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बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

"मुक्ति पर्व" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का सत्रहवाँ सर्ग भाग-4

यादवचंद्र पाण्डेय
यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के  सोलह सर्ग आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं।  प्रत्येक सर्ग एक युग विशेष को अभिव्यक्त करता है। उस युग के चरित्र की तरह ही यादवचंद्र के काव्य का शिल्प भी बदलता है। इस काव्य के अंतिम  तीन सर्ग  वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े हैं। इस कारण उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। सत्रहवें सर्ग "मुक्ति पर्व" का चतुर्थ भाग यहाँ प्रस्तुत है,  मुक्ति पर्व में आ कर काव्य मुक्त छंद का रूप धारण कर रहा है ................
* यादवचंद्र *

सत्रहवाँ सर्ग


मुक्ति पर्व
भाग चतुर्थ
पिछले अंक में भाग तृतीय में आप ने पढ़ा था.....
................................
उस ने क्या जवाब दिया ?
उस ने 
उस चुड़ैल के मुहँ पर 
थूक दिया
जिस के चलते
मुझे और उसे
बाहर के हाते से
हटा कर 
फिर सेल में 
डाल दिया गया
और जेलर ने
जेल पुस्तिका में 
लिख दिया--गद्दार ! 
बागी !
देश द्रोही !
सभ्यता का शत्रु !
अब पिछले अंक से आगे भाग चतुर्थ में पढिए ......

हाँ,
तुम ठीक कहते हो दादा,
कि ये शब्द 
जेलर ने
अपने लोगों के लिए नहीं,
कभी नहीं लिखे,
ये शब्द 
हमीं कैदियों के लिए 
जब हमें
कत्ल करना होता है,
इस्तेमाल किए जाते रहे
यह जेलर
बड़ा कस्साई है दादा !
करघे पर बैठे
उस कैदी को देख रहे हो ?
कबीर नाम है -- 
पत्थर से बांध कर 
उसे नदी में फैंक दिया था
और वह सघन मूँछों वाला
कैदी नम्बर--एक
गोर्की नाम है --
भूखी नगमा को 
किस्सा सुनाने के जुर्म में
संगीनधारी जल्लाद
सूअर की तरह 
उसे देश विदेश 
खेदते रहे
मायकोवस्की 
लू-सुन, प्रेमचन्द
नजरूल-फैज-
राहुल-फ्रॉस्ट वगैरह
सब पर ऐसे ही इलजाम हैं
हम अपना दुख-दर्द 
खोल नहीं सकते
हम लिख नहीं सकते
हम बोल नहीं सकते
इस जेलर का इंसाफ
बड़ा खौफनाक है,
यह हमेशा
हमें ही 
दोषी ठहराता है
एक  बार भी
हमारे 
और उन के सम्बन्ध में
हमारी जीत नहीं हुई
उन की हार नहीं हुई
राजतन्त्र से -- 
प्रजातंत्र तक.
दादा;
हम सब चार अरब
उन्हें कत्तई मंजूर नहीं
तो फिर, अब सुन लो--
हमारी सुविधा
उन्हें स्वीकार नहीं
तो उन की सुविधा भी 
हमें अङ्गीकार नहीं।
हमारे धर्म
उन के हित
अहितकर हैं
तो उनके धर्म भी
हमारे पैरों में 
पैकर हैं।
हमारी दास्ताँ से 
उन्हें उबकाई आती है,
उन का संसार
उन की मानवता
बदनाम हो जाती है
तो उन के भी
इतिहास से
हमारा दम घुटने लगता है
हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं
और हमारी मानवता
शर्म से 
जमीं में गड़ जाती है
हमारा शोषण
उन के विधि 
विधान
और शासन का कर्म है
तो फिर 
उन से मुक्त होना
हमारा भी धर्म है। 

...............................कविता अगले अंक में जारी रहेगी

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

"मुक्ति पर्व" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का सत्रहवाँ सर्ग भाग-3

यादवचंद्र पाण्डेय
यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के  सोलह सर्ग आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं।  प्रत्येक सर्ग एक युग विशेष को अभिव्यक्त करता है। उस युग के चरित्र की तरह ही यादवचंद्र के काव्य का शिल्प भी बदलता है। इस काव्य के अंतिम  तीन सर्ग  वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े हैं। इस कारण उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। सत्रहवें सर्ग "मुक्ति पर्व" का तृतीय भाग यहाँ प्रस्तुत है,  मुक्ति पर्व में आ कर काव्य मुक्त छंद का रूप धारण कर रहा है ................
* यादवचंद्र *

सत्रहवाँ सर्ग


मुक्ति पर्व
भाग तृतीय

पिछले अंक से आगे ......

...... 
और यह कविता ---
वेश्या है  !
विद्यापति - केशव - भूषण
बैरन - कीटस् - पोप
कौन नहीं था वहाँ ....
उस के साथ उन के 
क्या रिश्ते थे ? 
बहुत तो पीते भी थे
उमर खैयाम
जिसे जामे शराब में
अल्ला का 
दीदार हो जाता था
लेकिन मेरी जहालत 
उसे नहीं दिखाई देती थी
और,
जब मैं 
अपने जिस्म के 
फोड़ों के दर्द से 
चीख उठत
तो यह कविता
मुझे मूर्ख कहती थी
मुझे चुप रहने का
आदेश कराती थी
आत्मतोष का 
प्रवचन सुनवाती थी
तब मेरे फोड़ों पर
दो - चार हंटर
और पड़ जाते 
और मेरे घाव ...
मुक्ति पुरुष !
आज तुम ने
मुझे छेड़ा है
मेरे फफोलों को 
खुरचा है,
मैं आज तक 
सच नहीं बोला था
(बोला ही नहीं था)
लेकिन 
आज सुन लो
सच कहता हूँ -
जी में आया
कि इन शास्त्रों में
आग लगा दूँ
और जेलर के 
उन भड़ैतों को 
और इस वेश्या को 
उठा कर 
उसी में फेंक दूँ
लेकिन .......
इस वेश्या को 
अपना पाठ पढ़ा कर
(साहित्य पढ़ा कर)
हर बार जेलर 
मेरे पास भेजता था
मेरी पीठ पर 
संगीन टिकी होती थी
यह चुड़ैल
घण्टों बक - झक करती
और मैं
जेल के
खेत गोड़ता
या बिक्री के 
जूते सीता
चुप - चाप सुना करता था
यह राक्षसी
मेरे दर्द
मेरी खैरियत
और मेरी मुक्ति के सिवा
हर बात करती थी
और फिर
जेलर के 
लोगों के साथ
फरनासस--
या, कहाँ जाती थी
क्या करती थी,
हम में से
किसी को नहीं मालूम

एक दिन 
कह रही थी 
कि मेरी 
हर बात याद कर लो
तुम्हें भी
मेरी तरह
सब मौज आराम
नसीब हो जाएगा

और मार्क्स दादा !
जानते हो
सेल नम्बर - 6 की
उस लड़की को ?
नगमा नाम है उस का--
उस ने क्या जवाब दिया ?
उस ने 
उस चुड़ैल के मुहँ पर 
थूक दिया
जिस के चलते
मुझे और उसे
बाहर के हाते से
हटा कर 
फिर सेल में 
डाल दिया गया
और जेलर ने
जेल पुस्तिका में 
लिख दिया--गद्दार ! 
बागी !
देश द्रोही !
सभ्यता का शत्रु !

...............................कविता अगले अंक में जारी रहेगी

रविवार, 19 सितंबर 2010

"मुक्ति पर्व" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का सत्रहवाँ सर्ग भाग-2


यादवचंद्र पाण्डे
यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के  सोलह सर्ग आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं।  प्रत्येक सर्ग एक युग विशेष को अभिव्यक्त करता है। उस युग के चरित्र की तरह ही यादवचंद्र के काव्य का शिर्प भी बदलता है। इस काव्य के अंतिम  तीन सर्ग  वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े हैं। इस कारण उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। सत्रहवें सर्ग "मुक्ति पर्व" का द्वितीय भाग यहाँ प्रस्तुत है,  मुक्ति पर्व में आ कर काव्य मुक्त छंद का रूप धारण कर रहा है ................
* यादवचंद्र *

सत्रहवाँ सर्ग


मुक्ति पर्व
भाग द्वितीय


पिछली कड़ी में आप ने पढ़ा .....

या फिर 
मुझे फुसलाते हो
कि मैं 
अपनी बिरादरी से 
गद्दारी करूँ
अपने गिरोह में 
खुफियागिरी करूँ
अपने परिवार पर 
झूठा इलजाम गढ़ूँ
और उन के हिस्से का 
दो फाइल खाना
तुम मुझे दोगे
मैं खाऊँगा
औ तुम्हारे धर्म
उसे भाग्य का 
अटूट नियम बता कर
मेरे कुकृत्यों पर 
पर्दा डालेंगे !
लेकिन मैं ?
मैं तुम्हारे चेहरे पर थूक दूंगा
आ ----- थू !
आक् ----- थू !
आक्  थू -- ह !
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
अब आगे पढ़ें .......
तुम कौन हो ? 
मेरे सिर पर 
यह प्यार भरा हाथ
क्यों फेर रहे हो ?
......      ........     ........
हाथों का यह स्पर्श 
......      ........     ........
उफ, याद नहीं आता.....  !
हाँ,
बचपन में 
जेलर के चुपके
एक दिन 
मेरी माँ ने भी
ऐसा ही
ऐसा ही था वह स्पर्ष  !
जब कि 
जेलर ने
माँ से 
मुझे छीन लिया
और मैं
साइबेरिया
अण्डमान
मडागास्कर
भेज दिया गया
काठ के लम्बे - चौड़े
बक्सों में बन्द कर 
मुझे समुद्र की 
लहरों में फेंक दिया गया
और मेरी माँ
.....     .....     .....     .....
कुछ याद नहीं आता
.....     .....     .....     .....
कौन हो तुम
ओ घनी दाढ़ी वाले
महाकाय, निर्भय पुरुष  !
तुम कौन  हो  ?
तुम भीगी - भीगी आँखों से 
मुझे क्यों देख रहे हो  ?
अपने विशाल वक्ष में
चिपका कर 
मुझे क्यों भींच रहे हो
ओ दिव्यचेता  !


तुम चाहते क्या हो  ?
मेरे पाँवों में पैकर
और हाथों में
बेड़ियाँ हैं,
मैं तुम्हारा 
क्या स्वागत करूँ  ?
मेरी हर साँस 
मेरे लिए 
नागन बन गई है,
सूरज - चांद - तारे भी
खुफिया बन कर 
मेरी हर हरकत पर
नजर रखते हैं
मैं तुम्हारी क्या सुनूँ ?
मेरे जीवन का 
हर चरण, छन्द
हर ध्वनि, अर्थ
हर राग - विराग
मेरा उल्टा बिम्ब है
मेरी हर इकाई को ले कर 
चाहे जितने फार्म बन जाएँ
लेकिन उन में 
मेरा अपना कुछ नहीं,
जेलर का अपना है
मेरा सपना 
जेलर का सपना है
तुम्हारा स्नेह - स्पर्श
शीतल हो कर भी
मेरे शब्द - ज्ञान द्वारा
मुझे जला रहा है
ओ अमृत पुरुष  !
तुम्हारे चरक - सुश्रुत
की हर खुराक
मेरे व्याधि अनल में
तेल ही डालेगी
मेरे सिर से
अपने हाथ हटा लो
ओ युगाधार  !
इस यज्ञ में
अब और घृत मत डालो
मेरे खून से तर
फटे - चिटे वस्त्रों को 
सूलियों के नीचे से
ला - ला कर 
यहाँ अम्बार 
क्यों लगाते हो  ?
महाबाहो  !
आखिर तुम 
चाहते क्या हो  ?
मुक्ति  ?
लेकिन किस की  ?
उस वर श्रेष्ठ की 
जो हमारे 
दुश्मन की कारा में
आज
चार हजार वर्षों से 
कैद है
और जिस के बिना 
कवि की कविता 
आज तक 
अनब्याही है  ?
लेकिन 
तुम नहीं जानते
अब वह वेश्या है  !
मुझ से छीन कर 
फिरदौसी ने
उसे जेलर की 
कोठरी में नचाया
कालिदास, बाणभट्ट
भवभूति ने 
उसे नंगा नचा कर 
जेलर से पैसे कमाए
उस के शास्त्रों में
नाम कमाया,
होमर
और उस के ईलियड से पूछो
उस के सामने 
मुझ पर हंटर बरसाये जा रहे थे
मेरी चमड़ी उधेड़ी जा रही थी
और वह 
मुझ से आँख चुराये
अपना श्रंगार कर रही थी
शास्त्रों के मंगलाचरण 
और भरत वाक्य पढ़ कर देख लो
वह हँस - हँस कर 
मुझे शान्त रहने का
आदेश दे रही थी,
कभी जेलर के साथ
कभी उस के भगवान के साथ
(पता नहीं
भगवान क्या था
कैसा था
मैं ने उसे 
नहीं देखा
लेकिन, हर सुबह - शाम
मैं जेलर की 
कोठरी के सामने
बने एक विशिष्ट मकान में
लाया जाता था 
और मुझे 
समझा कर
भय - त्रास दिखा कर 
उस भगवान पर 
यकीन कराया जाता था)
रंगरेलियाँ मनाती रही,
मुझे छोड़ कर 
वह 
हर शख्स के साथ जाती रही
जो मुझे मारता था
मेरा खून बहाता था
मुझे खाना नहीं देता था
मुझे रोने नहीं देता था
या मेरी बेड़ियों को 
मजबूर हो कर देखता था
और मेरे घर की 
औरतों को
सामान कह कर बेच देता था 
और यह कविता ---
वेश्या है  !


...............................कविता अगले अंक में जारी रहेगी

सूचना - 
मित्रों ! कुछ कारणों से एक-दो दिन या कुछ अधिक अंतर्जाल संबंध विच्छेद रहेगा। आप को अनवरत के अगले अंक की प्रतीक्षा करने के लिए कष्ट उठाना पड़ेगा।

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

"मुक्ति पर्व" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का सत्रहवाँ सर्ग भाग-1

यादवचंद्र पाण्डे
यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के  सोलह सर्ग आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं।  प्रत्येक सर्ग एक युग विशेष को अभिव्यक्त करता है। उस युग के चरित्र की तरह ही यादवचंद्र के काव्य का शिर्प भी बदलता है। इस काव्य के अंतिम  तीन सर्ग  वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े हैं। इस कारण उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। सत्रहवें सर्ग "मुक्ति पर्व" का प्रथम भाग यहाँ प्रस्तुत है,  मुक्ति पर्व में आ कर काव्य मुक्त छंद का रूप धारण कर रहा है ................
* यादवचंद्र *

सत्रहवाँ सर्ग


मुक्ति पर्व
भाग प्रथम


तुम्हारी सभ्यता के 
हजारों वर्षों में
मेरी कविता
 
अनब्याही रही,
क्यों कि
उस का मंगेतर
जो धरती की
सभ्यता, संस्कृति
सुख, सौष्ठव
ज्ञान, विज्ञान
औ समृद्धि का
हकदार था
तुम्हारी कारा का
कैदी है

बचपन में
तुम ने उसे
बहलाया - फुसलाया
पूतना की तरह
दूध पिलाया
और चण्डाशोक की तरह
उस के गोत्र के
हर औरत-मर्द को
कत्ल किया
औऱ जो भाग निकले ?
उन पर
इतिहास - भूगोल
दर्शन - ज्ञान
विज्ञान - धर्म
साहित्य - विधि
कानून - नीति
औ संविधान के
हथियार बंद पहरे बिठाये

तुम ने 
जिन पर रियायतें की
उन को
लम्बी सजाएँ सुनाई -
कि चार हजार वर्ष
सश्रम कारावास के बाद
उन्हें जेल के
बाहरी हाते में
घूमने - फिरने की
छूट मिलेगी
उन्हें
उन के श्रम का
एक हिस्सा भी मिलेगा
हाँ, 
यह सब
संगीनों की
छाँव में होगा
मैं गवाह हूँ
इन बातों का
गवाह है -
मेरी पीठ का
हर काला निशान
गवाह है -
मेरी भूख 
गुर्बत
जहालत और फटेहाली की
दम तोड़ती
उखड़ी - उखड़ी चलती
मेरी हर साँस
गवाह है -
तुम्हारी नपुंसक मुसकान
जो झूठी सभ्यता
औ संस्कृति का 
लबादा ओढ़े,
हिजड़ों - बौनों
औ कुबड़ों की
अपनी महफिल में 
रामगुप्त की तरह
जिन्दा होने का
स्वांग भर रही है
गवाह हैं
उस धरती के 
चार अरब लोग
जिन का जन्म 
तुम्हारी कारा में हुआ
और आज वे 
बालिग हो गए हैं
वे आज भी
तुम्हारी दरी बुनते हैं
बोझ उठाते हैं
जूते, बॉक्स 
औ पर्स बनाते हैं
सामने के हाते में
आलू - गोभी
टमाटर उगाते हैं
रस भरे गन्ने
औ छीमियों की  
कतार सजाते हैं
पानी पटाते
गुलाब में
जो तुम्हारे बटन होल
या जेलर ऑफिस -
की मेज पर 
जीवन के
अनुराग की तरह
दमक रहे हैं।
मतलब कि 
दरी से -
पेन्सिलिन और रॉकेट तक,
टमाटर से -
मसाला और कॉफी तक,
जिन्हें बेच कर 
अरबों - खरबों की 
तुम रकम कमाते हो
(लूट लाते हो)

तुम अपनी अदालत में
हम से
वही कबूल कराते हो
जो तुम 
कहना चाहते हो। 
हमें भूखा मार कर 
अपने स्कूल कॉलेजों में
बयान तहरीरी रटवाते हो
मण्डन मिश्र के 
तोते की तरह

या फिर 
मुझे फुसलाते हो
कि मैं 
अपनी बिरादरी से 
गद्दारी करूँ
अपने गिरोह में 
खुफियागिरी करूँ
अपने परिवार पर 
झूठा इलजाम गढ़ूँ
और उन के हिस्से का 
दो फाइल खाना
तुम मुझे दोगे
मैं खाऊँगा
औ तुम्हारे धर्म
उसे भाग्य का 
अटूट नियम बता कर
मेरे कुकृत्यों पर 
पर्दा डालेंगे !

लेकिन मैं ?
मैं तुम्हारे चेहरे पर थूक दूंगा
आ ----- थू !
आक् ----- थू !
आक्  थू ---- ह !

**************
अगले अंक में जारी..........

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

"मृगतृष्णा" (बुर्जुआ जनतंत्र) यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का सोलहवाँ सर्ग भाग-2

यादवचंद्र पाण्डेय
यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के  पंद्रह सर्ग आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं।  इस काव्य के अंतिम  तीन सर्ग  वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े हैं। इस कारण उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। इस काव्य के सोलहवें सर्ग "मृगतृष्णा (बुर्जुआ जनतंत्र)" का प्रथम भाग आप पढ़ चुके हैं यहां द्वितीय भाग प्रस्तुत है ................
* यादवचंद्र *

सोलहवाँ सर्ग
मृगतृष्णा (बुर्जुआ जनतंत्र)
भाग द्वितीय
 
जब तक यह जंतर-तंतर है, बुढ़िया डायन का मन्तर है
मन्तर का रक्षक है विधान, उस के पहरे पर लश्कर है
 
इन्साफ धर्म की गद्दी पर 
ईश्वर है और महीश्वर है
तब तक न सुरक्षित है पूंजी
जब  तक विषधर का गव्हर है
 
गव्हर में कैद करो अहि को, फन को तोड़ो, जनता को टेरो
यन्त्रों को चाहिए जन बल, मत सोचो, बस, समता को टेरो
तुम वट विशाल की छाँव तले बिरवा रोपोगे-क्या होगा ?
पील पड़ कर मर जाएगा, माथा ठोकोगे-क्या होगा ?
 
धुंधुँआती ज्वाला को मारो
दो  फूँक, जगा दो - मत सोचो
तूफान उठा जो उसे बुला कर 
राह दिखा दो - मत सोचो
 
उखड़ेंगे नभचुम्बी पादप, तुम तो बौने हो - मत सोचो
सोचे जो लिए बुढ़ापा है, तुम तो छौने हो - मत सोचो 
 
अधिकार हीन जो इतर वर्ग, उस में तुम भी हो, ख्याल रहे
उत्पादन यन्त्रों के मालिक अब तो तुम ही हो, ख्याल रहे
यन्त्रों की मुट्ठी में जन बल है
 
और तन्त्र यह-ख्याल रहे
इस प्रजातंत्र के माने तुम हो
महामान्य यह, ख्याल रहे
 
बाजार गरम रखने को संचय करो कोयला, जन बल का
अब मिल के भीतर-बाहर जग में बजे नगाड़ा जय-जय का
रुढ़िग्रस्त यह फटा-पुराना महल खड़ा जो, उसे ढाह दो
अपने दुश्मन के प्रतिपक्षी-जनता को तुम उठो, बाँह दो
मात्र आज के तुम विकल्प हो
 
मत जाने दो वृथा आह को
विष का थोड़ा अंश मिले
शिव बन, कर लो कण्ठस्थ दाह को
 
करवालो सिंहासन खाली पहले, फिर लिक्खो विधान को
अपने वेद-पुराण-शास्त्र को, धारा में विज्ञान-ज्ञान को

विश्वासों के मोती बिखरे बनो रेशमी धागा
आज लोक की आशा में आगे बढ़ कर 'हाँ' कर दो
किरण बनो, फैलो विकास के नये क्षितिज बन, उभरो

हतभागों के भाग्योदय का उचरो बन तुम कागा
नव मूल्यों के प्रति उदार तुम करो न पीछा आगा

चरण-धूलि ले शीश चढ़ाओ,  जनता की जय बोलो
मान नये, उपमान नये, इतिहास नये तुम खोलो

कोटि-कोटि जन जड़वत अधरों पर हास-राग है जागा
 
प्रजातंत्र जीने की पद्धति है, तुम को है जीना
तार-तार जो कोटि हृदय हैं, आज तुम्हें सीना है
घर को छोड़ चले उन को भी खाना है, पीना है
सोना चांदी क्या है ? है माथे का तरल पसीना

जीवन लेन-देन का सौदा कड़ा करो अब सीना
बनिक तुला पर जैरूसेलम, काशी नपे मदीना
 
बेड़ियाँ टूटीं प्रभञ्जन वेग से 
सिद्धियों के द्वार खट-खट खुल गये
जिन्दगी के मान जो बिलकुल नये
भर कुलाचें मञ्च पर हैं आ रहे

खोलते मुट्ठी बरसता अन्न है
सप्त रंगे वस्त्र का अम्बार है
हुक्म भर की देर है इस दैत्य को
दुष्प्राप्य क्या ? हर वस्तु इस को लभ्य
 
यन्त्र  चालित तन्त्र पढ़ते मन्त्र हैं
चरचरा कर ब्रह्म गँवई गिर पड़े
आग खा कर जो उगलते धुआँ
दैत्य करते रव-विजन में है खड़े

नापते भूगोल डग से घड़ी में
चीरते हैं सिन्धु ज्यो कच्चा घड़ा-
डोर दे कर पड़ित खच्-सा काटता,
फाड़ते हैं गगन कदली - वीर -  सा

दैत्य की यह शक्ति हो बसवर्तिनी
किस तरह, किस की, यही दो प्रश्न हैं
जो इसे बस में करे, उस के लिए
अर्थ, धर्म, कामादि सब कुछ देय
 
अर्थ का दे नाम युग - मन्थन करो
अमिय घट निश्चित निकलना जान लो
सर्वहारा को थमा दो काल - मुख
स्वयं पकड़ो पूँछ वैतरणी तरो

पाँत में बैठो, बिठाओ दलित को
पर बचाओ अमिय-भक्षण से उसे
प्रश्न भावी युद्ध का ध्रुव है, अभी
सत्व, शासन पर उभय पद की नजर

दैत्य युग के हैं खड़े सम भाव से
बन्द कर दो त्वरित उन को बैंक में
और जो सामन्त तुम से क्रुद्ध हैं
्ब हिले उन दाँत को पोटाश दो

शक्ति जो सन्मुख तुम्हारे जुड़ रही
केन्द्र उन के गाँव हैं, औ गाँव को
गाँव में ही बन्द कर लो, डोर दे
ढहे सामन्ती घरों को मदद दो

वे सहारा खोजता आधार वह
है यही मौका, न चूको, खींच लो
स्वार्थ उस का अब न रक्षित है कहीं
अहम् उस का मर गया, तर्पण करो

कहो, उट्ठे, चाकरी तेरी करे
टिम-टिमाए, विभा तुम से कर्ज ले
पढ़े तेरे विधि-विधानों को, समझ,
देख ले, जो छूट है उस को मिली

वह कटा विज्ञान युग से, नहीं तो
आज का भूगोल लख मर जायगा
खैर, गित को मैं पढ़ूंगा, वह रहे
खाता-कमाता मदद में मेरी खड़ा

पूर्ववर्ती शक्ति है वह, इसलिए
छूट उस को दे रहा हूँ, नहीं तो
अमरिका की भाँति सारे विश्व से
एक क्षण में मैं उसे देता मिटा

दिखा देता यन्त्र की जादूगरी
अर्थ के दो हाथ मैं देता बता
अलग से व्यापारियों का तन्त्र क्या?
प्रजातन्त्री खोज में ही वह खड़ा

राजतन्त्री खोल पर मैं ने लिखा
प्रजातन्त्री बोल को इंगलेंड में
राष्ट्रवादी 'सोसलिज्म खेल' को 
जर्मनी में अजी मैं ने ही रचा
 
शुद्धतम राष्ट्रीयता की बन लहर
दुश्मनों पर कहर बन मैं टूटता
किन्तु, अपने विश्व में बिखरे हुए
बान्धवों लड़ी प्रतिपल जोड़ता

जोड़ने की युक्ति ही है सभ्यता
तोड़ने की कला ही कानून है
प्रश्न सीधा और उलटा का नहीं
पुष्टि में मेरे, वही मजमून है

दुश्मनों से जो लड़े मेरे लिए
धर्म है, साहित्य है, आदर्श है
जो मिलाए हाथ मेरे शत्रु से
घोषित हमारे मूल्य का वह शत्रु

'प्रज्ञा' मेरे कोष का वह शब्द है
व्याप्ति जिस की मात्र मेरे लोग से
और उस का तन्त्र ? जिस की राह पर
सिर्फ मेरे स्वार्थ की दूकान हो

'प्रजा द्वारा, प्रजा का, जो प्रजा हित
तन्त्र - उस के मन्त्र का गुर है यही
अर्थ इस के परे के सब व्यर्थ हैं
अर्थ सच्चा, जो खरा व्यवहार में

'प्रजा' मेरी कत्ल करती है उसे
जो प्रजा का अर्थ बहुमत मानते
और पूंजीवादियों को बाद दे
तन्त्र रचते दलित, शापित वर्ग का
 
या कि मेरी ही तरह संसार के
सभी शापित को पिरो कर सूत्र में
अलग अपने विधि-विधानों को बना
बात करना चाहते  हम से अलग
सापेक्ष राजा का प्रजा है शब्द
पर गनीमत, श्रमिक को जो मान्य,
मान्य जो उस को, उसी के शब्द में
भुक्खड़ों की आग को कर के नियन्त्रित
मिलों की इन
लपलपाती
भट्टियों में झोंक दो
ढक्कन गिरा दो
और इन की
चाल को
दूनी बढ़ा दो
गेट पर 
पहरे बिठा दो
भूत इन के
गर,
उपद्रव करें तो
फौजें बुला लो
कामगारों 
को बता दो
'न्याय- 
शासन दण्ड की अभिव्यक्ति है'
हाँ, आज मेरे यन्त्र में ही 
प्रजा की सब शक्ति है।
 
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