छँटनी की परिभाषा बदलने से जन्मी श्रमिक-कर्मचारियों की
नई श्रेणी
देश के श्रम न्यायालयों और औद्योगिक न्यायाधिकरणों में जो
प्रकरण लंबित हैं, मेरे अनुमान के अनुसार उनमें से 80 प्रतिशत से अधिक केवल छंटनी के
मामले हैं। 1984 में छंटनी की परिभाषा में परिवर्तन के पहले तक उसकी सामान्य
व्याख्या यह थी कि नियोजक द्वारा किसी भी श्रमिक की प्रत्येक सेवा समाप्ति चाहे वह
किसी भी कारण से की गयी हो छँटनी है। केवल कुछ प्रकार की सेवा समाप्तियाँ थी जो उस
परिभाषा के बाहर थीं। छँटनी की परिभाषा से बाहर की गई सेवा समाप्तियों में, श्रमिक
द्वारा स्वेच्छा से ली गयी सेवानिवृत्ति, सेवा संविदा के अनुसार निर्धारित उम्र हो
जाने के कारण हुई सेवानिवृत्ति तथा लगातार बीमारी के कारण की गयी सेवा समाप्तियाँ
थीं। 1984 में इनमें नियोजन के कॉन्ट्रेक्ट में वर्णित रीति से की गयी सेवा
समाप्ति तथा इस कॉन्ट्रेक्ट का नवीनीकरण न
होने पर कॉन्ट्रेक्ट की अवधि की समाप्ति पर हुई सेवा समाप्ति को भी इस में
सम्मिलित कर दिया गया।
इस संशोधन ने श्रमिकों की एक नई श्रेणी को जन्म दिया। यह तो सभी
जानते हैं कि देश में बेरोजगारी की दर अत्यधिक है। जब बेरोजगारी की दर अधिक होती
तो नौकरी चाहने वालों की नियोजक के साथ होने वाले नियोजन के कान्ट्र्रेक्ट में
अपनी शर्तें शामिल करने की शक्ति समाप्त हो जाती है। किसी भी काम चाहने वाले
बेरोजगार व्यक्ति को नियोजक की शर्तों पर ही काम करना स्वीकार करना पड़ता है। इस तरह इस संशोधन ने श्रमिकों के बेपानाह शोषण
की छूट पूंजीपतियों को दे दी। और केवल पूंजीपति ही क्यों केन्द्र और राज्य
सरकारें, सरकारी संस्थान और सार्वजनिक संस्थान भी उस छूट का लाभ उठाने में पीछे
नहीं रहे।
इस संशोधन के बाद से नियोजक अब तमाम कामों के लिए श्रमिक
कर्मचारी नियोजित करने के समय़
ही उसके नियुक्ति पत्र में यह शर्त रखने लगे कि यह नियुक्ति 3 या 6 माह के लिए
अथवा 1, 2, या 3 वर्ष के लिए है और यह अवधि समाप्त होने पर स्वयमेव समाप्त हो
जाएगी। इस तरह के श्रमिक कर्मचारियों को संविदा कर्मचारी या संविदा श्रमिक कहा
गया। धीरे-धीरे यह शब्द प्रचलित हो गया और उनकी अलग श्रेणी बन गयी। अब यह श्रेणी
आम है। इन संविदा कर्मियों को एक निश्चित वेतन दिया जाता है, आठ घण्टों के स्थान
पर कई-कई घण्टे काम लिया जाता है, साप्ताहिक अवकाश के दिनों में भी काम लिया जाता
है। उनसे निर्धारित कार्य जिसके लिए वे नियोजित किए गए होते हैं उन कामों के
अतिरिक्त अनेक प्रकार काम लिए जाते हैं। उनके अधिकारी उन से घरों के काम भी खूब
कराते हैं।
इस तरह इस संशोधन ने ठेकेदार श्रमिकों के बाद सबसे अधिक शोषित
श्रमिकों / कर्मचारियों की नई श्रेणी खड़ी कर दी। आज तमाम सरकारी अर्ध-सरकारी संस्थानों
और सार्वजनिक उद्योगों में इस तरह के कर्मचारियों की भरमार है। ये कर्मचारी भर्ती
नियमो के भी परे हैं। समय-समय पर सरकार के मंत्री यह घोषणा करते रहते हैं कि
संविदा कर्मचारियों को स्थायी नौकरी देने पर विचार किया जाएगा। ये घोषणाएँ वह चारा
है जो तांगे वाले ने एक बाँस पर बान्ध कर घोड़े के आगे उसकी पहुँच से दूर लटका रखा
है। घोड़ा दौड़ता है यह सोच कर कि जल्दी ही उसे चारा खाने को मिलेगा। लेकिन जितना
वह दौड़ता है चारा आगे खिसकता जाता है और कभी भी उसे नहीं मिलता। घोड़े को जितनी तेज भूख लगती है वह उतनी ही तेज
भागता है। तांगे का मालिक घोड़े को कभी भरपेट चारा नहीं देता। क्यों कि भरपेट खाना
मिल जाने पर तो चारे से अरूचि हो जाएगी और वह सुस्त चलने लगेगा। इस रूपक में ये
संविदा कर्मचारी और श्रमिक घोड़े हैं।
हालाँकि इस
लॉकडाउन में हुए मजदूरों के पलायन में ये संविदा श्रमिक सम्मिलित नहीं हैं। लेकिन
औद्योगिक विवाद अधिनियम में इस संशोधन ने भारत में श्रम-बाजार के परिदृश्य को एकदम
बदल दिया है। इस संशोधन के पहले जहाँ पूंजीपति और सरकारें खुद कानूनों से बंधी
महसूस करती हैं। अब पूरी तरह आजादी की साँस लेने लगी हैं। उन के हिस्से में
ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ गयी है। वहीं श्रमजीवी जनता के हिस्से में ऑक्सीजन कम हो
गयी है और उस का दम घुट रहा है। .... (क्रमशः)
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