़ज़ल यहा पढ़वाने के लिए..
य़कीन' अब ये ज़रूरी है य़कीन अपने हों फ़ौलादी
कि अफ्व़ाहों के वो बेख़ता नश्तर चलाते हैं
bahut khoob......is gajal ko yahan baantne ka aabhar....
"'य़कीन' अब ये ज़रूरी है य़कीन अपने हों फ़ौलादी
कि अफ्व़ाहों के वो बेख़ता नश्तर चलाते "
बहुत खूब.
पढ़ कर अच्छा लगा
सुन्दर गजल है । यदि कोई इसे अखबार में प्रकाशित करना चाहे तो सम्बन्धित की अनुमति दिलवाइए और साथ में 'यकीन' साहब का पता भी ।
उत्क़्रष्ट चयन कर सुन्दर गजल हम तक पहुंचाने के लिए काटिश: धन्यवाद ।
न वो गिरजा, न वो मस्जिद, न वो मंदर बनाते हैं
लड़ाते हैं हमें और अपने-अपने घर बनाते हैं
सचमुच मे आप ने सही फ़रमाया हे, धन्यवाद
बहुत अच्छा लिखा है।
.
तो भाई लोग, ग़ज़ल गाते रहने से क्या होगा ?
जब समझते हो, तो लड़ना बंद करो !
सीधा फ़ंडा !
तुम लड़े, तभी तो अंग्रेज़ भी तुम्हें लड़ाते हुये मौज़ किये,
और एक बदनुमा दीवार चुनवा कर चले गये ।
अब भी सुधर जाओ, भाई लोग !
यथार्थ !
न जाने क्यूँ उन्हीं पर हैं गड़ी नज़रें कुल्हाड़ों की
कि जिन शाखों पे बेचारे परिन्दे बनाते हैं
वाह वाह !
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