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मंगलवार, 2 मार्च 2010

अनुभवी सीख : शिवराम की एक अनोखी कविता

ल के आलेख में मैं ने शिवराम की व्यंग्य कविता का उल्लेख किया था। जो उन्हों ने सूर्य कुमार पांडेय के सानिध्य में होली के दिन हुई काव्य गोष्ठी में सुनाई थी। आज उसे यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ.... 
 
अनुभवी सीख
  • शिवराम

एक चुप्पी हजार बलाओं को टालती है
चुप रहना भी सीख
सच बोलने का ठेका 
तूने ही नहीं ले रखा


दुनिया के फटे में टांग अड़ाने की 
क्या पड़ी है तुझे
मीन-मेख मत निकाल
जैसे सब निकाल रहे हैं
तू भी अपना काम निकाल
अब जैसा भी है, यहाँ का तो यही दस्तूर है
जो हुजूर को पसंद आए वही हूर है


नैतिकता-फैतिकता का चक्कर छोड़
सब चरित्रवान भूखों मरते हैं
कविता-कहानी सब व्यर्थ है

कोई धंधा पकड़
एक के दो, दो के चार बनाना सीख
सिद्धांत और आदर्श नहीं चलते यहाँ
यह व्यवहार की दुनिया है
व्यावहारिकता सीख
अपनी जेब में चार पैसे कैसे आएँ 
इस पर नजर रख


किसी बड़े आदमी की दुम पकड़
तू भी किसी तरह बड़ा आदमी बन
फिर तेरे भी दुम होगी
दुमदार होगा तो दमदार भी होगा
दुम होगी तो दुम उठाने वाले भी होंगे
रुतबा होगा
धन-धरती, कार-कोठी सब होगा


ऐरों-गैरों को मुहँ मत लगा
जैसों में  उठेगा बैठेगा
वैसा ही तो बनेगा
जाजम पर नहीं तो भले ही जूतियों में ही बैठ
पर बड़े लोगों में उठ-बैठ


ये मूँछों पर ताव देना 
चेहरे पर ठसक और चाल में अकड़
अच्छी बात नहीं है
रीढ़ की हड्डी और गरदन की पेशियों को
ढीला रखने का अभ्यास कर


मतलब पड़ने पर गधे को भी
बाप बनाना पड़ता है
गधों को बाप बनाना सीख


यहाँ खड़ा-खड़ा 
मेरा मुहँ क्या देख रहा है
समय खराब मत कर
शेयर मार्केट को समझ
घोटालों की टेकनीक पकड़
चंदे और कमीशन का गणित सीख
कुछ भी कर 
कैसे भी कर
सौ बातों की बात यही है कि
अपना घर भर
हिम्मत और सूझ-बूझ से काम ले
और, भगवान पर भरोसा रख।

सोमवार, 1 मार्च 2010

भांग की तरंग होली के चित्रों के संग

होली की पूर्व संध्या पर काव्य-मधुबन के कार्यक्रम फुहार2010 में सूर्यकुमार पाण्डेय को ग्यारहवाँ व्यंग्य श्री सम्मान प्रदान किया गया। इस समारोह में जाने के पहले ही बच्चा-लोगों ने हमारे घर विजया की ठंडाई घोंटी थी। उस के चित्र देखिए--

 तैयारी जारी है

 जरा और घोंट भाई!

 अब मामला तैयार है

 थोड़ी ही लूंगा

 अपने को कितनी भी चलेगी
 सूर्य कुमार पाण्डेय जी से सम्मान समारोह के बाद आग्रह किया गया कि सुबह ग्यारह बजे महेन्द्र जी के यहाँ विकल्प की गोष्ठी में पधारें। आग्रह अविलंब स्वीकार कर लिया गया। गोष्टी हुई मेरे और महेन्द्र 'नेह' के घर के सामने वाले सत्यम उद्यान में। गोष्ठी में सभी कवियों ने रचनाएँ पढ़ीं और स्वयं पाण्डेय जी ने भी बहुत ही रोचक रचनाएँ सुनाईं। शिवाराम  की कविता 'अनुभवी सीख' सर्वाधिक चर्चित रही।

अतुल चतुर्वेदी, भगवती प्रसाद गौतम, सूर्यकुमार पाण्डेय

 महेन्द्र 'नेह' कविता पाठ करते हुए

  शिवाराम कविता पाठ करते हुए

गोष्ठी का संचालन करते हुए शकूर 'अनवर'

 दिन कैसे निकला पता ही नहीं लगा। शाम को हम बाजार गए, सोचा था मिठाइयाँ खरीदेंगे और वहीं कुछ खा भी आएँगे। लेकिन बाजार में भीड़ देखते हुए बाहर खाने का इरादा त्यागा और मिठाइयाँ ले कर वापस लौट आए। शोभा भोजन बनाने सीधे रसोई में घुस गई। मैं और पूर्वा होली देखने पार्क में घुसे। पूरा पार्क पेड़ों और दूब से ढका है। लेकिन पार्क का एक कोना केवल होली के निमित्त ही खाली है। वहीँ होली बनाई गई थी। एक लंबे बांस से लगा ऊँचा लाल रंग का गोटे लगा झंडा और उस के इर्द-गिर्द लकडियाँ लगी हुईं। लोग अपने घरों से उपले ला कर डाल गए थे। महिलाएँ होली की पूजा कर जा रही थीं। कुछ ही देर में होली जलने की तैयारी थी। फोन कर के शोभा को भी बुला लिया गया। जब मुहल्ले के सब लोग आ गए तो होली जलाई गई। मौके पर माचिस नहीं थी। एक मिली तो उस में  एक ही तीली थी और कवर गीला। फिर एक एक्सपर्ट आए उन्हों ने इकलौती तीली को सुलगा लिया। फिर एक गत्ता सुलगाया गया। फिर होली में आग डाल दी गई।

 होली जलने लगी

 कुछ ही देर में उस ने आग पकड़नी आरंभ कर दी

 फिर ताप इतना बढ़ा कि लोगों को दूर हटना पड़ा

 महिलाओं ने जलती हुई होली की परिक्रमा की

फिर लोगों ने डेक के संगीत पर थिरकना आरंभ किया
 
 क्या बच्चे, क्या जवान? क्या पुरुष क्या स्त्रियाँ सभी नाचने लगे

 सब ने अपना नृत्य कौशल दिखलाया

 सब अपनी उमंग भर नाचे

 देर रात तक यह नृत्य चलता रहा


तब तक होली का मुख्य स्तंभ गिर गया, 
उस में लगा झंडा साबुत ही बाहर आ गया। 
लोगों ने कहा होली जल गई प्रहलाद साबुत निकल आया।

होली के दिन का फिर हमें है इन्तज़ार

मारे शायर दोस्त पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’ हर साल बड़ी हसरत लिए निकलते हैं होली खेलने। उन की हसरत कई साल से पूरी न हो पा रही है। बस एक वादा लिए लौट आते हैं हर बार। पिछले साल लौटे तो एक नज़्म लिखी। आज होली के दिन उन की ये नज़्म उन्हीं को समर्पित है । इस आशा के साथ कि इस साल तो उन की ये हसरत पूरी हो ले.......

नज़्म






नज़्म
पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’

होली के दिन का था बड़ी हसरत से इन्तज़ार
अर्मां किसी के लम्स का करता था बेक़रार
होली जो आई तो चढ़ा, दिल पर हसीं जुनून
छू लेंगे अब के हुस्न को, आऐगा कुछ सुकून


ले कर गुलाल हाथ में, जा पहुँचे उन के घर
दरवाज़े पे खड़े थे वो ज़ुल्फ़ें बिखेर कर
हम को लगा कि अब चढ़ीं पर्वान हसरतें
आऐंगी काम आज बरस भर की मिन्नतें
मुखड़े पे उन के हम जो लगाऐंगे कुछ गुलाल
छूते ही लाल शर्म से हो जाऐंगे वो गाल


लेकिन वो बात हो गई, था जिस का हम को डर
बस आज भी वो अड़ गए हम को सताने पर
इठला के दूर हो गए, वो मुस्कुरा के बस
अपनी जगह से फिर हुए बिल्कुल न टस से मस
पहले की जैसे आज भी उस शोख़ ने किया
कोई क़रीब आने का मौक़ा नहीं दिया


होली की बात उस ने फिर आगे पे टाल दी
शातिर बहानेबाज़ की ख़ासी मिसाल दी
नाज़ो-अदा से भर तो ली मुट्ठी गुलाल की
पर दूर से खड़े-खड़े हम पर उछाल दी
हम भी अबीर फैंक के बस उन पे दूर से
अपना-सा मुँह लिए अजी आए हैं लौट के

होली के दिन का फिर हमें करना है इन्तज़ार
होली के दिन ही का किया है उस ने फिर क़रार


रविवार, 28 फ़रवरी 2010

पहेली!

ल मैं ने एक चित्र आप को यहाँ दिखाया था और पूछा था आप बताएंगे यह क्या है?
जवाब समीर लाल जी ने देना आरंभ किया बेर है, फिर किसी ने उसे देख सेब की याद आई किसी ने उसे आड़ू और गूलर भी बताया। पर बिलकुल सही उत्तर दिया अभय तिवारी जी ने। वे कहते हैं ....
ये बरगद का फल/ फूल है। बरगद फ़िकस या फ़िग परिवार का पेड़ है जिसमें फूल ही फल होता है। इस परिवार के दूसरे पेड़ हैं - पीपल, पाकड़ और गूलर। गूलर के बारे में कहावत है - तू त गुलेरवा के फूल हो गयल! क्योंकि गूलर का फूल कभी दिखता ही नहीं.. असल में दिखता खूब है लेकिन उसे फूल नहीं फल मानते हैं लोग।
ऐसे ही यह फल है दिखता फल है लेकिन असल में है फूल।
मेरी आँख कहती है कि ये वही बरगद का फूल है।
ही में यह बरगद का फूल ही था। कल दोपहर बाद जैसे ही हम कॉफी पी कर उठे तो देखा सामने वाले बरगद पर सुर्ख फूल दमक रहे हैं। मैं ने तुरंत तीन चित्र ले डाले। अब आप ही देखें कितने सुंदर लग रहे हैं ये लाल फूल बरगद के पत्तों के हरे रंग के पार्श्व के साथ।



होली के पहले की एक रंगभरी शाम

ज मिलादुन्नबी का त्यौहार था। बहुतों के साथ ही मेरे लिए भी होली के पहले एक दिन और अवकाश का। इस्लाम के अनुयायियों के लिए उतना ही बड़ा दिन जितना शायद कृष्ण जन्माष्टमी या क्रिसमस है। बिटिया दीपावली के बाद अब घर आई है तो घर ही रहा। कुछ साल पहले तक मुहल्ले में होली मुहल्ले की सोसायटी मनाती थी। तो हफ्ते भर पहले से मेरा दफ्तर सोसायटी का दफ्तर हो जाता था। पहले होली मनाने के तरीके पर मीटिंग होती। फिर चंदा इकट्ठा किया जाता। फिर होली की तैयारी शुरू हो जाती। कुछ सालों से सोसायटी ने यह काम बंद कर दिया। यह जिम्मा नौजवानों ने संभाल लिया। मैं ने कल ही विकास को पूछा था -भाई होली की तैयारी नहीं है क्या। वह अपने कामों में उलझा था। वह बोला था -अंकल कल का दिन बहुत है, सब कर लेंगे। मैं ने उसे बताया था कि मेरे पास विजया का अच्छा स्टॉक पड़ा है उसे टेस्ट कर लो। होली के दिन काम में लेने लायक है या नहीं। उस ने शाम को आने को बोला। लेकिन शाम को गच्चा मार गया। मैं भी पूर्वा को स्टेशन से लाने में व्यस्त हो गया।
ज सुबह से ही जी-मेल के बज़ पर दिल्ली से अजय झा विज्ञापन लगाए बैठे थे....
  • होलिका दहन के लिए लकडी के दरवाजे खिडकियां खटिया के दाता लोग नाम लिखाएं ..जल्दी ...पावती रसीद के साथ भांग का पाऊच फ़्री मिलेगा :) :) :) :) :) :)
जोधपुर से हरि शर्मा बोले-
  • इस तरह मांगने से काम न चलेगा, चोरी करनी पड़ेगी।
हम ने विज्ञापन देखा तो बोल दिया.....
  • कुछ टूटे स्टूल टेबल का कबाड़ छत पर पड़ा है। आप खुशी से मंगा सकते हैं। मेरे ऑफिस (जो घर पर ही है) की टेबुल की दराज में दो सौ चालीस ग्राम भांग रखी है (दस ग्राम प्रयोग में ली जा चुकी है) कबाड़ उठाने आप खुद आ जाएँ तो छत पर ही सिल-बट्टा बजा लिया जाएगा। आप का इंतजार है।
म शाम तक इंतजार में रहे झा जी आएँगे! पर उन्हें न आना था, न आए! शाम को विकास अपनी टीम ले कर पहुँचा। एक छोटे से कागज के पुर्जे में लिस्ट बनाई हुई थी। मैं ने पुर्जा देखा तो वे लोग 2250 रुपए एकत्र कर चुके थे, मेरे सौ मिला कर 2350 पचास हो गए। होली का अच्छा खासा इंतजाम हो चुका था। वे भी ये काम कर के थक चुके थे। तुरंत सिल-बट्टा ले आए। विजया पहले घुटी, फिर छन गई। भोले का प्रसाद सबने लिया। अंत में महेन्द्र 'नेह' आए, वे भी चख गए। हमने आधे घंटे बाद काव्य-मधुबन के सालाना कार्यक्रम फुहार में जाना तय किया जहाँ इस बार सूर्यकुमार पाण्डेय का सम्मान होना था। यह संस्था प्रतिवर्ष होली की पूर्व संध्या पर एक व्यंगकार को सम्मानित करती है।

हेन्द्र नेह के साथ कार्यक्रम में पहुँचे तो वहाँ गायन चल रहा था। भावना काले और भूपेन्द्र शर्मा होरियाँ गा रहे थे। हम भी सुनने बैठ गए। होरी गायन विशुद्ध रूप से प्रेम में पगा होता है। चाहे वह प्रेम भौतिक हो या आध्यात्मिक। प्रेम का गायन बहुत ऊर्जा चाहता है। वह गायन बिलकुल मन से हो तो उस के आनंद का जवाब नहीं। भावना काले बहुत अच्छा गाती हैं। लेकिन आज ऐसा लगा जैसे उन का मन कहीं और भटका हुआ है, व्यथित है, उन के गायन में मन का रंग नहीं था। गायन में कहीं कोई कमी नजर आ रही थी। मैं उन से पूछना भी चाहता था कि ऐसा क्यों है? लेकिन  कार्यक्रम के बाद उन से भेंट ही नहीं हो सके। लेकिन जब भूपेन्द्र शर्मा गाने लगे तो मन का वह रंग खिलने लगा। वह गायन कला के नियमों से ऊपर था। जैसे प्रेम अठखेलियाँ कर रहा हो।
गायन समाप्त हुआ तो सूर्यकुमार जी पांडेय जी का सम्मान हुआ। कोटा की साहित्यिक बिरादरी के सभी मंजे हुए हस्ताक्षर वहाँ उपस्थित थे। उन में व्यंगकार औंकारनाथ चतुर्वेदी, नाटक कार शिवराम, ब्लागरों में नरेन्द्रनाथ चतुर्वेदी और शरद तैलंग वहाँ थे। समारोह के अंत में पाण्डेय जी ने एक संक्षिप्त भाषण दिया और बहुत सी व्यंग्य रचनाएं सुनाई। आलोचक उषा झा ने उन का परिचय दिया तो पता लगा उन्हें 1970 से सम्मान मिलने आरंभ हो गए थे। हर साल दो-चार सम्मान उन्हों ने प्राप्त किए और अब तक प्राप्त किए जा रहे हैं। मैं उन का सम्मान प्राप्त करने का माद्दा देख कर दंग रह गया। वह उन की काबिलियत को प्रदर्शित कर रहा था। वैसे भी पाण्डेय जी ने 1970 से आज तक सब तरह का साहित्य लिखा है। जब जब जिस की मांग रही वही उन्हों ने लिखा और मांग को पूरा किया और पूरी शुचिता के साथ। वे वास्तविक मसिजीवी रहे हैं। अंत में उन्हों ने अपना एक गद्य व्यंग्य सुनाया। उन के व्यंगकार का महत्व यह रहा कि उन्हों ने आम मध्यवर्ग के मन को ठीक से अपने साहित्य में उड़ेला। उन्हों ने व्यवस्था की कुरूपता को उजागर किया और उस के छद्म को जग जाहिर कर लोगों को हंसाया भी।  
विगत आठ सालों से कोटा की संस्था काव्य-मधुबन होली के अवसर पर निरंतर इस सम्मान समारोह को आयोजित करती रही है, यह बड़ी बात है। इस निरंतर आयोजन के पीछे संस्था के अध्यक्ष अतुल चतुर्वेदी का श्रम और लगन रही है। आज के आयोजन का सफल संचालन भी उन्हों ने ही किया। वे स्वयं एक समर्थ कवि और व्यंगकार हैं। उन का अपना हिन्दी ब्लाग भी है। बस उसे वे अपना अधिक समय नहीं दे पाते। लेकिन उन से हिन्दी ब्लाग जगत में सक्रिय होने की अपेक्षा तो की ही जा सकती है जिस से उन के रचना कौशल का जलवा वे यहाँ भी बिखेर सकें।
चित्र
1. कैप्शन की जरूरत नहीं, 2. गायक भूपेन्द्र शर्मा, 3.सम्मान के बाद अपनी रचनाएँ प्रस्तुत करते सूर्यकुमार पाण्डेय, 4. समारोह के बाद पांडेय जी और व्यंगकार शरद तैलंग।

शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

पहेली!

होली का अवसर है। इन दिनों हरे रंग का पार्श्व हो और सुर्ख लाल रंग ऊपर चमकता हो बहुत सुंदर लगता है। कल ऐसे ही कुछ चित्र लेने का अवसर मिला। उन में से एक चित्र आप के लिए यहाँ रख रहा हूँ। 




आप बताएँ, यह चित्र किस का है?

आपाधापी-अवरोध और हॉर्न

दो दिनों से कुछ भी लिखने को मन नहीं किया। होली सर पर आ गई और दोनों बच्चे घर में नहीं। मन कुछ तो उदास होना ही था। पूर्वा बिटिया आ रही है यह सोच कर मन उद्विग्न भी था। आज रात वह कोटा पहुँच गई। उस की ट्रेन बीस मिनट लेट थी। हम स्टेशन पहुँच कर उस की प्रतीक्षा करते रहे। उस ने फोन पर बताया कि अब ट्रेन चंबल पार कर चुकी है। वहाँ से मुश्किल से पाँच मिनट में उसे प्लेटफॉर्म पर होना चाहिए था। लेकिन आधा घंटा गुजर जाने के बाद भी ट्रेन नदारद थी। पूर्वा को फिर फोन लगाया तो पता लगा आउटर पर खड़ी है। आज कल ट्रेन यातायात इतना व्यस्त रहता है कि एक ट्रेन समय से विचलित हो जाती है तो उसे फिर मार्ग खुलने की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। खैर ट्रेन पूरे एक घंटा बीस मिनट देरी से कोटा पहुँची।

यातायात की यह समस्या सभी क्षेत्रों में हो चली है। स्टेशन जाने के पहले घर से रवाना हुए तो बीस मिनट का समय था। सोचा कार में पेट्रोल ले लिया जाए। पेट्रोल पंप पर सामान्य से अधिक भीड़ थी। मैं हमेशा एक ही पंप से पेट्रोल लेता हूँ, कार पहचान कर मुझे वेंडर ने गाइड किया और तुरंत पेट्रोल दे दिया। वरना बिना पेट्रोल लिए ही स्टेशन रवाना होना पड़ता। बाद में घर पहुँच कर पता लगा कि बजट में पेट्रोल की कीमतें बढ़ने की खबर से लोग पेट्रोल पंपों की ओर दौड़ रहे थे। पंप से चले तो रास्ते की दोनों लाल बत्तियों पर रुकना पड़ा। वहाँ भी आपा-धापी से पाला पड़ा हर कोई आगे निकलना चाहता था। 
स्टेशन से चले तो दो कदम बाद ही स्टेशन सीमा में ही जाम से जूझना पड़ा। हुआ ये कि ट्रेन लेट होने से जो भी आटो-रिक्षा स्टेशन पहुँचता गया उस का चालक ट्रेन से निकलने वाली सवारियों के मोह में अपना वाहन इस तरह फँसाता गया कि वाहन फँस गए। मुश्किल से पंद्रह मिनट में जाम खुला। इस बीच बज रहे हॉर्न ? बाप रे बाप! एक बार आगे वाला ऑटो-रिक्षा पीछे खिसकने लगा तो मुझे भी हॉर्न को एक पुश देना पड़ा। तुरंत पूर्वा ने टोक दिया। पापा! अब जाम में हॉर्न बजाने का क्या लाभ? वह तो खुलते ही खुलेगा। वापसी में फिर से दोनों लाल बत्तियों पर रुकना, फिर वही आगे निकलने की आपा धापी। मेरे पीछे से एक कार बार बार हॉर्न दे रही थी। लेकिन मैं उसे मार्ग नहीं दे सकता था। इधर-उधर सरकाने का स्थान ही नहीं था। जैसे ही मुझे स्थान मिला मैं ही आगे चल दिया। पीछे वाली गाड़ी को स्थान दे दे ने के बावजूद वह आगे नहीं निकल सकी। पर हॉर्न देती रही। दिन में फिर भी हॉर्न बर्दाश्त हो जाता है। लेकिन रात को हॉर्न सुनाई दे तो ऐसा लगता है जैसे कानों में किसी ने सीसा घोल दिया है। पता नहीं क्यों लोग रात को इतना हॉर्न बजाते हैं? वह भी बार बार लगातार।