@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: जून 2015

शुक्रवार, 19 जून 2015

न्याय और कार्यपालिका के बीच शीत गृह-युद्ध

देश में शीत गृहयुद्ध जारी है। हमारी न्याय व्यवस्था जर्जर होने की सीमा तक पहुँच गयी है। कहीं कहीं फटी हुई भी है। फटने से हुए छिद्रों को छुपाने के लिए लगाए गए पैबंद खूब दिखाई देने लगे हैं। जहाँ सौ जोड़ा कपड़ों की हर साल जरूरत है, वहाँ दस जोड़ा कपड़े दिए जाते हैं। जंजीरों में बंधे गुलामों के वो चित्र याद आते हैं जिन में गुलामों से जब तक वे बहोश न खो दें काम कराया जाता था और खाने को इतना ही दिया जाता था कि वे मर न जाएँ। वैसी ही हालत हमारी न्याय पालिका की है। न्याय पालिका हमारे संघ राज्य का महत्वपूर्ण अंग है। लेकिन वह कभी कभी जनपक्षीय हो जाता है। यही कारण है कि उसे विधायिका और कार्यपालिका कभी मजबूत नहीं होने देती। यह डर हमेशा सताता रहता है कि कहीं वह पूंजीवादी निजाम को पलटने का एक साधन न बन जाए।

यही है हमारी स्वतंत्र न्याय पालिका। हर साल उच्चतम न्यायालयों और उच्च न्यायालयों के जजों के साथ प्रधानमंत्री एक समारोह करते हैं। पिछले 15 वर्षों के इन समारोहों की रपटें उठा ली जाएँ तो पता लगेगा कि हर बार मुख्य न्यायाधीश अदालतों की अतिशय कमी की ओर ध्यान दिलाते हैं। पर इन अदालतों की स्थापना तो सरकार से मिलने वाले वित्त पोषण पर निर्भर करती है। हर साल प्रधानमंत्री आश्वासन देते हैं। लेकिन सरकारें अण्डज हैं, साल भर बाद नतीजे के नाम पर अण्डा निकलता है।

उधर विधायिकाओं और सरकारों के पास देश की हर समस्या का एक इलाज है, कानून बना दो। वे कानून बनाते हैं। हर कानून अदालतों में मुकदमों का इजाफा करता है। हर कानून के साथ न्याय पालिका में अदालतें भी बढ़ाने का इंतजाम होना चाहिए। लेकिन उस से सरकार को क्या? यदि मुकदमे देर तक चलेंगे तो सरकार की बदनामी थोड़े ही होगी, बदनाम तो न्याय पालिका होगी। यही तो सरकारें चाहती हैं। तभी तो सरकार के लिए न्यायपालिका में हस्तक्षेप के अवसर पैदा होंगे। आप देख ही रहे हैं कि सरकार ने कॉलेजियम की पद्धति को बदल कर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बना दिया है। अब नए जजों को पुराने जज नहीं बल्कि ये आयोग चुनेगा। इस आयोग के गठन को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गयी है। न्याय पालिका इस परिवर्तन के विरुद्ध लड़ रही है। लेकिन उस के पास फौज और पुलिस जैसे हथियार तो हैं नहीं। उस के पास जो साधारण औजार हैं और वह उन्हीं से लड़ रही है।

कई बरस पहले देशी-विदेशी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव पर परक्राम्य विलेख अधिनियम में चैक बाउंस को अपराध बनाए जाने का कानून बनाया गया। कानून बनते ही चैक का इस्तेमाल आम हो गया। अब चैक सब से बड़ी गारंटी होने लगा। कंपनियों से ले कर गली के बनियों ने उधार माल बेचने और बहुराष्ट्रीय वित्तीय उपक्रमों से ले कर टटपूंजिए साहूकारों तक ने चैक का खूब इस्तेमाल किया। पहले तो उधार वसूलने के लिए गुंडों और लठैतों की जरूरत होती थी। अब अदालतें यह काम करने लगीं। बड़ी कंपनियों ने चैक ले कर थोक में अपने उत्पाद बेचे और जब वे चैक अनादरित होने लगे तो सब के खिलाफ मुकदमे होने लगे। एक कंपनी ने तो दक्षिण भारत की एक अदालत में एक ही दिन में 70000 से अधिक मुकदमे पेश किए। अगले दिन खबर मुख्य न्यायाधीश को मिली और तीसरे दिन एक समारोह में उन्होने बयान दिया कि वे इस कानून को रुपया वसूली का औजार न बनने देंगे। एक समय में 500 मुकदमों की सुनवाई करने की क्षमता वाली अदालत पर 70000 हजार मुकदमे आ जाएँ तो शायद उन्हें रजिस्टर में दर्ज करने में ही दो-तीन साल तो लग ही जाएंगे।

लेकिन मुख्य न्यायाधीश के कहने से क्या होता है? मुकदमे आते रहे और अदालतें बोझिल होती रहीं। कोई प्राथमिक अपराधिक अदालत ऐसी न बची जहाँ इस तरह के मुकदमे हजार पाँच सौ की संख्या में लंबित न हों। हाल वैसा हो गया जैसे सारे वाहन यकायक एक साथ सड़क पर निकल आने पर होता है। अदालतों मे ट्रेफिक जाम होने लगा। ट्रेफिक जाम में नियम कानून और नैतिकता सब दाँव पर होते हैं। कैसे भी सवार बाहर निकलने की कोशिश करता है और ट्रेफिक के सिपाही डंड़ा फटकार कर जाम को हटाने की कोशिश करते हैं।

यही हुआ भी। 1 अगस्त 2014 को उच्चतम न्यायालय के तीन जजों की बैंच ने दशरथ रूपसिंह राठौड़ के मुकदमे में यह फैसला दिया कि चैक बाउंस का मुकदमा सुनने का अधिकार केवल उस अदालत को है जिस के क्षेत्र में चैक जारीकर्ता की बैंक की शाखा स्थित है। अब तक लगभग सारे मुकदमे वहाँ दाखिल किए गए थे जहाँ चैक डिसऑनर हुआ था। पुराने मुकदमों को वापस ले कर इस निर्णय के अनुसार क्षेत्राधिकार वाली अदालत में प्रस्तुत करने के लिए 30 दिन की अवधि निर्धारित की गयी। हजारों मुकदमे वापस दिए गए जिन में से कुछ मुकदमे जो साधारण न्यायार्थियों के थे, वापस पेश ही नहीं हुए जब कि बहुत सारी कंपनियों और न्यायार्थियों ने अपने मुकदमे दूसरे राज्यों की अदालतों में पेश किए ।

इस से सब से बड़ी परेशानी बड़ी कंपनियों को हुई। चैक अब अच्छी गारंटी नहीं रहा। कंपनियों को माल बेचने में परेशानी आने लगी। उन्हों ने फिर सरकारा पर दबाव बनाया और कानून में बदलाव की हवा बनने लगी। कानून बनने में तो देर लगती है। संसद में पारित कराना होता है, फिर राष्ट्रपति का अनुमोदन चाहिए तब कानून लागू होता है। इस से बचाने का एक रास्ता अध्यादेश लागू करना है। सो केन्द्र सरकार ने इतनी तत्परता दिखाई कि 15 जून को परक्राम्य विलेख अधिनियम में संशोधन अध्यादेश लागू कर दिया।

दशरथ रूप सिंह राठौर के मुकदमे में उच्चतम न्यायालय ने खास तौर पर इस बात का उल्लेख किया था कि किस तरह इन मुकदमों ने मजिस्ट्रेट न्यायालयों में एक एविलांस (ऊँचे पहाड़ों में हिम स्खलन से उत्पन्न बर्फीला तूफान) उत्पन्न कर दिया है –

“we need to remind ...... “हमें खुद को याद दिलाने की जरूरत है कि इस देश की मजिस्ट्रेसी पर चैक अनादरण के मुकदमों का हिमस्खलन आया हुआ है। विधि आयोग की 213वीं रिपोर्ट के अनुमान के अनुसार अक्टूबर 2008 में इस तरह के मुकदमों की संख्या 38 लाख से अधिक थी। नतीजे के तौर पर चैक अनादरण के मुकदमों से देश के हर मुख्य शहर की मजिस्ट्रेट स्तर की अपराधिक न्याय व्यवस्था का दम घुट रहा था। चार महानगरों और अन्य व्यावसायिक महत्व के केन्द्रों की अदालतें इस तरह के मुकदमों के कारण भारी बोझ से दब गईं। अकेले दिल्ली की अदालतों में 1 जून 2008 को इस तरह के पाँच लाख से अधिक मुकदमे लंबित थे। दूसरे अनेक शहरों की हालत भी इस से अच्छी नहीं है, केवल इसलिए नहीं कि वहाँ बड़ी संख्या में धारा 138 के मामले घटे हैं बल्कि इस लिए कि बहुराष्ट्रीय व दूसरी कंपनियों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों व अभिक्रमों ने इन शहरों को शिकायत दर्ज कराने के लिए उचित समझा जिस का इस से अच्छा कारण कोई नहीं है कि अनादरित चैक की राशि को लौटाने के लिए नोटिस जारी किए गए थे और चैक उन शहरों की शाखाओं में समाशोधन के लिए जमा किए गये थे”। ... banks in those cities.”

इस उल्लेख से यह स्पष्ट हो गया था कि उच्चतम न्यायालय किस तरह परेशान है और उस से निपटने के लिए क्षेत्राधिकार के आधार पर वह कुछ मुकदमे कम होते देखना चाहता है। कम से कम कार्यपालिका को एक चेतावनी देना चाहता है। लेकिन उच्चतम न्यायालय का यह मंसूबा सरकार कैसे पूरा होने देती। उस ने इस मामले को संसद तक ले जाने और कानून में संशोधन करने तक की राह नहीं देखी। तब तक वे कंपनियाँ कैसे इन्तजार करतीं जिन्हों ने करोड़ों रुपए इस सरकार को बनाने में दाँव पर लगाए थे। अपने आका को इतने दिन परेशान होते देखना किस जिन्न को बर्दाश्त होता है? वे अध्यादेश लाए और एक दम आका की परेशानी का हल पेश कर दिया।

यह सरकार और न्यायपालिका के बीच का शीत गृह-युद्ध है। जहाँ न्याय पालिका के पास निर्णय पारित करने का औजार है वहीं सरकार के पास निर्णयों को कानून और अध्यादेशों के जरिए पलट डालने का शस्त्र मौजूद है। अब साल में दो चार बार इस युद्ध का नजारा देखने को मिलता ही रहेगा। जब तक कि न्यायपालिका को देश की जरूरतों के मुताबिक अदालतें नहीं मिल जातीं। आप जानते हैं, देश की जरूरत क्या है? नहीं जानते हों तो मैं ही बता देता हूँ। देश को मौजूदा अदालतों की संख्या से चार गुनी और अदालतें चाहिए।

शनिवार, 13 जून 2015

फर्जी डिग्री

'लघुकथा'
रामदास सरकारी टीचर हो गया। वह स्कूल में मुझ से चार साल पीछे था। एक साधारण विद्यार्थी जो हमेशा पास होने के लिए जूझता रहता था।  मैं स्कूल से कालेज में चला गया। फिर पता लगा कि वह दसवीं क्लास में दो बार फेल हो जाने पर पढ़ने मध्यप्रदेश चला गया। कुछ साल बाद जानकारी मिली कि उस ने वहाँ से न केवल हायर सैकण्डरी बल्कि बीए भी कर लिया और बीएड भी। कुछ दिन उस ने निजी स्कूलों में भी पढाया।

सरकारी नौकरी मिलने पर उस की पहली पोस्टिंग किसी गाँव के स्कूल में हुई थी। वह एक जीप से रोज शहर से गाँव जाता। इसी जीप से बहुत टीचर और टीचरनियाँ रोज शहर से गाँवों के स्कूल जाया करते थे। एक टीचरनी से उस की दोस्ती हो गयी। दोस्ती भी ऐसी कि धीरे धीरे प्यार में बदल गयी। दोनों ने शादी कर ली। 

शादी हो जाने के बाद दोनों ने कोशिश कर के अपनी पोस्टिंग जिला मुख्यालय पर करवा ली। दोनों कमाते और बचाते। फिर जिला मुख्यालय के शहर की ही एक बस्ती में प्लाट ले लिया। धीरे धीरे उस पर दो मंजिला मकान बना लिया। उन्हीं दिनों पडौस में कोचिंग इंस्टीट्यूट खुले तो पढ़ने वाले बच्चे कमरे ढूंढने लगे। रामदास ने बैंक से लोन ले कर दो मंजिलें और बना लीं और कमरे कोचिंग स्टूडेण्ट्स को किराए पर चढ़ा दिए। 

फिर एक दिन पता लगा कि रामदास की हायर सैकण्डरी का प्रमाण पत्र फर्जी निकला। उसे आरोप पत्र मिला और आखिर उसे नौोकरी से निकाल दिया गया। पर इस से रामदास के जीवन पर कोई बड़ा असर नहीं हुआ। रामदास की पत्नी अब भी सरकारी टीचर है। वह नौकरी पर जाती है। घर का सारा काम रामदास देख लेता है। खाना भी अक्सर दोनों वक्त का खुद ही बनाता है और बच्चों को भी संभाल लेता है। आमदनी की कोई कमी नहीं। जितना वेतन टीचर की नौकरी से मिलता था उस से दुगना तो वह मकान के किराए से कमा लेता है। रामदास सुखी है, उस की पत्नी अब भी खुश है। बेटा इंजिनियर हो गया है, बंगलौर में नौकरी कर रहा है। रामदास के पास बेटे के लिए खूब रिश्ते आ रहे हैं अच्छे खासे दहेज के प्रस्ताव के साथ।

रविवार, 7 जून 2015

भूत-कथा

भूत-कथा 

  • दिनेशराय द्विवेदी



रात बाथरूम में चप्पल के नीचे दब कर एक कसारी (झिंगूर) का अंत हो गया। चप्पल तो नहाने के क्रम में धुल गयी। लेकिन कसारी के अवशेष पदार्थ बाथरूम के फर्श पर चिपके रह गए।

अगली सुबह जब मैं बाथरूम गया तो देखा कसारी के अवशेष लगभग गायब थे। केवल अखाद्य टेंटेकल्स वहाँ कल रात की दुर्घटना का पता दे रहे थे। बचे हुए भोजन कणों का सफाया करने में कुछ चींटियाँ अब तक जुटी थीं।

अगली बार जब मेैं बाथरूम गया तो वह पूरी तरह साफ था। वहाँ न चींटियाँ थीं और न ही कसारी का कोई अवशेष। किसी ने स्नान के पहले उस के फर्श को जरूर धोया होगा।

कसारी एक जीवित पदार्थ थी, एक दुर्घटना ने उस के जीवन तंत्र को विघटित कर दिया, वह मृत पदार्थ रह गयी। चींटियों ने उसे अपना भोजन बनाया। मृत पदार्थ अनेक जीवनों को धारण करने का आधार बना। बाथरूम धुलने के समय कुछ चींटियाँ वहाँ रही होंगी तो पानी में बह गयी होंगी। जाने वे जीवित होंगी या फिर उन में से कुछ मृत पदार्थ में परिवर्तित हो कर और किसी जीवन का आधार बनी होंगी।

इस बीच काल्पनिक आत्मा और परमात्मा कहीं नहीं थे, अब इस कथा को पढ़ कर वे किसी के चित्त में मूर्त हो भी जाएँ तो उन सब का आधार यह भूत-कथा ही होगी।

शनिवार, 6 जून 2015

गऊ माँ!

 गऊ माँ


बहुत आसान है
गाय को माँ कहना
अगर आप गाय पालते नहीं हैं


आप गाय पालें
उस का दूध न निकालें
सारा का सारा उस के बछड़ों के लिए छोड़ दें


बछड़ों को बधिया न करें
न उन के कांधे पर हल लादें,न तेली की घाणी,
न रहँट, ना गन्ने का कोल्हू और न बैलगाड़ी खिंचवाएँ 


बछडों और बछिया को भाई बहन कहें
सांडों को बाप, दादा और चाचा, ताऊ मानें
पूरे परिवार को पालें और गाय को माता कहें


इस गौ परिवार में हो जाए कभी गमी
तो खूब स्यापा करें, ले जाएँ कांधों पर उठा कर श्मशान
वैदिक मंत्रों के साथ संस्कार करें


तीया करें, अस्थियों को ले जाएँ हरिद्वार
पंडित से करवाएँ पिण्डदान और फिर
लौट कर तेरहीं करें, ब्राह्मण भोज के साथ 


कौन है फिर
जो आप पर उंगली उठाए
आपत्ति करे कि गाय जानवर है, माँ नहीं

  • दिनेशराय द्विवेदी