@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

रविवार, 21 फ़रवरी 2010

नहीं सुन पाए राकेश मूथा की कविता

द्यान में मेरे पास ही बैठे संजय व्यास ने मुझे प्रभावित किया। एक दम सौम्य मूर्ति दिखाई पड़ रहे थे वे। वे पूरी बैठक में कम बोले लेकिन जितना बोले बहुत संजीदा। मैं ने उन्हें अब तक बिलकुल नहीं पढ़ा था। इस कारण उन के लिए बहुत असहज भी था। बाद में जब कोटा आ कर उन का ब्लाग 'संजय व्यास' खोल कर पढ़ा तो उन के गद्य से प्रभावित हुए बिना न रहा। उन की शैली अनुपम है और एक बार में ही पाठक को अपना बना लेती है। उन को बिलकुल वैसा ही पाया जैसे वे अपने ब्लाग पर रचनाओं से जाने जाते हैं। ब्लागीरी उन के लिए अभिव्यक्ति का बिलकुल स्वतंत्र माध्यम है जहाँ वे अपना श्रेष्ठतम व्यक्त कर सकते हैं, जो वे करते भी हैं। 
मेरी दूसरी ओर राकेश मूथा थे। वे राह से ही हमारे साथ थे। कुछ बातचीत भी उन से हुई थी। पेशे से इंजिनियर मूथा जी देखने से ही कलाप्रेमी दिखाई देते हैं। वे वर्षों से नाटकों से जुड़े हैं और अभी भी सक्रिय हैं। उन्हों ने अपने ब्लाग सीप का सपना पर अपनी कविताएँ ही प्रस्तुत की हैं। इसी नाम से उन का काव्य संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है। वे अपनी डायरी साथ ले कर आए थे और कुछ कविताएँ सुनाना चाहते थे। हम भी इस बैठक को कवितामय देखना चाहते थे। उन्हों ने अपनी डायरी पलटना आरंभ किया। उन की इच्छा थी कि वे चुनिंदा रचना सुनाएँ। मैं ने आग्रह किया कि वे कहीं से भी आरंभ कर दें। मुझे अनुमान था कि हरि शर्मा जी के उन की माता जी को अस्पताल ले जाने के लिए समय नजदीक आ रहा था। तभी भाभी का फोन आ गया। हरिशर्मा जी ने उत्तर दिया कि मैं अभी पहुँच ही रहा हूँ। अब रुकना संभव नहीं था। समय को देखते हुए मूथा जी ने अपनी डायरी बंद कर दी। हम उन के रचना पाठ से वंचित हो गए।
ब बाहर आ गए। मूथा जी को हरिशर्मा जी के साथ ही जाना था। हम सब ने उन दोनों को विदा किया। जाते-जाते मूथा जी को मैं ने अवश्य कहा कि मैं उन की रचनाओं से वंचित हो गया हूँ, लेकिन अगली जोधपुर यात्रा में अवश्य ही उन की रचनाएँ सुनूंगा, चाहे इस के लिए उन के घर ही क्यों न जाना पड़े। अब हम चार रह गए थे। मैं ने साथ बैठ कर कॉफी पीने का प्रस्ताव रखा, जो तुरंत ही स्वीकार कर लिया गया। हम चारों पास के ही एक रेस्टोरेंट में जा कर बैठे। कॉफी आती तब तक बतियाते रहे। शोभना का कहना था कि उन के ब्लाग पर टिप्पणियाँ बहुत मिलती हैं। इस तरह की भी कि वे एक लड़की हैं इस कारण से उन्हें अधिक टिप्पणियाँ मिलती हैं। यह बात सच भी है और इसे वे जानती भी हैं। कई बार तो अतिशय प्रशंसा भी मिलती है। जब कि वे जानती हैं कि पोस्ट उस के योग्य नहीं थी। इन्हीं बातों को लेकर उन का ब्लागीरी से मन उखड़ गया था। उन्हों ने उसे अलविदा भी कह दिया। उन्हें पता नहीं था कि इस घटना को हिन्दी ब्लागीरी में टंकी पर चढना कहते हैं। लेकिन अनेक ब्लागीरों ने उन का साहस बढ़ाया और वे टंकी से उतर पाने में सफल हो गई। आते-आते भी वे कह रही थीं - अंकल मैं टंकी से उतर आई हूँ, और अब दुबारा नहीं चढ़ने वाली। 
रेस्टोरेंट की कॉफी आई तो प्याला अच्छा खासा बड़ा था, कॉफी स्वादिष्ट भी और दर भी बिलकुल माकूल थी, सिर्फ दस रुपए। रेस्टोरेंट के बाहर आ कर हमने अपनी अपनी राह पकड़ी, इस आशा के साथ कि फिर दुबारा मिलेंगे और तब जोधपुर के और ब्लागीर भी साथ होंगे। काफिला बढ़ेगा ही घटेगा नहीं। संजय व्यास ने मुझे होटल के नजदीक छोड़ा। मुझे कुछ मित्रों से और मिलना था। उन से मिल कर मैं होटल पहुँचा। थकान जोर मार रही थी। होटल पहुँच कर मोबाइल पर अलार्म लगा कर आराम किया। अलार्म बजा तो उठने की इच्छा न थी, पर वापसी के लिए बस भी पकड़नी थी। शाम का भोजन होटल में ही कर बस पर पहुँचा तो बस के आने में समय था। मैं ने यह समय ब्लागरों से फोन पर बात करने में बिताया। हरिशर्मा जी की माताजी की आँख का ऑपरेशन हो चुका था। वे वापस घर पहुँच गई थीं। शोभना ब्लागर मिलन से अच्छा महसूस कर रही थीं। मूथा जी उलाहना दे रहे थे कि मैं ने होटल में भोजन क्यों किया, उन के घर क्यों नहीं गया? संजय व्यास से बात करता इतने बस लग गई। उन्हें फोन कर ही न सका। कोटा पहुँचने के बाद इतना व्यस्त रहा कि आज तक उन से बात न हो सकी।

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

ताज़गी और बदलाव के लिए ब्लागीरी

शोक उद्यान में हरी दूब के मैदान बहुत आकर्षक थे। हमने दूब पर बैठना तय किया। ऐसा स्थान तलाशा गया जहाँ कम से कम एक-दो दिन से पानी न दिया गया हो और दूब के नीचे की मिट्टी सूखी हो। हम बैठे ही थे कि हरि शर्मा जी के मोबाइल की घंटी बज उठी। दूसरी तरफ कुश थे। वे उद्यान तक पहुँच चुके थे और पूछ रहे थे कि हम कहाँ हैं।  सूचना मिलते ही हमारी निगाहें प्रवेश द्वार की ओर उठीं तो कुश दिखाई दे गए। हम लोगों ने हाथ हिलाया तो उन्हों ने भी स्थान देख लिया। कुछ ही क्षणों में वे हमारे पास थे। सभी ने उठ कर उन का स्वागत किया। उम्र भले ही मेरी अधिक रही हो लेकिन कुश ब्लागीरी में मुझ से वरिष्ठ हैं, और उन्हें यह सम्मान मिलना ही चाहिए था। 
ब ने अपना परिचय दिया जो मुझ से ही आरंभ हुआ, और उस के बाद ब्लागीरी की अनौपचारिक बातें चल पड़ी। सब ने अपने अनुभवों को बांटा। कुश और मेरे सिवा जोधपुर के कुल चार ब्लागीर वहाँ थे। सभी ने तकनीकी समस्याओं का उल्लेख किया। यह एक वास्तविकता है कि हिन्दी ब्लागीरी में कदम रखना बहुत आसान है लेकिन जैसे-जैसे ब्लागीरी आगे बढ़ती है तकनीकी समस्याएँ आने लगती हैं। लेकिन यदि ब्लागीर में उन से पार पाने की इच्छा हो तो वह हल भी होती जाती हैं।  हिन्दी ब्लागीरी में इस तरह का माहौल है कि लोग समस्याओं को हल करने के लिए तत्पर रहते हैं। अवश्य ही कुश को ऐसी समस्याओं से कम पाला पड़ा होगा आखिर वे वेब डिजाइनिंग का काम करते हैं। तो पहले से उन की जानकारियाँ बहुत रही होंगी और नहीं भी रही होंगी तो उन पर पार पाने का तो उन का पेशा ही रहा है।
फिटिप्पणियों पर बात होने लगी। सब ने कहा कि वे टिप्पणी करने में बहुत अधिक समय जाया नहीं करते। उस का कारण भी है कि वे सभी अपने जीवन में व्यस्त व्यक्ति हैं। शोभना भौतिकी के किसी विषय पर शोधार्थी हैं और उन के दिन का अधिकांश समय शोध के लिए प्रयोग करने में प्रयोगशाला में व्यतीत होता है। सभी ने उन के शोध के बारे में जानना चाहा। उन्हों ने बताया भी लेकिन हम कुछ समझे, कुछ नहीं समझे। मैं ने कहा कि जिस क्षेत्र में वे शोध कर रही हैं उस के बारे में भी अपने ब्लाग पर लिखा करें, हम समझ तो सकेंगे कि आखिर समाज में किसी ब्लागीर के काम का क्या योगदान है और किस किस तरह के  लोग ब्लागीरी में आ रहे हैं?  मैं ने शोभना से उन की आयु पूछी थी, उन्हों ने 24 वर्ष बताई तो मैं ने कहा -मेरी बेटी उन से दो बरस बड़ी है। मुझे इस का लाभ यह हुआ कि मैं तुरंत अंकल हो गया। हालांकि इस लाभ का मिलना उस वक्त ही आरंभ हो गया था जब खोपड़ी की फसल आधी रह चुकी थी और जो शेष थी वह सफेद हो रही थी। 
शोभना कहने लगीं -अंकल! मैं दिन भर प्रयोगशाला में सर खपा कर घर लौटती हूँ और ताज़गी और बदलाव के लिए ब्लाग जगत में जाती हूँ, अगर मैं वहाँ भी वही लिखने लगी तो मेरी खोपड़ी का क्या होगा। उन की बात बिलकुल सही थी। मैं ने फिर भी कहा-कभी कभी अपने काम के बारे में बात करना अच्छा होता है। कम से कम ब्लाग पाठक जानेंगे तो कि उन का ब्लागीर क्या कर रहा है? और यह भी हो सकता है कि किसी पाठक की टिप्पणी ब्लागीर को उस के काम के लिए प्रेरित और उत्साहित करे। शोभना वास्तव में बहुत प्रतिभावान हैं। इस छोटी उम्र में जो उपलब्धियाँ उन्होंने हासिल की हैं उन के लिए मेरे जैसा पचपन में प्रवेश कर चुका व्यक्ति सिर्फ ईर्ष्या कर सकता है। हाँ साथ ही गर्व भी कि बेटियाँ अब उपलब्धियाँ हासिल कर रही हैं।
स बीच हरिशर्मा जी बताने लगे कि वे दस बरस से इंटरनेट पर चैटिया रहे हैं। यदि वे इस के स्थान पर ब्लाग लिख रहे होते तो उन का योगदान न जाने कितना होता। उन की बात भी सही थी। जब मैं ने चैट करना जाना तो मैं भी उस में फँस गया था। बहुत सा समय उस में जाया होता था। हालांकि मैं आगे से कभी चैटियाना आरंभ नहीं करता था। इस बीच मैं ने बताया कि नारी ब्लाग की मोडरेटर रचना जी दिन में चार-पांच बार चैट पर आ जाती थीं। मैं अपने स्वभाव के अनुसार उन्हें मना नहीं कर सकता था। एक दिन उन्हों ने किसी ब्लाग  पर की गई उन की टिप्पणियों के बारे में मेरी राय मांगी।  मेरे मन में रचना जी का सम्मान इस कारण से बहुत बढ़ गया था कि वे नारी अधिकारों और उन की समाज में बराबरी के लिए लगातार लिखती हैं और अन्य नारियों को लिखने को प्रेरित करती हैं। उन की भूमिका एक तरह से ब्लाग जगत में नारियों के पथप्रदर्शक जैसी थी।   मैं उन के बताए ब्लाग पर गया। उन की टिप्पणियों को पढ़ कर मुझे बहुत बुरा महसूस हुआ। मैं ने उन को प्रतिक्रिया दी कि वह एक भद्दी बकवास है। बस, वे बहस कर ने लगी कि वह भद्दा कैसे है? और भद्दा का क्या अर्थ होता है। अंततः उन्हों ने कह दिया कि वे आज के बाद मुझ से चैट नहीं करेंगी। मुझे इस में क्या आपत्ति हो सकती थी? मेरी इस बात पर कुश ने कहा कि रचना का स्टेंड बहुत मजबूत और संघर्ष समझौता विहीन होता है। इस से उन का एक विशिष्ठ चरित्र बना है। मैंने कुश की इस बात  पर सहमति  जाहिर की। (जारी) 

विशेष-चैट की चर्चा चलने पर रचना जी के बारे में अनायास हुई इस बात को हरि शर्मा जी ने जोधपुर ब्लागर मिलन की रिपोर्ट में रचना जी के नाम का उपयोग किए बिना लिखा। इस पर स्वयं रचना जी ने इस पर आकर टिप्पणी भी की। लेकिन जब कुछ अनाम टिप्पणियाँ आने लगी तो हरिशर्मा जी ने उन्हें मोडरेट कर दिया। रचना जी ने नारी ब्लाग पर मेरे और उन के बीच हुए चैट के एक भाग को उजागर कर दिया। मुझे इस पर कोई आपत्ति नहीं। मैं आज भी रचना जी द्वारा मांगी गई राय पर की गई मेरी प्रतिक्रिया पर स्थिर हूँ। मैं ने जो महसूस किया वह प्रकट किया। उस के लिए मेरे पास अपने कारण हैं। उन्हें किसी और पोस्ट में व्यक्त करूंगा। फिलहाल जोधपुर मिलन की रिपोर्ट जारी रहेगी।

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

शर्मा जी के घर रुचिकर स्वादिष्ट भोजन

जोधपुर की यह यात्रा पहली नहीं थी। मेरी बुआ यहाँ रहती थी, फूफाजी विश्वविद्यालय में संस्कृत के प्रोफेसर थे। उन की बेटियों के ब्याह में कोई पेंतीस बरस पहले यहाँ आना हुआ था। यहाँ पहुँचने के पहले मार्ग में ही एक दुर्घटना में पिताजी को चोट लगी और उनका तत्काल ऑपरेशन हुआ दो सप्ताह बाद पुनः ऑपरेशन हुआ। हमें इतने दिन यहीँ रुकना पड़ा। तब कोई काम नहीं था। गर्मी का मौसम था तो दुपहर बाद सायकिल ले कर निकल पड़ता। इस तरह जोधपुर से पहला परिचय ही गहरा था। फिर कुछ बरस पहले यहाँ वकालत के सिलसिले में आना जाना आरंभ हुआ और अब बार कौंसिल की अनुशासनिक समिति के सदस्य के नाते यहाँ निरंतर आना जाना हो रहा है। ऐसे में यह तो नहीं हो सकता था कि जोधपुर के ब्लागीरों से मिलना न होता। पिछली बार हरि शर्मा जी से भेंट हुई, इस बार उन्होंने एक संक्षिप्त ब्लागीर मिलन की योजना को ही कार्यरूप दे डाला।
मैं ने बार कौंसिल के दफ्तर पहुँचा तो रविवार के अवकाश के कारण वहाँ केवल दो कार्यालय सहायक ही उपस्थित थे। वे भी केवल उस दिन होने वाली सुनवाई के लिए। शिकायत कर्ता अपने साक्षियों के साथ उपस्थित थी। मैं ने कार्यवाही आरंभ होने के पहले ही बता दिया कि हरिशर्मा जी आएँगे। यदि वे कार्यवाही समाप्त होने के पहले आ जाएँ तो उन्हें बैठने को कह दिया जाए। कार्यवाही पूर्ण होने के पहले ही सूचना मिल गई कि वे आ चुके हैं। मैं उस दिन की कार्यवाही पूरी कर उन के पास पहुँचा और हम तुरंत ही उन के घर के लिए चल दिए। ब्लागीर मिलन अशोक उद्यान में रखा गया था। डेढ़ बजे तक वहाँ पहुँचना था। वहाँ सब से पहले शर्मा जी की स्नेहमयी माताजी से भेंट हुई। कुछ माह पहले उन की एक आँख के मोतियाबिंद का ऑपरेशन हो चुका था। और उसी दिन शाम को दूसरी का होने वाला था। जिस के लिए उन्हें चार बजे अस्पताल ले जाया जाना था। यह दायित्व भी हरि शर्मा जी का था। 
में ब्लागीर मिलन में जाने की जल्दी थी। भाभी जी (श्रीमती शर्मा) ने तुरंत भोजन लगा दिया। मैं चकित था। थाली में कम से कम छह कटोरियाँ विराजमान थीं। उन्हें पास में चावल थे। मेरी तो भूख ही देखते ही काफूर हो गई। ऐसा पता होता तो मैं सुबह के पराठे में खर्च किया धन अवश्य बचा लेता। खैर मैं ने तय किया कि चपाती और चावल का न्यूनतम उपयोग कर कटोरियाँ खाली कर दी जाएँ। मैं तेजी से इस काम को करने में सफल रहा। मैं ने बताया कि मैं इस काम में उतना सिद्ध-हस्त नहीं जितना मेरे पिताजी थे। उन के भोजन के बाद थाली और कटोरियाँ ऐसी दिखती थीं कि यदि यह पता न हो कि उन में भोजन किया गया है तो उन्हें धुले हुए बर्तनों के साथ जमा दे। भोजन बहुत रुचिकर, स्वादिष्ट, सादा, राजस्थानी मिजाज का और बिलकुल घरेलू था। ऐसा कि किसी भी जोधपुर यात्रा के समय भाभी जी को अचानक कष्ट देने लायक। हम शीघ्रता से वहाँ से ब्लागर मिलन के लिए निकले। भाभी ने शर्मा जी से कहा कि यदि उन्हें वापस लौटने में देर हो तो वे माताजी को समय पर ले कर निकल लेंगी। लेकिन शर्मा जी ने आश्वस्त किया कि वे समय से पहुँच जाएंगे। 
म वहाँ से निकलते इस से पहले ही ब्लागीरों के फोन आने लगे। शर्मा जी ने आश्वस्त किया कि वे कुछ ही देर में पहुँच रहे हैं। पहले आने वाले रुके रहें। मार्ग में एक अधेड़ उम्र के संजीदा दिखने वाले सज्जन वाहन में सवार हुए। शर्मा जी ने परिचय दिया कि वे राकेशनाथ जी मूथा हैं, कवि हैं, एक संग्रह प्रकाशित हो चुका है और अपने ब्लाग पर केवल कविताएँ लिखते हैं। कुछ ही देर में हम उद्यान के बाहर थे। बाहर बोर्ड लगा था "सम्राट अशोक उद्यान"। शर्मा जी ने बताया कि पिछली भाजपा सरकार ने यह बोर्ड लगवा दिया। इस लिए कि कहीं यह "अशोक  गहलोत उद्यान "  न हो जाए। हम अंदर पहुचे तो वहाँ संजय व्यास और शोभना चौधरी मौजूद थीं।   

बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

कहीं सर्दी कहीं वसंत

निवार को जोधपुर यात्रा के पहले की व्यस्तता का उल्लेख मैं ने पिछली पोस्ट में किया था। वह पोस्ट लिखने के उपरांत भी व्यस्तता जारी रही। यहाँ तक कि सोमवार को वापस कोटा पहुँचने के बाद भी  व्यस्तता के कारण यहाँ कोई पोस्ट नहीं लिख सका।  शनिवार को जोधपुर के लिए निकलने के पहले जल्दी से भोजन निपटाया और कॉफी पी। जल्दी से बस पकड़ने के लिए रिक्षा पकड़ा। बस जाने को तैयार खड़ी थी। अपने स्लीपर में घुस कर बाहर पैर लटका कर बैठा तो तेज शीत के बावजूद पसीना निकल रहा था। यह तीव्र गति से की गई भागदौड़ का नतीजा था। मैं कुछ देर वैसे ही बैठा रहा। पसीना सूखने के बाद जब कुछ ठंडी महसूस होने लगी तो स्लीपर में लेट गया तब तक बस कोटा नगर की सीमा से बाहर आ चुकी थी। बूंदी निकलने के बाद एक जगह बस रुकी। तब तक मुझे नींद नहीं आई थी। मैं ने लघुशंका से निवृत्त होने का अच्छा अवसर जान कर बस से नीचे उतरा। वहाँ बस के लगेज स्पेस में जोधपुर भेजे जाने के लिए ताजी कच्ची हल्दी के बोरे लादे जा रहे थे। लदान में करीब पंद्रह मिनट लगे। लेकिन वहाँ शीत महसूस नहीं हुई। पूरी तरह वासंती मौसम था। बस ने हॉर्न दिया तो फिर से बस में चढ़ कर स्लीपर में घुस लिया। इस बार नींद आ गई।
फिर बस के रुकने और अंदर के यात्रियों की हल चल से नींद खुली। बस किसी हाई-वे रेस्टोरेंट के बाहर खड़ी थी। सवारियाँ नीचे उतरने लगीं। मैं भी उतर लिया। मेरे लिए यह नया स्थान था। पता करने पर जानकारी मिली कि यह स्थान नसीराबाद से कोई बीस किलोमीटर पहले है। बहुत से ट्रक और दो बसें और खड़ी थीं। कुछ लोग चाय पी रहे थे। कुछ चाय बनने के इंतजार में थे। प्लास्टिक के बने कथित डिस्पोजेबल  लेकिन चरित्र में कतई अनडिसपोजेबल  गिलासों में चाय एक काउंटर से टोकन ले कर वितरित की जा रही थी। टोकन एक दुकान से पांच रुपए की एक चाय की दर से दिए जा रहे थे, वहाँ स्नेक्स उपलब्ध थे।  मैं ने कॉफी के टोकन के लिए पचास का नोट दिया तो ने पंद्रह रुपए काट लिए। मुझे यह कीमत बहुत अधिक लगी। मैं ने उस से पूछ लिया -ऐसा क्या है कॉफी में? उस ने कहा शुद्ध दूध में बनाएँगे। मुझे फिर  भी सौदा महंगा लगा। मैं ने टोकन लौटा कर पैसे वापस ले लिए। चाय पीना तो अठारह बरस पहले छोड़ चुका हूँ। फिर यह कॉफी पीने लगा। कुछ महंगी होती है लेकिन कम पीने में आती है। मैं सोचने लगा रात को एक बजे जब वापस बस में जा कर सोना ही है तो कॉफी क्यों पी जाए, वह भी इतनी महंगी। कोटा में हमें उतनी कॉफी के लिए मात्र चार या पांच रुपए  देने होते हैं।  ड्राइवर और बस स्टाफ एक केबिन में बैठे भोजन कर रहे थे। बस करीब तीस-पैंतीस मिनट वहाँ रुकने के बाद फिर चल पड़ी। इस स्थान पर भी शीत महसूस नहीं हुई। 
जोधपुर पहुँचने के पहले बस बिलाड़ा में रुकी। वहाँ भी शीत नहीं थी। जोधपुर में जैसे ही बस से उतरे शीत महसूस हुई। अजीब बात थी। कोटा में सर्दी थी और जोधपुर में भी लेकिन बीच में कहीं सर्दी महसूस नहीं हुई। बस में नींद ठीक से नहीं निकली थी। होटल जा कर कुछ देर आराम किया। फिर कॉफी मंगा कर पी और स्नानादि से निवृत्त हो कर होटल से निकलने को था कि बेयरे ने आकर बताया कि आप नाश्ता ले सकते हैं। मैं ने उसे एक पराठा लाने को कहा। तभी हरि शर्मा जी का फोन आ गया। कहने लगे ब्लागर बैठक अशोक उद्यान में रखी है। अधिक नहीं बस चार पाँच लोग होंगे।  वे बारह के लगभग मुझे लेने बार कौंसिल के ऑफिस पहुँचेंगे। मैं नाश्ता कर मौसम में ठंडक देख शर्ट पर एक जाकिट पहनी और बार कौंसिल के कार्यालय के लिए निकल लिया।

बार कौंसिल कार्यालय जोधपुर

शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

यात्रा के पहले काम का एक दिन

सुबह शेव बना कर दफ्तर में आ बैठा था। सुबह से कोहरा और बादल थे तो रोशनी की कमी ने दुपहर चढ़ने का अहसास ही समाप्त कर दिया। काम और आगंतुकों में ऐसा फँसा कि 12 बजे के पहले उठ नहीं सका। आगंतुकों के उठते ही ने उलाहना दिया -आज नहीं नहाना क्या?  मैं तुरंत उठ कर अंदर गया तो देखा भोजन तैयार है। पर स्नान बिना तो भूख दरवाजे के बाहर खड़ी रहती है। शोभा ठहरी शिव-भक्त दो दिन की उपवासी। मैं तुरंत स्नानघर में घुस लिया। बाहर निकला तब तक उपवासी उपवास खोल चुकी थी। 
आज शाम जोधपुर निकलना है। सोमवार की सुबह ही वापस लौटूंगा। उस दिन का अदालत के काम की आज ही तैयारी जरूरी थी, तो भोजन के बाद भी बैठना पड़ा। एक बजे फिर मकान का मौका देखने के लिए एक सेवार्थी का संदेश आया। थका होने से उसे तीन बजे आने को कहा और मैं काम निपटा कर कुछ देर विश्राम के लिए रजाईशरणम् हुआ।
ह साढ़े तीन बजे आया। कोहरा छंट चुका था, धूप निकल आई थी। लेकिन हवा में नमी और ठंडक मौजूद थी। फरवरी के मध्य़ में बरसों बाद ऐसा सुहाना मौसम दीख पड़ा। सेवार्थी का घर नदी पार था। चंबल बैराज पर बांध के सहारे बने पुल पर हो कर गुजरना पडा। बांध के पास बहुत लोग प्रकृति और बांध की विपुल जलराशि का नजारा लेने एकत्र थे और कबूतरों को दाना डाल रहे थे। सैंकड़ों कबूतर दाने चुग रहे थे। सैंकड़ों इंतजार में थे। मौका देख कर वापस लौटा तो फिर से काम निपटाने बैठ गया। प्रिंट निकालते समय लगा कि  इंक-जेट कार्ट्रिज में स्याही रीतने वाली है। तुरंत उसे भरने की व्यवस्था की गई। सूख जाने पर कार्ट्रिज खराब होने का अंदेशा जो रहता है। सिरींज में स्याही जमी थी। शोभा ने प्रस्ताव किया कि सिरींज वह ला देगी। वह चार रुपए की नई कुछ बड़ी सिरिंज तीन मिनट में केमिस्ट से ले आई। हमने स्याही भर कर दुबारा प्रिंट निकाल कर देखा ठीक आ रहा था। काम की जाँच की। अब सोमवार को सुबह कोटा पहुँचने पर अदालती काम ठीक से करने लायक स्थिति है और दफ्तर से उठ रहा हूँ।
ल जोधपुर में काम से निपटते ही हरि शर्मा जी को फोन करना है। उन्हों ने वहाँ एक छोटा ब्लागर मिलन रखा है। तीसरे पहर तक उस से निपट कर कुछ और लोगों से मिलना हो सकेगा। देखते हैं जोधपुर की इस यात्रा में क्या नया मिलता है? कल ब्लागीरी से अवकाश रहेगा।

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

लो, मेरा रूमाल ले लो

शिवरात्रि के अवकाश का दिन बिना कोई उल्लेखनीय काम और उपलब्धि के रीत गया। कुछ ऐसे ही एक मौका देखने जाना पड़ा। वापसी में जोधपुर जाने-आने की यात्रा के टिकट ले कर आया बस में लोअर स्लीपर मिल गया इतना पर्याप्त था इस जाती हुई और जाते जाते अपने तमाम रूप और नखरे दिखाती सर्दी में। बस अब चंबल पुल पार होने के पहले स्लीपर के बॉक्स में घुस कर कंबल डाल लेना और लेटे हुए जब तक नींद न आ जाए तब तक बाहर के अंधेरे के दृश्य देखते रहना। अंधेरी रात में अंधियार के रंग में रंगे पेड़ों और गांवों में जलती बत्तियों की रोशनी के केवल आसमान में टंगे सितारों के सिवा और क्या देखा जा सकता है। पर वहाँ जहाँ बिजली की रोशनी न हो दूर दूर तक वहाँ सितारों की चमक अद्भुत लगती है। उन में से बहुतों को मैं पहचानता हूँ। अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहणी और सब से अधिक चमकदार मृगशिर नक्षत्र। शुक्र, बृहस्पति और मंगल आसानी से पहचाने जाते हैं। बस की यात्रा में शनि को पहचानने में बहुत दिक्कत होती है। राशि मंडल के तारे हमेशा पहचानने में आ जाते हैं। खास तौर पर सिंह और वृच्छिक तो देखते ही पहचाने जाते हैं, मिथुन भी। 
खैर, यह सब तो कल रात को देखा जाना है। आज राज भाटिया जी की पोस्ट बहुत भावुक कर गई। सोने के पहले अनपैक्ड दिनेशराय द्विवेदी  को जो आधा रजाई में घुसा हुआ मोबाइल में डूबा था, शूट कर डाला। पास की टेबुल पर पैक्ड हुक्का उन से अधिक खूबसूरत लग रहा था। लगे भी क्यों न उस के पैदा होने के पहले ही जर्मनी जाने की टिकट जो बन गई थी। बिना कोई पासपोर्ट और वीजा के वह जर्मनी जाने वाला था हमेशा-हमेशा के लिए।  बाजार से गुजरते हुए एक दुकान पर हुक्के दिखे। बस हुक्के ही हुक्के। भाटिया जी का मन ललचा गया। बोले-एक ले लेता हूँ। वहाँ जर्मनी में लोग सिगरेट ऑफर करते हैं तो मैं बोलता हूँ हम ये नहीं पीते। पूछते हैं क्या पीते हैं? तो उन्हें कहता हूँ हुक्का। फिर सवाल होते हैं कि ये हुक्का क्या है? मैं  उन्हें बताता हूँ। इस बार असल ही ले जाकर बताता हूँ।
न्हें पसंद तो बहुत बड़ा वाला आ रहा था। पर छोटा तैयार करवाया गया। जिस से ले जाने में परेशानी न हो। अब जर्मन जा रहे हुक्के का दिनेशराय द्विवेदी से क्या मुकाबला। पर फँस गया। जर्मनी जाने के पहले दिनेशराय द्विवेदी के पास होने की सजा भुगती और शूट हो गया। अब तक तो हुक्का अनपैक्ड हो कर फूँकने की शक्ल में आ गया होगा और भाटिया जी के ड्राइंगरूम की शोभा बढ़ा रहा होगा। 
जबूरी थी, कि बहिन के ससुराल में विवाह था और आना बेहद जरूरी था। भाटिया जी को छोड़ कर आना पड़ा। भाटिया जी में एक बेहतरीन साथी मिला। एक स्नेहिल भाई जैसा। शाम को शिवराम जी का कविता संग्रह माटी मुळकेगी एक दिन देख रहा था। साथी क्या होता है वहाँ जाना। आप भी देखिए .....


लो, मेरा रूमाल ले लो
 -- शिवराम



किसे ढूंढ रहे हो? क्या मुझे।

नहीं भाई नहीं
साथी जेबों में नहीं मिलते
दाएँ-बाएँ भी नहीं मिलते
नहीं, ब्रीफकेस में तो हर्गिज नहीं
वे होते हैं तो हाथों में हाथ डाले होते हैं
और नहीं होते तो नहीं होते

वे आसानी से खोते भी नहीं
वे आसानी से पीछा भी नहीं छोड़ते 

अपनी उंगलियों में ढूंढो
मैं अभी भी वहीं हूँ

अच्छा!
कोई और चीज ढूंढ रहे हो
कोई बात नहीं
मुझे गलतफहमी हो गई थी 
मैं समझा था कि तुम 
शायद मुझे ढूंढ रहे हो
तुम तो शायद रूमाल ढूंढ रहे हो
हथेलियों का मैल पोंछने के लिए
या माथे का पसीना
या शायद नाक सिनकना चाहते हो
और, रूमाल नहीं मिल रहा है

लो, मेरा रूमाल ले लो
जो चाहो साफ करो इस से
और सुनो-
इस से आईना-ए-दिल भी 
साफ किया जा सकता है।



गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

अम्मी मत रो! सब ठीक हो जाएगा।

कोटा शहर की एक बस्ती संजय गांधी नगर में कल शाम पाँच बजे एक हादसा हुआ ......
हर में छोटी सी जगह। उस पर किसी तरह मकान बनाया। जैसे तैसे गुजारा चल रहा था। सोचा ऊपर भी दो कमरे डाल लिए जाएँ किराया आ जाएगा तो घर खर्च में आसानी हो लेगी। बमुश्किल बचाए हुए रुपए और कुछ कर्जा ले कर काम शुरु कर दिया। जुगाड़ था कि कम से कम पैसों में काम बन जाए। सस्ते मजदूरों से काम चलाया। दीवारें खड़ी हो गईं। आरसीसी की छत डालने का वक्त आ गया। सारे ठेकेदार बहुत पैसे मांगते थे। बात की तो एक ठेकेदार सस्ते में काम करने को तैयार हो गया। छत पर कंक्रीट चढ़ने लगा। शाम हो गई। काम बस खत्म होने को ही था कि न जाने क्या हुआ मकान का आगे का हिस्सा भरभराकर गिर गया।
क मजदूरिन नीचे दब गई। पति भी साथ ही काम करता था। दौड़ा और लोग भी दौड़े। तुरत फुरत मलबा हटा कर मजदूरिन को निकाला गया। तब तक वह दम तोड़ चुकी थी। पति, एक छह माह की बच्ची और एक तीन साल का बालक वहीं थे। तीनों रोने लगे। परिवार का एक अभिन्न अंग जो तीनों को संभालता था जा चुका था। पुलिस आ गई। पुलिस ने पति रो रहा था। रोते रोते कह रहा था। इस के बजाए मैं क्यों न दब गया? अब हम तीनों को कौन संभालेगा? बच्चों का क्या होगा?
पुलिस ने शव को पोस्ट मार्टम के लिए अस्पताल पहुँचा दिया और मुकदमा दर्ज कर लिया। अब जाँच की जा रही है कि कहीं मकान निर्माण में हलका माल तो इस्तेमाल नहीं किया जा रहा था, कहीं तकनीकी खामी तो नहीं थी और कहीं निर्माण कर रहे मजदूर तकीनीकी रूप से अदक्ष तो नहीं थे।
धर मकान की मालकिन अपने कई सालों की बचत को यूँ बरबाद होते देख दुखी थी। न जाने कितनी रातें उस ने कम खा कर गुजारी होंगी। वह भी रो रही थी। लोगों के समझाते भी उस की रुलाई नहीं रुक रही थी। उस की एक चार साल की बच्ची उसे चुप कराने के प्रयास में लगी थी। कह रही थी -अम्मी मत रो! सब ठीक हो जाएगा।