@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: भ्रष्टाचार
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शनिवार, 29 जनवरी 2011

खुद अपने आसपास तलाश कीजिए, कि आप कैसे आरंभ कर सकते हैं?

चमुच परिस्थितियाँ बहुत विकट हैं। परसों इसी ब्लाग पर मैं ने लिखा था सोनवणे की शहादत अपना मोल वसूल कर सकती है। लेकिन इस पोस्ट पर आई टिप्पणियों में निराशा अधिक दिखाई देती थी। भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने  कहा -  ईमानदारी! भ्रष्टाचार! बिल्ली के गले में घण्टी बांधेगा कौन? ऊपर से प्रारम्भ होता है किसी भी चीज का, ऊपर ठीक तो नीचे खुद-ब-खुद ठीक..Blogger satyendra...ने कहा -अब हजार-दो हजार रुपये महीने में मिलावटखोरों के लिए काम करने वाले कर्मचारी पकड़े जाएंगे और कर्तव्य की इतिश्री हो जाएगी।Blogger  Blogger Abhishek Ojha का कहना था - ...जनता ऐसी शहादतों को भुलाने में बहुत वक्त नहीं लगाती।  ललित शर्मा जी का कहना भी कुछ भिन्न नहीं था - राजनेताओं के हाथ माफ़िया की डोरी है। भ्रष्टाचार का पेड़ उल्टा है, जिसकी जड़ें आसमान में हैं। शाखाएं जमीन पर। इस महारोग का इलाज असंभव है।  Raviratlami जी तो पेट्रोल की मिलावट के भुक्तभोगी निकले - मेरे नए वाहन के इंजिन का हेड जिसकी गारंटी अवधि (गनीमत) अभी खत्म भी नहीं हुई थी, मिलावटी पेट्रोल की वजह से ब्लॉक हो गया था... आमतौर पर पेट्रोल में हर जगह भयंकर रूप से मिलावट होती है। अपवाद स्वरूप ही किसी पेट्रोलपंप में शुद्ध पेट्रोल मिलता होगा। जाहिर है, अफ़सरों से लेकर नेताओं तक सभी का मिला-जुला कारनामा होता है यह। मुझे नहीं लगता कि सोनवणे की शहादत से बाल बराबर भी कोई फ़र्क़ कहीं आएगा... Blogger महेन्द्र मिश्र  का कहना था - निसंदेह दुखद वाकया है ... इस तरह की घटनाओं से व्यवस्था से विश्वास उठ जाता है। Blogger cmpershad जी का सोचना भी कुछ भिन्न नहीं था - सत्येंद्र दुबे..... सोनवाने.... ना जाते कितने गए इस ईमानदारी की घुट्टी के कारण :( परिणाम तो वही ढाक के तीन पात।
ब से तीव्र प्रतिक्रिया सुरेश चिपलूनकर  जी की थी। मेरे महाराष्ट्र के 18 लाख सरकारी कर्मचारियों के बारे में यह कहने पर कि उन में अधिकांश ईमानदार हैं। वे अपने कर्तव्यों का ईमानदारी से निर्वाह करते हैं और उन्हें जो कुछ वेतन के रूप में मिलता है उसी से अपना जीवन यापन करते हैं...  उन्हों ने एक लंबा ठहाका चस्पा किया, फिर लिखा - हा हा हा, सर जी… मुझे नहीं पता था कि आप इतना बढ़िया "हास्य-व्यंग्य" भी लिख लेते हैं… :) फिर मेरे यह कहने पर कि ये सभी कर्मचारी केवल इतना संकल्प कर लें कि वे सरकारी मशीनरी में कोई भ्रष्टाचार नहीं करेंगे और न होने देंगे…"  उन का कहना था कि - यह "सपना" मैं भी देखता हूँ, आप भी देखिये… :)
सुरेश जी की टिप्पणी पर मैं ने प्रतिटिप्पणी की - भ्रष्टाचार को समाप्त करने या नियंत्रित करने के प्रश्न पर अधिकतर टिप्पणीकर्ताओं की राय निराशावादी है। यानी कि वे मानते हैं कि यह वह फोड़ा है जो ठीक नहीं हो सकता, कैंसर ही सही। कैंसर अभी तक लाइलाज है। लेकिन उस की चिकित्सा किए जाने के प्रयास छोड़ नहीं दिए गए हैं। चिकित्सक और शोधकर्ता लगातार उस ओर प्रयासरत हैं। मुझे विश्वास है कि उस की चिकित्सा कभी न कभी संभव हो जाएगी।
चिपलूनकर जी इसे मजाक, व्यंग्य या हास्य समझते हैं कि अधिकांश कर्मचारी ईमानदार हैं। लेकिन यह ठोस हकीकत है। सब लोग कभी बेईमान नहीं हो सकते। एक समूह की केवल अल्पसंख्या ही बेईमान हो सकती है, अधिसंख्या नहीं।
बेईमान व्यक्ति भी हर व्यवहार में बेईमान नहीं होता, न हो सकता है।
ईमानदारी मनुष्य का मूल गुण है, बेईमानी नहीं। इस कारण बेईमान से बेईमान व्यक्ति में भी ईमानदारी का गुण मौजूद रहता है। जरूरत तो इस बात की है कि लोगों के अंदर छिपे ईमानदारी के उस गुण को उभारा जाए। बेईमानी को हतोत्साहित किया जाए। यह समूह ही कर सकता है। जब लोग बेईमानी के विरुद्ध उद्वेलित हों तो वे सामूहिक रूप से इस तरह के निर्णय ले सकते हैं। यदि समूह के नेतृत्व में इच्छा हो तो वह इसे अभियान के रूप में ले सकता है।
इसे अभी मजाक, व्यंग्य या हास्य समझा जा सकता है। लेकिन वह दिन तो अवश्य आना है जब यही जनसमूह ऐसे निर्णय करेगा। इतिहास और मिथक ऐसी घटनाओं और कहानियों से भरा पड़ा है। जनता जब करने की ठान लेती है तो कर गुजरती है। मुझे तो जनता की शक्ति पर अटूट विश्वास है। बस देर इस बात की है कि स्वयं जनता उस शक्ति को कब और कैसे पहचानती है।
स पर चिपलूनकर जी ने पुनः टिप्पणी करते हुए लिखा - यह निराशावादी नहीं बल्कि "यथार्थवादी" विचार हैं…। आपने स्वयं स्वीकार किया कि भ्रष्टाचार अब "कैंसर" बन चुका है तब सरकारी कर्मचारियों में "अधिकांश"(?) कैसे ईमानदार रह सकते हैं? कैंसर का इलाज क्रोसिन से होने वाला नहीं है, इसके लिये एक बड़े और दर्दनाक ऑपरेशन की जरुरत है… वरना सोनवणे, सत्येन्द्र दुबे, मंजूनाथ जैसे अधिकारी मारे ही जाते रहेंगे…। जनता तो जागने से रही, फ़िलहाल सरकारी कर्मचारी भी इसलिये "जागे"(?) हैं कि उनका साथी मारा गया है, कुछ दिन बीतने दीजिये सारा उबाल ठण्डा पड़ जायेगा… पिछले 15 साल से महाराष्ट्र में कांग्रेस-NCP की सरकार है, मालेगाँव में राष्ट्रीय जाँच एजेंसियों का "आना-जाना" लगा ही रहता है… क्या सब के सब अंधे-बहरे हैं? कौन नहीं जानता कि कहाँ-कहाँ पर क्या-क्या हो रहा है… यही यथार्थ है, निराशावाद नहीं…  और जिस "जनता" से आप आशा लगाये बैठे हैं, उसे जानबूझकर महंगाई के कुचक्र में ऐसा फ़ँसा दिया गया है, कि उसके पास दो जून की रोटी के बारे में सोचने के अलावा कुछ अन्य सोचने की फ़ुर्सत ही नहीं है…
संयोग से कल मैं चिपलूनकर जी के नगर के ही एक सेवानिवृत्त अधिकारी के सानिध्य में था। मैं ने उन से भी यही प्रश्न पूछा कि सरकारी कर्मचारियों में कितने ईमानदार होंगे? उन का दृष्टिकोण चिपलूनकर जी से बहुत अधिक भिन्न नहीं था। जब मैं ने उन से जिन विभागों में वे रहे उन के बारे में एक-एक कर पूछना आरंभ किया तो उन का कहना था कि ऊपर के अफसरों से ले कर निचले अफसरों तक में मुश्किल से एक प्रतिशत लोग ईमानदार होंगे। लेकिन जब क्लर्कों, चपरासियों और अन्य कर्मचारियों के संबंध में बात की गई और हिसाब लगाया तो पता लगा कि उन में से अधिकांश ईमानदार हैं। फिर मैं ने उन से किसी भी विभाग के सभी कर्मचारियों और अफसरों की संख्या में ईमानदार लोगों के बारे में हिसाब लगाने को कहा तो उन्हें मानना पड़ा कि सरकारी कर्मचारियों में अभी भी आधे से अधिक ईमानदार हैं। 
वास्तव में होता यह है कि हम जब भी सरकारी कर्मचारियों के बारे में बात करते हैं तो उन के बारे में बात करते हैं जिन से हमारा काम पड़ता है। वहाँ हमें अधिकांश लोग बेईमान दिखाई पड़ते हैं। इस से हमारी यह धारणा बनती है कि अधिसंख्य सरकारी कर्मचारी बेईमान हैं। लेकिन यह यथार्थ नहीं है। यदि हम यह मान लें कि सारा सरकारी अमला बेईमान है तो फिर देश में एक व्यक्ति भी ऐसा नहीं जिसे किसी सरकारी कार्यालय से कभी काम न पड़ा हो। फिर तो जरूर उस ने कभी न कभी अपना काम कराने के लिए कर्मचारी को पैसा दिया होगा।  इस तरह काम कराने के लिए पैसा देना भी तो बेईमानी और भ्रष्टाचार है। इस तरह तो भारत की सम्पूर्ण आबादी बेईमान है। भारत बेईमानों का देश है। इस से निजात एक ही रीति से संभव है कि भारत की तमाम आबादी नष्ट हो जाए। फिर नए सिरे से ईमानदार लोग पैदा हों। नई सृष्टि की रचना हो। यानी प्रलय और पुनः सृजन। यह तो अनीश्वरवादी सांख्य का दृष्टिकोण है जो चिपलूनकर जी के माध्यम  से निसृत हुआ है। 
सा भी नहीं था कि इस पोस्ट पर सारे ही स्वर निराशावादी हों, कुछ स्वर ऐसे भी थे जिन में आशा झलकती थी। Blogger प्रवीण पाण्डेय का कहना था -यही समय है, कमर कसने के लिये। Udan Tashtari वाले समीरलाल जी का कह रहे थे - हद हो चुकी है अब!Blogger राज भाटिय़ा  कहना था -ये ही वे लोग हैं जो चाहें तो दुनिया को पलट सकते हैं।जी आप की इस बात से मै शत प्रति शत सहमत हुं, ओर जिस दिन इस जनता मे एक जुटता आ गई उस दिन इन नेताओ को भागना भी कठिन होगा, ओर यह दिन अब दुर नहीDeleteBlogger Rangnath Singh ने कहा - दुष्यंत के शब्दों में कहें तो, हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए..Blogger निर्मला कपिला जी  का कहना था कि, - 'ये सभी कर्मचारी केवल इतना संकल्प कर लें कि वे सरकारी मशीनरी में कोई भ्रष्टाचार नहीं करेंगे और न होने देंगे। जो भी भ्रष्ट आचरण करेगा उस के विरुद्ध समूहबद्ध हो कर खड़े हो जाएंगे और तब तक चैन से नहीं बैठेंगे जब तक कि भ्रष्टाचार जड़ से समाप्त नहीं हो जाए।' निश्चित रूप से यही विकल्प बचा है लेकिन क्या आम आदमी इस रोग से अछूता है? आखिर हम जैसे लोग भी तो इसमे लिप्त हैं। फिर भी अगर चन्द बचे हुये ईमानदार कोशिश करें तो जरूर सुधार हो सकता है।Blogger रमेश कुमार जैन ने कहा -आपके पोस्ट और टिप्पणियों में व्यक्त विचारों से सहमत हूँ।  मगर कई अन्य लेखकों के विचार भी तर्क पूर्ण है. उनके तर्कों नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। 
जैसा भी समाज और राज्य व्यवस्था मौजूदा समय में है, निश्चित रूप से वह ठीक नहीं। मनुष्य जीवन बहुत बदसूरत हो चला है। उसे यदि ठीक करना है और एक नई खूबसूरत दुनिया बनानी है तो जो कुछ है और जहाँ है उसी से आरंभ करना होगा। कुछ लोगों ने यह भी सही कहा कि सब कुछ ऊपर से चल रहा है, वहीं से दुरुस्त हो सकता है। लेकिन हम तो सब से नीचे बैठे हैं, उसे दुरुस्त कैसे करें?  तो भाई ऊपर चलना होगा। कुतुब की मरम्मत करनी है, ऊपर की मंजिल से आरंभ करनी है। हम नीचे खड़े हैं, ऊपर जाना है। पहले सीढ़ियाँ चढ़ कर ऊपर तक पहुँचना होगा। फिर उस के लिए आरंभ नीचे से ही करना होगा। कुतुब की पहली सीढ़ी नीचे ही है जिस पर हम पैर रख कर ऊपर चढ़ेंगे। निश्चित रूप से हमें खुद से, अपने आसपास से आरंभ करना होगा। हम जहाँ हैं वहाँ से इस का आरंभ कर सकते हैं। यह आरंभ कैसे करें? यह मैं बताउंगा तो आप उसे मानेंगे नहीं, और उसे स्वीकार भी नहीं करेंगे, इसलिए नहीं बताउंगा। आप खुद अपने आसपास तलाश कीजिए, कि आप कैसे आरंभ कर सकते हैं?
 

गुरुवार, 27 जनवरी 2011

सोनवणे की शहादत अपना मोल वसूल कर सकती है

तिरिक्त कलेक्टर यशवंत सोनवणे को तेल माफिया द्वारा जिंदा जलाकर मारने के विरोध में महाराष्ट्र के 18 लाख सरकारी कर्मचारी आज हड़ताल पर रहे। कर्मचारियों के इस दबाव में महाराष्ट्र सरकार को मजबूर कर दिया कि वह तेल माफिया के खिलाफ दिखाई देने वाली कार्यवाही करे। आज ही महाराष्ट्र में करीब 200 जगहों पर तेल में मिलावट करने वालों पर छापा डाला गया है। और इस कार्रवाई में अब तक 180 लोगों को गिरफ्तार करने की सूचना है। पुलिस ने इस हत्याकांड के 11 आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया है। लेकिन महाराष्ट्र में यह आम चर्चा है कि तेल माफियाओं की कमान प्रदेश के राजनेताओं के हाथों में है, कहीं कहीं दबी जुबान से इस बात को मीडिया ने भी कहा है।उधर नई दिल्ली में भी केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी ने आपात बैठक बुलाई है जिस में तेल कंपनियों के अधिकारी और अन्य वरिष्ठ अधिकारी भाग ले रहे हैं। इस बैठक का दिखता हुआ  उद्देश्य देश भर में पेट्रोल में चल रहे मिलावट के गोरखधंधे पर लगाम लगाने के लिए योजना बनाना है।
प्रश्न सामने हैं कि महाराष्ट्र सरकार, उस की पुलिस और केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्रालय यह सब कार्यवाही करने के लिए अब तक क्या यशवंत सोनवणे की हत्या किए जाने की प्रतीक्षा कर रहा था? यह सब कार्यवाही पहले क्यों नहीं की जा सकती थी? क्या ये सब कार्यवाहियाँ लगातार नहीं चलती रहनी चाहिए थीं? वास्तविकता यह है कि यशवंत सोनवणे की हत्या से महाराष्ट्र सरकार, उस की पुलिस और केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्रालय को कोई फर्क नहीं पड़ता। ये सब उसी मशीनरी के हिस्से हैं जो इस माफिया को पनपाता है। इस व्यापार में इन सब की भी कहीं न कहीं भागीदारी है। फिर भी महाराष्ट्र सरकार, उस की पुलिस और केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्रालय को कार्यवाही इसलिए करनी पड़ रही है कि इस घटना ने महाराष्ट्र के सरकारी कर्मचारियों, तेल उपभोक्ताओं और आम जनता को उद्वेलित किया है। उद्वेलित जनता कुछ भी कर सकती है। उसी के भय से इन्हें यह सब करना पड़ रहा है। हमारा अनुभव है कि समय गुजरने के साथ ये सब कार्यवाहियाँ दिखावा या आत्मरक्षा के लिए की गई फौरी कार्यवाहियाँ साबित होती हैं।
न 18 लाख सरकारी कर्मचारियों में, जो आज हड़ताल पर रहे हैं अधिकांश ईमानदार हैं। वे अपने कर्तव्यों का ईमानदारी से निर्वाह करते हैं  और उन्हें जो कुछ वेतन के रूप में मिलता है उसी से अपना जीवन यापन करते हैं या फिर कुछ कमी हो तो उस के लिए नौकरी के बाद कुछ न कुछ काम करते हैं। वे श्रमजीवी हैं, वे ही हैं जो सारी मार झेलते हैं, चाहे वह महंगाई हो, या फिर मिलावट कर के फैलाया जा रहा ज़हर हो। ये ही वे लोग हैं जो चाहें तो दुनिया को पलट सकते हैं। कमी है तो इस बात की है कि उन्हें अपनी इस शक्ति का बोध नहीं है। उस के इस्तेमाल के लिए वे उस तरह से संगठित भी नहीं हैं जैसे उन्हें होना चाहिए था। यह ही वह शक्ति है जो केवल दिनों में नहीं घंटों में भ्रष्टाचार से निपट सकती है, उसे क़ब्र में दफ़्न कर सकती है। केवल एक चेतना और एक साथ कार्यवाही करने की क्षमता इन में उत्पन्न हो जाए तो यह बात कोई स्वप्न नहीं है, यह हो सकता है और एक दिन हो कर रहेगा। ये सभी कर्मचारी केवल इतना संकल्प कर लें कि वे सरकारी मशीनरी में कोई भ्रष्टाचार नहीं करेंगे और न होने देंगे। जो भी भ्रष्ट आचरण करेगा उस के विरुद्ध समूहबद्ध हो कर खड़े हो जाएंगे और तब तक चैन से नहीं बैठेंगे जब तक कि भ्रष्टाचार जड़ से समाप्त नहीं हो जाए। निश्चित रूप से महंगाई, भ्रष्टाचार, मिलावट के ज़हर से सताई हुई जनता भी इन्हीं के साथ खड़ी होगी। यह वक्त है जब वे यह संकल्प कर सकते हैं और उस पर चल सकते हैं। यही वह रास्ता है जिस से यशवंत सोनवणे की शहादत अपना मोल वसूल कर सकती है।

बुधवार, 26 जनवरी 2011

जनशिक्षण और जनसंगठन के कामों में तेजी लानी होगी

ज से 61 वर्ष पूर्व दुनिया का सब से बड़ा लिखित संविधान अर्थात हमारे भारत का संविधान लागू हुआ। इसे भारत की संविधान सभा ने निर्मित किया। संविधान सभा का गठन ब्रिटिश सरकार के तीन मंत्रियों के प्रतिनिधि मंडल, केबीनेट मिशन  ने  किया था। इस मिशन का मुख्य कार्य भारत की राजसत्ता को भारतियों के हाथों हस्तांतरण करना था। इस ने ब्रिटिश भारत के प्रांतों के चुने हुए प्रतिनिधियों, रजवाड़ों के प्रतिनिधियों तथा भारत के प्रमुख राजनैतिक दलों से बातचीत की जिस के परिणाम स्वरूप यह संविधान सभा अस्तित्व में आयी। इस संविधान सभा में आरंभ में 389 सदस्य थे, जिन में 292 सदस्य प्रान्तों की विधानसभाओं के द्वारा चुने हुए थे, 93 सदस्य रजवाड़ों के प्रतिनिधि थे, 4 सदस्य कमिश्नर प्रान्तों के थे। बाद में 3 जून 1947 की माउण्टबेटन योजना के अन्तर्गत भारत का विभाजन हो जाने के फलस्वरूप पाकिस्तान के लिए अलग संविधान सभा गठित की गई और कुछ प्रान्तों के प्रतिनिधियों की सदस्यता समाप्त हो जाने के कारण अंततः इस की सदस्य संख्या 299 रह गई।

स संविधान का निर्माण  का आधार इस के प्रतिनिधियों ने इस आधार पर किया कि देश के सभी वे वर्ग जिन की आवाज उठाने वाले लोग मौजूद थे संतुष्ट किया जा सके। हालाँकि संविधान सभा में ऐसे लोग प्रभावी थे जिन की दूरदर्शिता पर यकीन किया जा सकता था, फिर भी सभी तत्कालीन दबाव समूहों को प्रसन्न रखने की दृष्टि ने इस दूरदृष्टि को बहुत कुछ धुंधला किया था। यह एक महत्वपूर्ण कारण था कि हमारा संविधान देश के विकास और भविष्य के लिए कोई स्पष्ट नीति और लक्ष्य रखने में असमर्थ रहा। यदि उस में स्पष्टता रखी जाती तो हो सकता था कि सब की संतुष्टि नहीं होती और एकजुट भारत के निर्माण में बाधा उत्पन्न होती। लेकिन यह संतुष्टि फौरी ही साबित हुई। हर कोई दबाव समूह अपने सपनों का भारत देखना चाहता था। और पहले चुनाव के पहले ही हर दबाव समूह ने अपनी ताकत को बढ़ाने के लिए काम करना आरंभ कर दिया। कालांतर में इन की गतिविधियों ने ही देश और संविधान को वर्तमान रूप की ओर आगे बढ़ाया। 
म जानते हैं कि जो भारत ब्रिटिश साम्राज्य ने हमें सौंपा वह आधा-अधूरा था। उस के दो टुकड़े कर दिए गये थे। जिन का आधार साम्प्रदायिक था। इसी ने भारत में सम्प्रदायवाद को इतना मजबूत किया कि उस विष-बेल के प्रतिफल आज तक स्वतंत्र भारत में पैदा हुई पीढ़ी भुगत रही है। नवजात आजाद भारत में सामंतवाद गहराई से मौजूद था। सभी सामंत अपने अपने हितों को सुरक्षित रखना चाहते थे। हालांकि सामंतवाद की नींव को खोखली करने वाला और उसे समाप्त करने की जिम्मेदारी वहन करने वाला पूंजीपति वर्ग भी कम मजबूत न था। उस ने आजादी के आंदोलन के दौरान ही प्रमुख राजनैतिक दल कांग्रेस में अपनी जड़ें गहरी कर ली थीं। एक तीसरा वर्ग था, जिस की आजादी के आंदोलन में प्रमुख भूमिका थी। यह भारत की विपन्न जनता थी, इस की एकजुटता ही वह शक्ति थी जिस के बल पर आजादी संभव हो सकती थी। यह भारत का विपन्न किसान था जो सामंतों की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था, सामंतों की सारी संपन्नता जिस के बल पर कायम थी,  यह कारखानों में काम करने वाला मजदूर था जिस के श्रम ने भारत के पूंजीपति को मुकाबला करने की शक्ति प्रदान की थी। ये दोनों विशाल वर्ग दबाव समूह तो थे ही लेकिन नेतृत्व में इन का हिस्सा बहुत छोटा था। 
किसान और मजदूर जनता की संख्या विशाल थी और जिस तरह का  संविधान निर्मित हुआ था उस की आवश्यक शर्त यह थी कि इस विशाल जनसंख्या से हर पाँचवें वर्ष सहमति प्राप्त कर के ही कोई सरकार इस देश में बनी रह सकती थी। पहले आम चुनाव ने कांग्रेस को विशाल बहुमत प्रदान किया। लेकिन जो लोग चुने जा कर संसद पहुँचे उन में से अधिकांश पहले दो वर्गों, सामंतों और पूंजीपतियों के प्रतिनिधि थे। पूंजीपतियों को पूंजीवाद की बेहतरी चाहिए थी तो सामंतों को अपने अधिकारों की सुरक्षा। लेकिन दोनों के हित टकराते थे। पूंजीपति उदीयमान शक्ति थे लेकिन उन की बेहतरी इस बात में थी कि देश में सामंती संबंध शीघ्रता से समाप्त हों। जमीनें और किसान सामंतों से आजाद हो जाएँ। किसान भी सामंतों से आजादी चाहते थे। लेकिन मजदूर वे ताकत थे जो पूंजीपतियों से बेहतर सेवा शर्तें चाहते थे और किसानों के ही पुत्र थे।  किसान और मजदूरों जल्दी संगठित और शिक्षित होना पूंजीपति वर्ग के लिए बहुत बड़ा खतरा था। क्यों कि ये ही थे जो पूंजीपति वर्ग के अनियंत्रित विकास के विरुद्ध था और अपने लिए बेहतर जिन्दगी की मांग करता था। आजादी के आंदोलन ने इसे असहयोग की ताकत को समझा दिया था। 
ही वह कारण था जिस ने पूंजीपति और सामंती वर्गों को एक दूसरे के सब से बड़े शत्रु होते हुए भी मित्रता के लिए बाध्य कर दिया, दोनों में भाईचारा उत्पन्न किया। अब दोनों की चाहत यही थी कि भारत की संसद में जो प्रतिनिधि पहुँचें वे उन के हित साधक हों लेकिन इतने होशियार, चंट चालाक भी हों कि किसानों, मजदूरों, खुदरा दुकानदारों आदि को एन-केन-प्रकरेण उल्लू बना कर हर पाँच वर्ष बाद चुन कर संसद में पहुँच जाएँ और उन के हितों की रक्षा करते रहें। आजादी के बाद का भारत का इतिहास इसी खेल की कहानी है। राजनैतिक दल इसी खेल का हिस्सा हैं। देश की नौकरशाही राजनैतिक दलों और प्रभुवर्गों के बीच संबंधों को बनाए रखने का काम करती है। यह खेल पर्दे के पीछे काले धन और भ्रष्टाचार के व्यापार के बिना चल नहीं सकता। इस व्यापार के दिन दुगना और रात चौगुना बढ़ने का कारण यही है। यह रुके तो कैसे? यही तो प्रभुवर्गों का प्राणरक्षक है।
क ओर दोनों प्रभुवर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाले दल हैं जो जनता को उल्लू बनाते हैं और हर पाँच वर्ष बाद संसद में पहुँच जाते हैं। दूसरी ओर किसानों और मजदूरों का प्रतिनिधित्व करने वाले दल भी हैं, लेकिन वे कमजोर हैं और बंटे हुए हैं। प्रभुवर्ग भी यही चाहते हैं कि इस श्रमजीवी जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली राजनीति कमजोर और बंटी हुई ही रहे। यही कारण है कि इन का प्रतिनिधित्व करने वाले दोनों बड़े दल और उन के सहायक दल जनता को बाँटने वाली राजनीति का अनुसरण करते हैं और जनता में विद्वेष फैलाने का कोई अवसर नहीं छोड़ते। चाहे वह सम्प्रदायवाद हो, जातियों पर बंटी हुई राजनीति, घोर अंध राष्ट्रवाद हो या कोई और तरीका। हमारी जनता की पुरानी मान्यताएँ इन का साथ देती हैं। इस के मुकाबिल श्रमजीवी जनता की राजनीति अत्यन्त कठिन और दुष्कर है। उसे इन सब चीजों से जूझना पड़ता है। जनता को लगातार शिक्षित और संगठित करना पड़ता है। श्रमजीवी जनता की राजनीति इसी काम में बहुत पिछड़ी हुई है। जनता के साथ संपर्क के साधनों और मीडिया पर दोनों प्रभुवर्गों का कब्जा उस के इस काम को और दुष्कर बनाता है। यदि श्रमजीवी जनता को मुक्त होना है तो उन के अगुआ लोगों को जनशिक्षण और जनसंगठन के कामों में तेजी लानी ही होगी। यही एक मार्ग है जिस से देश की श्रमजीवी जनता को जीवन की कठिनाइयों से मुक्ति प्राप्त हो सकती है और हम भारत को एक स्वस्थ जनता के जनतांत्रिक गणतंत्र बना सकते हैं।

सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

अनमाप, अनियंत्रित भ्रष्टाचार के सागर में आशा की किरणें भी हैं

ज सुबह अपने तीसरा खंबा ब्लाग की पोस्ट भ्रष्टाचार अनमाप अनियंत्रित पर आई दो टिप्पणियाँ बहुत महत्वपूर्ण हैं। इन में पहली टिप्पणी हमारे अजीज ब्लागर Blogger अजय कुमार झा की है। वे लिखते हैं ....

हां सर सच कहा आपने न्यायालय की ये टिप्पणी आज देश के हालत का आईना है । सबसे अहम बात ये है कि खुद न्यायपालिका मान रही है कि इस देश में आज सरकारें तक इस भ्रष्टाचार का पर्याय बन चुकी हैं ..अब इसका निदान कभी हो पाएगा ..कहना असंभव सा लगता है । मगर यदि धीरे धीरे और कठोरता से ...प्रयास वो शीर्ष से ही शुरू किए जाएं तो जरूर स्थिति बदले न सही और बदतर तो नहीं ही होगी । आज भी कार्यालय में अपनी तेरह वर्षों के नौकरी में देखता हूं तो यही पाता हूं कि मेरी ईमानदारी का मोल सिर्फ़ मुझ तक ही है .....अन्य के लिए उसका कोई महत्व या मतलब नहीं है । मगर मैं अडिग हूं .....सोचता हूं कि कल को किसी आधिकारिक मुकाम पर होऊंगा तो फ़िर मातहातों को खासी दिक्कत आएगी मुझ से ...और फ़िर शायद किसी डडवाल के लिए मुझे भी ....किरन बेदी की तरह बाहर का रास्ता दिखा दिया जाए ..

मैं जानता हूँ कि आज भी न केवल न्यायालयों में अपितु सभी सरकारी कार्यालयों में बहुत लोग ऐसे हैं जो भ्रष्टाचार से कोसों दूर हैं। वे अपने कर्तव्य को ईमानदारी के साथ अंजाम देते हैं। 1978 की बात है जब मैं ने वकालत के लिए बार कौंसिल में आवेदन कर दिया था लेकिन मेरा पंजीकरण नहीं हुआ था। मैं ने अदालत में काम सीखना आरंभ कर दिया था। हमारे सीनियर के मुंशी जी को कहीं जाना था। वे मुझे दो रुपए और कुछ नकल के टिकट दे कर कह गए कि एक नकल लेनी है, दो बजे तक तैयार हो जाएगी। उस के बाद जा कर बाबू को दो रुपए दे कर नकल ले लेना। मैं दो बजे के बाद बाबू के पास पहुँचा और उसे नकल देने को कहा। उस ने नकल तैयार कर दी थी। मैं ने दो रुपए बाबू को दिए। उस ने बहुत तेज तर्रार आवाज में मुझे कहा ये दो रुपए उठा लो और मुझे कभी पैसा देने की कोशिश मत करना। शायद मुंशी मुझे सिखाना चाहता था कि यदि बाबू को दो रुपए दोगे तो आगे से उसे इस राशि का लालच रहेगा और वह औरों से पहले आप का काम करेगा। लेकिन मेरे तो सर मुंड़ाते ही ओले पड़ गए थे। मुझे भी लगा कि मैं दो रुपए दे कर एक मनुष्य को मनुष्य होने से नीचे गिरा रहा हूँ। उस दिन का दिन है कि मैं ने कभी भी किसी को इस तरह का धन देने की कोशिश नहीं की। कोटा में मुझे इस की जरूरत भी महसूस नहीं हुई। क्यों कि अक्सर सारा स्टाफ जानने लगा कि यह वकील पैसे नहीं देता। लेकिन जब जरूरत पड़ती है तो जान लगा देता है। वह बाबू आज परिवार न्यायालय में मुंसरिम के पद पर कार्यरत है जो कि गैर न्यायाधीश वर्ग में सब से बड़ा पद है। उस ने पूरे जीवन किसी से कोई उपहार नहीं लिया। रिश्वत तो बहुत दूर की बात है। वह इसी के लिए ख्यात है। जिस अदालत में वह नियुक्त होता है वहाँ आने वाला अफसर भी जब तक वहाँ रहता है दुरुस्त रहता है। 
मैं ने अपनी वकालत के जीवन में सब से अधिक काम कोटा के श्रम न्यायालय एवं औद्योगिक न्यायाधिकरण में किया। वहाँ कार्यरत स्टाफ में पिछले तीस वर्ष में कोई भी ऐसा नहीं रहा जिस ने किसी भी काम के लिए, किसी से पैसा लिया हो। हम लोग कहते हैं कि ऐसी अदालत बिरले ही मिलेगी। इस का एक लाभ यह भी है कि अदालत के हर कर्मचारी को सभी का सम्मान मिलता है। निश्चय ही जब व्यक्ति कर्तव्यनिष्ठा के साथ काम करता है तो वह मनुष्य बना रहता है और उसे वैसा ही सम्मान मिलता है।
दूसरी टिप्पणी एक पाठक श्री राजेन्द्र जी की है, वे कहते हैं .....
सर क्षमा करें आप भी इसी तालाब में जीविका यापन कर रहे हैं जहाँ अगली तारिख लेने तक के पैसे तय होते हैं -में कभी स्वयम संलग्न होने पर अच्छी तरह देख चुका हूँ जज साहब को भले ही कुछ पता न हो पर जज साहब की श्रीमती जी सीधे पेशकार से हिसाब मांग लेती हैं नहीं तो लिस्ट तो पकड़ा ही देती हैं जो जो सामान आना होता है यह चलन पूरे भारत में निर्बाध चल रहा है कुछ प्रदेश अपवाद हो सकते हैं।
राजेन्द्र जी सही कह रहे हैं। यह चलन वास्तव में पूरे भारत में चल रहा है और मेरे विचार में शायद ही कोई प्रदेश इस का अपवाद हो। लेकिन हर प्रदेश में ऐसे कर्मचारी आप को हर स्थान पर मिल जाएंगे जो भ्रष्ट नहीं हैं। और गंदे तालाब में रहते हुए भी कमल के पत्तों की तरह तालाब का पानी उन पर चिपकता तक नहीं। यही लोग भविष्य के लिए आशा की किरण हैं। यदि ये लोग एकता बनाएँ और उन्हें जन समर्थन हासिल हो तो भ्रष्टाचार दूर भागता नजर आए।Delete