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शनिवार, 4 अप्रैल 2020

कोविद-19 महामारी और भारत-6


छँटनी की परिभाषा बदलने से जन्मी श्रमिक-कर्मचारियों की नई श्रेणी

देश के श्रम न्यायालयों और औद्योगिक न्यायाधिकरणों में जो प्रकरण लंबित हैं, मेरे अनुमान के अनुसार उनमें से 80 प्रतिशत से अधिक केवल छंटनी के मामले हैं। 1984 में छंटनी की परिभाषा में परिवर्तन के पहले तक उसकी सामान्य व्याख्या यह थी कि नियोजक द्वारा किसी भी श्रमिक की प्रत्येक सेवा समाप्ति चाहे वह किसी भी कारण से की गयी हो छँटनी है। केवल कुछ प्रकार की सेवा समाप्तियाँ थी जो उस परिभाषा के बाहर थीं। छँटनी की परिभाषा से बाहर की गई सेवा समाप्तियों में, श्रमिक द्वारा स्वेच्छा से ली गयी सेवानिवृत्ति, सेवा संविदा के अनुसार निर्धारित उम्र हो जाने के कारण हुई सेवानिवृत्ति तथा लगातार बीमारी के कारण की गयी सेवा समाप्तियाँ थीं। 1984 में इनमें नियोजन के कॉन्ट्रेक्ट में वर्णित रीति से की गयी सेवा समाप्ति तथा इस कॉन्ट्रेक्ट का नवीनीकरण  न होने पर कॉन्ट्रेक्ट की अवधि की समाप्ति पर हुई सेवा समाप्ति को भी इस में सम्मिलित कर दिया गया।
इस संशोधन ने श्रमिकों की एक नई श्रेणी को जन्म दिया। यह तो सभी जानते हैं कि देश में बेरोजगारी की दर अत्यधिक है। जब बेरोजगारी की दर अधिक होती तो नौकरी चाहने वालों की नियोजक के साथ होने वाले नियोजन के कान्ट्र्रेक्ट में अपनी शर्तें शामिल करने की शक्ति समाप्त हो जाती है। किसी भी काम चाहने वाले बेरोजगार व्यक्ति को नियोजक की शर्तों पर ही काम करना स्वीकार करना पड़ता है।  इस तरह इस संशोधन ने श्रमिकों के बेपानाह शोषण की छूट पूंजीपतियों को दे दी। और केवल पूंजीपति ही क्यों केन्द्र और राज्य सरकारें, सरकारी संस्थान और सार्वजनिक संस्थान भी उस छूट का लाभ उठाने में पीछे नहीं रहे।
इस संशोधन के बाद से नियोजक अब तमाम कामों के लिए श्रमिक कर्मचारी नियोजित करने के सम ही उसके नियुक्ति पत्र में यह शर्त रखने लगे कि यह नियुक्ति 3 या 6 माह के लिए अथवा 1, 2, या 3 वर्ष के लिए है और यह अवधि समाप्त होने पर स्वयमेव समाप्त हो जाएगी। इस तरह के श्रमिक कर्मचारियों को संविदा कर्मचारी या संविदा श्रमिक कहा गया। धीरे-धीरे यह शब्द प्रचलित हो गया और उनकी अलग श्रेणी बन गयी। अब यह श्रेणी आम है। इन संविदा कर्मियों को एक निश्चित वेतन दिया जाता है, आठ घण्टों के स्थान पर कई-कई घण्टे काम लिया जाता है, साप्ताहिक अवकाश के दिनों में भी काम लिया जाता है। उनसे निर्धारित कार्य जिसके लिए वे नियोजित किए गए होते हैं उन कामों के अतिरिक्त अनेक प्रकार काम लिए जाते हैं। उनके अधिकारी उन से घरों के काम भी खूब कराते हैं।
इस तरह इस संशोधन ने ठेकेदार श्रमिकों के बाद सबसे अधिक शोषित श्रमिकों / कर्मचारियों की नई श्रेणी खड़ी कर दी। आज तमाम सरकारी अर्ध-सरकारी संस्थानों और सार्वजनिक उद्योगों में इस तरह के कर्मचारियों की भरमार है। ये कर्मचारी भर्ती नियमो के भी परे हैं। समय-समय पर सरकार के मंत्री यह घोषणा करते रहते हैं कि संविदा कर्मचारियों को स्थायी नौकरी देने पर विचार किया जाएगा। ये घोषणाएँ वह चारा है जो तांगे वाले ने एक बाँस पर बान्ध कर घोड़े के आगे उसकी पहुँच से दूर लटका रखा है। घोड़ा दौड़ता है यह सोच कर कि जल्दी ही उसे चारा खाने को मिलेगा। लेकिन जितना वह दौड़ता है चारा आगे खिसकता जाता है और कभी भी उसे नहीं मिलता।  घोड़े को जितनी तेज भूख लगती है वह उतनी ही तेज भागता है। तांगे का मालिक घोड़े को कभी भरपेट चारा नहीं देता। क्यों कि भरपेट खाना मिल जाने पर तो चारे से अरूचि हो जाएगी और वह सुस्त चलने लगेगा। इस रूपक में ये संविदा कर्मचारी और श्रमिक घोड़े हैं।
हालाँकि इस लॉकडाउन में हुए मजदूरों के पलायन में ये संविदा श्रमिक सम्मिलित नहीं हैं। लेकिन औद्योगिक विवाद अधिनियम में इस संशोधन ने भारत में श्रम-बाजार के परिदृश्य को एकदम बदल दिया है। इस संशोधन के पहले जहाँ पूंजीपति और सरकारें खुद कानूनों से बंधी महसूस करती हैं। अब पूरी तरह आजादी की साँस लेने लगी हैं। उन के हिस्से में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ गयी है। वहीं श्रमजीवी जनता के हिस्से में ऑक्सीजन कम हो गयी है और उस का दम घुट रहा है।                                            .... (क्रमशः)
अगली कड़ी में पढ़ें- इतने भारी पलायन की वजह क्या है?

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2020

कोविद-19 महामारी और भारत-5

श्रम कानून में परिवर्तन से मजदूर वर्ग की स्थिति कैसे बदतर हुई?

फरवरी 1978 में सुप्रीमकोर्ट के 7 न्यायाधीशों की वृहत पीठ ने बैंगलोर वाटर सप्लाई एण्ड सीवरेज बोर्ड व अन्य बनाम आर. राजप्पा व अन्य के मुकदमे में निर्णय पारित कर यह स्पष्ट कर दिया था कि किस तरह के संस्थानों को उद्योग कहा जाएगा। इस निर्णय से बहुत बड़ी संख्या में संस्थान उद्योग की श्रेणी में आ गए थे और उनके कर्मचारियों को औद्योगिक विवाद अधिनयिम के अंतर्गत अपने विवाद उठाने का अधिकार मिल गया था। इससे देश भर के पूंजीपतियों को बहुत परेशानी हो गयी। तब केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार थी जो अपने ही अन्तर्विरोधों के कारण अस्थिर थी। 1979 में संसद भंग हो गयी और मध्यावधि चुनाव हुए। जिनमें कांग्रेस फिर से शासन में आ गयी और श्रीमती इन्दिरा गांधी फिर से प्रधान मंत्री चुनी गयी।  पूंजीपति केन्द्र सरकार पर लगातार दबाव बनाने लगे कि ‘उद्योग’ शब्द की परिभाषा को बदला जाए तथा जो संस्थान बैंगलोर वाटर सप्लाई केस के निर्णय के बाद उद्योग की श्रेणी में आ गए थे उन्हें फिर से इस से बाहर किया जाए। उसी साल सितम्बर माह में सुप्रीम कोर्ट ने अन्य केस एक्सल वियर व अन्य बनाम यूनियन ऑफ इंडिया व अन्य के केस में यह निर्धारित कर दिया गया था पूंजीपतियों पर उद्योग बंद करने के के पूर्व सरकार से अनुमति प्राप्त करने की पाबंदी लगाने का 1976 में पारित किया गया संशोधन को असंवैधानिक घोषित कर दिया था और अब उन्हें उद्योगबंदी करने के लिए किसी तरह की पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता नहीं रही थी। इस निर्णय से मजदूर संगठनों में रोष था। उद्योगबंदी पर रोक के कानून को बनाए रखने के लिए कानून में संशोधन चाहते थे। इस तरह फिर से औद्योगिक विवाद अधिनियम में संशोधन किया जाना आवश्यक समझा जाने लगा था।

तब केंद्र सरकार ने औद्योगिक विवाद अधिनियम में संशोधन हेतु बिल प्रस्तुत किया जो 1982 में पारित हो गया। इस संशोधन द्वारा ‘उद्योग’ शब्द की परिभाषा को बदल दिया गया था। बड़े उद्योगों में विवादों को उद्योग में ही हल करने के लिए एक ग्रीवेंस कमेटी का प्रावधान किया था। सरकार जानती थी कि इस संशोधन कानून का विरोध होगा। उस विरोध को दबाने के लिए इस संशोधन में औद्योगिक विवादों के निपटारे के लिए समय सीमा निर्धारित कर दी थी। (जो कभी भी व्यवहारिक सिद्ध नहीं हुई) किसी भी मजदूर की मृत्यु के कारण न्यायालय में लम्बित कोई भी विवाद समाप्त नहीं होने की व्यवस्था की गयी थी। सेवा से हटाए गए मजदूर को पुनः सेवा में लिए जाने का निर्णय श्रम न्यायालय से होने तथा आगे ऊंची अदालत में उस निर्णय को चुनौती दिए जाने पर मजदूर को अन्तिम प्राप्त वेतन पाने का अधिकारी बना दिया गया। उद्योग बंदी और ले-ऑफ को कुछ हद तक रोके जाने की व्यवस्था की गयी। इसके साथ ही अनुचित श्रम आचरण को परिभाषित करने के लिए कुछ कृत्यों की एक सूची कानून में जोड़ी गयी और उसे दंडनीय अपराध बना दिया गया था। लेकिन मजदूरों के पक्ष में दिखाई देने वाले इन प्रावधानों में इतने छेद रखे गए थे कि वे व्यवहारिक सिद्ध नहीं हुए।

मजदूर यूनियनों ने इस संशोधन से ‘उद्योग’ की परिभाषा को बदल देने का जबरर्दस्त विरोध किया। जिसके कारण यह पूरा संशोधन अधिनियम 1984 तक लागू नहीं किया जा सका। 1984 में एक और बिल पारित हुआ जिसके द्वारा छंटनी की परिभाषा में परिवर्तन किया गया। 1982 और 1984 के संशोधन अगस्त 1984 में प्रभावी कर दिए गए। मजदूर यूनियनों के विरोध के कारण ‘उद्योग’ शब्द की परिभाषा बदलने के प्रावधान को कभी लागू नहीं किया जा सका। लेकिन उसे कभी निरस्त भी नहीं किया गया, वह आज भी अप्रभावी प्रावधान के रूप में कानून की किताब में मौजूद है।

इन दोनों संशोधनों के प्रभावी होने के बाद आज तक का अनुभव रहा है कि श्रमिक की मृत्यु हो जाने पर यदि उसका कोई विधिक प्रतिनिधि रेकार्ड पर नहीं लाया जाता है तो वह विवाद समाप्त तो नहीं होता, लेकिन उस विवाद में श्रमिक के विधिक प्रतिनिधियों को न्यायालय से कोई राहत नहीं मिलती जिससे वह लगभग निष्प्रभावी सिद्ध हुआ है।  औद्योगिक विवादों को तीन माह और एक वर्ष में निपटारा किए जाने का जो निर्देशक प्रावधान किया गया था वह पूरी तरह बेकार सिद्ध हुआ क्योंकि इसे प्रभावी बनाने के लिए पर्याप्त मात्रा में श्रम अदालतें खोली जानी थीं। लेकिन सरकारों ने ऐसा नहीं किया। नतीजे में अभी भी 20 से 30 वर्ष से अधिक पुराने मुकदमे लंबित हैं। अनेक विवादों में मुकदमों के चलते श्रमिक की मृत्यु ही हो जाती है, या सेवा निवृत्ति की आयु ही व्यतीत हो जाती है। श्रमिक को सेवा में पुनर्स्थापित करने का निर्णय होने पर उसे नियोजक द्वारा चुनौती देने पर श्रमिक द्वारा जब तक उच्च न्यायालय को आवेदन नहीं दिया जाता तब तक उसे न तो सेवा में लिया जाता है और न ही उस का अंतिम वेतन आरंभ किया जाता है। उच्च न्यायालयों में चुनौती देने वाली अधिकांश याचिकाएँ दस वर्ष से भी अधिक समय से लंबित पड़ी हैं। अनुचित श्रम आचरण के लिए किसी  नियोजक को दंडित करने का समाचार कभी नहीं मिला। उसके अभियोजन की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि दंडित कराने के लिए आवेदन करने वाला  श्रमिक थक कर ही हार जाता है। इस तरह समय ने यह सिद्ध किया कि श्रमिकों के हक में दिखाई देने वाले कानून सिर्फ दिखावे के साबित हुए।

उद्योग को बंद करने के लिए सरकार की पूर्व अनुमति प्राप्त करने का प्रावधान भी बेकार सिद्ध हुआ। पूंजीपतियों ने नई तरकीब यह निकाली कि वे अपनी कंपनी की बैलेंस शीट को दो-चार साल तक घाटे में दिखा कर उसे बीमार घोषित कराने और उद्योग के पुनर्संचालन के लिए सहायता प्राप्त करने केन्द्र सरकार द्वारा अलग से स्थापित बोर्ड फॉर इंडस्ट्रियल एंड फाइनेंशियल रिकंस्ट्रक्शन  (बीआईएफआर) के पास आवेदन करने लगे। बोर्ड से कंपनी को बीमार घोषित करवा कर उद्योग का संचालन बिना किसी पूर्वानुमति के बन्द करने लगे। एक कंपनी के मामले में तो यह भी हुआ कि सरकार ने उद्योग बंदी की अनुमति प्राप्त करने के आवेदन को निर्धारित अवधि के अन्तिम दिन अनुमति देने से इन्कार करने का आदेश पारित किया। लेकिन आदेश की प्रति समय पर उद्योग के प्रबंधक को श्रम विभाग द्वारा नहीं पहुँचाए जाने के कारण प्रबंधक उद्योग बंद कर चलते बने। श्रमिकों को बकाया वेतन और मुआवजा प्राप्त करने के लिए भी मुकदमे लड़ने पड़े और अनेक तो कभी प्राप्त ही नहीं कर सके। 

छंटनी की परिभाषा में जो मामूली परिवर्तन 1984 के संशोधन से किए गए थे वे मजदूर वर्ग के लिए अत्यन्त घातक सिद्ध हुए। इस संशोधन ने बिना किसी कानूनी अधिकार वाले श्रमिक-कर्मचारियों की एक नई श्रेणी खड़ी कर दी।  जिसके सिर पर हमेशा नौकरी जाने की तलवार लटकती रहती है।                                        .... (क्रमशः)



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