@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: चलो, उतरा बुखार फुटबॉल का ...........

मंगलवार, 13 जुलाई 2010

चलो, उतरा बुखार फुटबॉल का ...........

हीने भर से बुखार था, आज जा कर उतरा। चलो, इस से भी फारिग हुए। पचपनवाँ बरस जी रहे हैं। शरीर में कुछ तो जवानी रोज कम हो ही रही है। हाँ रोज एक घंटे फुटबॉल खेली जाये तो शेष जवानी को कुछ बरस और रोका जा सकता है। अब खुद निक्कर-टी शर्ट पहन, जूतों में पैरों को कस कर मैदान में फुटबॉल तो खेल नहीं सकते, जिस, से शरीर में खूब खून का दौरा हो और जवानी कुछ बरस और मेहमान बनी रह सके। लेकिन अब ये तो किया ही जा सकता है कि टीवी पर फुटबॉल मैच देख कर जिस्म में खून के दौरे को बरकरार रखा जाए। महीने भर पहले यही कुछ करने का हमने मन बनाया। शाम का मैच तो दफ्तर और मुवक्किलों की भेंट चढ़ जाता था। हम केवर आधी रात को होने वाले मैंच देखते रहे। आखिर क्वार्टर फाईनल आ गए। अब बुखार में आनंद आने लगा था। 
धर देखा कि हिन्दी ब्लागीरी में कोई फुटबाल का नाम ही नहीं ले रहा है। ले रहा है तो ऐसे जैसे मुहल्ले में आए मंत्री को अनिच्छा से हाथ जोड़ सलाम  ठोक रहा हो। हमने सोचा हिन्दी ब्लागिंग की ऐसी किरकिरी तो न होने देंगे, कुछ तो भी लिखेंगे। अब हम खेल के पत्रकार तो थे नहीं, और कबड्डी के सिवा किसी दूसरे खेल के नियमित खिलाड़ी रहे हों ऐसा भी नहीं था। अब हम किस हैसियत से लिखते? हमें याद आया कि हम ये बुखार शुरू होते से ही दर्शक जरूर बने हुए हैं, और क्या एक दर्शक की कोई हैसियत नहीं होती। हमने विचारा तो पता लगा कि असल हैसियत तो वही बनाता है। वह हैसियत वाला हो या न हो पर सब की हैसियत बनाने वाला तो वही है। इधर रणजी के मैच देखे हैं हमने। उन में दर्शक नदारद होता है तो खिलाड़ियों की हैसियत भी उतनी ही नदारद होती है। हमने दर्शक की हैसियत से फुटबॉल पर लिखने का श्री गणेश कर डाला। देखा, और लिखा। जो पसंद आया वही लिखा। आप ने पढ़ ही लिया होगा कि क्या लिखा? न पढ़ा हो तो पढ़ लें वही हमारा इस बुखार का तापमान ग्राफ है।
ब कथा जब पूरी हो चुकी है तो पूर्णाहुति और आरती तो अवश्य ही होनी चाहिए ना? उस के बिना तो कोई यज्ञ, कोई समारोह सम्पन्न नहीं होता न? तो लीजिए आखिरी मैच का हाल ये रहा कि जिस टीम को अपने जीतने की क्षमता में विश्वास था उस ने पूरे मैच में धैर्य न खोया और आखिर जीत हासिल कर ली। मैं स्पेन की बात कर रहा हूँ। वे अपने आत्मविश्वास से जीते। जिस टीम के कप्तान को यह विश्वास हो कि वह गोल पर होने वाले हर प्रहार को रोकने की क्षमता रखता है। क्या उस की टीम के शेष 10 खिलाड़ी विपक्षी के गोल में गेंद नहीं डाल सकते? उन का गुरु (कोच) वह कितना शांत दिखाई देता था। उस के चेहरे पर हमेशा न खुशी न गम विराजमान रहते थे। लेकिन  जब मैच के अतिरिक्त समय के आखिरी क्षणों में जब उस के खिलाड़ियों ने गेंद जब विपक्षी गोल में डाल दी तो उस की आँखों में वही चमक थी जो कई वर्षों से चमकने के वक्त का इंतजार कर रही थी। कल के खेल में सब कुछ हुआ। शरीरों की बेहतरीन टक्करें हुईँ। शरीर घायल भी हुए। शरीरों ने अपनी पूरी ताकत तक लगा दी। लेकिन केवल ताकत की जीत नहीं हुई। जीत हुई उस ताकत को ठंड़े दिमाग से इस्तेमाल करने वालों की। टीम का कप्तान ऐसे फफक फफक कर रोने लगा जैसे उस के जीवन का इस से अधिक आनंद देने वाला क्षण जी रहा है जो फिर कभी उस के जीवन में नहीं आएगा। 
मैच से पहले गाने और नृत्य से खिलाड़ियों, आयोजकों और दर्शकों में उल्लास भर देने वाली शकीरा का जिक्र न किया जाए तो बात अधूरी रहेगी। प्रकृति किस तरह किसी एक को इतनी सारी दौलत से कैसे नवाजती है इस का शानदार उदाहरण हैं शकीरा। अद्वितीय सुंदरता से भरपूर शरीर और सौंदर्य। जैसे स्वर्ग से साक्षात मेनका या रंभा उतर आई हो। मधुर और जोशीली आवाज, उस पर थिरकता हुआ बदन। जिसे देखने के उपरांत  मनुष्य की सारी लालसाएँ और वासनाएँ तिरोहित हो जाएँ। हम ने तो उस की छायाएँ देखीं। जिन लोगों ने उसे साक्षात देखा होगा। सारा जीवन रोमाँच शायद ही विस्मृत कर पाएँ। 
टीम अपने देश पहुँची। अब वह देशाटन में लगी है। लाखों लोग खिलाड़ियों के स्वागत में उल्लसित हैं। जिधर निगाह दौड़ाओ उधर ही लाल-पीली जर्सी दिखाई पड़ती है। जैसे देश के फुटबॉल खिलाड़ियों का गणवेश संपूर्ण देश का गणवेश हो गया हो। हर कोई वही पहने दिखाई देता है। हर कोई महसूस कर रहा है कि उस का भी इस जीत में कुछ न कुछ योगदान है। बुजुर्गों की आँखें उन लड़कों को देख कर खुशी से छलक रही हैं। अधेड़ उन्हें गौरव से देख रहे हैं। जवानों के शरीरों में खून तेजी से दौड़ने लगा है। वे कुछ भी करने को तैयार हैं। लाल और पीले रंगों की ये बहार देख कर मेरे राजस्थान की रंगीनी फीकी पड़ने लगती है। मैं या आप यदि आज स्पेन में होते तो इस बात के प्रत्यक्षदर्शी होते कि जीवन की सब से बड़ी जीत कैसी दिखाई देती है? कैसी सुनाई देती है? उस का स्वाद कैसा होता है?
मेरा तो बुखार यहीं आरती के साथ उतर गया। साथ ही उस ऑक्टोपस पाल बाबा का भी। सुना है उन ने कुछ खा लिया है और वे अब इस खुशी को देखने के बाद अधिक दिनों इस धरती पर रहना नहीं चाहते। उन्हें सेवा निवृत्त कर दिया गया है। वे अब विश्राम पर चले गए हैं। बाबा ने जिस तरह सारे दुनिया के ज्योतिषियों की ज्योतिष को ठेंगा दिखाते हुए अपनी बैठक को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध किया उस का तो मैं भी कायल हो गया हूँ। वैसे मेरा जूनियर बता रहा था कि बाबा कुल 12 बार में नौ बार बाएं डब्बे पर बैठे। दाँए पर तो वे तीन बार गलती से जा बैठे थे। वैसे भी जिस के आठ हाथ हों उसका क्या दायाँ और क्या बायाँ? अब बाबा तो गए। उन के प्रशंसक कई दिनों तक लकीर पीटते रहेंगे। कई तो लाइब्रेरी में से उस की रिकॉर्डिंग निकाल निकाल कर पीटेंगे। मेरे ज्योतिषी दादा जी ने मुझे भी ज्योतिषी बनाने की कोशिश की थी। अच्छा हुआ डार्विन का जिस ने हमें ज्योतिषी न बनने दिया। नहीं तो अब ग्लानि होती कि इस से तो ऑक्टोपस बनना ज्यादा अच्छा था। 
च्छा तो अलविदा फुटबॉल बुखार! अलविदा! मैं सोच रहा हूँ कि मैं भी घर के किसी मर्तबान में एक ऑक्टोपस पाल ही लूँ। जब भी दुविधा होगी। तब बक्सों को ड़ाल कर उस से कहूँगा ...... किसी पर तो बैठ!








12 टिप्‍पणियां:

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत ही सुंदर विशलेषण किया आप ने स्पेन को तो जीतना ही था, आकटॊ पुस के कहने से नही उस की लगन देख कर, उस ने इस आयोजन मै कुल आठ मेच खेले, ओर सात पर विजय हासिल कि, सब से हेरानगी बाली बात स्पेन ने इस पुरे प्रोग्राम मै सब से कम रन बनाये यानि आठ मेचो मै सिर्फ़ सात रन फ़िर भी विश्व विजेता बना, सात मैच जीता ०.१ से ही.
धन्यवाद

राज भाटिय़ा ने कहा…

ओर यह एक रिकार्ड भी बन गया सब से कम रन फ़िर भी विश्व विजेता

उम्मतें ने कहा…

ये एक अलग किस्म का जूनून था खत्म हुआ ?
शायद !
अब कमेन्ट बाक्स पर झूलने वाले आक्टोपसों पर ध्यान दीजिए :)

Udan Tashtari ने कहा…

चलिए, ये टंटा तो खतम हुआ...

Abhishek Ojha ने कहा…

वाका वाका ख़त्म हुआ... २०१४ में ब्राजील में फिर शकीरा गायेंगी क्या. २ वर्ल्ड कप में तो गा लिए उन्होंने.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

आनन्द और उत्साह से परिपूर्ण रहा यह उत्सव। मन और शरीर में रक्त का प्रवाह बना रहा। विश्लेषणों से मानसिक उत्सुकता भी बनी रही।

Mansoor ali Hashmi ने कहा…

विश्लेषण आपका बड़ा सुन्दर, सरल रहा,
उतरा बुखार आपका, ज्योतिष पे चढ़ गया,
'इस पैन'[स्पेन] ने लिखी है जो तारीख़ अबकी बार,
इक 'आठ पैरो वाला' भी तस्लीम कर गया.
तस्वीर 'ऑक्टोपस' की तो हरसूँ है बिक रही,
'ओझाजी'* की नज़र तो 'शकीरा' पे टिक रही.


*abhishekji

Ghost Buster ने कहा…

@ राज भाटिया जी- सही कहा आपने. ये तो कमाल की बात है, इतने कम रन फिर भी जीत गया स्पेन. वैसे १९८३ के क्रिकेट विश्व कप में भारत ने जब जीत हासिल की थी तो फाइनल में उसने भी सबसे कम गोल करने के बाद भी ये कारनामा दिखाया था. :o)

PD ने कहा…

हमारे एक सीनियर अभी स्पेन में ही हैं और वहां के हो रहे जलसों कि जानकारी बाँट रहे हैं हमसे.. पहला मैच जब स्पेन हारा था तब हमने उन्हें खूब लानते भेजी थी(आखिर हम शुरू से ही स्पेन और अर्जेंटीना के पक्ष में थे)..
सिर्फ अपने ओझा जी ही नहीं, शकीरा पर नजर जमाये तो हर कोई बैठा है.. ये टनटा भले ही खतम हो गया हो, मगर आज भी दफ्तर में वाका-वाका ही चल रहा है..

वैसे मेरी जानकारी में हिंदी ब्लॉग जगत में भी इसके शौक़ीन कम नहीं हैं..

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

आपने फ़ुटबाल कप का बहुत ही सटीक विष्लेषण कर डाला. बहुत रोचक और पठनीय पोस्ट. आभार.

रामराम.

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

वाह साब,अब तक आप व्यस्त थे,फ़ुटबाल का पूरा आनंद उठाया,लगता है अब एक पोस्ट हाड़ौती में भी पढने मिल सकती है।

राम राम

यह पोस्ट ब्लाग4वार्ता पर भी है

ZEAL ने कहा…

post bahut achhi lagi....gajab bukhar hai football ka...paracetamol ineffective !

waise paul baba ko dekh kar kuchh kuchh hota hai.