सुप्रसिद्ध कवि-गीतकार महेन्द्र 'नेह' का गीत
अष्टछाप के सुप्रसिद्ध कवि ‘छीत स्वामी’ के वंश में जन्मे महेन्द्र ‘नेह’ स्वयं सुप्रसिद्ध जनकवि गीतकार हैं। उन से मेरा परिचय १९७५ की उस रात के दो दिन पहले से है, जब भारत में आपातकाल घोषित किया गया था। वह परिचय एक दोस्ती, एक लम्बा साथ बनेगा यह उस समय पता न था। दिसम्बर १९७८ के जिस माह मैं वकील बना तब उन्हें कोटा के श्रीराम रेयंस उद्योग से इलेक्ट्रिकल सुपरवाइजर के पद से केवल इसलिए सेवा से हटा दिया गया था कि उन्होंने उद्योग के मजदूरों पर जबरन थोपी गई हड़ताल-तालाबंदी में और उस के बाद मजदूरों का साथ दिया। लेकिन कारण ये बताया गया कि वे मजदूर नहीं सुपरवाईजर हैं। उन के इस सेवा समाप्ति के मुकदमें को मैं अब तक कोटा के श्रम न्यायालय में लड़ रहा हूँ। वे अब बारह बरसों से मेरे पड़ौसी भी हैं। उन के मुकदमे की कथा कभी ‘तीसरा खंबा’ में लिखूंगा। अभी उन की कविता की बात।
जब से भारतीय स्पिनर ‘हरभजन सिंह’ पर रंगभेदी अपशब्द कहने का आरोप लगा है महेन्द्र ‘नेह’ का प्रसिद्ध गीत ‘हम सब नीग्रो हैं’ बहुत याद आ रहा था। कल उन से मांगा और आज आप के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ। इस गीत को किसी समीक्षा की आवश्यकता नहीं। यह अपने आप में सम्पूर्ण है।
‘हम सब नीग्रो हैं’
महेन्द्र ‘नेह’
हम सब जो तूफानों ने पाले हैं
हम सब जिन के हाथों में छाले हैं
हम सब नीग्रो हैं, हम सब काले हैं।।
जब इस धरती पर प्यार उमड़ता है
हम चट्टानों का चुम्बन लेते हैं
सागर-मैदानों ज्वालामुखियों को
हम बाहों में भर लेते हैं।
हम अपने ताजे टटके लहू से
इस दुनियां की तस्वीर बनाते हैं
शीशे-पत्थर-गारे-अंगारों से
मानव सपने साकार बनाते हैं।
हम जो धरती पर अमन बनाते हैं
हम जो धरती को चमन बनाते हैं
हम सब नीग्रो हैं, हम सब काले हैं।।
फिर भी दुनियाँ के मुट्ठी भर जालिम
मालिक हम पर कोड़े बरसाते हैं
हथकड़ी-बेड़ियों-जंजीरों-जेलों
काले कानूनों से बंधवाते हैं।
तोड़ कर हमारी झुग्गी झोंपड़ियां
वे महलों में बिस्तर गरमाते हैं।
लूट कर हमारी हरी भरी फसलें
रोटी के टुकड़ों को तरसाते हैं।
हम पशुओं से जोते जाते हैं
हम जो बूटों से रोंदे जाते हैं
हम सब नीग्रो हैं, हम सब काले हैं।।
लेकिन जुल्मी हत्यारों के आगे
ऊंचा सिर आपना कभी नहीं झुकता
अन्यायों-अत्याचारों से डर कर
कारवाँ कभी नहीं रुकता।
लूट की सभ्यता लंगड़ी संस्कृति को
क्षय कर हम आगे बढ़ते जाते हैं
जिस टुकड़े पर गिरता है खूँ अपना
लाखों नीग्रो पैदा हो जाते हैं।
हम जो जुल्मों के शिखर ढहाते हैं
जो खूँ में रंग परचम लहराते हैं
हम सब नीग्रो हैं, हम सब काले हैं।।
5 टिप्पणियां:
हम पशुओं से जोते जाते हैं
हम जो बूटों से रोंदे जाते हैं
हम सब नीग्रो हैं, हम सब काले हैं।।
जबरदस्त असर है कविता का, इसे यहाँ प्रस्तुत करने के लिए धन्येवाद
बहुत दमदार कविता है महेंद्र जी की। पढ़वाने के लिए धन्यवाद।
बहुत खूब जी।
जबर्दस्त कविता पढ़वाई दिनेश जी। महेंन्द्र जी का परिचय पाकर भी अच्छा लगा।
महेन्द्र जी की कविता मर्मस्पर्शी है. पढ़वाने के लिए धन्यवाद...
"हम अपने ताजे टटके लहू से "
शायद ... टपके होना चाहिए.. देख लीजिए...
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