भारत में 10 मार्च के दिन को राष्ट्रीय शर्म दिवस के रुप में मनाया जाना चाहिए। क्यों कि आज यह जानकारी हमें मिली कि भारत के राष्ट्रीय खेल हॉकी की राष्ट्रीय टीम भविष्य में कभी ओलम्पिक खेलों में भाग ले पाएगी; यह अब केवल भारतीय जनता का सपना भर बन कर रह गया है।
यह वही खेल है पहली बार जिस खेल को खेलने के लिए भारत का एक देश के रुप में प्रतिनिधित्व करने वाली टीम ने 1926 में देश के बाहर आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड खेलने के लिए गई। पहली बार यूरोप जापान में प्रतिनिधित्व करने वाली टीम भी हॉकी की ही थी। 1928 पूरे एशिया की ओर से ओलम्पिक स्वर्ण पदक लाने वाली टीम भी भारत की हॉकी टीम ही थी। मेजर ध्यानचंद इस खेल के सरताज थे जिन्हों ने 1926 से 1948 तक अपने जीवन काल में हजार से अधिक गोल किए।
यह खेल हमें अंग्रेजों से मिला। लेकिन हम ने गुलामी के दौर में भी जब हमारे खिलाड़ियों के पास पहनने को जूते भी नहीं थे जूते वाले खिलाड़ियों की टीमों के विरुद्ध बिना जूते खेल कर अपना वर्चस्व स्थापित किया।
यही कारण है कि हम ने इस खेल को आजादी के बाद अपने राष्ट्रीय खेल का दर्जा दिया।
आज तक भी ओलम्पिक खेलों के सब से अधिक स्वर्ण पदक हासिल करने वाली भारतीय हॉकी टीम अब से शायद ही किसी ओलम्पिक में हिस्सा ले पाएगी। यह एक कड़वी सचाई है जिसे जुबान पर लाते हॉकी संघ और इस खेल के लिए जिम्मेदार लोगों को शर्म आ रही है।
आज यह खबर टीवी पर देखते ही मैं सन्न रह गया। निवाला मुहँ तक पहुँचने के स्थान पर हाथ में ही रह गया।
देश के ही नहीं दुनियाँ भर में प्रसिद्ध हाँकी के रिकार्ड को सहेजने वाले हॉकी स्क्राइब श्री बी.जी. जोशी से दिन में फोन पर बात हुई तो वे बहुत दुखी थे। उन्हों ने एक वाक्य में कहा “नाउ इण्डियन हॉकी इज आउट ऑफ औलम्पिक्स फॉर ऐवर”
मैं समझा वे गहरे दुःख और सदमे के कारण ऐसा कह रहे हैं। मैने उन से दुबारा पूछा। नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है?
उन्हों ने फिर कहा- “बिलकुल सही है, इट इज फॉर ऐवर”
मैं ने उन्हें फिर भी सदमे में ही समझा।
शाम को साढ़े छह बजे उन के घर फोन किया तो वे घर नहीं पहुँच सके थे।
आठ बजे रात्रि फिर फोन किया। तब पुनः उन से बात हुई। तब भी उन का यही कहना था “इट इज फॉर ऐवर”।
वहाँ इतनी प्रतिस्पर्धा है कि भारतीय हॉकी टीम का दुबारा ओलम्पिक में प्रवेश अब असंभव है।
तिस पर भारतीय हॉकी के सर्वेसर्वा गिल साहब अब भी तसल्ली से कह रहे हैं- मैं बाद में इन चीजों का जवाब दूँगा। हमारे पास कोई इंस्टेंट कॉफी मशीन नहीं है कि आपको परिणाम तुरंत मिल जाए। आपको अपना स्थान वापस पाने के लिए समय लगता है। हमने सभी चीजें व्यवस्थित कर दी हैं और परिणाम में कुछ समय लगेगा।
गिल साहब और उन के साथियों ने क्या व्यवस्थित किया? यह सारे देश ने देख लिया है। अब परिणाम भी सामने है। और कौन से परिणाम की वे आशा लगाए बैठे हैं?
हाँ, उन की जिम्मेदारी तो जो है सो है ही। क्या राष्ट्रीय खेल होने के नाते क्या खेल मंन्त्री की कोई जिम्मेदारी नहीं है?
कम से कम एक जिम्मेदारी तो वे निभा ही दें कि 10 मार्च के दिन को वे राष्ट्रीय शर्म दिवस अवश्य घोषित करवा दें।
इस विषय पर अब तक पूर्ण-विराम में नलिन विलोचन ने हॉकी का अंत ?; Shuruwat: जिंदगी सिखाती है कुछ में राजीव जैन ने काश सच होता चक दे; पहलू में चंद्रभूषण ने चकते-चकते चक ही दी हॉकी; डेटलाइन इंडिया में आलोक तोमर ने क्योंकि हॉकी क्रिकेट नहीं है; कोतुहल पर nadeem ने भारतीय हॉकी: धन्य हो के पी एस गिल साहब, आज फेडरेशन ने ४ हज़ार रुपये कमाए और दीपक भारतदीप की ई-पत्रिका पर दीपक भारत दीप ने दुआएं ही कर सकते हैं कि हाकी का अस्तित्व बचे आलेख लिखे हैं। सभी आलेख महत्वपूर्ण हैं। इन चिट्ठाकारों को मेरा नमन और पहलू में चंद्रभूषण के चकते-चकते चक ही दी हॉकी पर विमल वर्मा ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की है, उन्हें भी नमन।
अनवरत पर कल की पोस्ट 10 मार्च राष्ट्रीय शर्म दिवस मनाएँ पर प्रतापग्रही जी, mamta जी, ज्ञानदत्तजी, अरुण जी, घोस्ट बस्टर जी, संजीत त्रिपाठी जी और राज भाटिय़ा जी की टिप्पणियाँ मिलीं। यह पोस्ट भारतीय हॉकी को लगे सदमे की सद्य प्रतिक्रिया थी। संजीत जी तो लिफाफा देख कर मजमून भी भांप चुके थे। उन के साथ साथ अन्य सभी साथी टिप्पणीकारों को प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद।
11 टिप्पणियां:
खेलों में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिनेश जी। फिर भी हॉकी के लिए राष्ट्रीय शर्म वगैरह से पहले मैं यही कहना चाहूंगा कि क्रिकेट एक आपराधिक गतिविधि है। ये मॉस हिस्टीरिया का रूप ले चुकी है। ये एक बीमारी है। इसका इलाज ढूंढने पर बाकी चीज़ों को सहेजने, संभालने की फुर्सत अपने आप मिल जाएगी। एक दर्जन देशों में चल रहे पैसों के खेल को पूरी दुनिया के संदर्भ में भारतीय गौरव वगैरह जैसे जुमलों से जोड़ना मेरी नज़र मे राष्ट्रीय शर्म की बात है।
हमे मीडिया पर शर्म आती है। मीडिया खुद कभी घोषित करेगा मीडिया के लिए शर्म का दिवस ?
गुरुवर यह एक ऐसी खेल घटना है, जो भारतीय इतिहास भुलाए नहीं भूल पाएगा।
यानी हम ओलंपिक में राष्टीय खेल की टीम न भेज पाएं।
इधर भी देखें
www.shuruwat.blogspot.com
सही लिखा आपने।
अब क्या कहें..यूँ भी सन्न हैं.
क्या कहूं आपके कहने के बाद और कुछ सूझ ही नही रहा।
कभी-कभी तो इस पूरी व्यवस्था पर इतना गुस्सा आता है कि क्या कहें।
गिल साहब तो बस यही कहते रहे हैं और कहते रहेंगे, उन्हें तो हम छत्तीसगढ़ में भी देख चुके हैं नक्सलियों से लड़ने की रणनीति बनाने उन्हें आमंत्रित किया गया था। खाया पिया कुछ नई गिलास तोड़ा बारह आना को चरितार्थ करते हुए बस लाखों रूपए फीस ले ली करोड़ो खर्च करवा दिए काम कुछ नही किए, छत्तीसगढ़ में गिनती के दिन रहे!!
क्या उन्हें हर जगह सिर्फ़ इसलिए ढोया जाना उचित हैं कि उन्होनें पंजाब में आतंकवाद को समाप्त करने में बड़ी भूमिका निभाई है।
सच ही लिखा है आपने । पर अभी भी गिल ना तो इस्तीफा देने के मूड मे है और ना ही कोई जवाब देने के।
मैं तो उन खिलाड़ियों की तस्वीर देख कर ही सन्न था। मीडिया में कहीं किसी को कहते सुना गया है कि 'गिल को लात मारकर निकाल देना चाहिये' तो लगा कि वाकई लातों के भूत बातों से नहीं मानते। जैसे को तैसा के अंदाज में गिल साहब को भी आतंकवाद विरोध से निपटने के उनके ही अंदाज में गोली मार देनी चाहिये। कोई सुनवाई नहीं, किस्सा खतम।
वैसे क्या किसी दिन सुनने को मिलेगा 'पवार को लात मार कर निकाल देना चाहिये'?
वाकई, हम लोगों ने बचपन में जसदेव सिंह की कमेण्ट्री के साथ हाकी के स्वर्णिम युग का आस्वादन कर रखा है। अब यह दुर्दशा देखना बहुत खराब लग रहा है।
आपसे पूरी तरह सहमत हूँ ..हाकी मर गयी है
आपका पोस्ट बहुत अच्छा लगा पर मुझे नहीं लगता की होकी मर चुका है। खेल खिलाडी से होता है खिलाडी से खेल नहीं। जब तक हमारे देश में होकी के खिलाडी हैं होकी भी है। वैसे भी आजकल हमारे यहाँ खेल कम उसमें राजनीती ज्यादा होती है। इस हार का गिल साहब पर कोई असर पडा हो या ना पडा हो पर खिलाडियों पर ज़रूर पडा होगा। हो सकता है अगली बार ये बहुत अच्छा खेलें। जिस तरह रात के बाद दिन आता है उसी तरह होकी कि सुबह ज़रूर आऍगी। मुझे पूरा भरोसा है।
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