तरह-तरह के दिवस
मनाना भी अब एक रवायत हो चली है। हमारे सामने एक दिन का नामकरण करके डाल दिया जाता
है और हम उसे मनाने लगते हैं। दिन निकल जाता है। कुछ दिन बाद कोई अन्य दिन,
कोई दूसरा नाम लेकर हमारे सामने धकेल दिया जाता है। कल सारी दुनिया
स्त्री-दिवस मना रही थी। इसी महिने की आखिरी तारीख 31 मार्च को ट्रांसजेंडर-डे
मनाने वाली है। अभी चार महीने पहले 19 नवम्बर को पुरुष दिवस भी मना चुकी है।
इस तरह दुनिया ने
इंसान को तीन खाँचों में बाँट लिया है। यह पुरुष, वह स्त्री
और शेष ट्रांसजेंडर। यह सही है कि ये तीनों प्रकार प्रकृति की देन हैं।
स्त्री-पुरुष प्रकृति में मनुष्य जाति की
जरूरतों के कारण पैदा हुए और तीसरा प्रकार प्रकृति या मनुष्य की खुद की खामियों से
जन्मा। पर प्रकृति अपनी गति से आगे बढ़ती है। वह कभी एक सी नहीं बनी रहती। यह
संपूर्ण यूनिवर्स, हमारी धरती एक क्षण में जैसे होते हैं,
अगले ही क्षण वैसे नहीं रह जाते। यहाँ तक कि जीवन के सबसे छोटे सदस्य वायरस तक भी
लगातार बदलते रहते हैं। अभी जिस 'नोवल कोरोना' वायरस ने दुनिया में कोहराम मचाया हुआ है। रिसर्च के दौरान उसकी भी दो
किस्में सामने आ गयी हैं। एक 'एल टाइप' और दूसरा 'एस टाइप'। चीन के
वुहान नगर में जहाँ सब से पहले इस वायरस ने अपना बम फोड़ा। उसी नगर में 70 प्रतिशत
रोगी 'एल टाइप' वायरस से संक्रमित थे जो
अधिक जानलेवा सिद्ध हुआ है। दूसरा 'एस टाइप' कम खतरनाक कहा जा रहा है। अब यह कहा जा रहा है कि यह 'उत्प्रेरण' (म्यूटेशन) के कारण हुआ है। यह भी कहा जा
रहा है कि वायरसों में अक्सर 'उत्प्रेरण' होते रहते हैं। यह भी कि कमजोर वायरस 'सरवाइवल ऑफ दी
फिटेस्ट' के विकासवादी नियम से नष्ट हो जाते हैं और केवल
अपनी जान बचा सकने वाले शक्तिशाली ही बचे रहते हैं। यह भी कि जो टीका 'एल' टाइप वायरस से बचाव के लिए तैयार होगा वही उससे
कमजोर टाइपों के लिए भी काम करता रहेगा।
यहाँ कोरोना वायरस
का उल्लेख केवल जगत और जीव जगत में लगातार हो रहे परिवर्तनों और उसके सतत
परिवर्तनशील होने के सबूत के रूप में घुस गया था। बात का आरंभ तो 'स्त्री-दिवस' से हुआ था और साथ ही मैंने 'ट्रांसजेंडर दिवस' और 'पुरुष
दिवस' का उल्लेख भी किया था। हम मनुष्यों के भिन्न प्रकारों
के आधार पर इस तरह के दिवस बना सकते हैं और उन्हें सैंकड़ों यहाँ तक कि हजारों
प्रकारों में बाँट सकते हैं और हर दिन तीन-चार प्रकारों के दिवस मना सकते हैं।
जब भी इस तरह का कोई
दिवस सामने आता है तो मैं सोचता हूँ इस पर अपने विचार लिखूँ। जैसे ही आगे सोचने
लगता हूँ, धीरे-धीरे एक अवसाद मुझे घेर लेता है। कल भी यही
हुआ। मैं ने दिन में तीन-चार बार फेसबुक पोस्ट लिख कर मिटा दी। एक बार तो पोस्ट
प्रकाशित करके अगले कुछ सैकण्डों में ही उसे हटा भी दिया। बस एक ही तरफ सोच जाती
रही कि हम कब तक इस तरह इंसान को इन खाँचों में बाँट कर देखते रहेंगे। जब गुलाब की
बगिया में गुलाब खिलते हैं तो कोई दो गुलाब एक जैसे नहीं होते। ऊपर की टहनी पर
खिलने वाला गुलाब ज्यादा सेहतमंद हो सकता है और नीचे कहीं धूप की पहुँच से दूर कोई
गुलाब कम सेहतमंद। लेकिन माली उनमें कोई भेद नहीं करता। वह सभी की सुरक्षा करता है,
सभी को सहेजता है और आखिर सभी को एक साथ तोड़ कर बाजार में उपयोग के
लिए भेज देता है। बाजार में जा कर व्यापारी उसमें भेद करता है। बड़े फूल सजावट और
उपहार के लिए निकाल दिए जाते हैं तो शेष को इत्र, गुलाब जल
और गुलकंद आदि बनाने के लिए कारखानों में भेज देता है।
ठीक यही बात मैं
इंसानों के लिए भी कहना चाहता हूँ कि मनुष्य में जो भेद करने वाले लोग हैं वे असल
में इन्सान नहीं रह गए हैं और व्यापारी हो गए हैं। वे उपयोग के हिसाब से मनुष्य और
उनके प्रकारों के साथ व्यवहार करने लगते हैं। जिनके “खून में ही व्यापार है” मनुष्य उनके लिए वस्तु मात्र रह जाता है। समय के साथ और भी अनेक प्रकारों में हमने
मनुष्य को बाँटा है। जैसे कुछ लोग स्वामी थे तो कुछ लोग दास, कुछ लोग जमींदार हो गए तो कुछ लोग जमीन से बांध कर किसान बना दिए गए। फिर
कुछ लोग पूंजीपति हो गए और बहुत सारे मजदूर हो गए। हमने उन्हें काम के हिसाब से
जातियों में बाँट दिया। कुछ उच्च जातियाँ हो गयी तो कुछ निम्न जातियाँ। इन भेदों
के हिसाब भी हमने दिन बना रखे हैं। लेकिन दिवस सिर्फ कमजोरों के लिए बनाए गए। ताकि
उन्हें एक दिन दे दिया जाए जिससे वे एक कमतर जिन्दगी से पैदा अवसाद को कुछ वक्त के
लिए भुला सकें। दुनिया में एक मजदूर दिवस है लेकिन पूंजीपति दिवस नहीं है। लुटेरों
को दिवस मनाने की क्या जरूरत? उनके लिए तो हर दिन ही लूट का दिवस है। इसी तरह कुछ
वक्त पहले तक पुरुष दिवस का कोई अस्तित्व नहीं था। लेकिन जब से स्त्री के प्रति
भेदभाव को समाप्त करने वाले कानून अस्तित्व में आए और उसने लड़ना आरंभ किया तब से
एक स्त्री-दिवस अस्तित्व में आ गया। मेरे अवसाद का कारण भी यही है।
मजदूर दिवस केवल
मजदूरों के अवसाद को दूर नहीं करता बल्कि उन्हें उस लड़ाई के लिए भी प्रेरित करता
है जिस से वे दुनिया के तमाम दूसरे मनुष्यों के समान व्यवहार प्राप्त कर सकें। उसी
तरह स्त्री-दिवस भी उस लड़ाई के लिए प्रेरित करता है जिस से स्त्रियाँ दुनिया में
पुरुषों के समान व्यवहार प्राप्त कर सकें। हर मनाए जाने वाले 'दिवस' और हर 'उचित और सच्चे
संघर्ष' के पीछे मुझे मनुष्य और मनुष्य के बीच समानता के
व्यवहार की का संघर्ष दिखाई देता है। इन संघर्षों को हमने 'मनुष्य-मनुष्य' के बीच असमान व्यवहार को जन्म
देने और उसे बनाए रखने वाले शैतानों द्वारा किए गए 'शैतानी
वर्गीकरण' वाले नाम ही दे दिए हैं। इस तरह हमारी समानता के
लिए चल रही लड़ाई अनेक रूपों में बँट गयी है। जिसका सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि
हम अपने लक्ष्यों से भटक कर लड़ रहे हैं और ज्यादातर आपस में ही लड़ रहे हैं और
अपनी शक्ति को व्यर्थ करने में लगे हैं। आज हमारे देश में हमें तुरन्त बेरोजगारी
से मुक्ति, हर एक को समान शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा के लिए
लड़ना चाहिए। लेकिन शैतानों ने उस लड़ाई को कानून पास करके हिन्दू-मुसलमान की
लड़ाई में बदल दिया है। हम उस लड़ाई के मोहरे बना दिए गए हैं।
आज जरूरत यही है कि
इन छोटी-बड़ी लड़ाइयों को उसी तरह आपस में मिला दिया जाए, जैसे आसपास की सब नदियाँ
एक बड़ी नदी में मिल जाती हैं और पानी सागर की ओर बढ़ता रहता है। हमें भी अपनी
समानता की लड़ाई को इसी तरह आपस में जोड़ कर बड़ी बनाना चाहिए। जिस से मनुष्य और
मनुष्य के बीच असमान व्यवहार से मुक्त बेहतर जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकें।